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ब्राह्मणवादियों के ट्रैप में फंस गई हैं मायावती : रामानंद पासवान

बामसेफ (वामन मेश्राम गुट) द्वारा बहुजन क्रांति मोर्चा के बैनर तले आगामी 20 नवंबर 2018 से दिल्ली में वृहत कार्यक्रम किया जा रहा है। इसका प्रयोजन क्या है और देश में बहुजनों की राजनीतिक दशा-दिशा को लेकर फारवर्ड प्रेस ने माेर्चा के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष रामानंद पासवान से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश :

बहुजन संगठनों को एक छतरी के नीचे लाने की मुहिम है बहुजन क्रांति मोर्चा

बैकवर्ड एंड माइनरिटी कम्यूनिटीज इम्प्लॉइज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन 1978 में हुआ था। इसके संस्थापकों में मान्यवर कांशीराम भी शामिल थे। इसका मकसद बहुजनों में राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता का प्रसार करना था। वर्तमान में यह संगठन चार गुटों में बंट चुका है। इनमें सबसे बड़े गुट के अध्यक्ष वामन मेश्राम हैं। हाल ही में वामन मेश्राम ने बहुजन क्रांति मोर्चा का गठन किया है। मोर्चा के गठन, उद्देश्य और रणनीतियों के बारे में फारवर्ड प्रेस ने मोर्चा के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष रामानंद पासवान से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश :

आप लोगों ने बहुजन क्रांति मोर्चा का गठन किया है। इसका मकसद क्या है?

देश में बहुजनों की आबादी कुल जनसंख्या की 85 प्रतिशत है, लेकिन इसके बावजूद उनके हाथ में शासन नहीं है। शासन ब्राह्मणों के पास है, जबकि उनकी आबादी केवल तीन-चार प्रतिशत है। इस कटु सत्य को समझने की जरूरत है और हमारा संगठन यही बीड़ा उठाए हुए है कि अल्पसंख्यक शासक क्यों, बहुसंख्यक क्यों नहीं?

रामानंद पासवान, दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष, बहुजन क्रांति मोर्चा

इसके लिए आपकी रणनीति क्या है?

बहुजनों को जगाने भर से उद्देश्य पूरा हो जाएगा। हमारा संगठन बस इसी काम में जुटा है और बहुजनों के बीच जाकर उन्हें लगातार समझाने की कोशिश कर रहा है कि अगर अब भी बंटे रहे, तो शोषण से छुटकारा पाना मुश्किल होगा। इसलिए एक छतरी के नीचे आकर संघर्ष शुरू करना होगा। इस बात को बहुजन महसूस करने लगे हैं, जिससे उनके संगठन बहुजन क्रांति मोर्चा का काम आसान हो गया है।

  • 20 नवंबर से 26 नवंबर तक जिलेवार बैठक व मंथन के बाद समापन जंतर-मंतर पर
  • मायावती बहुजनों की वजह से बनी थीं उत्तर प्रदेश की सीएम, न कि सर्वजनों के वोट से
  • बहुजनों के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों खतरनाक
  • अपने उद्देश्यों से भटक चुकी है बसपा

फिर भी कोई ठोस योजना तो होगी?

एक बात तो यह है कि जागरूक होने से मोर्चा का काम आसान हो गया है। पहले अगर समझते-बूझते भी थे, तो आवाज उठाने का अधिकार नहीं था। लेकिन, बाबा साहब के प्रयास के बाद बहुजनों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुआ। हालांकि, इस अधिकार का अहसास होने में भी काफी वक्त निकल गया, क्योंकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में अहसास तक करने की छूट नहीं थी। धीरे-धीरे स्थानीय स्तरों पर छोटे-छोटे संगठनों ने आवाज बुलंद की, जिसका नतीजा सामने है। आज की तारीख में समाज में बहुजन अपनी बात रख पा रहा है। इस स्थिति के बाद अब बहुजनों को भी महसूस होने लगा है कि स्थानीय स्तर पर एकजुट होकर तो कुछ हद तक समस्या का निदान कर लिया गया, लेकिन राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर आवाज जिस तरह से उठाई जानी चाहिए थी, उस ढंग से नहीं उठाई जा पा रही है। हमारा संगठन देश भर के छोटे-छोटे बहुजन संगठनों को एक छतरी के नीचे लाने का प्रयास कर रहा है। इसी क्रम में देश की राजधानी दिल्ली में आगामी 20 नवंबर 2018 से वृहत स्तर पर कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

इस कार्यक्रम के बारे में बताएं?

हमारा संगठन बहुजन क्रांति मोर्चा दिल्ली में आगामी 20 नवंबर से जिलेवार कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है, जिसमें जिला स्तर पर सक्रिय बहुजन संगठनों को एक छतरी के नीचे लाने की कोशिश की जाएगी। सबसे पहले 20 नवंबर को पश्चिमी दिल्ली जिले से कार्यक्रम शुरू किया जाएगा और समापन 26 नवंबर को नई दिल्ली जिले में जंतर-मंतर पर होगा। इसके अलावा 21 नवंबर को उत्तर-पश्चिम जिला, 22 नवंबर को उत्तर-पूर्वी जिला, 23 नवंबर को पूर्वी दिल्ली जिला, 24 नवंबर को दक्षिणी दिल्ली जिला और 25 नवंबर को चांदनी चौक जिले में बहुजन जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस कार्यक्रम में मंथन होगा और इलाके में छोटे-छोटे बहुजन समाज के सक्रिय संगठनों से मोर्चा के बैनर तले लड़ाई आगे बढ़ाने की अपील की जाएगी।

आज भाजपा और कांग्रेस दोनों दलित-बहुजनों के मुद्दे उठा रहे हैं। इस संबंध में आप क्या कहेंगे?

देखिए, कांग्रेस और भाजपा दोनों में कोई अंतर नहीं है। एक सांपनाथ है, तो दूसरा नागनाथ है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक छिपा हुआ दुश्मन है, तो दूसरा हरी घास का नाग है। दोनों पार्टियां खतरनाक हैं और बहुजन हित का केवल ढोंग करती हैं, ताकि बहुजन वोट बैंक हाथ से नहीं खिसक जाए। कांग्रेस के बाद भाजपा ने भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया, जिसमें बहुजन समाज के लिए कुछ भी खास नहीं था; बल्कि इन नीतियों की वजह से बहुजन समाज लगातार ठगा जाता रहा है। मसलन उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के जरिए शिक्षा और नौकरी में किस तरह से बहुजन हितों की कटौती की गई, वह किसी से छिपी नहीं है।

बसपा के बारे में क्या कहेंगे?

सभी जानते हैं कि बहुजन समाज को अधिकार दिलाने के लिए बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की गई थी, लेकिन शुरुआत में कुछ दिन तक अपने सिद्धांतों पर चलने के बाद यह भटक गई और बहुजन की बजाय सर्वजन की बात करने लगी। दूसरे शब्दों में कहें, तो कहने को बहुजन समाज पार्टी; लेकिन सही में सर्वजन समाज पार्टी होकर रह गई। बहुजन के सबसे बड़े दुश्मन ब्राह्मण समाज के आगे एक तरह से बसपा नतमस्तक हो गई है। हद तो तब हो गई, जब उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में बसपा प्रमुख मायावती ने अटल बिहारी वाजपेयी, लालजी टंडन आदि ब्राह्मणवादी सोच वाले नेताआें की कलाई में राखी बांधनी शुरू कर दी, उसके बाद से ही बहुजन समाज की सही मायने में लड़ाई बंद हो गई। और जब लड़ाई लड़ी ही नहीं जाएगी, तो जीत या हार कैसे होगी? दूसरे शब्दों में कहें, तो दुश्मनों से हाथ मिलाकर बसपा ने बहुजन के अधिकार की लड़ाई बंद कर दी।

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कहा जा रहा है कि बसपा ने बहुजन से सर्वजन की नीति में बदलाव इसलिए किया, क्योंकि उसे अहसास हो गया था कि अगर देश पर राज (प्रधानमंत्री बनना) करना है, तो सर्वजन का साथ लेना होगा?

बसपा यहीं तो गच्चा खा गई और ब्राह्मणवादियों के ट्रैप में आ गई। बसपा प्रमुख मायावती इसे समझ नहीं पाईं और लगातार उनके चंगुल में फंसती चली गईं। आज बसपा की स्थिति क्या है? पार्टी के अंदर बहुजन समाज के दुश्मन ब्राह्मणों का वर्चस्व है। फिर इस पार्टी से बहुजन समाज कैसे अपने हित की उम्मीद कर सकता है?

ट्रैप में फंसने की बात को स्पष्ट करें और उनके तर्क को कैसे झुठला सकते हैं?

झुठलाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? हकीकत को क्या किसी प्रमाण की जरूरत पड़ती है? बहुत पहले के नहीं थोड़े समय पहले के ही इतिहास पर नजर दौडाएं, तो साफ हो जाएगा कि किस तरह बसपा अपने मूल उद्देश्य से भटक गई? बता दें कि बसपा के संस्थापक अध्यक्ष मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना से पूर्व दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) की स्थापना की थी और बहुजन हित का संकल्प लिया था। बाद में इसी उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी। आज कांशीराम जी नहीं हैं, अगर वो रहते तो बसपा की मौजूदा स्थिति व नीतियों से उनका दिल जरूर दुखता। यह भी बता दूं कि डीएस-4 की स्थापना से पूर्व कांशीराम बामसेफ के संस्थापक सदस्य थे, लेकिन कर्मचारियों के लिए संघर्ष करने वाली इस संस्था की गति को देखकर वह जल्दबाजी कर गए और डीएस-4 की स्थापना कर राजनीति में उतर आए। उनसे भी यह भूल हुई कि बामसेफ की गति जरूर धीमी दिखी, लेकिन ठोस कदम को वो भी नहीं समझ पाए। उनके संघर्ष का भटकने की प्रमुख वजहों में से एक वजह यह भी रही।

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मायावती की रणनीति से आपको ऐतराज किस बात पर है?

मैं बार-बार कह रहा हूं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से बसपा प्रमुख मायावती को अहसास करा दिया कि देश पर राज करना है, तो केवल बहुजन-बहुजन जपने से काम नहीं चलेगा, बल्कि सर्वजन को साथ में लेकर चलना होगा। ब्राह्मणों की यही चाल वह समझ नहीं पाईं और उनकी सोच में लगातार फंसती चली गईं। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि यह सब जानते हुए कि पहली बार उन्हें जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला, तो सर्वजन की वजह से नहीं; बल्कि केवल और केवल बहुजन की वजह से। सपा-बसपा (पिछड़े और दलित) गठजोड़ हुआ और परिणाम सामने था। इसलिए यह कहना बिलकुल बेमानी है कि केवल और केवल बहुजन की बात करके पूरे देश पर राज नहीं किया जा सकता है। सवाल यह है कि जब 85 प्रतिशत आबादी वाले राज नहीं कर सकेंगे, तब पहले और अब में क्या अंतर रहा? पहले भी शोषित रहा बहुजन और अब भी शोषित रहे। बिलकुल नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं होने दिया जाएगा और बहुजन हित के लिए बहुजन क्रांति मोर्चा ने कमान संभाल ली है। मोर्चा देशभर में बहुजन व उसके संगठनों को जोड़ने के काम में जुट गया है।

(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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