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केवल दलितों तक सीमित न रहे दलित साहित्य : पी.एस. कृष्णन

भारत सरकार के पूर्व सचिव पी. एस. कृष्णन का मानना है कि दलित शब्द और दलित साहित्य को केवल दलितों तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल करने वाले को यह जरूर स्पष्ट करना चाहिए कि वह इसका उपयोग किनके संदर्भ में कर रहा है। ताकि कोई गलतफहमी न रहे

आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी, भाग – 15

(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उसमें पी.एस. कृष्णन भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमनियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुतः आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है। फारवर्ड प्रेस की इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना है। हम किताब प्रकाशित करने से पहले इसके कुछ हिस्सों को सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। आज पढ़ें दलित साहित्य के संबंध में पी. एस. कृष्णन की राय –संपादक)

दक्षिण भारत में दलित साहित्य व विमर्श

  • वासंती देवी

(गतांक से आगे)

वासंती देवी : ‘‘दलित सौंदर्यशास्त्र और राजनीति : तमिल दलितों ने अपनी पहचान पुनः कैसे हासिल की’’ विषय पर ‘हिन्दू लिट फाॅर लाईफ’ कार्यक्रम में बोलते हुए 17 जनवरी 2016 को विदुथलई चिरूथाईगल कच्ची के नेता थिरूमावलवन ने कहा कि दलित साहित्य की परिभाषा को केवल एक विशिष्ट समुदाय के बारे में लिखे गए साहित्य तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए बल्कि उसमें उन सभी कृतियों को शामिल किया जाना चाहिए, जो दमित व भेदभाव के शिकार समुदायों, विशेषकर महिलाओं और अल्पसंख्यकों, के जीवन का वर्णन करते हैं। मुझे नहीं पता कि वे केवल साहित्य के संदर्भ में बात कर रहे थे या दलित शब्द के अर्थ को विस्तार दे रहे थे। आपके इस संबंध में क्या विचार हैं?

पी. एस. कृष्णन : दलित शब्द का उपयोग अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग अर्थों में किया जाता रहा है। अक्सर इस शब्द का प्रयोग एससी के संदर्भ में किया जाता है। कभी-कभी इसमें एससी और एसटी दोनों को सम्मिलित कर दिया जाता है। कुछ अन्य मौकों पर और अन्य संदर्भों में, इस शब्द का इस्तेमाल एससी, एसटी व एसईडीबीसी तीनों के लिए संयुक्त रूप से किया जाता है। कभी-कभी इन तीनों के लिए ‘बहुजन’ शब्द का इस्तेमाल भी होता है। ‘दलित’ का शाब्दिक अर्थ है दमित, पीड़ित या रौंदा हुआ। स्वामी विवेकानंद ने उन समुदायों, जो अछूत प्रथा के शिकार थे, के लिए ‘सप्रेस्ड क्लासेज’ शब्द का प्रयोग किया है। गांधीजी ने भी इस शब्द को स्वीकार किया और यह कहा कि वे निःसंदेह ‘सप्रेस्ड’ (दमित) हैं। आगे चलकर उन्होंने इन वर्गों के लिए ‘हरिजन’ शब्द गढ़ा और उसका प्रयोग करना शुरू किया। स्वामी विवेकानंद द्वारा इस्तेमाल किए गए ‘सप्रेस्ड’ शब्द को स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी में ‘दलित’ के रूप में अनुदित किया। स्वामी श्रद्धानंद के अछूत जातियों के प्रति दृष्टिकोण और उनकी सेवा करने के प्रति उनकी सत्यनिष्ठा को डाॅ. आंबेडकर और गांधीजी दोनों ने स्वीकार किया और उसकी प्रशंसा की। गांधीजी और आंबेडकर में कई मतभेद थे, परंतु स्वामी श्रद्धानंद के मामले में दोनों एकमत थे।

दरअसल, ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह इसका इस्तेमाल किस संदर्भ में कर रहा है। सामान्यतः इस शब्द का इस्तेमाल अनुसूचित जाति के लिए किया जाता है अर्थात उन जातियों के लिए जो अछूत प्रथा की शिकार थीं। जब कोई व्यक्ति इस शब्द का इस्तेमाल अधिक व्यापक अर्थ में करता है तब उसे यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह इसका इस्तेमाल किस संदर्भ में कर रहा है ताकि किसी भी प्रकार की गलतफहमी से बचा जा सके। दलित साहित्य का सामान्य अर्थ होता है वह साहित्य जो दलित समुदायों के बारे में हो। इसका सबसे प्राचीन उदाहरण है इड़िवा नामक एसईडीबीसी जाति के पोथेरी कुनहंबू द्वारा सन् 1892 में मलयालम में लिखा गया सरस्वतीविजयम्। यह एक ऐसे दलित लड़के की कहानी है जिसके साथ एक ब्राह्मण उसके द्वारा संस्कृत श्लोक उच्चारित करने के ‘अपराध में दुर्व्यवहार करता है। बाद में यह लड़का शिक्षा प्राप्त कर जज बनता है। एक अन्य पुराना उदाहरण है मल्लापल्ले (1922 में प्रकाशित)। मल्लापल्ले का अर्थ है – माला लोगों का निवास स्थान। माला, आंध्र प्रदेश की दो प्रमुख एससी जातियों में से एक है। इसके लेखक उन्नावा लक्ष्मीनारायणा (1877-1958) एक ऊँची जाति से थे। दो मार्मिक कृतियां जो हाथ से मैला साफ करने की प्रथा और उस समुदाय के चरित्रों को चित्रित करती हैं, वे हैं थोटियुडे माकन (जिसका अर्थ है मेहतर का लड़का) और थोट्टी (जिसका अर्थ है मेहतर)। इन दोनों कृतियों के लेखक क्रमश: थकाजी शिवशंकर पिल्लई (जो अपने उपन्यास चेमेन के लिए अधिक जाने जाते हैं और जिस पर फिल्म भी बनाई जा चुकी है) और नागवल्ली आरएस कुरू थे। ये दोनों कृतियां सन् 1947 में प्रकाशित हुईं थीं यद्यपि यह दिलचस्प है कि ‘मेहतर का पुत्र’, ‘मेहतर’ के पूर्व प्रकाशित हुआ था। कुमारन आसन की दुरावस्था व चंडाल भिक्षुकी भी दलित समुदायों के बारे में हैं। कुमार आसन स्वयं इड़िवा समुदाय के थे। उस समय इड़िवाओं को भी ‘अछूत’ माना जाता था यद्यपि वे इस प्रथा से उतने पीड़ित नहीं थे जितने कि दलित। अगर ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किसी संदर्भ में व्यापक अर्थ में किया जाता है तो इस शब्द का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को यह स्पष्ट करना चाहिए और तब निश्चित तौर पर ‘दलित साहित्य’ को हम ऐसे साहित्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जो किसी भी दमित या वंचित समुदाय के संबंध में हो।   

सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत योद्धा पी.एस. कृष्णन

आधुनिक आत्मकथाओं में से एक है उपारा (बाहरी व्यक्ति) (1980) जो मराठी में लक्ष्मण माने द्वारा लिखी गई थी। यह कृति केकाड़ी समुदाय के बारे में है। यह समुदाय महाराष्ट्र में एसईडीबीसी की सूची में शामिल है। यह एक ऐसा समुदाय है जिसे औपनिवेशिक काल में आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 के तहत आपराधिक जनजाति करार दिया गया था। केकाड़ी, आंध्र प्रदेश के येरूकुला के समकक्ष हैं, जिन्हें पूर्व में ‘दमित जातियों’ की सूची में शामिल किया गया था और बाद में एसटी का दर्जा दे दिया गया। ये दोनों कर्नाटक के कोराचा, जो एससी की सूची में हैं और तमिलनाडु के कोरावा के समकक्ष हैं। कोरावा के कुछ तबकों को एसटी और कुछ को पिछड़ी जातियों में शामिल किया गया है। अलग-अलग राज्यों में उन्हें जो भी दर्जा दिया गया हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि केकाड़ी समुदाय, समाज के सबसे निचले पायदान पर है और उनके जीवन के बारे में लिखे गए साहित्य को ‘दलित साहित्य’ कहा ही जाना चाहिए, अपितु ऊपर बताए गए स्पष्टीकरण के साथ। प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने लोदा और साबर नामक एसटी समुदायों पर केन्द्रित कृतियां रची हैं।

किसी भी दमित, पीड़ित या वंचित समुदाय या वर्ग के बारे में लिखे गए उपन्यास, लघुकथाएं, कविताएं, जीवनियां और आत्मकथाएं प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं फिर चाहे वे दलित शब्द की पारंपरिक परिभाषा के अनुसार दलित साहित्य की श्रेणी में आती हों या नहीं। जहां तक वंचित समुदायों के नेताओं की आत्मकथाओं का संबंध है – चाहे वे ‘दलित’ साहित्य की परिभाषा में आती हों या नहीं – उनमें से कम से कम दो सामाजिक-ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनमें से एक आत्मकथा का शीर्षक है ‘ऐन्थे जीविथा समरम’ (जिसका अर्थ है मेरे जीवन का संघर्ष) इस पुस्तक के लेखक श्री सी केशवन हैं जो इड़िवा समुदाय से थे और जिन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन में अछूत प्रथा का शिकार बनना पड़ा।


 श्री केशवन त्रावणकोर में स्वाधीनता आंदोलन के तीन प्रमुख नेताओं में एक थे और त्रावणकोर-कोच्चिन के पहले मुख्यमंत्री बने। जब वे छोटे से बालक थे तब वे अछूत प्रथा द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों से विद्रोह करते हुए अपने गृहनगर मायनार में चप्पल (मलयालम में चेरूपू) पहनकर बाजार में निकल गए। दुकानदारों ने उनकी पिटाई कर दी और उन्हें अपनी चप्पलें सिर पर रखकर अपने घर वापिस जाना पड़ा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में अछूत प्रथा के कारण उन्हें और उनके समुदाय के सदस्यों को किस-किस तरह के अपमान झेलना पड़ते थे, का वर्णन किया है। उनकी आत्मकथा से हमें यह भी पता चलता है कि केरल के इड़िवा और तमिलनाडु के नाडर समुदायों के पारिवारिक और सामाजिक ढ़ांचों में कितनी समानताएं हैं। ऐसा लगता है कि वे एक ही समुदाय के लोग हैं बस उनकी भाषाएं अलग-अलग हैं।

त्रावणकोर कोच्चिन के पहले मुख्यमंत्री सी. केशवन (23 मई 1891 – 7 जुलाई 1969)

इसी तरह की सामाजिक-पारिवारिक समानताएं इड़िवा और केन्या की लुओ जनजाति में भी परिलक्षित हुईं। ऐसा मुझे तब लगा जब मैंने ओगिंगा ओडिंगा की आत्मकथा ‘अब तक युहुरू नहीं’ (पूर्वी और उससे जुड़े मध्य अफ्रीकी देशों में बोली जाने वाली स्वाहिली भाषा में युहुरू का अर्थ होता है स्वतंत्रता) पढ़ी। ओगिंगा ओडिंगा केन्या के स्वधीनता संग्राम के प्रसिद्ध नेता जोमों केन्यटा (जिसका अर्थ होता है जलता हुआ भाला) के दो शीर्ष अनुयायियों में से एक हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के पिता भी लुओ जनजाति के थे। ये आत्मकथाएं और स्वाधीनता व समानता के लिए लड़ने वाले अन्य नेताओं – जिनमें से कई भारत और अन्य देशों के वंचित समुदायों में से थे – की आत्मकथाएं सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें औपचारिक रूप से दलित साहित्य का हिस्सा माना जाता है या नहीं, जैसा कि मैंने कहा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम दलित शब्द का प्रयोग किस अर्थ और संदर्भ में कर रहे हैं।

(क्रमश: जारी)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

वासंती देवी

वासंती देवी वरिष्ठ शिक्षाविद और कार्यकर्ता हैं. वे तमिलनाडु राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष और मनोनमेनियम सुन्दरनार विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रह चुकी हैं। वे महिला अधिकारों के लिए अपनी लम्बी लड़ाई के लिए जानी जातीं हैं। उन्होंने विदुथालाई चिरुथैल्गल काची (वीसीके) पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन 2016 का विधानसभा चुनाव जे. जयललिता के विरुद्ध लड़ा था

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