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पूर्वी दिल्ली : ‘जाति जरूरी है’ से लेकर ‘सत्य सर्वजातीय है’ तक का सफर

पूर्वी दिल्ली ऐसे निम्न-मध्यवर्गीय बिहारियों का इलाका है, जो खुद को बेहद खुशनसीब और अमीर समझते हैं। ये लोग अपनी जाति को लेकर भी बहुत गर्वीले हैं

बहु-जन दैनिकी

लक्ष्मी नगर, शकरपुर, पांडव नगर, शहादरा आदि मोहल्ले दिल्ली के पूर्वी इलाके में बसे हैं। यह इलाका पिछले कुछ वर्षों में बेतहाशा फैला है। नए-नए मोहल्ले बसे हैं। यह मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के गढ़वाल क्षेत्र से आए प्रवासियों का इलाका है। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए सिख परिवार भी इधर हैं, लेकिन वे अब समुद्र में शीप की तरह ही हैं। कहीं-कहीं गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों के लोग भी हैं।

लेकिन आज की पूर्वी दिल्ली सांस्कृतिक रूप से गमछा, लिट्टी-जलेबी और भोजपुरी वाले क्षेत्र का अजीब-सा महानगरीय विस्तार है। यह अपने प्रदेशों की भूख और बदहाली से बचने, रोजी-रोजगार की तलाश में आए लोगों का इलाका है। इनमें  से अनेक परिवारों की दूसरी पीढ़ी यहीं पैदा हुई है। उन घरों में कोई बुजुर्ग होता हुआ अधेड़ है, जिसके पास दिल्ली आने और खाने-कमाने के लिए किए गए संघर्ष और सफलता की कहानियां हैं।

लक्ष्मी नगर, मेट्रो स्टेशन

वे पलटकर देखते हैं तो पाते हैं कि इस महानगर ने उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक दिया है। एक विशाल देश की राजधानी होने के कारण यहां संसाधनों और अवसरों की प्रचुरता थी। मुंबई जैसी कोई शिव सेना यहां नहीं थी, जो मूलनिवासी होने का मुद्दा उठाकर इन्हें खदेड़ती।

दिल्ली की सीमाओं से लगते हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के इलाकों में जाट और गुर्जर जातियों के गांव अच्छी खासी संख्या में हैं। दिल्ली समेत पूरे ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र’ में इनका दबदबा है, लेकिन वैसा नहीं, जैसा मुंबई में मराठी मानुष का है। मराठी मानुष के पीछे एक अमानवीय और लोभी विचारधारा रही है। दिल्ली के जाट-गुर्जरों के पास वैसी कोई विचारधारा नहीं है। उन्हें बस अपने बाहुबल और नई-नवेली धनाढ्यता का ही सहारा है।

दूसरी ओर,  बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश जातिवाद और घनघोर गरीबी से बजबजाते वे इलाके हैं, जो सैकड़ों साल से ठहरे हुए हैं।

इन जगहों से दिल्ली आए लोग जाति की उच्चता को छाती से चिपकाए रहते हैं। दिल्ली में रहने वाले अन्य राज्यों के लोगों की नजर में वे सभी के सभी बुजदिल, जाहिल, चोर और धोखेबाज हैं। इन सभी को वे ‘बिहारी’ रूप में पहचानते हैं, चाहे वह बिहार-झारखंड का हो या उत्तर प्रदेश का। ‘बिहारी’, उनकी नजर में एक ऐसी जाति, एक ऐसा समुदाय है, जो गरीब, स्वाभिमान-विहीन और अपमान करने योग्य है।

लेकिन ‘बिहारियों’ के लिए उनकी जाति प्रमुख है। खासकर उनके लिए जो अपने पैतृक-इलाके की ऊंची जातियों से आए हैं। इनमें  बिहार के भूमिहार और मिथिला क्षेत्र के ब्राह्मण सबसे आगे हैं।

अगर आप पूर्वी दिल्ली में कुछ समय गुजारें और लोगों से मिलना-जुलना करें तो इनकी हास्यास्पद हरकतों से वाकिफ हो सकते हैं।

लक्ष्मी नगर में बिहार, उत्तर प्रदेश के व्यंजनों की बहार रहती है

यमुना पार करते ही पूर्वी दिल्ली का सबसे बड़ा और प्रमुख मोहल्ला लक्ष्मी नगर है। इस मोहल्ले के बारे में अनेक किंवदंतियां हैं। कहते हैं कि यह एशिया का सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला इलाका है। संकरी गलियों, खचाखच भरी सड़कों और बाजारों वाले इस इलाके में जो नहीं मिलता, वह कहीं नहीं मिलता। यहाँ आप लिट्टी-चोखा से लेकर बीएमडब्ल्यू कार तक खरीद सकते हैं।

लक्ष्मी नगर के मेट्रो स्टेशन से उत्तर की ओर बढ़ते ही शकरपुर का ‘स्कूल ब्लॉक’ मोहल्ला आता है। कुछ समय पहले तक इसकी एक गली पर एक हैरतअंगेज साइन-बोर्ड लगा था, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा था – ‘जाति जरूरी है’। बोर्ड में जाति के फायदों का उल्लेख करते हुए इसे हर जगह के लिए आवश्यक बताया गया था। बोर्ड एकदम मुख्य सड़क पर था। आते-जाते हजारों लोग उसे रोजाना देखते रहे होंगे। साइन बोर्ड पर लिखा था कि इसे भूमिहार जाति द्वारा ‘अखिल भारतीय मानव कल्याण समिति’ नामक संस्था की ओर से जारी किया गया है।

स्कूल ब्लॉक में ‘अखिल भारतीय मानव कल्याण समिति’द्वारा लगाया गया नया साइनबोर्ड। पहले इस जगह लगे साइनबोर्ड पर लिखा था -’जाति जरूरी है’

अब उस साइन बोर्ड को हटा लिया गया है।  (इन पंक्तियों के लेखक को उस साइन बोर्ड की तस्वीर न ले पाने का अफसोस है)।

उसकी जगह एक नया साइन बोर्ड लग गया है, जिस पर लिखा गया है – ‘सत्य ही मानव धर्म है, जो सर्वजातीय है। सांप्रदायिक द्वेष को भुलाकर सद्भावना की ओर कदम बढ़ाएं’। यह बोर्ड उसी  ‘अखिल भारतीय मानव कल्याण समिति’ ने बनवाया है, और इसे पहले वाले बोर्ड की जगह ही लगाया गया है। जारी-कर्ता के रूप में भूमिहार जाति से आने वाले किन्हीं त्यागी का नाम लिखा है। साइन बोर्ड के अनुसार, वे उपरोक्त संस्था के अध्यक्ष हैं तथा लोकसभा के प्रत्याशी हैं।

इस परिवर्तन के कारण क्या-क्या हो सकते हैं, यह सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। मसलन, क्या हम मान लें कि ‘अखिल भारतीय मानव कल्याण समिति’ का हृदय परिवर्तन हो गया है? या फिर, वर्षों पहले दिल्ली आए कथित ऊंची जाति के इन ‘बिहारियों’ ने जाति से छुटकारा पा लिया है और अब ‘सर्वजातीय सत्य’ की खोज में जुट गए हैं? क्या त्यागी महोदय को इस सत्य का पता चुनाव लड़ने के दौरान हुआ होगा? या फिर, यह मानसिक रूप से पिछड़े हुए लोगों का एक नया पाखंड भर है?

कारण जो भी हो। पूर्वी दिल्ली के इन इलाकों में घूमते हुए यह तो महसूस होता ही है कि अंतर-जातीय विवाहों के बावजूद जाति खत्म नहीं हो रही है। राममनोहर लोहिया जाति और योनि के दो कटघरों को तोड़ने की बात करते थे। महानगरों में यौन स्वतंत्रता भी बढ़ी है, लेकिन जाति पर इसका उतना असर होता नहीं दिख रहा, जितना कि हम उम्मीद लगाए बैठे थे। दरअसल, जाति और पितृसत्ता के अटूट संबंध को न सिर्फ अंतर-जातीय विवाह से, न ही यौन-स्वतंत्रता से तोड़ा जा सकता। डॉ. आंबेडकर ने इस गुत्थी को सबसे अच्छी तरह समझा था। चौतरफा हमले के उनके बताए मार्ग पर चलकर ही इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

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