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दलित साहित्य महोत्सव : दलित साहित्य ब्लैक मूवमेंट और पैंथर मूवमेंट की देन है

किरोड़ीमल कॉलेज परिसर में आयोजित दलित साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन दूसरे और आखिरी दो सत्रों में दलित साहित्य के बढ़ावे और जन आंदोलन की जरूरत पर जोर दिया गया। साथ ही सामाजिक आंदोलनों में स्त्रियों की भूमिका न के बराबर होने पर भी चिंता व्यक्त की गई। फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट

दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज में आयोजित दो दिवसीय ‘दलित साहित्य महोत्सव’ के दूसरे और आखिरी दिन दोपहर के बाद दूसरे और अंतिम दो सत्रों का आयोजन किया गया। इसमें चाय के बाद के पहले सत्र ‘सामाजिक न्याय और जन आंदोलन’ की अध्यक्षता संजीव डांडा ने की, संचालन डॉ. नीलम ने किया, जिसमें जनकवि बल्ली सिंह चीमा, लेखिका प्रोफेसर हेमलता महिश्वर, प्रोफेसर राकेश कुमार, सीमा माथुर, मुकेश निरोथा, आंबेडकर लेखक संघ के अध्यक्ष बलराज सिंहमार, प्रोफेसर हंसराज सुमन तथा अन्य दलित साहित्यकारों ने अपने विचार व्यक्त किए। वहीं, लंच के बाद दूसरे और अंतिम सत्र में कविता पाठ और समापन भाषण हुआ। इस सत्र की अध्यक्षता मराठी साहित्यकार लक्ष्मण गायकवाड़, संचालन विवेक कुमार ने किया।

दलित साहित्य महोत्सव (सत्र-2) में मंचासीन साहित्यकार

सामाजिक अन्याय की बात होगी तो स्त्रियां आएंगी पहले

दलित साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन चायकाल के बाद के सत्र में ‘जन आन्दोलन और सामाजिक न्याय’ विषय पर चर्चा हुई। इस सत्र की संचालन डॉ. नीलम ने किया। इस दौरान प्रख्यात जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने कहा- “जब भी सामाजिक अन्याय की बात होगी, स्त्रियां पहले नंबर पर आएंगी। आंबेडकर और मार्क्स एक दूसरे के पूरक हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में सभी पदों पर सवर्ण भरे पड़े हैं। कम्युनिस्ट कहते हैं कि हमने खुद को ‘डिक्लास’ कर लिया; पर उनके अवचेतन में अब भी वही जातिवाद और लैंगिक श्रेष्ठताबोध कायम है।”

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बुद्धिज्म धर्म नहीं, जीवन जीने का मार्ग है

प्रोफेसर हेमलता महिश्वर ने कहा- “आज सामाजिक न्याय के चलते ही मैं यहां हूं। 2019 में खड़ी होकर जब मैं इतिहास में झांकती हूं, तो केवल जन आंदोलन ही दिखता है। अगर बुद्ध ने अपने समय को लेकर मंथन और आंदोलन नहीं किया होता, तो क्या उस समय की गणिकाएं, चंडालिनें और दूसरे लोग अपने मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति कर पाते। वे स्वर्ग-नर्क के आधार पर हमारी मनुष्यता को नकारते हैं। बौद्ध बताते हैं कि जिस जीवन से हम हैं, उसके सह-अस्तित्व को कैसे निभाया जाए कि हमारी और तुम्हारी स्वतंत्रता की रक्षा की जाए। धम्म का मतलब मनुष्य का सामाजिक जीवन है। बुद्धिज्म धर्म नहीं, जीवन जीने का मार्ग है। फुले का नाम भक्ति आंदोलन के साहित्यकारों में नहीं लिया जाता, जबकि उनका सारा काम सामाजिक आंदोलन था। केश उतारने के लिए बाध्य की गई विधवा सवर्ण स्त्रियों की पीड़ा को वह नाई समझता है। वह प्रतिरोध करता है इसका। उसकी संवेदना सवर्णों की संवेदना से बड़ी है। हिंदू कोड बिल की आवश्यकता सवर्ण स्त्रियों को थी; दलित स्त्रियों को नहीं। दलितों में तो पहले से ही इतना खुलापन था कि दाम्पत्य जीवन में नहीं पटी, तो स्त्रियों ने एक को छोड़कर दूसरा कर लिया।”

चेतनाविहीन दलित ब्राह्मणवाद का पोषण करता है

प्रोफेसर राकेश कुमार ने कहा- “वे चाहते हैं कि हम बंटे भी रहें और हिंदू के सूत्र में बंधे भी रहें। दलितों में पैदा होने से कोई दलित नहीं होता, जब तक कि उसमें वह दलित चेतनता न आ जाए। जब तक आप चेतन नहीं होते उसी ब्राह्मणवाद का पोषण करते हैं। बाबा साहब की कोशिश दलितों को चेतन बनाने की थी। इसीलिए उन्होंने ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का नारा दिया था।”

कार्यक्रम के बाद मंच पर उपस्थित दलित साहित्यकार

दलित साहित्यकार मुसाफिर बैठा ने कहा- “सामाजिक न्याय और जन आंदोलन में अन्योन्य संबंध है। दलित साहित्य ब्लैक मूवमेंट और पैंथर मूवमेंट की देन है। वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, जाति-भेद; इसी पर जातिवाद खड़ा है। आज मुख्यधारा के हिंदी साहित्य की आलोचना किए जाने की बहुत जरूरत है। ‘अनहद’ पत्रिका के मुक्तिबोध विशेषांक के लिए लिखते हुए मैंने पाया कि मुक्तिबोध दलित पर कोई कविता नहीं लिखी। बल्कि उनके लेखन में संकेतों में बहुजनों का विरोध आता है। कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘समय सरगम’ में तो बाकायदा मायावती, मुलायम और आरक्षण का विरोध किया गया है। वामपंथ में बहुत काइयांपन है।”

सामाजिक न्याय पर है आंबेडकर का समग्र साहित्य

साहित्यकार संजीव ने कहा-  “बाबा साहेब का समग्र साहित्य सामाजिक न्याय पर है। दलित साहित्य जन-आंदोलन का हिस्सा है। आज जन-आंदोलन की जरूरत क्यों है? इसके कारण हैं- शोषण, असमानता और तिरस्कार। जन आंदोलन के लिए जरूरी शर्तों में इतिहास की सच्चाई हो और इतिहास की पुरानी गलतियां न दोहराई जाएं। इनमें मिथकों को शामिल न किया जाए। जन आंदोलनों के सिद्धांतों को साहित्य के द्वारा जन में ले जाया जाए और सिद्धांतों का पालन करना-करवाना सुनिश्चित किया जाए।”

स्त्रियों को केंद्र में रखकर नहीं किए गए सामाजिक सुधार

सीमा माथुर ने कहा- “सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में सावित्री बाई फुले को छोड़ दें, तो स्त्रियों की भूमिका नगण्य है। समाजिक और धार्मिक सुधार स्त्रियों को केंद्र में रखकर नहीं किए गए। दलित महिला हर किसी के लिए एक्सेसिबल है। इसीलिए वह सांस्कृतिक, राजनीतिक, लैंगिक आर्थिक रूप से कमजोर और तिरस्कृत है। उसे चारों तरफ से उत्पीड़न झेलना पड़ता है। आंदोलन का उद्देश्य पीड़ा को प्रतिरोध में बदलकर पॉवर में कन्वर्ट करना होता है। दलित साहित्य भी यही कर रहा है।”

आंबेडकरवादी लेखक संघ के अध्यक्ष बलराज सिंहमार ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरक्षण, पदों को भरने के रोस्टर विवाद और वहां व्याप्त सामंतवादी संस्कृति के बारे में बताते हुए इसे गलत बताया।

छीना जा रहा आदिवासियों के रहने-खाने का अधिकार

इस सत्र का अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए संजीव डांडा ने कहा- “साहित्य और आंदोलन का गहरा संबंध है। आप रूस और मॉर्टिन लूथर किंग की लड़ाई को देखें, तो पाएंगे कि उनमें साहित्य की कितनी बड़ी भूमिका थी। पास्को की लंबी लड़ाई में हमें जीत मिली। जब आपको पहले से पता हो कि किसके लिए लड़ रहे हो, तो सब चीजें पहले से क्लीयर हो जाती हैं। नर्मदा की लड़ाई 35 साल से चल रही है, अभी ये लड़ाई खत्म नहीं हुई। लाखों लोग बेघर हुए, कइयों को अभी तक मुआवजा नहीं मिला। महाराष्ट्र से गुजरात तक के 25 हजार किमी लंबे कोस्टल एरिया को प्राइवेटाइजेशन करके निजी हाथों में सौंप दी गया है, जहां कंपनियों द्वारा मल्टीनेशनल फिशिंग शुरू की गई है। इससे स्थानीय निवासी दलित और आदिवासी लोगों की आजीविका खत्म हो गई। सागरमाला प्रोजेक्ट के तहत कोस्टल नदियों को नेशनलाइज करके नदियों को खत्म किया जा रहा है। पानी कहां जाएगा? यह सरकार तय करेगी। नदी के अगल-बगल बसे लोग कहां जाएंगे? सागरमाला प्रोजेक्ट के लिए 800 करोड़ का बजट किया गया है। पूरे बंदरगाहों को मल्टीनेशनल को दे दिया गया। फॉरेस्ट एक्ट-2006 को निष्क्रिय करके आदिवासियों से जंगलों को छीनकर कार्पोरेट्स को दे दिया गया।”

काव्यपाठ व पुस्तक विमोचन का रहा दूसरा सत्र

लंच के बाद का सत्र काव्य पाठ का सत्र था। इस सत्र की शुरुआत में 18 वर्षीय सृष्टि गौड़ के अंग्रेजी के दूसरे कविता संकलन का विमोचन किया गया। इसके बाद बिजेंद्र सिंह के संपादन में विभिन्न भाषाओं के 26 दलित साहित्यकारों की आत्मकथाओं पर आलोचनात्मक लेखों के संकलन का लोकार्पण हुआ।

दलित साहित्य महोत्सव के दूसरे सत्र में उपस्थित श्रोतागण

कवि रजनी अनुरागी ने ‘बुद्ध अगर तुम औरत होते’ और ‘हमारी कविता’ नामक कविताओं का पाठ किया। रजनी दिसोदिया ने अपने पति और बेटी को समर्पित करते हुए ‘पीढ़ियां सीढ़ियां होती हैं’ और ‘कहानी बहुत पुरानी है’ कविताओं का पाठ किया। आदिवासी कवयित्री स्नेहलता नेगी ने ‘पहाड़’ और ‘ज्ञात की टहनियां’ कविताएं पढ़ीं। हेमलता माहीश्वर ने ‘बुद्ध’ नामक कविता पढ़कर सबको हर्षित किया। हेमंत बौद्ध ने मंच से गीत गाकर श्रोताओं का मन मोह लिया। इसके बाद रमेश भंगी और डॉ, रहमान मुसब्बिर ने ग़ज़ल पाठ किया। हालांकि समयाभाव के चलते मंचासीन लक्ष्मण गायकवाद और हंसराज सुमन जैसे मुख्य कवि कविता पाठ से वंचित रह गए, श्रोताओं में इसकी चर्चा भी होते देखी गई।

अगले साल आयोजन के वादे के साथ दलित साहित्य महोत्सव हुआ संपन्न

इस सत्र में पहले वक्ता के तौर पर बोलते हुए डॉ. नामदेव ने आभार ज्ञापित करते हुए कहा- “अपना विश्वास बनाए रखने के लिए आप सबका आभार। कई मायने में ये कार्यक्रम अनूठा और सफल रहा। मीडिया ने इसे जगह दी। सोशल मीडिया में भी इसकी प्रशंसा और जिक्र है। किसी कार्यक्रम की सफलता के लिए जहां कार्यक्रम होता है, वहां का बुनियादी स्तर और वक्ताओं का सहयोग बहुत जरूरी होता है। हमारे पास इतने हाथ नहीं थे, पर वोलंटियर्स की वजह से हमारा सपना साकार हुआ।”

प्रोफेसर हंसराज सुमन ने कहा कि, “हमें कार्यक्रम के दौरान ही हंसराज कॉलेज की प्राचार्या की ओर से अगले दलित साहित्य महोत्सव उनके कॉलेज में कराने का आग्रह मिला। साथ ही उन्होंने कार्यक्रम को तन-मन-धन से सहयोग करने का भी आश्वासन दिया है। इसी दौरान हमें अगले दलित साहित्य महोत्सव अपने यहां करवाने के लिए छह राज्यों से मांग आई है। इसके अलावा विदेशों से भी अपने यहां दलित साहित्य महोत्सव कराने की मांग प्राप्त हुई है। चूंकि दलित आंदोलन महाराष्ट्र से शुरू हुआ है, तो मैं चाहता हूं कि अगला दलित साहित्य महोत्सव महाराष्ट्र में हो। घुमंतू जनजातियों के बारे में कहीं कुछ लिखा जा रहा है। डॉ. नामदेव के संपादन में निकलने वाली ‘रिदम’ पत्रिका 6743 घुमंतू जनजातियों की भाषा संस्कृति साहित्य और पीड़ा को स्थान देगी। उनके लिए काम करेगी।”

सूरज बड़ित्या ने स्पष्ट करते हुए कहा कि “इस कार्यक्रम के लिए हमें कहीं से भी एक पैसा नहीं मिला। कुछ लोग कार्यक्रम के बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं कि हमें फलां-फलां जगह से 12 लाख रुपए मिले हैं। हमने सारा आयोजन चंदे के पैसे से किया है। कार्यक्रम की सफल आयोजन के लिए आप सबका आभार। दलित साहित्य के मंच को अपनी कलाकारी से सजाने-संवारने के लिए शीबी पीटर का विषेष आभार। नामदेव, आयोजन मंडल के सदस्यों और वॉलंटियर, वक्ताओं स्टॉल लगाने वाले प्रकाशकों और दर्शकों का विशेष आभार।

समापन सत्र के सबसे आखिर में बोलते हुए मराठी साहित्यकार लक्ष्मण गायकवाड ने कहा- “दलित साहित्य महोत्सव हमारे आंदोलन का एक जरूरी हस्तक्षेप है। ऐसे आयोजन और होने चाहिए और लगातार होने चाहिए। ऐसे साहित्यिक आयोजनों में भागीगारी करके ही समाज में चेतना का प्रसार होता है। ये महोत्सव अस्मिता के लिए लड़ने वाला एक नया जश्न है। नया परिवार बन रहा है लेकर चलने का। और इस देश में अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई बड़े जोर-शोर से लड़ी जाएगी। इसलिए इसको महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस आशय से मैं दलित साहित्य महोत्सव के लिए आयोजकों को धन्यवाद देता हूं।”

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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