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सोशल मीडिया पर मैसेज शेयर करने से पहले याद रखें अदालत की नसीहत

अमूमन लोग सोशल मीडिया पर बिना समझे-बूझे ही संदेश शेयर कर देते हैं। कई बार जानने-समझने के बावजूद सवाल खड़ा होने पर इनकार कर देते हैं। परंतु, मद्रास हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि लोग संदेश तो शेयर करें, लेकिन सोच-समझकर। फारवर्ड प्रेस की खबर :

अगर आप आंख मूंदकर सोशल मीडिया पर खुद को प्राप्त संदेशों को दूसरों को भेजते हैं या उन्हें शेयर करते हैं, तो सावधान हो जाइए। अब आप यह कहकर नहीं बच सकते कि आपको यह संदेश किसी और स्रोत से मिला था और आपने तो इसे सिर्फ शेयर किया है या किसी को फॉरवर्ड भर किया है। अब आपको इसके लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार माना जाएगा कि भेजे गए या शेयर किए गए संदेश के प्रति आपकी सहमति है।

इस संबंध में 10 मई 2018 को मद्रास हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई में साफ कहा था कि सोशल मीडिया पर अगर आप किसी की पोस्ट को शेयर करते हैं या उसको फॉरवर्ड करते हैं, तो यह माना जाता है कि आप उस संदेश को स्वीकार करते हैं और उससे सहमति जताते हैं। एक महिला पत्रकार के बारे में एक पोस्ट को शेयर करने के आरोप में फंसे भाजपा के एक नेता एसवी शेखर को कोर्ट ने अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था।

सोशल मीडिया का करें इस्तेमाल, लेकिन संभलकर

शब्दों में हथियारों से अधिक ताकत

मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश एस. रामथिलगम ने अपने फैसले में कहा था, “शब्दों में हथियारों से अधिक ताकत होती है। या कहा जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है। पर, कौन कह रहा है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि, लोग किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए उसका आदर करते हैं। जब कोई बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्ति इस तरह का कोई संदेश फॉरवर्ड करता है, तो आम आदमी यही सोचेगा कि इस तरह की बातें समाज में हो रही हैं। एक ऐसे समय में जब हम महिला सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं, इस तरह की बातों से समाज में गलत संदेश जाता है।”  

सनद रहे कि अदालत ने अपनी टिप्पणी में मैसेज शेयर करने से प्रतिबंधित नहीं किया है और न ही उसने यह कहा है कि किसी भी संदेश को शेयर नहीं किया जाना चाहिए। उसने तो साफ कहा है कि यदि कोई व्यक्ति किसी भी संदेश काे शेयर करता है, तो उसे संदेश में लिखी गई जानकारी व विचार से सहमत माना जाएगा।

अभिव्यक्ति की आजादी के लिए नहीं, दुरुपयोग पर नियंत्रण को लेकर अदालत गंभीर

हालांकि, अदालतों ने कई ऐसे फैसले दिए हैं, ताकि हर नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकारों की रक्षा हो सके। मसलन, केंद्र सरकार को ‘सोशल मीडिया हब’ बनाने का अपना प्रस्ताव 3 अगस्त 2018 को वापस लेना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस की महुआ मित्रा ने केंद सरकार के इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले हुई सुनवाई में यह आशंका जाहिर की थी कि यह ‘सर्विलांस स्टेट’ को जन्म देगा।

सोशल मीडिया ने सूचना क्रांति की पीठ पर सवार होकर पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक सूचना पहुंचाने का जो काम किया है, उस पर गाहे-बगाहे लगाम लगाने की कोशिशें होती रही हैं। परंतु, सोशल मीडिया और सूचना क्रांति का एक नकारात्मक पक्ष भी है। किसी भी गलत खबर या सूचना को प्रसारित करना पहले की तुलना में ज्यादा आसान हो गया है। गलत और सही हर तरह की सूचना को अब दुनिया के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचने में सिर्फ कुछ सेकेंड का ही वक़्त लगता है।

दरअसल, सूचना क्रांति की ज्वालामुखी का विस्फोट हो चुका है और अब इसकी राख और मलबे पर हम बैठे हुए हैं। सूचना तकनीक के इस विस्फोट ने संवाद करने के तरीके को बदल दिया है। सूचना क्रांति के पहले संवाद के लिए जो नियम निर्धारित किए गए थे, वे एकांगी और उत्पीड़नकारी थे; और अब वे नष्ट हो चुके हैं। सूचना क्रांति से पहले संवाद का जो ‘खेल’ होता था, वह ब्राह्मणवादी था। इसके नियमों को गढ़ने वाले वो लोग थे, जिनको उस व्यवस्था का सर्वाधिक फायदा मिलता था। कहने का मतलब यह है कि संवाद के इस खेल के नियम उन्हीं लोगों को फायदा पहुंचा पाते थे, जो इस पिरामिड के शीर्ष पर बैठे होते थे।

सूचना क्रांति का जो विस्फोट हुआ, उसने इस पूरी व्यवस्था को सिर के बल खड़ा कर दिया। चूंकि राज वही करता है, जिसके पास सूचना होती है। और जिसके पास जितनी अधिक सूचना होती है, सत्ता पर उसकी पकड़ उतनी ही मजबूत होती है। इसलिए सत्ता में बैठे लोग सूचनाओं के प्रवाह को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। समाज का सबल वर्ग भी पहले यही करता था। वैसे सूचना क्रांति के इस उत्तरकाल में ‘फेक न्यूज’ के माध्यम से यही मतलब साधने (नियंत्रण करने) की कोशिश की जा रही है।

इसका अदालतों द्वारा संज्ञान लिया जाना, सोशल मीडिया की सूचनाओं के दुरुपयोग को नियंत्रित किए जाने की एक प्रक्रिया का हिस्सा कहा जा सकता है।

मद्रास हाई कोर्ट, चेन्नई

इस संदर्भ में मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को ही देखें। अदालत ने कहा, “हत्या के दोषी के हर व्यक्ति को फांसी की सजा नहीं दी जाती है। हम उन हालात और इस तरह के मामले के सभी पक्षों पर गौर करते हैं, जिनके तहत इस तरह के कार्य को अंजाम दिया गया। सोशल मीडिया में संदेशों के अादान-प्रदान के मामले में आए दिन भावुक किशोर युवा इस तरह के आरोप में गिरफ्तार किए जाते हैं। कानून सबके लिए एक समान है और लोगों को न्यायिक व्यवस्था में विश्वास बनाए रखना चाहिए। भूल और अपराध एक समान नहीं हैं। जब एक किशोर भूल करता है, तो उसे माफी दी जा सकती है। लेकिन, यदि कोई वयस्क ऐसी भूल करे, तो यह एक अपराध है। लोग झगड़े के दौरान इस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं और माफी मांग लेते हैं। पर, जब इस तरह के शब्दों को लिखा जाता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह इसके परिणामों के बारे में सचेत होता है।”

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

कोर्ट ने यह टिप्पणी तब की, जब आरोपी भाजपा नेता ने अपनी सफाई में कोर्ट में कहा था कि उन्हें तो यह मेसेज एक ऐसे मित्र से मिला, जो अमूमन देशभक्ति की बातें साझा करते हैं या उसे फॉरवर्ड करते हैं और उन्होंने गलती से बिना पढ़े या उसमें लिखे संदेश को समझे बगैर आगे बढ़ा दिया।

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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