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जननायक कर्पूरी ठाकुर : लड़ाई आगे बढ़ रही है

भारतीय राजनीति के बदलते रूख को देखने से एकबारगी लगता है जैसे हम जहाँ से चले थे, लौटकर वहीं आ पहुँचे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि गौर से देखने पर यह लड़ाई आगे बढ़ रही है, कर्पूरी ठाकुर की विरासत आगे बढ़ रही है

(जीवनकाल : 24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988)

24 जनवरी को भारतीय राजनीति के ऐसे उदयीमान सितारे और उत्तर भारत में पिछड़ों को सबसे पहले आरक्षण देनेवाले, कर्पूरी ठाकुर, का जन्मदिन है, जिनके राजनीतिक मूल्य और आदर्शवादी जीवन के सैद्धांतिक मापदंड रह-रहकर जीवित हो उठते हैं। ऐसे समय में जब प्रतिदिन वंचित-शोषित तबकों के खिलाफ उत्पीड़न और अन्याय बढ़ता जा रहा है, तब न्याय की कल्पना लिए इतिहास की तरफ मुंह मोड़ते ही कर्पूरी ठाकुर आरंभिक पंक्ति में नज़र आते हैं।    

भारतीय राजनीति में अब कर्पूरी ठाकुर एक जाना पहचाना नाम है। उदाहरणार्थ, हाल ही में भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव ने संसद में गरीब सवर्ण आरक्षण बिल के पक्ष में बोलते हुए कर्पूरी ठाकुर का नाम प्रमुखता से लिया। भारतीय राजनीति में छोटे से बड़े मुद्दों तक भी ऐसा कोई प्रसंग नहीं है जो कर्पूरी ठाकुर के बिना पूरा हो सकता है।

कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया नामक ग्राम में हुआ। इनके माता-पिता का नाम रामदुलारी देवी और गोकुल ठाकुर था। वे नाई जाति से थे। अपने कॉलेज दिनों से ही वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए और गिरफ्तार हुए। वे आजादी के बाद 1952 में हुए पहले आम चुनाव में बतौर जननेता लड़े और बिहार विधानसभा पहुँचे। उसके बाद बिहार की मजलूम जनता ने उन्हें हमेशा सर आँखों पर ही बिठा कर रखा। फलतः, वह चुनाव कभी नहीं हारे। उन्होंने भी अपना पूरा जीवन जनता के मुद्दों के लिए लड़ते हुए और समाधान करते हुए बिता दिया। उनका 17 फरवरी, 1988 को अचानक निधन हो गया।

कर्पूरी ठाकुर (जीवनकाल : 24 जनवरी, 1924-17 फरवरी, 1988)

वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे और उसकी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वाह किया और आनेवाले पीढ़ियों के लिए मिसाल कायम की। वे 1967-68 में द्वितीय उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री रहे। उसके बाद, वे पहली बार लगभग छह महीने के लिए (22 दिसंबर, 1970 – 2 जून, 1971) मुख्यमंत्री बने और दूसरी बार लगभग दो साल के लिए (24 जून, 1977 – 21 अप्रैल 1979) मुख्यमंत्री बने। अपने अल्प कार्यकाल में ही उन्होंने भारतीय राजनीति में इतना काम कर दिया जिसके कारण उन्हें “जननायक” कहा जाने लगा। उनके मृत्यु के बाद उनके गांव का नाम कर्पूरी ग्राम रखा गया। बहरहाल, दिन-ब-दिन उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता बढ़ रही है। नतीजतन, राजनीतिक खेमों में उनकी राजनीतिक विरासत को हथियाने की होड़ मची हुई है। यहां पर उनसे संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा और विश्लेषण आवश्यक हैं।

अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व और उसे तोड़ने में कर्पूरी ठाकुर की भूमिका :

अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व आज भी कायम है। आम कहावत है: ‘अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए’। पराधीन भारत में अंग्रेजी माध्यम से बेहद गरीबी में शिक्षित कर्पूरी ठाकुर समाज निर्माण में शिक्षा के महत्त्व को भलीभांति समझते थे। उन्होंने खुद महसूस किया था कि अंग्रेज़ी भाषा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता वंचितों के शिक्षा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी। आज भी जब अंग्रेज़ी भाषा का हौवा इतना अधिक है तो पचास-साठ के दशक में इसके आतंक की कल्पना की जा सकती है। इसी के मद्देनज़र, कर्पूरी ठाकुर जब बिहार सरकार में उपमुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री बने तो उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। उस समय अभिजात्य वर्ग के नेताओं ने इस कदम का तीखा विरोध किया था। उनके विरोधियों ने बिहार बोर्ड से उत्तीर्ण डिग्री को ‘कर्पूरी डिविजन’ तक की संज्ञा दे डाली। बिहार की शिक्षा में यह व्यवस्था आज भी कायम है, जिसके कारण समाज के निचले तबके के लोग भी शिक्षा की मुख्यधारा से आसानी से जुड़ रहे हैं।

एक सभा को सम्बोधित करते हुए कर्पूरी ठाकुर (फाइल फोटो)

शिक्षा के विकास को लेकर कर्पूरी ठाकुर कितने सजग और दूरदर्शी थे, यह उस समय के वैश्विक इतिहास पर नजर डालने से पता चलता है। दरअसल, 1950-60 का दशक पूरी दुनिया में अंग्रेजी भाषा के मुखर विरोध का था। या यों कहें कि इस समय तक दुनिया के जितने भी देश औपनिवेशिक शासन से आजाद हुए, वे औपनिवेशिक भाषा से भी आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। कर्पूरी ठाकुर यह बात भलीभांति समझते थे कि मनुष्य की वास्तविक स्वतंत्रता और उसकी  अभिव्यक्ति उसकी अपनी भाषा में ही संभव है। अतः, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार बोर्ड में मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेज़ी भाषा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। अधिकतर लोगों को ग़लतफ़हमी है कि उन्होंने अग्रेज़ी भाषा को ही पाठ्यक्रम से समाप्त कर दिया। दरअसल, यह गलतफहमी विद्वेष से उपजी है।

पिछड़ा-अतिपिछड़ा आरक्षण

जब कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग के अनुरूप पिछड़ों और अति-पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए सरकारी आरक्षण का प्रावधान कर दिया। इस आयोग का गठन 1970 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय ने किया था। यह दिलचस्प बात है कि वे जब इसे लागू करने वाले थे तो भारतीय क्रांति दल के राष्ट्रीय नेता और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह मुंगेरीलाल आयोग के आरक्षण के प्रावधानों को अक्षरशः लागू करने के खिलाफ थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बड़ी जनसंख्या वाली पिछड़ी जातियों ने कर्पूरी ठाकुर के इस कदम का विरोध किया था। लेकिन समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिए चिंतित होने वाले कर्पूरी ठाकुर ने भारत में पहली बार पिछड़ों को दो भागों में विभाजित कर आरक्षण को लागू कर दिया। इसी समय भारत में अति-पिछड़ा वर्ग की नींव रखी गई और उनके लिए आरक्षण का प्रावधान कर लागू कर दिया गया। हालाँकि, इसके लिए जितना विरोध उन्हें आरक्षण विरोधियों से झेलना पड़ा, उतना ही विरोध संख्या बल से अधिक पिछड़ी जातियों का भी।

वर्तमान राजनीति में अति-पिछड़ों का भविष्य

भारतीय राजनीति के बदलते रूख को देखने से एकबारगी लगता है जैसे हम जहां से चले थे, वापिस लौटकर वहीं आ पहुँचे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि गौर से देखने पर यह लड़ाई आगे बढ़ रही है।

किसने सोचा होगा कि कर्पूरी ठाकुर नाम का एक नेता, जो एक ऐसी जाति (नाई) से आते हैं जो संख्या बल से हमेशा से नगण्य रहा है, मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को न केवल लागू करेंगे,  जो भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल देगी! उन्होंने पिछड़ों को ही नहीं, बल्कि भारत में पहली बार अति-पिछड़ों की पहचान कर उन्हें भी भारत के लोकतंत्र में शामिल किया।

कर्पूरी ठाकुर की संतानों के सपने

कर्पूरी ठाकुर को इतना कुछ करने के लिए ताउम्र बेहिसाब गालियाँ सुननी पड़ी थीं। सर्वविदित है कि उनके मुख्यमंत्री रहते हुए उनके गाँव के कुछ सवर्णों ने उनके बुजुर्ग पिताजी को प्रताड़ित किया था। उसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर ने जो जवाब उस समय दिया था वह कोई साधारण वाक्य नहीं था, मनुष्य की सभ्यता का सूत्र था। उन्होंने कहा था कि वंचितों के साथ हर क्षण अपमान की घटना हो रही है। यह हमारे समाज के संरचना में रचा-बसा है। इसे सामाजिक संरचना से उखाड़ फेंकना होगा क्योंकि आज मैं मुख्यमंत्री हूँ तो मैं व्यक्तिगत रूप से प्रतिशोध ले सकता हूँ। लेकिन जो समाज के आखिरी आदमी के साथ हो रहा उसे न्याय कौन देगा? अतः, उन्होंने अन्याय की संरचना पर प्रहार किया। यह सुनिश्चित किया कि भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं तक सबसे कमजोर आदमी की भी पहुँच हो। उन्होंने इस सपने को साकार करने के लिए वो सबकुछ किया जो वे कर सकते थे।

उनके द्वारा दिए गए आरक्षण के कारण लोग जब व्यवस्था में आए तो भारतीय व्यवस्था का तंत्र चंद चंगुलों से आज़ाद होकर लोक तक पहुंचा। आजादी के बिहार में सबसे लंबे समय तक गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने वाले कोई और नहीं बल्कि कर्पूरी ठाकुर थे। कांग्रेस पिछड़ों के अमीर वर्ग को अपना गुलाम मात्र समझती थी। कांग्रेस के इशारे पर सरकारें बनती-बिगड़ती थी। कर्पूरी ठाकुर ने लोकतंत्र की आड़ में छुपे कांग्रेस के इस पूंजीवादी, ब्राह्मणवादी और सामंतवादी रवैये को हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया था। इसीका नतीजा था कि कर्पूरी ठाकुर के रास्ते पर चलने का दावा करने मात्र से लालू यादव बिहार के पहले ऐसे मुख्यमंत्री बने, जो पाँच वर्ष के संवैधानिक कार्यकाल को पूरा कर पाए। कर्पूरी ठाकुर की संतानों ने अब व्यवस्था में अपनी थोड़ी जगह बना ली थी। हालाँकि, उनके संतानों ने जिनके नेतृत्व पर भरोसा जताया, उन्होंने बहुत ही अधिक निराश कर दिया। खुद को कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक वारिस बताने वाले लालू यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनविरोधी राजनीति से कौन परिचित नहीं है?

कर्पूरी ठाकुर की राजनीति का भविष्य

कर्पूरी ठाकुर की राजनीति फिर से जीवित हो उठी है। सबसे पहले बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में अति-पिछड़ों को लोकतंत्र से जोड़ा। वर्षों बाद, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसी तर्ज पर दलितों का भी वर्गीकरण कर ‘महादलित’ बनाया और हाशिये के लोगों को लोकतंत्र की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया। हालांकि, उनकी निष्ठा में भयानक कमी रह गई।

फिलवक्त, कर्पूरी अब बिहार की राजनीति से निकलकर पूरे भारत की राजनीतिक पटल पर छा रहे हैं। यही कारण है कि भाजपा जैसी ब्राह्मणवादी और सामंतवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों का वर्गीकरण कर उनतक राज्य की लाभकारी सुविधाओं को मुहैया कराने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कर्पूरी ठाकुर जब जीवित थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और पिछड़ों में बहुल आबादी वाले अनेक यादव नेताओं तब भी विरोध किया था और आज भी यादव और जाटव समुदायों के नेतृत्व का दावा करने वाली सपा-बसपा जैसी पार्टियाँ पिछड़ों और दलितों के वर्गीकरण का विरोध कर रहीं हैं।

समाजवादी पार्टी ने तो पिछड़ों के वर्गीकरण का पूरे उत्तर प्रदेश में प्रत्येक चौक-चौराहों पर विरोध करने के लिए पार्टी कार्यालय से औपचारिक आदेश जारी किया है। जबकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव की यह जिम्मेदारी थी कि वह जीवन के भागदौड़ और घनघोर संघर्ष में पीछे छूट गए पिछड़ों को आगे लाने का नीतिगत उपाय लेकर आते; कम से कम साफ़ मन से उसके साथ रहते। बसपा प्रमुख मायावती का भी यही रवैया है। लेकिन अब यह साफ हो चुका है कि लोकतंत्र में अगर किसी को चुनाव जीतना है तो लोकतंत्र से बहुत दूर खड़े लोगों तक पहुंचना ही होगा। लोकतंत्र के इस पैमाने से जो दूर हटेंगे, वे न केवल हारेंगे बल्कि इतिहास भी उन्हें भुला देगा। पूरे देश में कांग्रेस की हार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। सपा-बसपा की स्थिति हमारे सामने है।

वंचितों की भावना से खिलवाड़ कर भाजपा थोड़े वक्त के लिए सत्ता तो पहुँच चुकी है, मगर ये जल्द ही काल के गर्त में समा जाएगी। क्योंकि ये सभी पार्टियाँ और उनके नेता शायद भूल चुके हैं कि जीवन का जो संघर्ष विचारों की सान पर तेज किया जाता है, उसमें कभी मात नहीं होती। जीत सुनिश्चित है।

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के किसी भी हिस्से से कर्पूरी ठाकुर सरीखे लोगों की अनदेखी होगी तो समझिये  कि लोकतंत्र की अवधारणा को ही नज़रंदाज़ कर दिया गया। ऐसे समय में, जब लोकतंत्र और उसमें आस्था रखनेवाले लोगों पर चौतरफा हमले हो रहे हों कर्पूरी ठाकुर को स्मरण करना संघर्ष के लिए अपनी ऊर्जा को संजोने के बराबर होगा।   

  (कॉपी संपादन -अर्चना)

परिवर्धित : 24 जनवरी, 11:45 am


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लेखक के बारे में

धर्मराज कुमार

धर्मराज कुमार, दिल्ली स्थित जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में पीएचडी शोधकर्ता है।

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