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संविधान में हो हमारी पहचान, मिले हम धुमंतूओं को अधिकार : एम. सुब्बा राव

अब केवल बात से कोई काम नहीं होगा न! हमें रिप्रेजेंटेशन चाहिए। दलितों का रिप्रजेंटेशन है। एसटी का भी और ओबीसी का भी है। लेकिन, हम इन तीनों में से कोई नहीं हैं। हम हिंदू नहीं हैं। हम डीएनटी हैं। हमें न तो एससी के हिस्से का लाभ चाहिए, न एसटी समुदाय के हिस्से का और न ही ओबीसी वर्ग का। पढ़ें, विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एम. सुब्बा राव से विस्तृत बातचीत :

30 जून 2008 को बालकृष्ण रेणके कमीशन ने अपनी रिपोर्ट तत्कालीन केंद्र सरकार को सौंपी थी। अपनी रिपोर्ट की प्रस्तावना में इस कमीशन ने लिखा : “भारतीय संविधान में आर्थिक और सामाजिक  गैर-बराबरी दूर हो, इस लक्ष्य को हासिल करने के तमाम उपाय किए गए हैं। इसके तहत ऐतिहासिक रूप से शोषित और वंचित तबकों के लोगों को अलग-अलग वर्गों जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया। इनमें शामिल सभी को कुछ निश्चित विशेषाधिकार दिए गए ताकि वे सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की स्थिति से उबर सकें। इस वर्गीकरण में वे समुदाय जो पहले विमुक्त, घुमंतू, अर्द्ध-घुमंतू जनजातियां थीं, उन्हें भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचियों में शामिल किया गया। यह वर्गीकरण न तो तार्किक था और न ही समरूप। अभी भी बहुत सारी विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियां हैं, जो इनमें कहीं नहीं हैं। उन्हें सामान्य वर्ग में रखा गया है। ये समुदाय लंबे समय से हाशिये पर रखे गए हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि पहले उन्हें औपनिवेशिक शासनकाल में वंचित रखा गया और आजाद भारत में भी।”

इस आयोग ने कई अनुशंसाएं कीं। परंतु उन्हें लागू नहीं किया गया। फिलहाल एक और आयोग इसी मुद्दे पर काम कर रहा है। लेकिन आयोगों के इतर विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों की समस्याएं क्या हैं, वे चुनौतियां क्या हैं जिनसे वे ऐतिहासिक रूप से झेलते रहे हैं और संभावनाएं क्या हैं, इन विषयों को लेकर फारवर्ड प्रेस ने एम. सुब्बाराव से बातचीत की। वे समाजवादी फारवर्ड ब्लॉक के राष्ट्रीय सचिव हैं। इसके अलावा वे नेशनल कैंपेन फॉर डीएनटी राइट्स से जुड़े हैं। उनका यह संगठन देश भर में घुमंतू जातियों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विषयों पर कार्य करता है। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश :

एम. सुब्बा राव समाजवादी फारवर्ड ब्लॉक के राष्ट्रीय सचिव हैं। इसके अलावा वे नेशनल कैंपेन फॉर डीएनटी राइट्स से जुड़े हैं। उनका यह संगठन देश भर में घुमंतू जातियों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विषयों पर कार्य करता है। फारवर्ड प्रेस से बातचीत में उन्होंने इस समुदाय के विविध आयामों को रखा। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश :

एम. सुब्बा राव, राष्ट्रीय सचिव, समाजवादी फारवर्ड ब्लॉक

संविधान में हो हमारी पहचान, मिले हम धुमंतुओं को अधिकार : एम. सुब्बा राव

डीएनटी यानी वे जनजातियां, जिन्हें सरकार ने डिनोटिफाइड यानी विमुक्त करार दिया है। देश भर में इन समुदायों के लोग हैं, जो कहीं न कहीं अपनी पहचान के संकट से जुझ रहे हैं। केंद्र सरकार ने इस संबंध में कुछ पहल की है। इस संबंध में आप क्या कहेंगे?

बालकृष्ण रेणके कमीशन बोल रहा है कि लगभग 20 राज्याेंं में भी डीएनटी की पाॅपुलेशन है। लेकिन, एक नया कमीशन- इदाते कमीशन कहता है कि नॉर्थ-ईस्ट में भी घुमंतू लोग हैं। लेकिन, मुझे इदाते जी की नाॅलेज पर उतना विश्वास नहीं है। रेणके हमारा आदमी है। वह हमारा घुमंतू आदमी है। उसकी नाॅलेज बहुत अच्छी है। इसलिए मैं मानता हूं कि 20 राज्यों में हैं हमारे आदमी। आप आसाम में देखिए। आसाम में अगर आप देखें, तो चाय के बागानों में जो काम कर रहे हैं; वे सब उड़ीसा से माइग्रेट हुए हैं। छोटा नागपुर से माइग्रेट हुए हैं। वे सब ‘हो’ कम्युनिटी के हैं। आसाम में उनकी गिनती अनुसूचित जनजाति के रूप में भी नहीं होती। वे निश्चित रूप से डीएनटी होंगे। लेकिन, इसकी जानकारी उन्हें भी नहीं है।

भारत में विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध-घुमंतू जनजातियां (स्रोत : रेणके कमीशन की रिपोर्ट, 2008)

डीएनटी के सामने सबसे बड़ा सवाल पहचान का है। कहीं वह बैकवर्ड क्लास में है। कहीं एससी में, तो कहीं या एसटी में है। यह सब क्या मसला है?

हां, यह प्रॉब्लम है। इसको समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। 1932 में देश में एक डिप्राइव्ड क्लासेज की लिस्ट थी। इसमें जो अनटचेबल यानी अस्पृश्य थे, एसटी की श्रेणी में शामिल थे। और वहीं, ट्राइब्स के नाम पर आदिवासी थे। और क्रिमिनल ट्राइब्स के नाम पर घुमंतू जातियों के लोग थे। एक कमीशन था- शार्प कमीशन इस कमीशन में आंबेडकर जी मेंबर थे। आंबेडकर जी ने यह एफिडेविट समर्पित किया कि अनटचेबल्स ओनली शुड बी द इन द डिप्राइव्ड कलासेज। ओनली अनटचेबल!

इससे यह हुआ कि हमारा क्रिमिनल ट्राइब्स, डिप्राइव्ड कलासेज से बाहर आ गया। पूना पैक्ट आप जानते होंगे। गांधी और आंबेडकर के बीच में पूना पैक्ट हुआ। आंबेडकर उनके पास यह कहने गए कि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन का अधिकार चाहिए। पृथक संविधन चाहिए। लेकिन, गांधी जी ने आंबेडकर से कहा कि सेपरेट कांस्टीट्यूशन (पृथक संविधान) नहीं मिलेगा, लेकिन पॉलिटिकल रिजर्वेशन (राजनीति में आरक्षण) मिल जाएगा। आंबेडकर जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तबसे दलित के लिए पॉलिटिकल रिजर्वेशन शुरू हो गया। तब आदिवासियों को भी यह अधिकार नहीं मिला। ठक्कर बाप्पा ने आंबेडकर से पूछा, “यह आदिवासी दलित से और पूर्व का आदमी है। उनके लिए आप रिजर्वेशन क्यों नहीं मांगते हैं?” आंबेडकर बोलते हैं कि वह अलग बात है। ठक्कर बाप्पा गांधी जी के शिष्य थे। उनके लिए प्लानिंग करके वह अलग तरीके से उसका रिजर्वेशन मांगते हैं। लेकिन, उस समय क्रिमिनल ट्राइब्स के लिए बात करने वाला, उसके मुद्दे को उठाने वाला कोई आदमी नहीं था; इस कारण उसकी सारी बातें हवा में उड़ गईं।

आप जिस क्रिमिनल टाइब्स की बात कर रहे हैं। यह अंग्रेजों ने बनाई थी। खासतौर से उन जातियाें के लिए, जो खानाबदोश थीं। घुमंतू जातियां थीं। ऐसी ही जातियां बिहार, उत्तर प्रदेश सहित अन्य हिंदी राज्यों में थीं। खास करके यदि मैं बिहार की बात करूं, तो वहां क्रिमिनल कास्ट भी हुआ करती थी। हिंदी भाषी क्षेत्र के जो लोग हैं, वे इस बात को जानते हैं। इनमें कुछ दलित जातियां भी हैं। जैसे, एक जाति है- दुसाध (पासवान)। पहले ये क्रिमिनल कास्ट में आते थे। बाद में इनको शेड्यूल कास्ट में शामिल किया गया। लेकिन, जो क्रिमिनल ट्राइब्स थे, उनको 1953 में डीएनटी एक्ट बनाकर नया विकल्प जरूर दे दिया गया। मगर, पहचान का जो सवाल है, वह अभी तक बरकरार है। 1953 को बीते लंबा अरसा हो गया है। इस मसले पर गंभीरता पूर्वक विचार क्यों नहीं किया गया? आपको क्या लगता है?

डीएनटी एक्ट कैसे बना? यह सभी को पता होना चाहिए। डीएनटी क्या होता है? -डिनोटिफाइड ट्राइब्स। डिनोटिफाइड क्या है? एक बार सरकार ने 1853 में नोटिफाई किया। मतलब एक सूची बनाई, जिसमें हमारे लोगों को शामिल किया। जो आप बात कर रहे हैं, वह 1953 में हुआ। इस वर्ष भारत सरकार ने डिनोटिफाइड कर दिया, यानी सूची से हटा दिया। इसीलिए डिनोटिफाइड ट्राइब्स हो गया है। यह नाम पहली बार काका कालेलकर ने दिया। उन्होंने विमुक्त जाति कहा था। वह विमुक्त जाति इंग्लिश में नोटिफाइड से डिनोटिफाइड हो गई। तबसे उसे हम डिनोटिफाइड ट्राइब्स बोलते हैं।

भारत में विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध-घुमंतू जनजातियां (स्रोत : रेणके कमीशन की रिपोर्ट, 2008)

1953 से अब तक काफी लंबा समय हो गया। अभी तक उन लोगों को पहचान नहीं मिल पाई है। जो सवाल थे, वे जस-के-तस रह गए। क्या वजह रही?

प्रॉब्लम यह है कि इस देश में जब बाहरी लाेगों के साथ संघर्ष हुए, तब तक एक ही कम्युनिटी तुरंत जवाबी हमला करती थी। वह आदिवासी कम्युनिटी थी। वे लड़ते थे। जल-जंगल-जमीन से संबंध था उनका। उनके (आदिवासियाें के) सामने दलितों का जो संघर्ष है, वह कुछ नहीं है। डीएनटी का संघर्ष भी उतना नहीं रहा। उनके लिए किसी ने  कुछ किया? डीएनटी के बारे में किसने पहल की? अपर क्लास के लोगों ने किया सारा संघर्ष। वे लोग सोचे कि हमें सारे समाज को सुधारना पड़ता है। उसके लिए ब्राह्मण ने भी किया। कम्युनिस्टों ने भी कुछ नहीं किया। डीएनटी समुदाय से कुछ लीडर्स आए हैं, वे नए हैं। सो अभी तक भारत सरकार के पास उनके लिए कोई प्रोग्राम भी नहीं है। (यानी) कुछ नहीं हुआ (डीएनटी के के लिए)।

क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट में बहुत बड़ा अत्याचार यह हुआ कि हमारे लोगों को ओपन जेल में लेके जाने को कहा गया। तबसे वे हमें ओपन जेल में रखते आए हैं। इसके बारे में हेगड़े कमीशन ने एक बहुत अच्छी रिपोर्ट बनाई। फिर बघारे कमीशन की रिपोर्ट के बाद ही नोटिफाइड से डिनोटिफाइड हुआ। वापसी तो हुई नहीं। कई अनुशंसाएं थीं, उस रिपोर्ट में। भारत सरकार ने भी कहा कि हम अनुशंसाएं लागू करेंगे। लेकिन, कुछ नहीं हुआ। क्योंकि, हमारे पास जो जनतंत्र है, उसमें लोग अगर एकजुट होकर संघर्ष नहीं करेंगे, आंदोलन नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं होता है। कोई दया करके आपके लिए कुछ नहीं करता है। आप परेशानी में हैं, बोलकर भी आपको आपका अधिकार नहीं देगा।

डेमोक्रेसी में जब तक हम एकजुट नहीं होंगे, संगठित नहीं होंगे; संघर्ष नहीं करेंगे; तब तक कुछ नहीं होगा। हमारी (डीएनटी समुदाय की) दुर्दशा का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि संविधान में हमारा नाम भी नहीं है। कहीं डीएनटी, तो कहीं एनटी और कहीं एसएनटी। हम कहीं ओबीसी में हैं। कहीं एससी में हैं, तो कहीं एसटी में हैं। हम माइनॉरिटीज में भी शामिल हैं। माइनॉरिटीज में हमारे लोग मुख्य रूप से कौन हैं? मुस्लिम समुदाय में घुमंतू वे लोग हैं, जो कलंदर हैं। सपेरा हैं। यह सब तो आदिवासी लोग थे। अभी तक मुस्लिम समाज उन्हें घर के अंदर नहीं घुसने देता है। कोई हाय-हेलो तक नहीं है। रोटी-बेटी वाला संबंध तो छोड़ ही दीजिए, उन्हें आदमी की नजर से भी नहीं देखा जाता। हमारे लोग दरगाह पर जाते हैं, लेकिन दरगाह कमेटी में घुमंतू समुदाय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं रहता है। इधर, अपर कास्ट मुस्लिम लोग और वहां हिंदू सवर्ण लोग रहते हैं। हमारे लोगों को भीख मांगकर जीना पड़ता है।

आप सिख धर्म को लीजिए। सिख धर्म में भी हमारे लोग हैं। वे गुरुद्वारे जाते हैं। लेकिन, कोई उन्हें घर में घुसने नहीं देता है। यह पूर्ण रूप से अनटचैबिलिटी का उदाहरण है। ‘आंबेडकर नेवर कंसीडर्ड दिस ऐज एन अनटचैबिलिटी’ (आंबेडकर ने कभी भी इसे अस्पृश्यता नहीं माना)। (अरे) यह भी सिख है, वह भी सिख है। यह भी मुस्लिम है, वह भी मुस्लिम है। केवल विमुक्त कहकर छोड़ दिया (घुमंतू काे)।

अच्छा, आज का जाे भारत है; उसमें जो राजनीतिक दल हैं। उन्होंने डीएनटी के इश्यूज काे कितना समझा है?

(हंसकर) पहला कमीशन, जब वाजपेयी (अटल बिहारी वाजपेयी) प्रधानमंत्री थे, ताे उन्हाेंने चालू किया। तब महाराष्ट्र की धनगण कम्युनिटी ने उनको सम्मानित किया। हमारे लिए वाजपेयी जी ने कमीशन बिठाई, वह तो जेंटलमैन थे। पर, उन्हाेंने हैदराबाद के मोती लाल नायक नाम के एक आदमी को छह महीने के लिए बिठा दिया । हमारी कम्युनिटी के आदमी ने उनकाे मना भी किया। उसके बाद लाेकसभा चुनाव में बीजेपी हार गई। कांग्रेस आई। उसको घुमंतू बोले तो कुछ भी नहीं मालूम। डीएनटी बोले तो कुछ भी नहीं मालूम। लेकिन, गुजरात की महाश्वेता देवी जी और बंगाल की गनेश देवी जी (जिनकाे बंगाल की अम्मा बाेलते हैं वाे लाेग) ने मनमोहन सिंह (तत्कालीन प्रधानमंत्री) से बात करके एक कमीशन बिठाई। लेकिन, इस कमीशन का रिकमेंडेशंस होने के बाद (कांग्रेस गवर्नमेंट है, तब भी) उसे एक्सेप्ट भी नहीं किया, रिजेक्ट भी नहीं किया।

इस कमीशन के चेयरमैन कौन थे?

उनका नाम बालकृष्ण रेणके था। बालकृष्ण रेणके महाराष्ट्र में डमरू बजाकर भीख मांगने वाली कम्युनिटी के हैं। वे कहते थे कि मैं अपने पिता के साथ में मुंबई में भीख मांगता था। उन्होंने आयोग के अध्यक्ष के रूप में बहुत अच्छा काम किया। 17 अनुशंसाएं कीं, लेकिन कुछ नहीं हुआ। बाद में कांग्रेस हार गई। बीजेपी आई और फिर एक कमीशन का गठन किया गया। (इसने) आरएसएस के आदमी को अध्यक्ष बना दिया। इस आदमी को भी कुछ नहीं मालूम। वह वही करेंगे, जो बीजेपी वाले बोलेंगे। जो आरएसएस बोलेगा- वही करेंगे। लंबे समय के बाद इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन, इसमें कुछ भी जानकारी नहीं है। अभी तक कमीशन की रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की गई है।

गडिया लोहार परिवार का एक घर

एक रिपोर्ट तो सामने आई न? इसमें उन्होंने कुछ अपनी बातें कहीं। उन्होंने कुछ रिकमेंडेशंस भी किए। आप क्या कहेंगे?

केवल अनुशंसाएं की गईं। रिपोर्ट अभी तक किसी को नहीं मिली। लेकिन, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय कहता है कि वह रिपोर्ट हमारे पास है। यदि उन्होंने रिपोर्ट को स्वीकार किया होता, तो वेबसाइट पर जारी कर सकते थे। लोगों के बीच ला सकते थे। लेकिन, अभी तक तो कुछ भी नहीं किया गया है।

अाप ही बताएं कि आप लोगों की मांगें क्या हैं? भारत सरकार से क्या चाहते हैं आप?

डिमांड्स तो बहुत हैं। लेकिन, सबसे पहले तो भारत सरकार हमें संविधान में जगह दे। संविधान में नोमैडिक ट्राइब्स, डिनोटिफाइड ट्राइब्स और पशु पालक घुमंतू -ये तीन शब्द जोड़े जाने चाहिए। दूसरी मांग यह है कि सरकार हमारी जनगणना कराए। हमें पता तो चले कि पूरे भारत में हम कहां-कहां और कितने हैं। अभी तक हमारी कोई गणना ही नहीं हुई है। हमारे लिए कोई योजना नहीं है। योजनाएं हैं, तो अनुसूचित जाति के लिए। अनुसूचित जनजाति के लिए और ओबीसी के लिए। इन योजनाओं से हमें कुछ भी नहीं मिल रहा है। हमारे लिए पृथक रूप से योजनाएं बनें। अभी हालात क्या हैं? आप किसी भी शहर के चौक-चौराहे पर जाएं, रेड सिग्नल पर जाएं, वहां बच्चे-औरतें फूल आदि बेचते मिलेंगे। इनमें 80-90 फीसदी तो हमारे अपने लाेग हैं। डीएनटी समाज के लाेग हैं। ये लोग छोटे-मोटे काम करके अपना जीवन जीते हैं। रहने को घर तक नहीं होता उनके पास।

भूमिहीनता एक बड़ी समस्या है खानाबदोशों के लिए। क्या कहेंगे?

भूमिहीनता क्यों है? इसकी वजह बताता हूं आपको। यह सब क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के कारण हुआ। इसी एक्ट में डीएनटी समुदाय को प्रॉपर्टी खरीदने का हक नहीं था।

नंदीवाला जनजाति का एक वृद्ध

इसी एक्ट में?

हां, इसी एक्ट में। हम प्रॉपर्टी नहीं खरीद सकते। इसलिए आज कुछ नहीं है हमारे पास। संसाधनों की समस्या वैसी ही है। इन सब मुद्दों के बारे में मैंने फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन जी को बताया है, ताकि बहुजन पत्रकारिता में हमारे मुद्दों को जगह मिल सके। मैं जिन समुदायों की बात कर रहा हूं, वे पहले से जंगल से दूर हो गए थे। वे खानाबदोश हैं और घूम-घूमकर जीवन जीते हैं। उनका कोई ठिकाना नहीं है। कौन घुमंतू जाति का है या काैन नहीं है, उसकी पहचान का एक तरीका मैं बतलाता हूं। आप पाएंगे कि दलित थोड़े सांवले होते हैं, जबकि घुमंतू जातियों के लोग, जो दलितों में शामिल हैं; उनसे गोरे होते हें। जैसे कि डोम। मैं खुद भी इसी जाति का हूं। हमारे लोगों के पास काम नहीं है। या तो वे भीख मांगते हैं या फिर सफाई का काम करते हैं। अभी भी काशी में एक डोम राजा रहता है। डोम राजा का काम क्या है? अंत्येष्टि के समय चिता जलाने और साफ करने का काम करता है वह। क्या आपको मालूम है कि कंघी, जिसका इस्तेमाल हम सभी बाल संवारने के लिए करते हैं; डोम समाज की औरत का इनवेंशन है। उसने पशु के सींग से इसका निर्माण किया। यह सौंदर्य प्रसाधन की अन्य वस्तुएं, जैसे- काजल और बिंदी सब हमारे समाज के लोगों की दी हुई हैं। हमारे लोग कला में निपुण थे।

अच्छा फिर से एक पॉलिटिकल सवाल पर आते हैं कि दक्षिण के राज्यों में विमुक्त जनजातियों की स्थिति क्या है?

प्रॉब्लम यह है कि हम 20 राज्यों में तो हैं, लेकिन अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। प्रॉब्लम यह है कि नॉर्थ इंडिया में यह घुमंतू व विमुक्त लोगों का कोई मूवमेंट ही नहीं है। यहां तक कि वे यह भी नहीं जानते कि वे डीएनटी समुदाय के हैं। जब तक हम डीएनटी की राजनीति नहीं करेंगे, तब तक कोई कुछ नहीं करेगा। सरकार भी काम तभी करती है, जब आंदोलन होते हैं; मांग उठाई जाती है। लेकिन, डिमांड करेगा  कौन? यदि कोई यह जानता ही नहीं है कि वह डीएनटी है या नहीं? इतिहास में हमें क्या पढ़ाया गया? संविधान में हमारी कोई पहचान नहीं है।

जाहिर तौर पर इन सबके लिए जरूरी है कि किताबें लिखी जाएं। लेकिन, किताब से भी पहले छोटी-छोटी पुस्तिकाएं। (तब शायद) इनके कारण डिमांड बनेगी!  

देखिए, मूल समस्या आईडेंटिटी यानी पहचान की है। अब देखिए कि मैं स्वयं आंध्र प्रदेश में ओबीसी, कर्नाटक में एससी में श्रेणीबद्ध हूं। महाराष्ट्र में डीएनटी में हूं। राजस्थान में मैं अपर कास्ट हूं, राजा हूं मैं। उधर बी स्टेटस भी नहीं है हमको। हरियाणा में मैं एससी हूं, तो किस बेस पे मैं पॉलिटिक्स करूंगा?

जब हम दलित कहते हैं, तो यह एक ब्रांड नेम है। पॉलिटिक्स करने में इस शब्द से सहायता मिलती है। तो सब जगह आइडेंटिटी पॉलिटिक्स है। इसलिए जब कोई मुझे एससी, एसटी या ओबीसी कहता है। मैं कहता हूं – ‘छोड़ो यार, हम डीएनटी हैं।’

हम डीएनटी की पॉलिटिक्स को आगे बढ़ा रहे हैं। दलित राजनीति करने वाले कहते हैं कि वे सब दलित हैं, जो वंचित और शोषित हैं। ठीक है। लेकिन, उन्हें यह बताना चाहिए कि उनके पार्टी संगठनों में कितने डीएनटी हैं? घुमंतू भी डीएनटी है। दलित है न? कितने घुमंतू को आपने लीडरशिप दी है? चलिए, कम्युनिस्टों से पूछते हैं, “कम्युनिस्ट में कितने दलित और कितने डीएनटी समुदाय के लोग हैं?”

बात भी स्वाभाविक है।

अब केवल बात से कोई काम नहीं होगा न! हमें रिप्रेजेंटेशन चाहिए। दलितों का रिप्रजेंटेशन है। एसटी का भी है और ओबीसी का भी है। लेकिन, हम इन तीनों में से कोई नहीं हैं। हम हिंदू नहीं हैं। हम डीएनटी हैं। हमें न तो एससी के हिस्से का लाभ चाहिए, न एसटी समुदाय के हिस्से का और न ही ओबीसी वर्ग का।

आप अपने आप को क्या मानते हैं?

हम नाग संप्रदाय से हैं। हमारे लोग नाग संप्रदाय से आए हैं। हमारे लोग, जाे काले लोग… सारे लोग अभी लोकायत समुदाय से हम हैं।

डीएनटी समुदाय की परंपराओं और संस्कारों के बारे में बताएं?

हम सीधी बात करने वाले लोग हैं। प्रकृति को ही सर्वस्व मानते हैं। जब खेत में बीज लगाते हैं, तो ईश्वर को कहते हैं- “तेरा नाम लेकर यह बीज बो रहा हूं। अगर यह नहीं हुआ, तो मेरे साथ तुम्हें भी खाना नहीं मिलेगा।” जब कोई मर जाता है, तब हम भगवान को बोलते हैं- “तुमने ही दिया, तुमने ही लिया। मिट्टी से आया, मिट्टी में चला गया।”

और (हमारे में) काेई अन्य जाति का आदमी पुजारी नहीं रहता है। हमारी कम्युनिटी का आदमी ही उधर पुजारी रहता है। किसी ब्राह्मण को उधर पूजा करने-कराने की जरूरत नहीं है। मैंने पहले ही बताया कि हम हिंदू नहीं हैं। यदि हिंदू होते, तो हमारा भगवान भी हमारे जैसे मांस खाता। ताे अगर मैं मांस खाता हूं ताे, मेरा भगवान क्यों नहीं मांस खाता है? अगर मैं तेलुगु बोलता हूं, तो मेरा भगवान तेलुगु क्याें नहीं बाेलता, संस्कृत क्यों बोलता है? हमारा इतिहास मौखिक इतिहास है। आदिवासी का इतिहास भी मौखिक इतिहास है। हमारा भगवान जाे है, प्रकृति है।

हम मानवता को समझते हैं। इसके मूल्यों को समझते हैं। एक परंपरा है हमारे यहां कि किसी बावड़ी (कुएं/तालाब) का पानी दो दिन नहीं पीना है। यानी आज किसी एक बावड़ी का (पानी पिएंगे), तो कल दूसरी बावड़ी का।

अभी भी यह कल्चर है? क्या अभी भी फाॅलो करते हैं इसे?

फाॅलो करने का मतलब यह कि जाे घुमंतू हैं, वे तो फॉलो कर ही रहे हैं। हम पहले से ही हिंदुइज्म का विरोध करते रहे हैं। कपालिका कालमुखा बोलते हैं पहले से। अब हिंदू आकर बाेलते हैं कि आप बुरे हैं। आप ऐसे हैं। आप बागी हैं। कपालिका का मतलब क्या है? कपाल, यह (मानव) खोपड़ी है। उसमें हम खाते थे। क्योंकि हमारे पास प्लेट लेने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए मानव के कपाल में खाते थे। उसको कपालिका बोलते थे। उसको ब्राह्मणों ने कहा कि कपालिका-कालमुखा का कोई रिकाॅर्ड नहीं है। पहले क्या था? हठ संप्रदाय में आने के बाद वो पहले हठयोग जैसा था। ब्राह्मणों को कुछ नहीं मालूम है। यह पतंजलि-वतंजलि सब बकवास है। योगा हमने सिखाया, दुनिया को… हठयोगा। वो जो महिला योगा सिखाती है न… ब्रह्मकुमारीयह सब ब्राह्मण परंपरा है। वे हमारे योगा काे लेकर स्पिरिचुलिटी/अध्यात्म का एजेंडा सेट करने के लिए काॅरपोरेट कंपनी बनाई रविशंकर ने। उसने बेचना शुरू किया। ये कॉरपाेरेट लेवल तक लेकर गए हमारे योगा को। वह सब छोड़ दीजिए। अभी इंडिया में हम चार  स्टेट्स में हैं- तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक… इन चार राज्यों में अलग-अलग कम्युनिटीज से हैं हमारे लोग। और नॉर्थ इंडियन स्टेट्स में जो हैं, वे ब्राह्मणों के प्रभाव में हैं। महाराष्ट्र की बात बहुत अलग है। घुमंतू मूवमेंट्स शुरू हुआ महाराष्ट्र से, आंबेडकर के प्रभाव से। यह अच्छा हुआ कि एक मूवमेंट शुरू हुआ। एक बुरी बात भी हुई- आंबेडकर मूवमेंट्स ने इतने टुकड़े-टुकड़े किए कि सब कुछ दलित मूवमेंट जैसा हो गया। डीएनटी मूवमेंट भी ऐसा ही हो गया। कुछ नहीं हुआ। एक-एक आदमी को एक-एक संगठन, एक-एक आदमी को एक-एक पार्टी चाहिए। अभी तक लगभग 10-10 पॉलिटिकल पार्टीज हैं। लेकिन, इनमें डीएनटी से कोई नहीं है। एक जीतन राम मांझी हैं। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री। उनकी पार्टी हम (हिंदुस्तान आवाम मोर्चा) है। डीएनटी के नाम पर कुछ नहीं हुआ। वह दलित नाम पर होगा, महादलित बोलते हैं बिहार में। और उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर डीएनटी नहीं, क्षत्रिय हो गए। वे राजा हो गए। उनकी पार्टी, राजा की पार्टी हो गई।

आप राजा सुहेलदेव की बात तो नहीं कर रहे?

हां, सुहेलदेव। सुहेलदेव काे राजा बनाया आरएसएस ने। और हाल ही में योगी आदित्यनाथ के लोकसभा क्षेत्र गोरखपुर से एक आदमी जीता- डॉ. श्रवण कुमार निषाद। वह हमारा आदमी है। हम कहां-कहां और किस-किस जाति के रूप में हैं? इस पर रिसर्च होनी चाहिए। लेकिन, अपर कास्ट के लोग यह रिसर्च नहीं करेंगे, हमें ही करनी है।

(लिप्यांतरण : प्रेम / काॅपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)

आलेख परिवर्द्धित : (15 दिसंबर 2018, 8:00 AM)


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