h n

रिसर्च स्कॉलर्स को इस हफ्ते मिलेगी खुशखबरी, खत्म होगा इंतजार

केंद्र सरकार के मौजूदा प्रिंसिपल साइंटिफिक एडवाइजर डॉ. के. विजय राघवन ने रिसर्च स्कॉलर्स को भरोसा दिया है कि दो- तीन दिनों के भीतर फैलोशिप राशि बढ़ाने के सिलसिले में आधिकारिक घोषणा कर दी जाएगी। बढ़ोतरी कितनी होगी इसे अभी गुप्त रखा गया है। फारवर्ड प्रेस की खबर

रिसर्च स्कॉलर्स की फीस बढ़ोतरी की कई डेडलाइन भले ही फेल हो चुकी हों, लेकिन अब उनका इंतजार खत्म होने वाला है। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो स्कॉलर्स को इसी हफ्ते खुशखबरी मिलने की उम्मीद है। बढ़ोतरी कितनी होगी इसे अभी गुप्त रखा गया है, लेकिन माना जा रहा है कि मांग के हिसाब से बढ़ोतरी नहीं होगी। बताते चलें कि रिसर्च स्कॉलर्स कम-से-कम 80 फीसदी और अधिकतम 100 फीसदी बढ़ोतरी की मांग को लेकर पिछले चार-पांच महीने से लगातार आवाज उठाने के साथ-साथ कई बार धरना-प्रदर्शन भी कर चुके हैं।

उधर, विश्वस्त सूत्रों की मानें तो सरकार रिसर्च स्कॉलर्स की 80 फीसदी बढ़ोतरी की मांग को नहीं मान रही है और अधिकतम बढ़ोतरी 40-50 फीसदी करने के पक्ष में है। कुछ दिन पहले मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि सरकार फेलोशिप में महज 15 फीसदी की वृद्धि करने के पक्ष में है। फारवर्ड प्रेस ने इससे संबंधित खबर भी प्रकाशित की थी। इतनी कम वृद्धि की सूचना से शोधार्थी भड़क गए थे। उनके द्वारा आंदोलन-प्रदर्शन व सोशल मीडिया कैंपेन चलाए जाने के बाद सरकार की ओर से अधिक बढ़ोतरी किए जाने का भरोसा दिया गया है।

फेलोशिप न बढ़ने के विरोध में प्रदर्शन करते स्कॉलर्स

हालांकि, रिसर्च स्कॉलर्स 50 फीसदी बढ़ोतरी को  पर्याप्त नहीं मान रहे हैं और इसे धोखा करार दे रहे हैं। इस संदर्भ में सोसायटी ऑफ यंग साइंटिस्ट के अध्यक्ष लालचंद विश्वकर्मा ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि “चार साल के बाद फेलोशिप राशि में बढ़ोतरी होती है, जो अभी तक नहीं हुई है। अगर महंगाई सहित अन्य कारकों पर गौर किया जाए, तो 80 फीसदी बढ़ोतरी की हमारी मांग के पीछे का तर्क समझ में आ जाएगा। हमारी मांग जायज है और इससे कम में उनकी जरूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी।”

सोसायटी ऑफ यंग साइंटिस्ट के अध्यक्ष लालचंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें : रिसर्च स्कॉलर्स की दूसरी डेडलाइन भी खत्म, देश भर में निकाला कैंडल मार्च

बता दें कि वे जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जेआरएफ) स्कॉलर बतौर फैलोशिप अभी के 25,000 रुपए प्रति महीने की जगह 50,285 रुपए दिए जाने की मांग कर रहे हैं। इसी तरह सीनियर रिसर्च फैलोशिप स्कॉलर 28,000 रुपए की जगह 56,320 रुपए की मांग कर रहे हैं।

लेकिन सरकार इसमें आनाकानी कर रही है। वह हर बार ऑटोमेटिक इन्हांसमेंट की बात करती है और फिर उसे खटाई में डाल देती है। मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार के मौजूदा प्रिंसिपल साइंटिफिक एडवाइजर डॉ. के. विजय राघवन 2014 में भी इसी पद पर थे और रिसर्च स्कॉलर्स के आंदोलन करने पर उन्होंने भरोसा दिलाया था कि अगली बार यानी 2018 से ऑटोमेटिक इन्हांसमेंट व्यवस्था लागू कर दी जाएगी।

डॉ. के. विजय राघवन (प्रिंसिपल साइंटिफिक एडवाइजर, केंद्र सरकार)

अब एक बार फिर से डॉ. के. विजय राघवन की तरफ से बीती 28 जनवरी को आईआईटी दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान भरोसा दिलाया गया है कि दो- तीन दिनों के भीतर फैलोशिप राशि बढ़ाने के सिलसिले में आधिकारिक घोषणा कर दी जाएगी। देखने लायक यह होगा कि यह भरोसा हकीकत में बदल पाता है या फिर पहले की तरह केवल दिलासा ही साबित होगा।


संपादकीय टिप्पणी :

हालांकि, सवाल यह भी है कि एमफिल, पीएचडी करने के लिए शोधार्थियों की दी जाने वाली इस भारी-भरकम राशि का हासिल क्या है? भारत अगर नए शोधों में पीछे है तो इसके पीछे मुख्य कमी इंफ्रास्ट्रक्चर की है। लेकिन इसकी बजाय उच्च शिक्षा में अधिकाधिक खर्च फेलोशिप और शिक्षकों के वेतन पर किया जा रहा है, जबकि मूल सुविधाओं की स्थित लचर है। सवाल यह भी है कि आखिर जो लोग आर्थिक और सामाजिक, दोनों तौर पर सक्षम और संपन्न हैं, उन्हें एक सरकारी कर्मचारी के बराबर शोधवृत्ति जनता की गाढी कमाई से क्यों दी जानी चाहिए? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि सरकार इस प्रकार की फेलोशिप सिर्फ शैक्षिक और सामाजिक तौर पर कमजोर तबकों तथा आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों के प्रतिभाशाली युवाओं को दे? इस प्रकार की फेलोशिप का रास्ता सभी के लिए खोलने से इसका सबसे अधिक फायदा आर्थिक और सामाजिक तौर मजबूत परिवारों से आने वाले युवा ही उठा ले जाते हैं तथा समाजवाद की ओर उत्सुक कल्याणकारी राज्य का मकसद पूरा नहीं हो पाता है।

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...