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भीमा-कोरेगांव : एक साल बाद भी आरोप लगा रही पुलिस

पेशवाई सैनिकों पर महार सैनिकों की जीत की दो सौवीं वर्षगांठ के मौके पर हुई हिंसा मामले में पुलिस एक साल बाद भी केवल आरोप लगा रही है। इस मामले में पीएम की हत्या की साजिश की बात कही गयी, पुलिस इसका भी सबूत नहीं जुटा पायी है

 पीएम की हत्या की ‘संगीन साजिश’, लेकिन सुबूत कोई नहीं

भीमा कोरेगांव की 200वीं सालगिरह पर उपजी हिंसा के मामले में पुलिस जांच और कोर्ट-कचहरी की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। एक साल बाद भी पुलिस के पास केवल आरोप हैं, कोई सबूत नहीं। पूरे मामले में पुणे पुलिस ने जांच की थी और 6 जून को पांच लोगों को गिरफ्तार किया था। सुधीर धवले, रोना विल्सन, सुरेंद गाडलिंग, शोमा सेन और महेश राउत पर हिंसा भड़काने और माओवादियों से रिश्ता रखने का आरोप लगे। प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचने के आरोप भी लगे। इसके बाद देश की 5 नामी हस्तियों को भी भीमा कोरेगांव केस से जोड़कर हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया जिनमें बरबरा राव और सुधा भारद्वाज समेत पांच लोग गिरफ्तार किए गए। सुप्रीम कोर्ट की भारी फटकार के बाद पुलिस ने आरोपियों पर नवंबर को पुणे सेशन कोर्ट में चार्जशीट दायर की। जाहिर है एल्गार परिषद के कार्यकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई अभी सुनिश्चित नहीं हुई है।

 

5600 पन्नों की चार्जशीट में क्या है?

महाराष्ट्र पुलिस ने 5600 पन्नों में आरोप पत्र तैयार किया है। इसे उसने नवंबर में पुणे कोर्ट को सौंपा लेकिन इस आरोप पत्र में इतनी खामियां हैं कि पुलिस के सारे दावों पर सवाल खड़े हो गए हैं। अबतक जो तथ्य सामने आए हैं, उनके अनुसार जून में गिरफ्तार किए गए वकीलों, कार्यकर्ताओं, कवियों और प्रोफेसरों के खिलाफ दायर चार्जशीट में आरोपियों के माओवादियों से कथित संबंधों के दावों पर आरोप पत्र को कई आधारों पर कमजोर साबित हुए हैं। एक बार फिर बता दें कि एक जनवरी को भीमा कोरेगांव गाँव की सभा में दंगे या जातिगत संघर्ष को भड़काने के आरोप में सुधीर धवले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन और महेश राउत को गिरफ्तार किया गया था। यहां हुई हिंसा में एक व्यक्ति मारा गया और कई अन्य घायल हो गए थे।

1 जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगांव में जुटे दलित

दरअसल “आरोप पत्र में जातिगत हिंसा से जुड़े पहलू की जांच में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने के लिए माओवादियों ने साजिश रची। इस कड़ी में पुलिस ने कार्यकर्ताओं के घरों, ठिकानों पर छापे से लेकर कई दस्तावेज बरामद दिखाए हैं, सबूत के तौर पर कॉल रिकॉर्ड विवरण और पुलिस अधिकारियों के बयान के साथ-साथ एल्गार परिषद के संगठन में शामिल लोगों बयान दर्ज किए। मुख्य आरोप यानी पीएम को मारने की साजिश में आरोपियों के मेल खंगालने का दावा किया गया। कथित साजिश में प्रचार सामग्री यानी समारोह में बांटे गए पर्चे भी नत्थी किए हैं।

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लेकिन समारोह में बांटे गए जिस पर्चे का जिक्र किया गया है, उसमें सिर्फ ब्राह्मणवाद, बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ लामबंद होने की अपील की गई है। जातिगत आधार पर भड़काने का कोई तथ्य नहीं है। इसके अलावा पुलिस के दर्ज किए गए 50 बयानों की सच्चाई भी सामने आयी। इनसे भी किसी तरह के माओवादियों से संबंध होने का पता नहीं चलता। बयानों में यह भी साबित हुआ है कि भीमा-कोरेगांव समारोह के आयोजन के लिए माओवादियों से पैसा नहीं लिया गया बल्कि इसके लिए 250 संगठनों, जो इसके आयोजक थे, उन्होंने 75,000 रुपये की धनराशि सभी ने आपस में मिलकर जुटाई थी। पीएम को मारने की साजिश में सिर्फ एक आपसी मेल का बार-बार उल्लेख है जो किसी कामरेड आर और कामरेड प्रकाश के बीच है।”

पत्र में लिखा गया है कि, “कामरेड किसान और कुछ अन्य वरिष्ठ साथी मोदी-राज को समाप्त करने के लिए ठोस प्रस्ताव रख रहे हैं। हम एक और राजीव गांधी-प्रकार की घटना के बारे में सोच रहे हैं।” …लेकिन उसकी प्रामाणिकता नहीं है जब कि मीडिया और पब्लिक डोमेन में ये बात पांच महीने पहले रखी गई थी- आरोप पत्र में इसके सबूत के तौर पर कोई दस्तावेज नहीं रखा गया है। चार्जशीट से अभियुक्तों के कॉल रिकॉर्ड के दो खंड भी माओवादी लिंक स्थापित करने के लिए नाकाम हैं। फ़ोन नंबरों में नाम पर केवल कुछ ही निर्दिष्ट टॉवरों का उल्लेख या स्थानों के नाम सूचीबद्ध हैं।” (एक्सक्लूसिव,एनडीटीवी, 24-7 रियलिटी चेक, श्रुति मेनन और अन्य, लाइव प्रसारण, 26 दिसंबर 2018)

बाएं से सुधार धावले, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत, और रोना विल्सन

दलित और अन्य सामाजिक संगठनों के छह लोगों ने गवाही दी कि यह आयोजन दो सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति पी.बी. सावंत और न्यायमूर्ति कोलसे पाटिल द्वारा आयोजित किया गया था। लेकिन आरोप पत्र में जजों के बयान को नहीं रखा गया है। यह भी आरोप पत्र में एक और बड़ी खामी है।  

बचाव पक्ष के वकील रिकॉर्ड पर लाए गए दस्तावेजों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं। सुरेंद्र गाडलिंग के वकील निहालसिंह राठौड़ ने कहा, “उन्होंने आज तक पुलिस के खुद से रिकॉर्ड लाई गई बातों के लिए कोई ठोस सबूत नहीं देखे हैं। और क्योंकि वे सबूत नहीं हैं इसलिए हम उनकी प्रामाणिकता (बरामदगी) का पता नहीं लगा सकते हैं।” जब आरोप पत्र में अंतराल पर सवाल किया गया, तो जांच अधिकारी शिवाजी पवार ने कहा कि वे अभी इस पर टिप्पणी कर सकते हैं लेकिन “हम यह बताएंगे कि हम परीक्षण के दौरान बयानों और पत्रों और बाकी सामग्री को कैसे लिंक करें।”

आनंद तेलतूंबड़े की कोर्ट ने नहीं सुनी

इसी बीच 22 दिसंबर 2018 को बांबे हाईकोर्ट ने भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में कहा है कि इस साजिश की जड़ें बहुत गहरी हैं। जस्टिस बी.पी. धर्माधिकारी और एस.वी. कोतवाल की बेंच ने आनंद तेलतूंबड़े की याचिका को खारिज करते हुए ये बात कही। याचिका में आरोपी ने अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने का आग्रह किया। तेलतूंबड़े ने दावा किया था कि उन्हें इस मामले में फंसाया जा रहा है। सभी आरोप गलत हैं। जबकि पुलिस ने दावा किया कि उसके पास कार्यकर्ता के खिलाफ काफी सबूत हैं। बेंच ने कार्यकर्ता की याचिका को 21 दिसंबर को खारिज कर दिया। इसका आदेश दो दिन बाद प्राप्त हुआ। लेकिन इस मामले में हैरानी तब हुई जब प्रोफेसर आनंद ने कहा कि वह घटना के दिन भीमा कोरेगांव में थे ही नहीं। फिर भी उन्हें राहत नहीं मिली।

कोर्ट ने कहा कि तेलतूंबड़े के खिलाफ मुकदमा चलाने लायक सामग्री है। साथ ही कहा कि, ‘अपराध गंभीर है। साजिश गहरी है और इसके बेहद गंभीर प्रभाव हैं। साजिश की प्रकृति और गंभीरता देखते हुए, यह जरूरी है कि जांच एजेंसी को आरोपी के खिलाफ सबूत खोजने के लिए पर्याप्त मौका दिया जाए।’

जांच पर संतोष व्यक्त करते हुए बेंच ने कहा कि पुणे पुलिस के पास तेलतूंबड़े के खिलाफ पर्याप्त सामग्री है और उनके खिलाफ लगाए गए आरोप आधारहीन नहीं हैं। बेंच ने कहा कि तेलतूंबड़े के प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवाद) से संबंध की जांच की जानी चाहिए।

आपको बता दें कि जिस समय पुणे पुलिस धरपकड़ के लिए अभियान चला रही थी तो आनंद तेलतूंबड़े ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा था, “मेरे गोवा स्थित घर में पुलिस ने छापा मारा है। मेरे घर में इस समय कोई नहीं है, उनको कुछ मिलेगा भी नहीं। मैं इस समय मुंबई में हूं। इस सरकार की मंशा को हम सब जान चुके हैं और अब सारे समाज को यह बताने की जरूरत है कि किस तरह से वैचारिक रूप से सक्रिय समाज को खत्म करने की कोशिशें चल रही हैं।”

जनवरी में किसी दिन हो सकती है सुनवाई

इधर, सुप्रीम कोर्ट भी महाराष्ट्र सरकार और पुणे पुलिस के रवैये से खफा है। 10 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मराठी में लिखे दस्तावेजों को अंग्रेजी में अनूदित करने को कहा, साथ ही पुलिस व राज्य सरकार पर तंज कसा कि आखिर इसमें हमें 8000 पेज (चार्जशीट और उसका सार) पढ़कर फैसला करना है। दरअसल महाराष्ट्र सरकार ने बांबे हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी। हाई कोर्ट ने आरोप पत्र दायर करने की 90 दिनों की समय सीमा बढ़ाने से इनकार कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार से मामले में गिरफ्तार माओवादी समर्थकों के खिलाफ दायर जांच रिपोर्ट और आरोपों का सारांश पेश करने को कहा था। एक आरोपित की ओर से पेश वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की दलील सुनने के बाद कोर्ट ने सुनवाई स्थगित कर दी। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने जयसिंह से कहा, ‘हम अभी मामले की सुनवाई नहीं करेंगे। हम 8000 पृष्ठों का दस्तावेज (आरोप पत्र और सारांश) नहीं पढ़ पाए हैं।’

बाएं से सुधा भारद्वाज, वर्नोन गोनसाल्विस, वरवरा राव, गौतम नवलखा और अरुण फरेरा

मामले में आरोपित सुरेंद्र गाडलिंग की ओर से पेश जयसिंह ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि सभी आरोपित जेल में हैं। मामले की सुनवाई आठ जनवरी तय की जाए। इसके जवाब में पीठ ने आश्वासन दिया कि शीघ्र ही सुनवाई की तारीख तय कर दी जाएगी।

‘इन 5000 पेज चार्जशीट, लिटिल ऑन प्लाट टू किल प्राइम मिनिस्टर’ रिपोर्ट में मुंबई मिरर के दो संवाददाताओं श्रुतु गणपत्ये और सुनील बधेल ने पूरी चार्जशीट के अध्ययन के बाद लिखा है कि भीमा कोरेगांव हिंसा मामले की जांच में पुलिस को कुछ भी ऐसा ‘विशिष्ट’ हाथ नहीं लगा है जिससे केस का आधार पुख्ता हो। सिर्फ कुछ ईमेल और मीटिंगों का जिक्र चार्जशीट में है। पुलिस ये तक नहीं बता पाई है कि वो कोई कामरेड ‘आर’ कौन है जिसने “कामरेड प्रकाश” को “राजीव गांधी टाइप” ऑपरेशन के लिए लिखा। रिपोर्ट के मुताबिक रोना विल्सन और अन्य के खिलाफ पुलिस की कोशिश सिर्फ प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादियों) से संबंध रखने पर केंद्रित की गई है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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