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संसदीय समिति ने फारवर्ड प्रेस की खबर पर लगायी मुहर, कहा – न्यायपालिका में महिलाओं को मिले 50 फीसदी हिस्सेदारी

फारवर्ड प्रेस ने पहल करते हुए 8 मई 2015 को एक लेख प्रकाशित किया था। इसका शीर्षक था - ‘न्यायपालिका में लैंगिक अन्याय’। इस लेख के लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद जैन ने न्यायपालिका में महिलाओं की कम हिस्सेदारी को लेकर सवाल उठाया था

हाल ही में समाप्त हुए संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान एक रिपोर्ट कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति द्वारा पेश की गयी। अपनी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की है कि न्यायपालिका में महिलाओं को 50 फीसदी हिस्सेदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। न्यायपालिका में महिलाओं की मौजूदगी के संबंध में समिति ने कहा है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में 73 महिला न्यायधीश काम कर रही हैं जो प्रतिशत के हिसाब से कामकाजी क्षमता का 10.89 प्रतिशत है। साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आज़ादी के बाद से भारत के उच्चतम न्यायालय में केवल छह महिला न्यायधीश नियुक्त की गईं और इसमें पहली नियुक्ति साल 1989 में हुई।

इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने पहल करते हुए 8 मई 2015 को  सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्त्रीवादी लेखक अरविंद जैन का एक लेख प्रकाशित किया था। इसका शीर्षक था – ‘न्यायपालिका में लैंगिक अन्याय’। इस लेख के श्री जैन ने न्यायपालिका में महिलाओं की कम हिस्सेदारी को लेकर सवाल उठाया था। उन्होंने लिखा था – “भारतीय गणतंत्र के 65 साल  पूरे हो गए हैं. इतिहास के इन ‘गौरवशाली’ 65 सालों में, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की कुर्सी तक एक भी महिला नहीं पहुँच पाई या पहुँचने नहीं दी गई। वर्तमान स्थिति के अनुसार, अगस्त 2022 तक, कोई स्त्री मुख्य न्यायधीश नहीं बन  सकेगी।”

अरविंद जैन, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता

संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को स्वीकारा है कि न्यायपाालिका में महिलाओं की हिस्सेदारी उनकी वाजिब हिस्सेदारी के बरक्स बहुत कम है। इसी बात को अरविंद जैन ने सोदाहरण बताया था कि

“संविधान लागू होने के लगभग 40 साल बाद, फातिमा बीवी (6 अक्टूबर, 1989) सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायधीश बनीं। वे 1992 में सेवानिवृत्त हो गईं। इसके बाद, सुजाता वी. मनोहर (1994),  रुमा पाल (2000), ज्ञान सुधा मिश्रा (2010), रंजना प्रकाश देसाई (2011) और आर. बानूमथि (2014) को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायधीश बनने का अवसर मिला। कुल मिला कर, 65 सालों में, 219 (41 पूर्व मुख्य न्यायधीशों, 150 पूर्व न्यायधीशों और 28 वर्तमान न्यायधीशों) न्यायधीशों में से केवल 6 (2.7%) महिलाएं थीं।”

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बाद में कई मीडिया संस्थानों द्वारा इस आशय के लेख व साक्षात्कार आदि प्रकाशित किए गए। मसलन, जून 2016 में समाचार एजेंसी वीएनआई की सुश्री शोभना जैन द्वारा अरविंद जैन का लंबा साक्षात्कार प्रकाशित किया गया। इसमें भी उन्होंने यह सवाल उठाया था और कहा था कि गणतंत्र के विगत 66 सालों में,अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की कुर्सी तक कोई भी महिला नहीं पहुँच पाई या ऐसी परिस्थतियां उत्पन्न हुईं कि नही आ सकीं। वर्तमान स्थिति के अनुसार नवम्बर 2024 तक, कोई महिला मुख्य न्यायधीश नहीं बनेगी या नहीं बन सकतीं।

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फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित लेख ‘न्यायपालिका में लैंगिक अन्याय’ में भी अरविंद जैन ने इस तथ्य को उजागर किया था कि “वर्ष 2000 मे महिला प्रधान न्यायधीश बनने की स्थिति बनी जरूर थी, लेकिन तब ऐ्सी स्थितियां बनीं कि यह अवसर भी आते-आते रह गया। वर्ष 2000 मे जब सुप्रीम कोर्ट का स्वर्ण जयंती वर्ष मनाया जा रहा था और उसी साल 29 जनवरी को मुख्य न्यायधीश ए.एस.आनंद द्वारा, तीन नए न्यायमूर्तियों को शपथ दिलाई जानी थी। सब कुछ तो तय था, मगर शपथ दिलाने की तारीख 29 जनवरी की बजाय 28 जनवरी कर दी गई। वैसे कहा यह गया कि उच्चतम न्यायालय के स्वर्ण जयंती दिवस के चलते यह समारोह एक दिन पहले करने का फैसला किया गया। न्यायमूर्ति सर्वश्री दोरई स्वामी राजू और वाई.के.सभरवाल को 28 जनवरी,2000 की सुबह-सुबह शपथ दिलाई गई और तीसरी न्यायमूर्ति सुश्री रूमा पाल को दोपहर के बाद। कहा यह गया कि न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू और न्यायमूर्ति वाई.के.सभरवाल को दिल्ली मे रहने की वजह से समय रहते कार्यक्रम में बदलाव की सूचना मिल गई थी, परन्तु न्यायमूर्ति रूमा पाल को समय से सूचना ही नहीं मिली और जब वो दोपहर कलकत्ता से दिल्ली पहुँची, तब तक दोनों शपथ ले चुके थे और न्यायमूर्ति पॉल ने तीसरे क्रम मे शपथ ली। उसी दिन तय हो गया था कि अगर सब कुछ यूं ही चलता रहा तो, न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू एक जनवरी 2004 को रिटायर हो जायेंगे और मुख्य न्यायधीश आर.सी. लाहोटी के सेवानिवृत होने के बाद, एक नवम्बर, 2005 को न्यायमूर्ति वाई.के.सभरवाल भारत के नए मुख्य न्यायधीश बनेंगे और 13 जनवरी 2007 तक मुख्य न्यायधीश रहेंगे और न्यायमूर्ति रूमा पाल , 2 जून 2006 को, सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति के रूप में ही रिटायर हो जायेंगी। इस प्रकार न्यायमूर्ति रूमा पाल के शपथ लेने में कुछ घंटों की देरी से देश के न्यायिक इतिहास की धारा बदल गई, और देश पहली प्रधान न्यायधीश पाने से चूक गया।”

सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायधीश फातिमा बीवी

गौर तलब है कि समिति ने सिफारिश की है कि उच्च और अधीनस्थ दोनों न्यायपालिका में अधिक महिला न्यायधीशों को शामिल करने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएं। समिति ने यह भी राय दी है कि जिस प्रकार का अतिरिक्त कोटा आईटाीआई में लागू किया जाता है, उस तरह की व्यवस्था पांच वर्षीय विधि कार्यक्रमों में दाखिले के लिए खास तौर पर राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों में लागू की जानी चाहिए।

संसदीय समिति ने उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में रिक्तियों को लेकर भी चिंता व्यक्त की है। कहा गया है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में 56, कर्नाटक हाईकोर्ट में 38, कलकत्ता हाईकोर्ट में 39, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में 35, तेलंगाना व आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट में 30 और मुंबई हाईकोर्ट में 24 पद रिक्त हैं जो बहुत ज्यादा हैं। इन्हें भरा जाना चाहिए।

बहरहाल, अब जबकि संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यह कबूला है कि न्यायपालिका में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है। उसने अनुसंशाएं भी की है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि न्यायपालिका में लैंगिक अन्याय कब समाप्त होता है और महिलाओं को उनकी आबादी के अनुरूप हिस्सेदारी कबतक मिल पाती है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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