सत्तारूढ़ व्यवस्था द्वारा ‘दलित’ शब्द के बदले ‘बहुजन’ शब्द के प्रयोग पर ज़ोर देने का उन्मादी प्रयास और दिल्ली विश्वविद्यालय की शैक्षणिक मामलों की देख-रेख करने वाली स्टैंडिंग कमिटी द्वारा स्नातकोत्तर स्तर के राजनीति विज्ञान पाठ्यक्रम से कांचा आयलैया शेफ़र्ड की तीन पुस्तकों को हटाने की सिफ़ारिश कुछ व्याकुल करने वाले सवाल खड़ा करती है। भारत का शैक्षणिक समुदाय आखिर ‘दलित’ शब्द और दलित चिंतन को लेकर इतना असहज क्यों है? समिति का मानना है कि आयलैया की किताबें हिंदू धर्म की भर्त्सना करती हैं। अतः ये छात्रों के लिए हानिकारक हैं और हिंदू धर्म का अपमान करती हैं। कोई उनके विचारों या दृष्टिकोण से सहमत या असहमत हो सकता है, लेकिन पाठ्यक्रम से उनके ग्रंथों को हटाना, यह अकादमिक स्वतंत्रता तथा इतिहास, संस्कृति और समाज के वैकल्पिक अध्ययन पर हमला है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे जाने-माने तथ्यों का प्रतिकार करने की सारी संभावनाओं पर रोक लगायी जा रही है। तथ्यों के वैकल्पिक पाठों के प्रति इस प्रकार की घृणा भारत की विविधता और तर्कमूलक वाद-विवाद की परंपरा के विरुद्ध है। भारतीय समाज ने गौतम बुद्ध, कबीर, रविदास, जोतीराव फुले, पेरियार और आंबेडकर जैसे गंभीर वैचारिकी से लैस विलक्षण विचारकों को जन्म दिया है। इसलिए, इस परंपरा को जारी रखने के लिए भारतीय चिंतन में भिन्न-भिन्न भाषाओं में वाद-विवाद की इस विविधता को भारतीय विश्वविद्यालयों तथा अन्य स्थानों पर फैलने-फूलने का अवसर दिया जाना चाहिए।
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