जब भारत में बहुजन चिंतन नहीं आया था, या यह कहना चाहिए कि जब तक भारत में दलित-पिछड़े वर्गों में ज्ञानोदय नहीं हुआ था, तब तक ब्राह्मण चिंतन ही भारत का राष्ट्र चिंतन हुआ करता था। अभी हाल तक ‘अमर उजाला’ और ‘दैनिक जागरण’ में एक ब्राह्मण लेखक का ‘राष्ट्र चिंतन’ कालम प्रत्येक सोमवार को एक साथ छपा करता था, जो उनकी मृत्यु के बाद ही बंद हुआ था। वह राष्ट्र चिंतन इतना वर्णवादी, सांप्रदायिक और जहरीला होता था कि बर्दाश्त नहीं होता था। उन दिनों मैं अकेला दलित लेखक था, जो अपने लेखों में उस राष्ट्र चिंतन पर प्रहार करता था। हिंदी पत्रकारिता में उस राष्ट्र चिंतन को बंद करने का दबाव न प्रगतिशील लेखकों ने और न पाठकों ने बनाया था। इससे समझा जा सकता है कि हिंदी में किस तरह का चिंतन राष्ट्र चिंतन माना जाता था। यह तो थी पत्रकारिता की स्थिति, पर साहित्य की स्थिति इससे भी बदतर थी। सारा हिंदी साहित्य हिन्दू साहित्य बना हुआ था।
पूरा आर्टिकल यहां पढें : कांचा आयलैया की पुस्तकों का विरोध क्यों?