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चिंतन के जनसरोकार

इस किताब के लेखक प्रेमकुमार मणि हैं। यह उत्तर भारत के वंचित तबकों की राजनीति, समाज, साहित्य व संस्कृति पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। विभिन्न पुस्तक विक्रेताओं और ई-कामर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध। विशेष छूट! शीघ्र आर्डर करें

पुस्तक में शामिल लेखों के विषय विविधतापूर्ण है, पर मूल चिंता समाज में ऐसे बदलाव की है जो समतामूलक और न्यायपूर्ण हो। यह शोषण के विविध रूपों को खत्म करने पर ही संभव हो सकता है और इसके लिए व्यापक बहुजन को क्या करना होगा, यह चुनौती सामने रखी गई है। यहां अलग-अलग लेखों पर विचार कर पाना संभव नहीं हो सकेगा, लेकिन कुछ मूल मुद्दों को सामने रखना जरूरी है जो इस किताब में शामिल लेखों से उभर कर सामने आए हैं। लेखक का मानना है कि अब संघर्ष के पुराने तौर-तरीकों से काम नहीं चलने वाला है। इसके पीछे जो मूल कारण रहा, वह है नेतृत्व का। अभिजन और उच्च वर्ण का नेतृत्व मेहनतकश के संघर्षों को उसके अंजाम तक पहुंचा पाने में असफल हुआ है। विचारधारा के नाम पर मार्क्सवाद की बात करने वाला यह नेतृत्व अपने संस्कारों में उच्च वर्गीय ही बना रहा और जाति संबंधी श्रेष्ठता की ग्रंथि भी इसमें रही। इसने बहुजन यानी निम्न जातियों से आने वाले मेहनतकशों का इस्तेमाल महज वोट बैंक के रूप में किया है और बहुजन सिर्फ छला गया है, इस बात को समझना बहुत ही जरूरी है। जिस दलित आंदोलन और बहुजनवाद की बात प्रेमकुमार मणि इस किताब में करते हैं, वह परंपरागत दलित आंदोलन से गुणात्मक रूप में भिन्न है, न कि उसकी एक अगली कड़ी है। (वीणा भाटिया, लेखक)

 

किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?

दंतहीन और विषहीन सांप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर सकता। उसकी विनम्रता, उसका क्षमाभाव अर्थहीन है। बुद्ध ने कहा है जो कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता। उनकी अहिंसक सभ्यता में भी फुफकारने की छूट मिली हुई थी। जातक में एक कथा में एक उत्पाती सांप के बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है। बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों को काटना-डंसना छोड़ दिया है, तो उसे ईंट-पत्थरों से मारने लगे। इस पर भी उसने कुछ नहीं किया। ऐसे लहूलुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गए और कहा, “मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं। तुम्हारी फुफकार से भी लोग भाग जाते।” (इसी पुस्तक से)

‘चिंतन के जनसरोकार’ का कवर पृष्ठ

आर्थिक उदारीकरण और दलित

दलित-बहुजन मुक्त अर्थव्यवस्था का न ज्यादा अभिनंदन कर रहे हैं और न ही उससे ज्यादा भयभीत हैं। ग्लोबल अर्थव्यवस्था ने देशी बनिया-ब्राह्मणवादी अर्थव्यवस्था को चुनौती दी है और उम्मीद की जाती है कि अंतत:,वह उसे ध्वस्त कर देगी। इसे बहुजन नजरिया सकारात्मक मानता है। लेकिन आखिर क्या है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और नेहरु युग की समाजवादी अर्थनीति दोनों से बहुजन व्यामोह पालते हैं? यह व्यामोह इसलिए है कि दोनों ने ब्राह्मण सामंतवादी अर्थनीति पर चोट नहीं की। नेहरु युग में हुए आर्थिक विकास को सामाजिक विाकास से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सका। इसलिए इसका अपेक्षित फायदा दलित-पिछड़े नहीं उठा सके। इसके मुकाबले, उच्च जातियों के लोगों ने इसका भरपूर फायदा उठाया और पब्लिक सेक्टर पर पूरी तरह काबिज हो गए। (इसी पुस्तक से)

बहुजन साहित्य का विकास एक ऐतिहासिक परिघटना

प्रगतिशील साहित्यकारों ने सहित्य को नए अर्थ दिए और श्रमिकों-किसानों के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश की। लेकिन यह सहानुभूति का दौर था। श्रमिक और किसानों के बीच से लेखक बहुत कम थे, न के बराबर। हां, जो लिख-पढ़ रहे थे उनके मन में श्रमिकों और किसानों के लिए सहानुभूति के भाव उमड़े और संघनित हुए। यह राष्ट्रीय आंदोलन का उत्तरकाल था। 1930 के दौर में किसानों, दलितों, अन्य पिछड़े तबकों के आंदोलन उभरने लगे। बुर्जुआ वर्चस्व से आक्रांत राष्ट्रीय आंदोलन इन्हें अंगीकार करने से भरसक कतराता रहा, लेकिन 1936 में उर्दू-हिंदी के कुछ लेखकों ने प्रगतिशील लेखक संघ बनाकर लखनऊ में एक सम्मेलन किया जिसमें अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचंद ने कहा, “जो दलित हैं, वंचित हैं, पीड़ित हैं यह चाहे व्यक्ति हो या समाजए उनकी वकालत करना हमारा फर्ज है।” (इसी पुस्तक से)

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फारवर्ड प्रेस में ‘चिंतन के जनसरोकार’

बहुजन के मुक्ति आंदोलन से जुड़े सरोकार

https://www.forwardpress.in/2017/10/concerns-to-related-freadom-of-bahujan-hindi/

 

नये सिरे से सोचने को विवश करती किताब : चिंतन के जनसरोकार

https://www.forwardpress.in/2017/12/chintan-ke-jansarokar-hindi/

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