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साहित्य के उत्सव और उत्सव के साहित्य

पहले साहित्य का मतलब कुछ लिखे हुए शब्द भर नहीं होते थे। उसमें लेखक का व्यक्तित्व समाहित होता था, उसकी प्रतिबद्धता होती थी। लेखक का मतलब होता था- एक सच्चा इंसान, जिसे खरीदा नहीं जा सकता। अब साहित्य खाये-अघाये लोगों द्वारा अपहृत कर लिया गया है

हमारी पीढ़ी ने जब साहित्य की दुनिया में आँखें खोली थीं, तब एक अलग-सा माहौल था। बड़े प्रकाशन समूहों से  कई साहित्यिक पत्रिकाएं निकलती थीं; सीमित प्रयासों से लघु कही जाने वाली कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाएं भी प्रकाशित होती थीं। उनमें छपना तो महत्वपूर्ण था ही, उन्हें पढ़ना और सहेजना भी महत्वपूर्ण माना जाता था। मध्य वर्ग के बीच साहित्य का अच्छा स्पेस था। साहित्यकारों का समाज में सम्मान था, पूछ थी। लेखकों के घर-ठिकाने जनता बतला दिया करती थी। उनकी मस्ती, अक्खड़ता और बेबाक विचारों-मान्यताओं के चर्चे दूर-दूर तक होते थे। उनकी फकीरी और संघर्ष के किस्से अलग से होते थे। कोई नहीं कह सकता था कि फलां लेखक फलां नेता के आगे नतमस्तक हुआ। साहित्य की पताका न धर्म के आगे झुकी, न सत्ता के आगे। लेखक या साहित्यकार अपने मिजाज और तेवर के लिए जाने जाते थे। जनता उन्हें सर-आंखों पर रखती थी। किसी शहर में हजारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर, रेणु, कमलेश्वर, नामवर जैसे लोग यदि होते थे, तब यह एक खबर होती थी। किसी साहित्यिक जलसे में उत्साहजनक  उपस्थिति होती थी।

साहित्य का मतलब कुछ लिखे हुए शब्द भर नहीं होते थे। उसमें लेखक का व्यक्तित्व समाहित होता था, उसकी प्रतिबद्धता होती थी। शायद यही कारण था कि लिखे हुए शब्दों की अहमियत होती थी। लोग उन पर यकीन करते थे। लेखक का मतलब होता था- एक सच्चा इंसान, जिसे खरीदा नहीं जा सकता। ऐसा नहीं था कि तब राजनीतिज्ञों की पूछ नहीं थी, लेकिन साहित्यकारों की पूछ उनसे कम नहीं थी। मुझे याद है एक साहित्यिक जलसे में हजारीप्रसाद द्विवेदी और जगजीवन राम उपस्थित थे। यह संभवतः 1975  का वर्ष था। दोनों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान देखने लायक था। साहित्यिक समारोहों में कुछ राजनेता उत्साह-पूर्वक जाते थे और साहित्यिक गरिमा का खयाल रखते थे। इनमें नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर लोहिया, डांगे जैसे दिग्गज नेता थे। ये सभी राजनेता साहित्य में अपनी राजनीति खंगालते थे। वे उपकृत होते थे, करते नहीं थे।

तब भी साहित्य के विविध रूप थे। गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कम्बोज जैसे बेस्टसेलर थे, तो शिवानी जैसी घरेलू और निरामिष लेखिका भी; जिनका विचारधारा से कोई सरोकार नहीं था। लेकिन पाठक इन सबके और यशपाल, रेणु, मोहन राकेश के भेद को समझते थे। उसके पास किसी तरह की कोई दुविधा नहीं थी। हमारे समय में किसी अटल बिहारी की यह हिम्मत नहीं हुई थी कि वह स्वयं को कवि के रूप में प्रस्तुत कर दे।

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल-2019 का पोस्टर

तब भी साहित्यिक उत्सव होते थे। वहां लेखकों के जमावड़े लगते थे। अनेक ऐसे उत्सवों में भाग लेने के अवसर मुझे भी मिले। लेखक संगठन या कोई साहित्यिक संस्था ऐसे आयोजन कराती थी। किसी कॉलेज, स्कूल या किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर शिविर आयोजित होते थे। दरी-जाजिम बिछी होती थी, जिस पर लेखकगण सोते थे। भोजन या तो सामूहिक बनता था, या कोई रईस माला उठाता था। लेकिन सरकार से कोई राशि प्राप्त कर ले, यह हिम्मत किसी की नहीं होती थी। 1982 और 1986 के क्रमशः जयपुर और लखनऊ के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में यह बात उठी कि आयोजकों ने सरकार से सहायता प्राप्त की है। यह बात भागीदारी कर रहे लेखकों ने उठाई। बात गलत निकली। लखनऊ में कैफ़ी आज़मी ने मंच से इस बात की सफाई दी। तो यह इन लेखक सम्मेलनों की अपनी शुचिता होती थी। शायद यही कारण था कि इन साहित्यिक सम्मेलनों  में विचारधारा और उसकी बारीकियों पर चर्चा होती थी। लेखक सिगरेट भी पीते थे और कभी-कभार किसी रईस की कृपा से रसरंजन के भी उत्सव हो जाते थे, जिसकी चर्चा मैंने राजगीर के समान्तर लेखक सम्मेलन के प्रसंग में एक बार की है। लेकिन, यह साहित्यिक आयोजनों के केंद्रीय तत्व नहीं होते थे। यह भी था कि लेखन में दलित या स्त्री प्रसंगों की चर्चा थोड़ी कम होती थी, लेकिन जितनी भी होती थी किसी पृथक मंच से नहीं, समवेत मंच से ही होती थी। हर लेखक सम्मेलन में युवाओं और गांव-कस्बों से आए हुए लेखकों की उल्लेखनीय भागीदारी होती थी।

लेकिन, अब सब कुछ बदल गया है। बदलाव के कुछ कारण होते हैं, इनके भी होंगे। टी.वी. चैनलों और इधर के साल में कंप्यूटर और फेसबुक वगैरह ने किताबों की जगह कम कर दी है। निश्चित ही समाज में साहित्य का स्पेस कम हुआ है। लेकिन, एक लेखक अपने आप में भी संकुचित हुआ है। एक लेखक की अस्मिता शेष है, इसमें मुझे संदेह है। ऐसी ही स्थिति लेखक संगठनों की भी है। ये लेखक संगठन विचार केंद्रित थे। विचारों के आयाम जैसे ही संकुचित हुए, इन संगठनों के भी हुए। लगभग सभी लेखक संगठन या तो खत्म हो गए, या फिर इतने कमजोर कि निष्क्रिय दिखते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेख संघ या जन-संस्कृति मंच की कोई सक्रियता है; मैं नहीं जानता। कम-से-कम इतना तो है ही कि अब इनके द्वारा कोई बड़ा और उल्लेखनीय साहित्यिक जलसा आयोजित नहीं होता। यूं भी शहर-कस्बों में साहित्यिक आयोजनों की खबरें कम ही जानने-सुनने को मिलती हैं। यही हाल साहित्यिक पत्रिकाओं का है। बड़े साहित्यिक घरानों द्वारा हजारों-लाखों में निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाएं 25-30 साल पहले बंद हो चुकीं। कुछ शेष हैं, वे दम तोड़ती दिखती हैं ।

ऐसे में साहित्य उन खाये-अघाये लोगों द्वारा अपहृत कर लिया गया है, जो कभी इसके सीमान्त पर बैठे हुए  तमाशबीन हुआ करते थे। परिस्थित देख, अचानक वे इसके केंद्र में आ गए हैं और इस पर अपना कब्जा जमा लिया है। पुस्तक मेले और दूसरे सभी आयोजन इनके कब्जे में हैं। कोई अफसर, डॉक्टर, वकील, बिल्डर या कोई अन्य कारोबारी उठता है और साहित्य का एक जलसा कर डालता है। किसी संस्था का निबंधन होता है, जिसमें दो कारोबारी, दो लेखकनुमा कोई आदमी, दो राजनेता, दो पत्रकार इकट्ठे कर लिए जाते हैं। सरकारों के पास कला और संस्कृति विभाग होते हैं। उनके पास फंड होते हैं। मार्च में वित्तीय वर्ष पूरा होने के कुछ पहले ऐसे आयोजन संपन्न कर लिए जाते हैं। कारोबारियों की बीवियां, अफसर, पत्रकार और राजनेता इन उत्सवों के केंद्र में होते हैं। किन्हीं फिल्मी गीतकारों-गवैयों को सेलिब्रिटी के तौर पर इकट्ठा कर  लिया जाता है। उनको केंद्र बनाकर खाये-अघाये घरों की फैशनपरस्त महिलाएं जुटती हैं और अखबारी खबरों के मुताबिक एक रंगारंग आयोजन कर लिया जाता है। इन्हें क्या कहा जाए? साहित्य के उत्सव या उत्सव के लिए साहित्य?

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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