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प्राध्यापक नियुक्ति : ओबीसी को मिले एससी-एसटी के तर्ज पर आरक्षण, कानून मंत्रालय ने किया प्रस्ताव

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर सहमति के बाद विरोध के स्वर तेज होने पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी। लेकिन अब वह इस फैसले को बदलने के लिए अध्यादेश लाने जा रही है। वहीं कानून मंत्रालय ने ओबीसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है। फारवर्ड प्रेस की खबर :

अध्यादेश के जरिए सरकार बदलेगी सुप्रीम कोर्ट का फैसला

चुनावी वर्ष में केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार दलित-बहुजनों के पक्ष में एक के बाद एक कई अहम फैसले ले रही है। पहले पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देना और फिर एससी-एसटी एक्ट के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने के लिए मानसून सत्र में नया संशोधन विधेयक लाने के बाद अब केंद्र सरकार ने एक बार फिर अहम निर्णय लिया है। उसका यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को बदल देगा, जिसमें उसने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले पर मुहर लगाई थी, जिसके कारण उच्च शिक्षा में आरक्षित वर्गों के प्रतिनिधित्व को लेकर कई सवाल खड़े हो गए थे। सरकार इसके लिए एक अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है और इसका प्रारूप सभी संबंधित मंत्रालयों को भेजा जा चुका है। इस बीच कानून मंत्रालय ने इस मामले में एक सवाल खड़ा किया है, जो कि ओबीसी वर्ग के अभ्यर्थियों से जुड़ा है।

कानून मंत्रालय ने पूछा है कि जब एससी और एसटी वर्ग के अभ्यर्थियों को शिक्षक नियोजन के क्रम में तीन स्तरों पर आरक्षण मिल सकता है, तो फिर ओबीसी वर्ग के अभ्यर्थियों को क्यों नहीं?

बताते चलें कि वर्तमान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के अभ्यर्थियों को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर आरक्षण मिलता है। जबकि ओबीसी अभ्यर्थियों को केवल असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए आरक्षण दिया जाता है।

केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं करेगी सरकार

आगे बढ़ने से पहले आपको बताते चलें कि सरकार ने मिशन-2019 को लेकर हाल में ही सभी मंत्रालयों को अपने स्तर पर ओबीसी के लिए ज्यादा-से-ज्यादा योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए पहल करने को कहा है। इसी के तहत कानून मंत्रालय ने सवाल पूछा, लेकिन इस पर कहा जाता है कि मानव संसाधन मंत्रालय ने जवाब दिया है कि वह उच्च शिक्षा में शिक्षक भर्ती को लेकर फिलहाल पुरानी परिस्थितियों के बदलाव के पक्ष में नहीं है। इससे बेहतर उसे लग रहा है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई शुरू हो जाए तो वह ज्यादा अच्छा हो। एमएचआरडी ने अध्यादेश जारी करने से पहले इसे सभी मंत्रालयों की राय के लिए भेजा था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से शुरू हुआ विवाद

दरअसल, यह अध्यादेश 2017 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए लाया जा रहा है। इस फैसले में विश्वविद्यालय में पदों की कुल संख्या के आधार पर संकाय में आरक्षण को हटाकर इसे विभागीय बनाया था। यानी इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद यूजीसी ने फैकल्टी आरक्षण की नई व्यवस्था लागू करने की घोषणा की थी। इसके तहत कुल पदों की गणना संस्थान के आधार पर करने की बजाय विभाग के आधार पर करने की व्यवस्था की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था। लेकिन इस फैसले के गंभीर परिणाम होने की आशंका जताई गई थी, क्योंकि इससे एससी-एसटी फैकल्टी सदस्यों के लिए उपलब्ध पदों की संख्या में कमी आ सकती थी। अब तक अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सभी संकाय स्तरों पर, लेकिन ओबीसी के लिए केवल प्रवेश स्तर- एसोसिएट प्रोफेसर -पर आरक्षण था। यह सिलसिला 2006 से चला आ रहा है।

यूजीसी ने 5 मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को लागू कर दिया और इसके बाद केंद्रीय और राज्यों के विश्वविद्यालयों में भर्ती शुरू भी हो गई। भर्तियों के बाद देखा गया कि इस नए नियम की वजह से दो-तिहाई पद अनारक्षित वर्ग को चले गए।

कानून मंत्रालय का तर्क

कानून मंत्रालय ने सवाल उठाया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों की तरह ही ओबीसी के लिए आरक्षण में समान दृष्टिकोण क्यों न रखा जाए और अध्यादेश में इस विसंगतिको क्यों नहीं ठीक कर दिया जाना चाहिए।

इकाेनाॅमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कानून मंत्रालय के द्वारा सवाल खड़ा करते ही एचआरडी मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एक नए पेंच में फंस गए हैं। क्योंकि, इस पर अमल से आरक्षण फार्मूले का विस्तार स्वाभाविक है और इसके चलते सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर सरकार के लिए कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली

जानकारों का कहना है कि एचआरडी मंत्रालय और यूजीसी आरक्षण के फार्मूले में उसी स्थिति को बहाल करने में रुचि रखता है, जो हाई कोर्ट के फैसले से पहले मौजूद थी। यानी अगर वह संतोषजनक है, तो उसमें कोई छेड़छाड़ न की जाए। माना जा रहा है कि चुनावी वर्ष में किसी तरह का बदलाव करना सरकार को महंगा पड़ सकता है। हाई कोर्ट के आदेश के बाद- जिसमें संकायवार नहीं, बल्कि विभागीय स्तर पर कोटे का आदेश दिया गयायूजीसी ने 5 मार्च को एक सर्कुलर जारी किया था, जिसके बाद विश्वविद्यालयों और संसद में खासा हंगामा हुआ।

खबर है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अपने आकलन से भी पता चला है कि नया फॉर्मूलालागू करने से आरक्षित पदों में 50-60 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। हाई कोर्ट के फैसले से पहले भी फैकल्टी में आरक्षित पद बड़ी संख्या में खाली रहते थे। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण मामलों की संसदीय समिति ने तुरंत इस मामले काे संज्ञान में लिया था, जिसके बाद एमएचआरडी मंत्रालय ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

विवाद की पूरी पृष्ठभूमि

7 अप्रैल 2017 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि विभाग को यूनिट मानकर आरक्षण लागू किया जाए। 6 सितंबर 2017 को एमएचआरडी ने यूजीसी से कहा कि कमेटी बनाकर आदेश का परीक्षण किया जाए। 5 मार्च 2018 को यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों से कहा कि विभागों को ही यूनिट मानकर आरक्षण लागू हो। 18 जुलाई 2018 को संसद में मामला उठा और 19 जुलाई को यूजीसी ने भर्ती रुकवा दी। मामले में 13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, लेकिन सरकार सफल नहीं हो सकी।

इलाहाबाद हाई कोर्ट

दरअसल, सभी विश्वविद्यालयों में 2006 से आरक्षण का रोस्टर लागू है। इसके तहत विश्वविद्यालय को इकाई मानकर ओबीसी और एससी-एसटी के लिए आरक्षण लागू किए जाता था। नियम के हिसाब से भर्तियों में 15 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जाति, 7.5 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 27 फीसदी आरक्षण ओबीसी के लिए तय है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 7 अप्रैल 2017 को एक याचिका के पक्ष में फैसला दिया। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गया, पर राहत नहीं मिली। हाई कोर्ट के फैसले को लागू किया गया, तो केंद्रीय और राज्यों के विश्वविद्यालयों में भर्ती शुरू भी हो गई। हाई कोर्ट के मुताबिक, पुराना तरीका पक्षपाती और अतार्किक है और संविधान के आर्टिकल-14 और 16 का उल्लंघन है। लेकिन, नई भर्तियों के बाद सामने आया कि इस नए नियम की वजह से दो-तिहाई पद अनारक्षित वर्ग को ही चले गए, तो जाहिर है कि इससे और भी बड़ी समस्या खड़ी हो गई।

(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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