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मराठी के आंबेडकरवादी साहित्य का इतिहास

अतीत साक्षी है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य 1950 के पहले ही जन्म ले चुका था। डॉ. आंबेडकर ने इसकी वैचारिक बुनियाद को पुख्ता किया और आज यह कथित तौर पर मुख्य धारा के साहित्य को चुनौती दे रहा है। पढ़ें दलित साहित्य से लेकर आंबेडकरवादी साहित्य बनने की कहानी, बता रहे हैं दलित पैंथर्स के संस्थापकों में से एक जे. वी. पवार :

बाबा साहेब डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपने सभी अनुयायियाें काे पेन (कलम) एवं ब्रेन (दिमाग) नामक हथियाराें का समुचित प्रयाेग कर आंदाेलन काे मजबूत करने और तीव्र गति देने की सलाह दी थी। यह संदेश देते समय उनकी निगाह में रूस की क्रांति भी विद्यमान थी। इस रूसी  क्रांति को वैचारिक प्रेरणा देने वालों में रूसाे और वॉल्तेयर भी शामिल थे। इन दोनों के विचारों से डॉ. आंबेडकर भी अच्छी तरह परिचित थे, लेकिन यहां एक बात विशेष बात पर गाैर करने लायक है कि डॉ. आंबेडकर ने स्पष्टता से रूसाे के विचाराें के बजाए वॉल्तेयर की विचारधारा काे ज्यादा अहमियत दी थी। वे अक्सर सवाल दागा करते थे कि भारतवर्ष में एक भी वॉल्तेयर क्याें पैदा नहीं हाे पाया?

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर काे अपने समूचे अध्ययनाें से अच्छी तरह पता चल चुका था कि स्थापित व दलदल बन चुके सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाने हेतु तथा प्रचलित राजसत्ता में परिवर्तन करने हेतु वॉल्तेयर ने अपनी कलम का सही इस्तेमाल किया था। क्रांतिकारी परिवर्तन के पक्ष में खड़े वॉल्तेयर अपने विचारों के लिए धर्मत्याग, देहत्याग ही नहीं, ताे देश का त्याग करने हेतु भी पूरी तरह तैयार थे। हम जिस किसी धर्म में जी रहे हैं, उसे सवालाें के कटघरे में खड़ा करना काेई मामूली बात या हंसी-मजाक का खेल नहीं हाेता है और इसीलिए ताे साहित्यकाराें से क्रांतिपूर्ण प्रबुद्ध विचाराें से संपन्न एवं समृद्ध साहित्यिक कृति की अपेक्षा और उम्मीद  डॉ. आंबेडकर ने की थी। इस संदर्भ में नागपुर में स्थित विदर्भ साहित्य संघ के मंच से डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि “मुझे साहित्यकारों से स्पष्टता से कहना है कि उदात्त जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक मूल्यों को आप अपने साहित्य कृति के द्वारा समाज के सामने लाइए। अपना लक्ष्य संकुचित और सीमित कदापि मत कीजिए। अपनी रचनाशीलता के उजाले को गांव-देहात में पसरे घुप्प अंधकार को दूर करने हेतु प्रज्ज्वलित कीजिए। अपने देश में उपेक्षितों की, वंचितों की बहुत बड़ी दुनिया है, इस तथ्य और सत्य को भुला मत दीजिए। उनकी पीड़ा, उनकी वेदना व दुख-दर्द अच्छी तरह समझ लीजिए और फिर अपने साहित्य-कृति, अपने रचना कर्म के द्वारा उनका जीवन उन्नत करने हेतु लगातार प्रयास कीजिए। इसी में सच्ची मानवता है।”

अपना सामाजिक आंदोलन खड़ा कर, उसे सफल बनाने हेतु कलम को हथियार बनाकर उसका उचित प्रयोग  डॉ. आंबेडकर ने उम्र भर किया है। कलम और अखबार या पत्रिका को उन्होंने अौजार बनाया। जनवरी 1920 से ‘मूकनायक’ अखबार निकालना शुरू किया। इसका  इस्तेमाल परिवर्तन के हथियार के रूप में किया।

डॉ. आंबेडकर ने जन आन्दोलन आरंभ करने से पहले समाचार पत्रों का समुचित उपयोग बदलाव की लड़ाई के औजार के रूप में किया। जिस काल में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अखबार के संपादन और प्रकाशन की जिम्मेदारी संभाली, उस वक्त  अस्पृश्य समाज के लोगों में मुश्किल से इक्का-दुक्का ही पढ़े-लिखे और लेखक हुआ करते थे। इस अभाव को जड़ से ही खत्म करने के लिए डॉ. आंबेडकर ने सोच-समझकर और दृढ़ संकल्प हो अखबार प्रकाशित करने का कार्य शुरू किया और स्वयं ही पत्रकार की भूमिका भी निभाई। इस प्रकार अपने अनपढ़ समाज को जागृत करने के युग प्रवर्तक कार्य का आरंभ किया। इस माध्यम से उन्होंने  लेखकों, पत्रकारों एवं साहित्यकारों की अनेक पीढ़ियों के निर्माण के अनूठे कार्य को अमलीजामा पहनाया और उसे सुचारू रूप से क्रियान्वित किया। जीवन के अंतिम पल तक उन्होंने जो संघर्ष किया, वह उनके द्वारा किए गए बदलाव के आन्दोलन का प्रेरक विषय बन चुका है। किन्तु उस जमाने के तथाकथित मराठी लेखकों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने डॉ. आंबेडकर द्वारा चलाए गए तमाम आन्दोलनों को उपेक्षा की नजरों से ही देखा। उसे कलमबद्ध कर दर्ज करने की संवेदनशीलता और ईमानदारी तक उन्होंने नहीं दिखाई।

डॉ. आंबेडकर और उनके संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाएं

अपने संकल्प को लेकर अडिग डॉ. अांबेडकर द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को धम्मदीक्षा ग्रहण कर बौद्ध धम्म का स्वीकार करने के पश्चात अांबेडकरवादी विचारधारा के समाज में लाखों की तादाद में लेखक, पत्रकार, साहित्यकारों की फौज या पीढ़ी का उदय हुआ। सभी तरह के शिकंजों और बंधनों से मुक्त होकर आजादी की चेतना भरा माहौल व प्रेरणा इन ढेर सारे लेखकों के अचानक उदय हो जाने की वजहों में से एक कारण तो निश्चित रूप से मौजूद ही था।

खेती-किसानी के जो भली-भांति जानकार हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि यदि किसी जमीन को बंजर घोषित कर दिया जाए। उसे फसल उगाने के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया जाए और उस पर लंबे समय तक कोई फसल न उगाई जाए और उसकी अनदेखी कर दी जाए। यदि उस जमीन पर कोई किसान खेती करने के  दृढ़ संकल्प के साथ हल चलाता है, उसकी सिंचाई करता है, तो उस जमीन पर बड़ी अधिक मात्रा में पैदावार या फसल होती है। बंजर जमीन की तरह अस्पृश्य-दलित समाज भी नकारा गया था, दुत्कारा गया समाज था। उसके मधुर गले में तेजाब डाल दिया गया था, ताकि वह कभी भूल कर भी गा ना सके। उसके हाथों से हमेशा-हमेशा के लिए कलम छीन ली गई थी, ताकि वह कभी भूलकर भी लिखने की, अपने विचारों को व्यक्त करने की हिम्मत ना जुटा सके। बंजर जमीन की तरह ही उत्पादकता के गुणधर्मों से परिपूर्ण होने पर भी अस्पृश्य के सृजन के सारे मार्ग बलात बन्द कर दिए गए थे। उत्पादकता के स्थायी गुणों से उसे वंचित कर दिया गया था। इस तरह  दलितों के सृजन के गुणों को बंजर जमीन में तब्दील करने का व्यापक षडयंत्र रचा गया। इन षडयंत्रों, बाधाओं और अवरोधाें को समाप्त कर अस्पृश्य-दलितों की बंजर पड़ी जमीन को साफ-सुथरा व उपजाऊ बनाने डॉ. अांबेडकर ने अपार मेहनत से किया। उस उपजाऊ जमीन अपने युग प्रवर्तक विचारों का बीज बोया। विचारों के बीज से उगे फसल की देखभाल की, उसे चेतना के पानी से सींचा, तब कहीं जाकर लेखकों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों व साहित्यकारों की हरी-भरी लहलहाती फसल आज हमें देखने को मिलती है। डॉ. आंबेडकर के विचार-कार्यों से प्रेरित होकर ही लेखक, कवि, कलाकारों की इतनी बड़ी विशाल फौज आज स्थापित हो चुकी है। इस फौज ने साहित्य पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को तोड़ दिया, भले ही वह पत्रकारिता में उनके एकाधिकार को न तोड़ पायें हों।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

यह आंबेडकरवादी विचारधारात्मक साहित्य आन्दोलन से ही संभव हो पाया है। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र से आगे बढ़ लेखकों ने इतिहास का भी गंभीरता से अध्ययन किया। उसमें दर्ज झूठ और मिथ्या बातों को गंभीर विमर्शाें के द्वारा समाज और विद्वानों के सामने विस्तार से उजागर किया। इतिहास को नए सिरे से लिखने की जिम्मेदारी ली और इस कर्तव्य का निर्वाह अत्यन्त निष्ठा के साथ किया। इन सब बातों के फलस्वरूप साहित्य, पत्रकारिता एवं इतिहास लेखन में सदियों से चले आ रहे एकाधिकार व बपौती को समाप्त करने में मुख्य भूमिका अांबेडकरवादी विचारधारा की है। आंबेडकर के विचारों का अनुशीलन कर परिवर्तन के कार्यों में संघर्षरत लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों, आलाेचकाें, विचारकों, चिंतकाें एवं इतिहासकारों की महती भूमिका रेखांकित करने योग्य है। यह कार्य भी जारी है। मेरी विभिन्न खंडों में प्रकाशित किताब ‘आंबेडकोरोत्तर अांबेडकरवादी आन्दोलन’ उस इस प्रक्रिया के एक पड़ाव के रूप में अवश्य ही रेखांकित की जा सकती है। आज भारतवर्ष में सबसे अधिक निजी पुस्तकालय और पुस्तकों का भंडार दलितों के पास है, उनके घर ही वैचारिक पुस्तकालय बन चुके हैं।

26 जनवरी 1950 को भारत लोकतांत्रिक देश बना। डॉ. आंबेडकर ने इसे बड़ी मेहनत कर बनाया। भारतीय संविधान समिति द्वारा संविधान स्वीकार किए जाने के बाद बाबा साहेब की खूब तारीफ होने लगी। इसके चलते आंबेडकर तमाम अनुयायियाें की छाती खुशी से चौड़ी होने लगी।

डॉ. आंबेडकर निजी बैठकों और बातचीत में कहा करते थे कि वे साहित्यकारों का फोरम अथवा मंच गठन करने का विचार कर रहे हैं। उनकी बातों से प्रेरणा एवं स्फूर्ति प्राप्त कर कुछ युवा आगे बढ़े और उन्होंने 15 अगस्त 1950 को मुंबई में ‘दलित साहित्य संघ’ की स्थापना की। साहित्यकारों का यह मंच प्रो. आर.डी. भंडारे और बी.सी. काम्बले जी की उपस्थिति में गठित हुआ था। इस बात का सीधा मतलब यह है कि 1950 के पूर्व ही ‘दलित साहित्य’ संकल्पना अस्तित्व में तो थी ही, ‘जनता’ पत्रिका में भी पचास के दशक में ‘दलित साहित्य के वितरक’ शीर्षक से विज्ञापन प्रकाशित होते रहे हैं। ‘दलित सेवक साहित्य संघ’ नामक साहित्यिक संस्था के संस्थापक सदस्यों में अाप्पा साहेब रणपिसे तथा भाऊसाहेब अडसूल प्रमुख थे। 19 जुलाई 1953 को उपरोक्त साहित्य मंच का नाम बदलकर उसे ‘महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ’ नाम दिया गया। 1960 के पश्चात दलित साहित्य जब बड़े पैमाने पर लिखा जाने लगा और चर्चित होने लगा, तब कुछ लोगों ने इसे हथियाने की भरसक कोशिश की और  कहने लगे कि हम ही दलित साहित्य के प्रवर्तक व संस्थापक हैं।

वे कितने अधिक टुच्चे और झूठे हैं, इस बात का अंदाजा लगाने हेतु इन ऐतिहासिक घटनाक्रम को रेखांकित करना जरूरी हो जाता है।  डॉ. आंबेडकर ने नागपुर दीक्षाभूमि में 14 अक्टूबर 1956 को धम्मचक्र प्रवर्तन करके युग प्रवर्तक कार्य किया। जिसे धम्मदीक्षा के नाम से भी जाना जाता है। नागपुर की दीक्षाभूमि में संदियों के अंतराल के बाद बौद्ध धर्म का पौधा लगाने के पश्चात बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर जी ने भारत के प्रमुख शहरों में धम्मदीक्षा समारोह का आयोजन करने का संकल्प लिया।  इसे क्रियान्वित करने और सफल करने की योजना का खाका तैयार किया। उसे अमल में लाने की रूपरेखा बनायी थी। इस योजना में 16 दिसंबर 1956 को मुम्बई में धम्मदीक्षा समारोह का आयोजन करना भी शामिल था।

डॉ. आंबेडकर के मुम्बई आगमन व ‘जयराम हाउस’ मुम्बई में होने की जानकारी मिलने पर ‘महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ’ के कार्यकर्ताओं का शिष्टमंडल उनसे मिला। इस मुलाकात में उन साहित्यकारों की इच्छानुसार मुम्बई में 16 दिसम्बर 1956 में होने वाले धम्मदीक्षा समारोह के दूसरे दिन अर्थात 17 दिसम्बर 1956 को उसी सभा मंडप का सदुपयोग कर उस स्थान पर साहित्य सम्मेलन का एक दिवसीय आयोजन करने की साहित्यकारों की मांग एवं इच्छा पूर्ति को  डॉ. आंबेडकर ने हामी भरकर स्वीकृति प्रदान की। साहित्यकारों के इस सम्मेलन संबोधित करने को भी राजी हो गए और साहित्य लेखन से सम्बन्धित दो-चार बातें अपने संबोधन में करने हेतु राजी हुए। 17 दिसंबर 1956 को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा साहित्यकारों का सम्मेलन 17 दिसम्बर 1956 को आयोजित करने की अनुमति मिली तो, उनका खुशी होना स्वाभाविक बात थी। 17 दिसम्बर 1956 को मुम्बई में होने वाले दलित साहित्य सम्मेलन के लिए अॅड् बापू चन्द्रसेन काम्बले तथा मराठी अखबार के संपादक तथा हास्य व्यंग्य लेखक प्रल्हाद केशव अत्रे को भी आमंत्रित किया जाए, यह मंशा भी  डॉ. आंबेडकर ने साहित्यकारों के प्रतिनिधिमंडल से बातचीत में व्यक्त की।

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परंतु दलित साहित्य सम्मेलन के आयोजन के पूर्व 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली के निवास स्थान में  डॉ. अांबेडकर का महापरिनिर्वाण हो जाने के कारण इस साहित्य सम्मेलन को ही स्थगित करने का निर्णय लेना पड़ा और मुंबई में 16 दिसंबर 1956 को आयोजित  धम्मदीक्षा समारोह 7 दिसंबर 1956 को बाबासाहेब डॉ. अांबेडकर जी के अंतिम संस्कार के अवसर पर ही आयोजित करने का निर्णय लिया गया और उसे निष्ठापूर्वक सम्पन्न किया गया। इसके पश्चात 2 मार्च 1958 को मुम्बई में बंगाली हाईस्कूल के सभागार में प्रथम दलित साहित्य सम्मेलन का आयोजन सफल रहा। इस साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन हास्य-व्यंग लेखक प्रल्हाद केशव अत्रे को करना था। किन्तु अत्रे पुणे में आयोजित ढाेंडाे केशव करवे जन्म शताब्दी समारोह में प्रमुख वक्ता के तौर पर मुंबई से बाहर होने के कारण ऐन वक्त पर नहीं आ सके। प्रल्हाद अत्रे की जगह साहित्यकार अण्णा भाऊ साठे जी ने उद्घाटनकर्ता के रूप में बीज भाषण देकर अपनी जिम्मेदारी निभाई। इस साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बी.सी. काम्बले थे। इसी दलित साहित्य सम्मेलन में अण्णा भाऊ साठे जी ने साहित्यकारों को संबोधित कर निर्भीकता से ऐलान किया था कि ‘धरती पुरानी मान्यता के अनुसार शेषनाग के मस्तक पर विराजमान नहीं है, बल्कि वह असल में मेहनतकश दलितों और मजदूरों के करतल पर ही खड़ी है।’



अण्णा भाऊ साठे जी का यह वाक्य बेहद चर्चित और लोकप्रिय है। वामपंथी आन्दोलन से जुड़े लोग तथा कार्यकर्ता अण्णा भाऊ साठे जी के इस वाक्य का अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल करते हैं। किन्तु वामपंथी कार्यकर्ता और लेखक, साहित्यकार भूलकर भी यह चर्चित वाक्य अण्णा भाऊ साठे ने किस साहित्य सम्मेलन के मंच से कहा था, वह लोगों को बताते नहीं और सच्चाई जान-बूझकर छुपा जाते हैं।
पहले दलित साहित्य सम्मेलन के मंच से सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते बी.सी. काम्बले जी ने स्पष्टता से अपने विचार व्यक्त कर साहित्यकारों से कहा था कि, “डॉ. साहब अांबेडकर  का समग्र साहित्य ही हम साहित्यकारों, लेखकों का एकमेव मार्गदर्शक एवं बोधि वृक्ष है।” पीपुल एजुकेशन सोसायटी में कार्यरत घनश्याम तलवटकर संस्था के अध्यक्ष बनाए गए थे और संस्था का चैरिटी कमिश्नर से प्राप्त पंजीकरण संख्या 1969/60 था।

14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में धम्मचक्र प्रवर्तन कर बौद्ध बने लोगों ने और विशेषकर विभिन्न संगठनों में कार्यरत बौद्ध धम्म उपासकाें ने अपनी-अपनी संस्थाओं के नामों में परिवर्तन या बदलाव किया। इसी कड़ी में ‘दलित साहित्य संघ’ का नाम बदलकर उसे सन 1961 में ‘बाैद्ध साहित्य परिषद’ किया गया। इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि दलित साहित्यकारों ने अपनी विचारधारा एवं भूमिका में व्यापक बदलाव कर उसे वहॉे बौद्ध साहित्य विचारधारा की ओर ले गए। इस साहित्य संस्था के पदाधिकारियों में अाप्पा साहेब रणपिसे, भाऊसाहेब अउसूड, जनार्दन वाघमारे, विजय सोनावने, हिरा बनसोडे, सुगंधा शेंडे, घनश्याम तलवटकर, राम उपश्याम, दिनेश लखमापूरकर, के.वी. उमरे, राजा ढाले, यादवराव गांगुर्डे, केशव मेश्राम, जे.वी. पवार, शरद महांतेकर, चां.भ. खैरमाेडे, म.सु. गायकवाड, नामदेव व्हटकंर, मा. साे. काम्बले, दीनबंधू शेगावकर, सुखराम हिवराले, विश्वासराव, नलावडे हरिभाऊ तोरणे, वि.रा. रणपिसे, जे.टी. काम्बले, भैय्यासाहब अांबेडकर आदि साहित्यकारों को रेखांकित किया जा सकता है। इन साहित्यकारों के द्वारा गठित साहित्य संस्था नाम ‘बौद्ध साहित्य परिषद’ होने के बावजूद वे लेखक और साहित्यकार जिस साहित्य का सृजन और प्रचार-प्रसार में कार्यरत थे, वह परंपरावादी बौद्ध धर्मीय साहित्य तो बिल्कुल ही ना था। यह बात हमें ध्यान में रखनी हाेगी। महाराष्ट्र के कोने-कोने में तथा हर जिलों में उनकी संस्था की ओर से साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया जाता रहा है। इन साहित्यकारों के सम्मेलन के मंच से अध्यक्ष द्वारा दिए गए भाषणाें का संकलन भाऊसाहेब अडसूल जी ने सम्पादित एवं प्रकाशित किया गया है, जिसे पढ़कर इस साहित्य को अच्छी तरह परखा एवं समझा जा सकता है।

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इसी दरमियान साठ के दशक में आन्दोलन के रूप में दलित साहित्य उभरकर आया। सन 1968 में डॉ. (प्रो.) गंगाधर पानतावणे जी ने ‘अस्मितादर्श’ त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, जो आजकल नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है। ‘अस्मितादर्श’ दलित साहित्य की आवाज मुखरित कर रहा था। और ‘बौद्ध साहित्य परिषद’ के साहित्यकार भी बिना नाम लिए उसी तरह के साहित्य का सृजन करने में व्यस्त थे। किन्तु उनका साहित्य ‘बौद्ध साहित्य’ के बैनर तले लिखा जा रहा था। इसी वजह से ‘बौद्ध साहित्य’ या ‘दलित साहित्य’ यह बहस शुरू होकर अब तक जारी है। ‘बौद्ध साहित्य’ की कसौटी पर क्या है अथवा होनी चाहिए तथा ‘दलित साहित्य’ किसे कहा जाए, यह सवाल बहस तथा विमर्श का विषय बन चुका था।

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दलित साहित्य मीडिया में चर्चित हो चुका था। किन्तु दलित साहित्य पर बहस और विमर्श कर केवल  शंकरराव खरात्त, अण्णा भाऊ साठे, बंधू माधव, बाबूराव बागूल आदि कहानीकारों के साहित्य विमर्श तक सीमित नहीं रखा जा सकता था। क्योंकि पहले साहित्य का सृजन या निर्माण होता है, तत्पश्चात ही साहित्यशास्त्र आकार ले पाता है। किन्तु दलित साहित्य ने मुख्य रूप से नकार को रेखांकित किया है, इसी वजह से दलित साहित्य को तो साहित्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र की कोई जरूरत ही नहीं थी। अांबेडकरवादी साहित्यकारों के सामने सवाल केवल ‘दलित साहित्य’ और ‘बौद्ध साहित्य’ के नाम को लेकर ही रहा है। इन दो नाम के द्वंद्व में ही तमाम समर्थकों की लगातार बहस होती रही है, और वह लगातार जारी है तथा यह कह सकने अथवा किसी ठोस आम सहमति पर सवाल को हल करने में अब तक दिखाई नहीं दे रही है। दलित साहित्य नाम के समर्थकों ने और बौद्ध साहित्य के पक्षधर समर्थकों ने पक्षधरता से समर्थन के पक्ष में तर्काें एवं संदर्भों को इकट्ठा कर लेख संग्रहाें का संकलन प्रकाशित किया और यह क्रम लगातार जारी है। दलित साहित्य पर सवालों की बौछार करने वालों को माकूल जवाब देने हेतु कवियों ने मोर्चा संभाला और सत्तर के दशक में सैकड़ों की तादाद में कवियों ने अपने पास से पैसा खर्च कर कविता संग्रह प्रकाशित किया। इन कविता संग्रहाें में नामदेव ढसाल का ‘गोलपीठा’, दया पंवार का ‘काेंडबाडा’, केशव मेश्राम का ‘उत्खनन’, जे.वी. पवार का ‘नाकेबंदी’, अर्जुन डांगले का ‘छगवनी हलते आहे’, डॉ. निम्बालकर का ‘गाव कुसा बाहेरील कविता’, प्रल्हाद चंद्रवुणकर का ‘अॉडिट’ डॉ. यशवन्त मनोहर का ‘उत्थान गुफा’, त्र्यंबक रूपकाले का ‘शुरूंग’ आदि अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हुए और वे चर्चित रहे। साहित्य भी कहीं दलित होता है क्या? इस तरह के सवालों को दागकर दलित साहित्यकारों को हताश, निराश करने का लगातार प्रयास दलित साहित्य विरोधी आलोचकों द्वारा बड़े पैमाने पर शुरू में होता रहा है। किन्तु दलित साहित्य के आंधी-तूफान के आगे विरोध करने वाले दुबकने को मजबूर हुए या वे मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। इसके बाद तो साहित्य संसार में स्थिति यह बनी कि दलित साहित्य का असमय मौत के लिए कार्य करने वाले साहित्यकार और आलोचक ही दलित साहित्य के समर्थन में जुटने लगे तथा समर्थन करने की होड़ मच गई। किन्तु तब तक तो दलित साहित्य अपनी जड़ें जमा चुका था और विरोधियों काे मजबूरन भी अपने तथाकथित विरोध को आखिरकार त्यागना पड़ा। दलित साहित्य के नाम को लेकर विरोधी खेमा अपनी गतिविधियों को जारी रखे हुए था। इसी दरमियान और दो साहित्य संस्थाओं का उदय साहित्य मंच पर दिखाई देता है। इनमें घनश्याम तलवटकर की अध्यक्षता में स्थापित ‘बौद्ध साहित्य सभा’  की स्थापना हुई और वरिष्ठ कहानीकार- लेखक बाबूराव बागूल जी के नेतृत्व में स्थापित ‘दलित साहित्य संसद’ का विशेष रूप से उल्लेख करना जरूरी हो जाता है। बाबूराव बागूल का कहानी संग्रह संकलन ‘जेव्हा मी जात चोरली होती’ (जब मैंने जाति छुपाई थी) 1963 में प्रकाशित हुआ था। ‘दलित साहित्य संसद’ के महामंत्री दो साहित्यकार थे। एक थे दया पवार और दूसरे थे अर्जुन डांगले। किन्तु ‘दलित साहित्य संसद’ की अाेर संदेह की नजरों से देखा जाने लगा। इस साहित्य संस्था की विचारधारा में मार्क्सवादी दृष्टिकोण की अनुगूंज को लेकर शिकायतों की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जब-तब होती रही है। विमर्श और बहसों ने उग्र रूप धारण किया। इस बात पर विमर्श होने लगा कि दलित साहित्य अपनी प्रेरणा अांबेडकरवादी विचारधारा को मानता है अथवा वह अांबेडकरवाद के साथ-साथ मार्क्सवाद को भी अपनी वैचारिकी में शामिल करना चाहता है। इस पर तीखी बहस शुरू हो चुकी थी। अांबेडकरवादी दलित साहित्य में मार्क्स के विचारों का घालमेल करने के प्रबल विरोधी दलित साहित्यकार अपने पक्ष के समर्थन में डॉ. अांबेडकर के मार्क्स के सम्बन्ध नेपाल में दिए गए ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’ भाषण को रेखांकित करते थे अथवा धम्मदीक्षा के अवसर पर 15 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि पर बाैद्धाें को संबोधित करते समय मार्क्सवादी विचारधारा के सम्बन्ध में डॉ. आंबेडकर के संदेश को रेखांकित किया करते थे। उनका कहना था कि मार्क्स की विचारधारा केवल आर्थिक उन्नति एवं आर्थकि बराबरी की बातों के समर्थन में ही आन्दोलन करने की हिमायती रही है। पशु की तरह मनुष्य को भी केवल भोजन की आवश्यकता ही तो नहीं होती है। मनुष्य शरीर के साथ-साथ मानसिक विकास का भी इच्छुक होता है, जिसकी अनदेखी और उपेक्षा कार्ल मार्क्स के विचारों से स्पष्ट हो जाती है। मनुष्य की भौतिक

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विकास के साथ-साथ मानसिक विकास की भी आवश्यकता होती है, जिसकी अनदेखी मार्क्स के आर्थिक दृष्टिकोण में प्रमुखता से देखी जा सकती है और इसी बात को लेकर अांबेडकरवादी दलित साहित्यकार मार्क्स को नकारते हुए उसे खारिज करना चाहते हैं। किन्तु आपसी सहमति न बनने की वजह से दलित साहित्य दो खेमों में बंटा हुआ दिखाई देता है और इन्ही कारणों से मुम्बई में 14 जनवरी 1978 को दो अलग-अलग साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ था। उनमें से एक डॉ. गंगाधर पानतावणे जी की अगुवाई में ‘अस्मितादर्श’ ‘लेखक-पाठक मेला’ नाम से आयोजित हुआ तथा दूसरा  बाबूराव बागूल की अगुवाई में ‘दलित साहित्य संसद’ की ओर से आयोजित हुआ। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन मुम्बई के दादर (पूर्व) में स्थित डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर भवन में आयोजित किया गया था तथा दलित साहित्य संसद का साहित्य सम्मेलन मुम्बई के वडाला स्थित सिद्धार्थ विहार में संपन्न हुआ था। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद पर प्रो. केशव मेश्राम का चयन किया गया था तथा दलित साहित्य संसद की ओर से आयोजित सम्मेलन के अध्यक्ष प्रो. गं.बा.सरदार थे। किन्तु साहित्य के नाम और विचारधारा में सहमति ना होने पर भी यह बात दिखाई दी कि कभी ना खत्म होने वाली बहस की अनदेखी कर कुछ साहित्यकारों ने दोनों ही साहित्य सम्मेलनाें में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इसी कड़ी में यह बात भी ध्यान देने और मनन करने योग्य है कि मार्क्सवाद के प्रति कहानीकार बाबूराव बागूल जी का झुकाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने पर भी ‘बौद्ध साहित्य सभा’ द्वारा आयोजित तथा कोंकण अंचल के तत्कालीन कुलाब जिले एवं आज के रायगढ़ जिले के महाड में संपन्न हुए साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूराव बागूल थे और इस सम्मेलन के उद्घाटक प्रो. वा.ले. कुलकर्णी थे। महाड में आयोजित इस साहित्य सम्मेलन में ‘अस्मितादर्श’ पत्रिका के सम्पादक डॉ. गंगाधर पानतावडे तथा अन्य गणमान्य साहित्यकार भी उपस्थित थे। इसी सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय संबाेधन में बाबूराव बागूल जी ने दलित साहित्य की व्यापक व विस्तार से व्याख्या की थी, जिसे सभी ने स्वीकारा और दलित साहित्य के नाम को ही साहित्यकारों, आलोचकों एवं पाठकों ने मान्यता दी। जनवरी 1976 में नागपुर के कॉलेज के अहाते में सम्पन्न हुए साहित्य सम्मेलन अस्मितादर्श मेला व दलित साहित्य सम्मेलन के रूप में संयुक्त रूप से सम्पन्न हुआ था। इसमें डॉ. बजतावणे, बाबूराव बागूल एवं एम.सू. वानकाेड प्रमुख थे।

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दलित साहित्य का निर्माण साहित्यकारों के द्वारा व्यापकता से होने के कारण दलित साहित्य चर्चा का विषय बना रहा और भारत के साहित्य जगत में चर्चा और कौतूहल के केन्द्र में लगातार विराजमान है। दलित साहित्य का सृजनात्मक पक्ष भी मजबूत तथा व्यापक हुआ है। बौद्ध साहित्य की तुलना में दलित साहित्य नाम स्वीकार करने के चुनौती भरे माहौल में ‘बौद्ध साहित्य मंच’ की ओर से मुम्बई में आयोजित साहित्य सम्मेलन में राजा ढाले ने अपने संबोधन में ‘अांबेडकरवादी प्रेरणा का साहित्य’ के रूप में इस साहित्य का नामकरण किया।

इस तरह साहित्य के नाम को लेकर चर्चा एवं बहस कहीं थमने का नाम नहीं ले पा रही थी। फुले-आंबेडकरवादी विचारधारा का साहित्य दलित साहित्य कहा जाए यही विमर्श, चर्चा एवं बहस मुख्य मुद्दा रहा। असल में सभी लेखक, कवि, साहित्यकारों के प्रेरणा  डॉ. आंबेडकर का आन्दोलन, कार्य, विचार एवं चिंतन ही रहा है। किन्तु डॉ. अांबेडकर की प्रेरणा से रचे जाने वाले साहित्य का नाम क्या हो, इस पर आम सहमति नहीं बन पाने के कारणाें से विवाद आज भी जस का तस जारी है। किन्तु विरोधी खेमे में कार्यरत साहित्यकारों का आपस में संवाद और सद्भाव कायम रहा है। 1984 में नागपुर के एस.सी.एस. गर्ल्स हाई स्कूल के मैदान में आयोजित अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष कवि नामदेव ढसाल थे, जबकि 1975 में प्रकाशित उनका कविता संकलन ‘मूर्खु म्हातपयाने डाेंगर हलकिले’ (बावले बूढ़े ने पहाड़ हिलाया) में मार्क्सवादी विचारधारा का पूरी तरह प्रभाव कवि पर दिखाई देता है।

बौद्ध साहित्य, दलित साहित्य, मार्क्सवादी साहित्य, फुले-अांबेडकरवादी साहित्य पर छिड़ी लम्बी बहस और विमर्श तथा इन भिन्न-भिन्न धाराओं के प्रभावों एवं पड़ावाें का मैं गवाह रहा हूं। महाड़ शहर में आयोजित साहित्य सम्मेलन में मेरे द्वारा लिखित ‘बलिदान’ उपन्यास का लोकार्पण किया गया था। अाप्पा साहेब रणपिसे और भाऊसाहेब अडसूल जी द्वारा संचालित ‘बौद्ध साहित्य परिषद’ की ओर से ‘बलिदान’ उपन्यास पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। दलित साहित्य का मुखपत्र समझे जाने वाले ‘अस्मितादर्श’ त्रैमासिक पत्रिका में (जिसके सम्पादक डॉ. गंगाधर पानतावणे जी थे) में मेरी कविता प्रकाशित हुई। उसके पश्चात में उपन्यास विधा की ओर मुड़ा। भारतीय बौद्ध महासभा के महासचिव पद पर मैं कार्यरत रहा। चतुर्थ फुले-आंबेडकरवादी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में मैंने जिम्मेदारी का वहन किया है। अांबेडकरवादी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में साहित्यकारों से संवाद करने का, उनके समक्ष अपने विचार साझा करने का अवसर मुझे मिला है।

एक कार्यक्रम को संबोधित करते ‘अस्मितादर्श’ त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. गंगाधर पानतावणे

‘बलिदान’ उपन्यास, ‘नाकेबंदी’ कविता संग्रह, ‘उच्छवास युगंधराचे’ कविता संग्रह के सम्पादन के बाद  दलित साहित्य आन्दोलन का सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में मुझे पहचान मिली। आन्दोलन से कविता का सर्जन और कविता के माध्यम से साहित्यिक आन्दोलन को ऊर्जा देने वाले साहित्यकार के रूप में हम साहित्यकारों को पहचाना जाने लगा। इस तरह सत्तर के दशक में साहित्य से और मंदिर प्रवेश से दूर रखे गए अछूत समाज के दमन, शोषण, अन्याय की नकेल कसने हेतु ‘दलित पैंथर’ नामक लड़ाकू संगठन की स्थापना करने वाले एक सक्रिय और कर्मठ साहित्यकार के रूप में मेरा नाम दलित साहित्य के इतिहास में दर्ज है। इस तरह से  एक साहित्यकार के रूप में बाैद्ध, आंबेडकरवादी और दलित साहित्य से मेरा अटूट रिश्ता रहा है। अब मेरे सामने सवाल है कि मैं अपने द्वारा सृजित साहित्य और साहित्य आन्दोलन को किस नाम से संबोधित करूं? बौद्ध साहित्य, दलित साहित्य अथवा अांबेडकरवादी साहित्य? मेरी दृष्टि में यह प्रश्न जितना सरल दिखाई देता है, असल में वह उतना ही जटिल भी है।

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डॉ. बी.आर. अांबेडकर  ने अपने जीवन की सांध्य बेला में बौद्ध धम्म का स्वीकार किया है, और मैं उसी बौद्ध धम्म का अनुयायी या उपासक हूं। दलित विशेषण यह कोई युद्ध मेडल की तरह अपने सीने पर लगाकर गौरवान्वित होने वाली बात कतई नहीं है, इस निष्कर्ष पर मैं दृढ़ हूं। किन्तु जिस सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक व्यवस्था ने मुझ पर अछूतपन का ठप्पा लगाकर मेरा और मेरी काैम का अन्यायपूर्ण दमन, शोषण किया है, उसे नष्ट करने हेतु आज तक मैं साहित्यिक मोर्चे पर सक्रिय हूं। मैं  मानता और जानता हूं कि हमारा सदियों से दमन एवं शोषण किया गया है, जिसे रेखांकित करने वाला सही शब्द दलित है। दलित होना एक सामाजिक अवस्था है। जिसे पूरी तरह लताड़कर ही बहाव के विरोधी दिशा में तैरने वाला मैं तैराक रहा हूं। सामाजिक बदलाव के लिए युद्धरत मैं अंबेडकरवादी हूं। मैं जानता हूं कि कुछ लोगों को, कुछ साहित्यकारों को दलित अवधारणा से बेहद लगाव है। इसी बात को ध्यान में रखकर ही साहित्य के भूगोल एवं सामाजिक दायरे का विस्तार करने के लिए मैं संघर्षरत हूं और मेरे इस प्रयास में दलित, अछूत, श्रमिक, वंचितों को शामिल करना मेरा परम कर्तव्य है। वर्ण का उन्मूलन करने के बजाय वर्ग का उन्मूलन करने के प्रति आग्रह रहने वाले कार्यकर्ताओं तथा साहित्यकार बाजी जीत पाने की बेशक खुशियां मना सकते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य तो ही सीमित है। आर्थिक बराबरी को ही सर्वोपरि मानकर वर्ग उन्मूलन का ढाेल पीटने वाले यह बात भूल जाते हैं कि यह भारत देश  वर्ण श्रेष्ठता और जाति धर्म से पूरी तरह ग्रस्त है। वे तो स्वयं बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर जी को भी जातिवादी ऐनक से देखकर ही उनके कार्य की पड़ताल और मूल्यांकन करते हैं। वे लोग डॉ. आंबेडकर को एक जाति विशेष के नेता के रूप में देखते हैं और उनके कार्यों का मूल्यांकन करना चाहते हैं। इसी वजह से जाति का उन्मूलन करने हेतु जीवनभर प्रयासरत रहे डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित भारतीय संविधान को नकारने की बात भारत में जब-तब धड़ल्ले से की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि डॉ. आंबेडकर के पुरखे अस्पृश्य जाति से संबंधित रहे हैं। इसीलिए तो उन्हें और उनके कार्य को नकारा जाता है। इसी तरह की ओछी और राष्ट्र विरोधी एवं राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए घातक मानसिकता वाले लोग अक्सर यह दावा करने से नहीं चूकते कि भारत राजनीतिक दृष्टि से मजबूत एवं शक्तिशाली है। किन्तु वे सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषायिक एवं भाैगाेलिक एकता एवं सुदृढ़ता की पहल करने से कतराते हैं, और अपने हिन्दू होने का दंभ पालते हैं। मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि कोई भी हिन्दू कहलाने वाला व्यक्ति लोकतांत्रिक विचारधारा एवं मूल्यों का समर्थक और पक्षधर हो ही नहीं सकता।

डॉ. बी.आर. आंबेडकर जी विशुद्ध रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों, सिद्धांतों एवं विचारधारा के प्रबल समर्थक रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के जतन के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किया है। उन्होंने तो 13 अक्टूबर 1935 में स्पष्ट रूप से हिन्दू धर्म को त्यागने की घोषणा की, जिसे14 अक्टूबर 1956 के दिन अंजाम दिया था। किन्तु डॉ. आंबेडकर के आंदोलन और कार्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि उन्होंने सन 1919 में ही साऊथबरो कमीशन के लिए ज्ञापन में स्पष्ट रूप से कहा था कि अस्पृश्य समझे जाने वाली जनता का हिन्दुओं से किसी भी तरह का सम्बन्ध नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि पूरी दुनिया लोकतंत्रवादी व्यवस्था को स्वीकार कर रही है। मेरा भी लोकतांत्रिक मूल्यों पर अमिट आस्था होने की वजह से मैं लोकतंत्र का प्रबल पक्षधर हूं। इस बात का सीधा-सीधा मतलब यही है कि मैं अांबेडकरवादी विचारधारा का अनुयायी हूं। इसीलिए मैं मेरे द्वारा लिखी गई कविता, लेखों, उपन्यास को स्पष्टता से अांबेडकरवादी साहित्य कहकर संबोधित करता हूं। मेरा स्पष्ट मानना है कि अांबेडकरवादी विचारधारा का अर्थ होता है दंभ, दमन, शोषण, वर्चस्ववाद और वर्चस्व का विरोध। फिर यह वर्चस्ववाद और वर्चस्ववादी मानसिकता चाहे सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, भाैगाेलिक, भाषिक, राजनीतिक, शैक्षणिक हाे या साहित्यिक ही क्यों ना हो ? इस तरह की विघातक और मानव द्रोही मानसिकता, दंभ एवं दमन के खिलाफ संघर्षरत उठाव का ही नाम अांबेडकरवादी विचारधारा है। चार खण्डों में प्रकाशित हो चुकी मेरी पुस्तकों का नाम या शीर्षक ही ‘अांबेडकरवादी आंदोलन’ है। क्योंकि अांबेडकरवादी विचारधारा नामक संज्ञा जाति, धर्म, देश, भाषा, वंश, संस्कृति,  सभ्यता से बिल्कुल अलग और परे है, इसकी कोई सीमा ही नहीं है। यह प्रबुद्ध विचारधारा सीमाओं से मुक्त है। हमारा साहित्य डॉ. आंबेडकर से अनुप्रेरित होकर ऊर्जा प्राप्त करता है, इसलिए हमारे साहित्य का नाम ‘अांबेडकरवादी साहित्य’ ही हो सकता है, अन्य दूसरा कोई नहीं। कल तक हमारे साहित्य की पहचान दलित साहित्य के रूप में भी थी, किन्तु अब इसके आगे हमारा साहित्य केवल अांबेडकरवादी साहित्य ही होगा।

(मराठी से हिंदी अनुवाद : शेखर, कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)


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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

 

लेखक के बारे में

जे. वी. पवार

कवि और उपन्यासकार जे.व्ही. पवार, दलित पैंथर्स के संस्थापक महासचिव हैं। वे 1969 में लिखे अपने उपन्यास 'बलिदान' और 1976 में प्रकाशित कविता संग्रह 'नाकाबंदी', जो बाद में अंग्रेजी में अनुवादित हो 'ब्लॉकेड' शीर्षक से प्रकाशित हुआ, के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने आंबेडकर के बाद के दलित आंदोलन का विस्तृत दस्तावेजीकरण और विश्लेषण किया है, जो कई खण्डों में प्रकाशित है। आंबेडकरवाद के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध पवार, महाराष्ट्र में कई दलितबहुजन, सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों में हिस्सेदार रहे हैं

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