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इतिहास के पन्नों से : जब एक नौकरशाह की पहल पर आदिवासियों को वापस मिली थी जमीन

घटना उस समय की है जब 1987 में पी. एस. कृष्णन आंध्र प्रदेश में प्रतिनियुक्ति पर थे। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव व कई विपक्षी भी इस पक्ष में नहीं थे कि गैर आदिवासियों द्वारा अतिक्रमित जमीन आदिवासियों को वापस की जाय

आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी, भाग – 16

(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उसमें पी.एस. कृष्णन भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमनियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुतः आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है। फारवर्ड प्रेस की इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना है। हम किताब प्रकाशित करने से पहले इसके कुछ हिस्सों को सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। आज पढ़ें कि किस तरह 1987 में पी एस कृष्णन ने आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव की इच्छा के विरूद्ध आदिवासियों को वह जमीन वापस करवायी जो पूर्व में गैर-आदिवासियों के कब्जे में थी –संपादक)

अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहें प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिक हस्तक्षेप बाध्यकारी नहीं

  • वासंती देवी

(गतांक से आगे)

वासंती देवी : एसटी कलंकित अछूत प्रथा के शिकार नहीं हैं, परंतु उन्हें अन्य तरीकों से हाशिए पर पटक दिया गया है और उनका शोषण किया जाता रहा है। ऐसा कहा जाता है कि औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक भारतीय राज्य आदिवासियों के अधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघनकर्ता रहा है। क्या आप इस धारणा से सहमत हैं?

पी.एस. कृष्णन : यह सही है कि एसटी मोटे तौर पर अछूत प्रथा के शिकार नहीं रहे हैं, परन्तु भारत के कुछ इलाकों में, अपने रहवास के क्षेत्र के बाहर, एसटी भी अछूत प्रथा से पीड़ित हैं। अधिकांश एसटी, आदिवासी इलाकों में रहते हैं, जहां उनकी बहुसंख्या होती है। इसके विपरीत, एससी हर जगह आबादी में अल्पसंख्यक परन्तु शारीरिक श्रम करने वालों में बहुसंख्यक हैं। एसटी आबादी के वितरण के मद्देनज़र, किसी अन्य समुदाय के लिए यह संभव ही नहीं है कि उनपर सामूहिक हमले कर सके, जैसा कि एससी के मामले में होता आ रहा है और आज भी हो रहा है। एसटी की वंचना के अन्य कारण हैं, जिनमें शामिल हैं :   

  • उन्हें उनकी भूमि से वंचित करना

  • उनके क्षेत्र में अन्य समुदायों की घुसपैठ जिसके कारण उन्हें और गहरे जंगलों में धकेल दिया जाता है और आबादी में उनकी बहुसंख्या खतरे में पड़ जाती है।

  • जंगलों पर उनके अधिकार से उन्हें औपनिवेशिक काल के कानूनों द्वारा वंचित किया जाना।

  • उनके रहवास के पारंपरिक क्षेत्रों की पर्यावरणीय दुर्दशा जिसका कारण है जंगलों और पहाड़ों का व्यावसायिक उपयोग जो औपनिवेशिक काल से लेकर अबतक जारी है।

  • उनके रहवास के क्षेत्रों में स्वास्थ्य व शिक्षा संबंधी अधोसंरचना उपलब्ध न होना जिसके कारण वहां नवजात, शिशु, बाल व मातृ मृत्यु दर सबसे उच्च स्तर पर रहती है। यही बात एससी के बारे में भी सच है।

जहां तक उनपर अत्याचारों का सवाल है, वे वर्चस्वशाली समुदायों द्वारा नहीं बल्कि वन, पुलिस व राजस्व विभागों की सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग द्वारा किए जाते हैं जैसा कि तमिलनाडु के वंचाती में 1992 में हुआ। एसटी की वंचना और उनकी दुर्दशा केवल औपनिवेशिक काल में हुई ऐसा नहीं है। औपनिवेशिक काल के पूर्व भी उनपर अत्याचार होते आए थे। हां, औपनिवेशिक काल में देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की गति तेजी से बढ़ी और इसके कारण आदिवासी और बदहाल होते गए। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी यह प्रक्रिया जारी है। आदिवासियों के विद्रोहों जैसे संथाल विद्रोह और आंध्र प्रदेश के रंपा क्षेत्र (जो उस समय मद्रास प्रेसिंडेसी का हिस्सा था) में फितूरियों के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक सरकार ने कई ऐसे कानून बनाए जिनके अंतर्गत आदिवासियों की भूमि का गैर-आदिवासियों को स्थानांतरण प्रतिबंधित कर दिया गया परंतु इन नियमों और कानूनों को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया और उसका कारण यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात जिन लोगों ने आदिवासियों की भूमि पर अतिक्रमण और कब्जे किए वे वर्चस्वशाली समुदायों से थे जिनके कई सदस्य मुख्यमंत्री और मंत्री थे।

सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत योद्धा पी.एस. कृष्णन

एपी शेडयुल्ड एरियाज लैंड ट्रांसफर रेग्युलेशन्स (1959) को मजबूत करने के लिए मेरे और मेरे साथी श्री एस. आर. शंकरन की सिफारिश पर दो नई उपधारणाएं जोड़ी गईं थीं। उस समय हम दोनों क्रमश: पूर्व गोदावरी और नैल्लोर जिलों के कलेक्टर थे। ये सिफारिशें हम लोगों ने एक साथ अपने समान सरोकारों के रहते कीं थीं यद्यपि इसके पूर्व हमने आपस में कोई चर्चा नहीं की थी। इन दोनों नई उपधारणाओं के क्रियान्वयन पर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मारी चेन्ना रेड्डी ने रोक लगा दी। यह संविधान का मखौल था कि कार्यपालिका, मुख्यमंत्री जिसके मुखिया थे, ने एक ऐसे कानून पर रोक लगा दी जिसे यद्यपि विधायिका ने नहीं बनाया था परंतु जिसे राज्यपाल ने उन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के अधीन लागू किया था। उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने इन दोनों नए खंडों को वैध घोषित किया यद्यपि इस बीच चार वर्ष गुजर गए और आदिवासियों का काफी नुकसान हो गया।

यह भी पढ़ें : आदिवासियों के मामले पर पुनर्विचार करे सुप्रीम कोर्ट

संवैधानिक प्रावधानों और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए विशिष्ट कानूनों/नियमों का उल्लंघन करते हुए आदिवासियों के अधिकारों को कुचलने के उदाहरण अन्य राज्यों में भी हैं। मैं इसके लिए संविधान ने जिस रूप में भारतीय राज्य की परिकल्पना की है उसे दोष नहीं देता। इसके लिए दोषी वे व्यक्ति और राजनैतिक दल हैं जिन्होंने भारत और उसके राज्यों में शासन की बागडोर संभाली।

मैं आदिवासियों के अधिकारों के उल्लंघन के दो और उदाहरण दे सकता हूं- एक आध्रं प्रदेश का और दूसरा केरल का। केरल में पल्लकड़ के सब कलेक्टर श्री सुबैया, जो कि तमिलनाडु की एक दलित जाति के थे, ने आदिवासियों की भूमि संबंधी कानूनों को कड़ाई से लागू करना शुरू किया। उनकी जमीनों पर गैर-कानूनी ढंग से और धोखाधड़ी कर एक गैर-आदिवासी ऊँची जाति (जो इस मामले में एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की थी) ने कब्जा कर लिया था। जहां तक आदिवासियों और दलितों का प्रश्न है, ऊँची जातियों के लोगों, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों, का व्यवहार एक सा रहता है। एक बार अतिक्रमण करने वाले समुदाय की महिलाओं ने उन्हें घेर लिया और उसके बाद हुई झूमा-झटकी में उनके कपड़े फट गए। इस घटना की चर्चा करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री ने एक सभा में हंसते हुए कहा कि “श्री सुबैया ने इतिहास का अध्ययन नहीं किया था और परिणामस्वरूप महिलाओं ने उनकी निकर फाड़ दी’’। यह बात यद्यपि मजाक में कही गई थी, परंतु उचित नहीं थी। मुख्यमंत्री ने न तो युवा सब कलेक्टर की एसटी को उनके अधिकार दिलवाने के प्रयासों की सराहना की और न उस काम को आगे बढ़ाने के लिए सरकार का समर्थन और सहयोग उपलब्ध करवाया। राज्य के एक अन्य मुख्यमंत्री ने केरल शेड्युल्ड ट्राईब्स (रेसट्रिक्शन ऑन ट्रांसफर ऑफ लेन्डस एंड रिसटोरेशन ऑफ एलीनेटिड लेन्डस) एक्ट 1975 को कमजोर करने के लिए उसका क्रियान्वयन होने के पूर्व ही उसमें संशोधन करवा दिए। ये दोनों मुख्यमंत्री दो अलग-अलग पार्टियों और विचारधाराओं के थे परंतु जब उन्हें ऊँची जातियों के समुदायों – जिनकी खासी आबादी थी – के विरोध का सामना करना पड़ा तो उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के प्रति एक सा उपेक्षा भाव दिखाया।  

आंध्र प्रदेश के एक उदाहरण का वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूं। एक अन्य उदाहरण सन् 1987 का है। उस समय मुझे प्रमुख सचिव, वित्त व योजना के पद से स्थानांतरित करते हुए प्रमुख सचिव, समाज कल्याण बना दिया गया था। मैं एससी, एसटी व एसईडीबीसी के कल्याण का प्रभारी था। बाद में इस विभाग को तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया गया। मुझे राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव द्वारा दिल्ली से राज्य में वापस लाया गया था क्योंकि वे जाति व्यवस्था और उससे जुड़े मुद्दों पर मेरे विचारों से प्रभावित थे। उस समय यह माना जा रहा था कि उनका इरादा मुझे राज्य के मुख्य सचिव (जो भारत सरकार के सचिव के समकक्ष होता है) के पद पर नियुक्त करने का था कुछ समय तक उन्होंने मेरी सलाह पर काम किया। अनुसूचित जातियों को लगने लगा कि मुख्यमंत्री उनके विरोधी हैं क्योंकि वे इस तरह की टिप्पणियां करते रहते थे कि एक ही समुदाय को आरक्षण का लाभ क्यों मिलता रहना चाहिए। उनका इशारा माला समुदाय की ओर रहता था जो उस क्षेत्र का सबसे बड़ा एससी समुदाय था। वे चाहते थे कि एसईडीबीसी की मदद की जाए। मैंने उनसे कहा कि मैं उन्हें बताऊंगा कि एसईडीबीसी की मदद किस तरह से की जा सकती है और मैंने उनसे यह भी कहा कि एसईडीबीसी के कल्याणार्थ कदम उठाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि एससी को दी जाने वाली मदद में कटौती की जाए। माला समुदाय के प्रति उनके बैर-भाव के सामाजिक-ऐतिहासिक कारण थे परंतु उसमें इस तथ्य के कारण और बढ़ोत्तरी हो गई थी कि 1983 में और उसके बाद एससी ने उनके और उनकी पार्टी के विरूद्ध मत दिया था। मैंने उनसे कहा कि मेरा अनुभव यह है कि कोई भी समुदाय किसी नेता या किसी राजनैतिक दल का स्थाई विरोधी नहीं होता बल्कि प्रत्येक समुदाय की प्रतिक्रिया और उसका रूख इस बात पर निर्भर करता है कि कोई नेता या दल उनके लिए क्या करता है या क्या नहीं करता। मैंने उन्हें उदाहरण देते हुए बताया कि उनके जिले और उससे जुड़े हुए जिलों के दलित कम्युनिस्ट पार्टी को अपना समर्थन देते आ रहे थे परंतु 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे से प्रभावित होकर उन्होंने श्रीमती गांधी और उनकी पार्टी को वोट देना शुरू कर दिया।  

आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव (28 मई 1923-18 जनवरी 1996)

एसईडीबीसी की ठोस सहायता करने के लिए एक कदम जो उठाया जा सकता था उसके बारे में मैंने उन्हें बताया। मैंने उनसे कहा कि राज्य की सभी पत्थर की खदानों को केवल उस समुदाय के लोगों की सहकारी संस्थाओं और संघों को दिया जाना चाहिए जो पारपंरिक रूप से पत्थरों का खनन और उन्हें तोड़ने का काम करते आ रहे हैं। इस समुदाय का नाम वडार है और यह राज्य के सबसे कमजोर एसईडीबीसी में से एक है। वे तमिलनाडु के बोयन के समकक्ष हैं। यह समुदाय लगभग अछूत माना जाता है और यही कारण था कि मैसूर के महाराजा ने हस्तक्षेप कर भारत सरकार के सहयोग से उन्हें राष्ट्रपति के आदेश में एससी की सूची में शामिल करवाया था। त्रावणकोर में भी वे एससी की सूची में शामिल थे। मैंने मुख्यमंत्री को यह सलाह दी कि लोक निर्माण व सिंचाई जैसे सरकारी विभागों को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पत्थर (स्टोन चिप्स इत्यादि) इसी समुदाय के सदस्यों से सीधे खरीदनी चाहिए। मैंने उनसे कहा कि अगर पत्थरों को निश्चित आकार में काटने के लिए क्रशर और उहें ढोने के लिए ट्रकों आदि की व्यवस्था करवा दी जाए तो इस समुदाय  के सदस्यों की आमदनी कई गुना बढ़ सकती है। मुख्यमंत्री ने तुरंत प्रेस को बुलवाया और मेरी उपस्थिति में ‘क्वेरी टू डेम’ योजना लागू करने की घोषणा की। इस योजना के अंतर्गत पत्थरों के खनन से लेकर उनके विपणन तक कि पूरी प्रक्रिया को वडार समुदाय को उनकी सहकारी संस्थाओं या संघों के जरिए सौंपा जाना था। इस योजना को समझाते हुए मेरी पत्नी शांताजी, जो इस समुदाय के बीच काम कर रहीं थीं, ने एक आम सभा में यह नारा दियाः ‘क्वेरी, लाॅरी, क्रशर, क्रेश’।

एक अन्य एसईबीडीसी अर्थात मछुआरों के लिए मैंने यह सलाह दी कि मछलियों को पकड़ने, उनके प्रशीतित भंडारण, प्रशीतित परिवहन और बाजार में बिक्री तक की पूरी प्रक्रिया मछुआरों के हाथ में सौंप दी जानी चाहिए। इस समुदाय के शिक्षित युवकों को भंडारण, परिवहन और विपणन की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।  

तेलंगाना के एक दलित संगठन ने अपने रजत जयंती समारोह का आयोजन, हैदराबाद के प्रतिष्ठित रवीन्द्र हाॅल में करने का निर्णय लिया। यह बात सन् 1987 की है। मेरी सलाह पर उन्होंने मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव को अपने समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया और मेरी ही सलाह पर मुख्यमंत्री ने इस आमंत्रण को स्वीकार किया। मेरी सलाह पर दलित संगठन ने यह सुनिश्चित किया कि समारोह में मुख्यमंत्री के विरूद्ध कोई नारे नहीं लगाए जाएं। मुख्यमंत्री ने इस अवसर पर बहुत अच्छा भाषण दिया, जिसका दलितों ने स्वागत किया। मंच से ही उन्होंने मुझे श्रेष्ठ प्रशासक के साथ-साथ पद-दलितों की सेवा करने के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति बताया। इस कार्यक्रम की सफलता से मुख्यमंत्री की उच्च जाति के कुछ प्रभावशाली लोग चौंक गए। उन्हें यह लगा कि अगर मैं मुख्य सचिव बन गया तो उनका क्या होगा। उस समय ऐसी धारणा थी कि मुख्यमंत्री मुझे मुख्य सचिव नियुक्त करने वाले हैं। अपने जातिगत संपर्कों का उपयोग कर उनमें से कुछ ने मेरे विरूद्ध मुख्यमंत्री के कान भरने शुरू कर दिए। मुख्यमंत्री से कहा गया कि मैं कुछ ज्यादा ही निर्धन-समर्थक हूं। शनैः-शनैः उन्होंने मुख्यमंत्री को मेरे विरूद्ध भड़काने में सफलता प्राप्त कर ली।

इसी दौरान मेरे और मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव के बीच बजटीय संतुलन के मुद्दे पर टकराव हो गया। मुख्यमंत्री अक्सर ऐसी बड़ी योजनाओं की घोषणा कर देते थे, जिन पर होने वाला खर्च सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। इस कारण बाद में बजट प्रस्तावों में कटौती करनी पड़ती थी। जब भी ऐसी स्थिति आती थी मैं इसी तरह की बड़ी योजनाओं पर कैंची चलाता था। मुख्यमंत्री चाहते थे कि बजटीय खर्च को कम करने के लिए समाज कल्याण योजनाओं को आवंटित धन में कमी की जाए। जब मैं उन्हें यह समझाने का प्रयास कर रहा था कि जो कुछ मैं कर रहा हूं वह आवश्यक है, तभी मेरी बात को बीच में ही काटने का प्रयास किया गया। मैंने साफ शब्दों में कहा कि मुझे अपनी पूरी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। इस तनातनी के बाद मुझे प्रमुख सचिव, समाज कल्याण के पद पर स्थानांतरित कर दिया गया। जब मुख्यमंत्री मुझे दिल्ली से प्रमुख सचिव, वित्त और योजना के पद पर नियुक्त करने के लिए राज्य में लाए थे, तब मैंने उनसे इसी पद पर पदस्थ किए जाने की इच्छा व्यक्त की थी। परंतु वित्त और योजना से समाज कल्याण विभाग में स्थानांतरण को सामान्यतः एक तरह की पदावनति माना जाता था।

जिस दौरान मैं प्रमुख सचिव, समाज कल्याण था, मुख्यमंत्री ने यह प्रस्ताव किया कि आदिवासियों की भूमि पर जो गैर-आदिवासी काबिज हैं, उन्हें छेड़ा न जाए और इसकी जगह विस्थापित आदिवासियों को आदिवासी क्षेत्र के बाहर पुनर्वासित कर दिया जाए। जो लोग आदिवासियों की जमीन पर गैरकानूनी ढंग से काबिज थे, उनमें से अधिकांश मुख्यमंत्री की जाति के थे। धर्म के अंतर के बावजूद, उनका और केरल में उनके समकक्षों – जो ईसाई थे – का व्यवहार एकदम एक-सा था। मुख्यमंत्री चाहते थे कि उनकी इस योजना पर सभी दलों की सहमति हासिल की जाए। इसके लिए उन्होंनेे सीपीआई, सीपीआई(एम), एमसीपी (माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) और भाजपा नेताओं के साथ एक संयुक्त बैठक आयोजित की। जब यह निर्णय लिया गया उस समय मैं प्रमुख सचिव, समाज कल्याण नहीं था। जब इसी कड़ी की दूसरी और अंतिम बैठक आयेाजित की जानी थी तब तक मैंने समाज कल्याण विभाग में पदभार ग्रहण कर लिया था। मुझे बताया गया था कि पहली बैठक में सीपीआई के प्रतिनिधि श्री नागेश्वर राव ने मुख्यमंत्री के सुझाव से सहमति जाहिर की थी। आदिवासियों की जमीनों के अधिकांश कब्जाधारी उन्हीं की जाति के थे। मैंने इस मुद़दे पर जानेमाने अर्थशास्त्री और लंबे समय तक देहली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में पदस्थ रहे डाॅ. सी. एच. हनुमंतराव से चर्चा की। योजना आयोग के सदस्य के रूप में अपने कार्यकाल के बाद वे हैदराबाद रहने आ गए थे। डाॅ हनुमंतराव अपने बड़े भाई राजेश्वर राव को लेकर मेरे घर आए। राजेश्वर राव, सीपीआई विधायक दल के नेता थे। डाॅ हनुमंतराव एक  ईमानदार और मानवतावादी व्यक्ति थे और उनकी वंचित तबकों के प्रति सच्ची सहानुभूति और निष्ठा थी। वे एक ऊँची जाति से थे और उनके दो भाई थे। उनके बड़े भाई राजेश्वर राव सीपीआई के वरिष्ठ नेता थे और सबसे छोटे भाई विद्यासागर राव भाजपा में थे। वे वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल और तमिलनाडू के प्रभारी राज्यपाल हैं। तमिलनाडू के राज्यपाल श्री रोसय्या का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन्हें तमिलनाडू का प्रभार दिया गया था। मैंने श्री राजेश्वर राव से कहा कि आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भूमि हस्तांतरण विनियमन 1959 के प्रकाश में मुख्यमंत्री का प्रस्ताव पूरी तरह गैरकानूनी है। श्री राजेश्वर राव ने मुझसे सहमति जाहिर की। मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अगली बैठक में अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व करें और इस प्रस्ताव की कानूनी वैधता पर प्रश्न उठाएं। वे राजी हो गए। बैठक के दिन जब मैं सम्मेलन कक्ष में पहुंचा, तब तक विभिन्न पार्टियों के नेता वहां इकट्ठे हो चुके थे और मुख्यमंत्री का इंतजार हो रहा था। सीपीएम का प्रतिनिधित्व श्री बी. वेंकटेश्वर राव कर रहे थे, जो उन दिनों खम्मम जिले की मधिरा पंचायत समिति के अध्यक्ष हुआ करते थे, जब मैं इस जिले का कलेक्टर था। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा अभिवादन किया और चूंकि हम लगभग बीस साल बाद मिल रहे थे, इसलिए पुनः अपना परिचय दिया। अन्य मौजूद व्यक्तियों में शामिल थे सीपीआई की ओर से राजेश्वर राव और सीपीएम से अलग हुए गुट एमसीपी के नेता श्री ओंकार और श्री बंगारू लक्ष्मण, जो भाजपा के प्रतिनिधि थे। वे सभी मुझे जानते थे और वंचितों को न्याय दिलवाने के प्रति मेरी प्रतिबद्धता से वाकिफ थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि उन्हें बैठक में क्या कहना चाहिए। मैंने उन्हें कानूनी स्थिति से परिचित करवाया और कहा कि मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि कानूनी दृष्टि से यही उचित होगा कि आदिवासी क्षेत्रों की जमीनें आदिवासियों को ही वापस दिलवाई जाएं और गैर-आदिवासी अवैध कब्जाधारियों को आदिवासी क्षेत्र के बाहर बसाया जाए। मुख्यमंत्री के आने के बाद सभी पार्टियों के नेताओं ने यही बात कही। मैंने इस घटना का विवरण विस्तार से इसलिए किया है ताकि यह पता चल सके कि एसटी व अन्य वंचित वर्गों की भलाई के लिए बनाए गए कानूनों का शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा किस तरह मजाक बनाया जाता है। मेरा दूसरा उद्धेश्य यह है कि मैं यह बता सकूं कि आईएएस व अन्य अखिल भारतीय सेवाओं और केन्द्र व राज्यों की प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों, जिन्हे संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत विशेष संरक्षण उपलब्ध है, की सरकार में क्या भूमिका होनी चाहिए। मेरी यह मान्यता है कि ये अधिकारी अपने वरिष्ठों – चाहे वे मंत्री हों, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या अन्य अधिकारी – के गैरकानूनी प्रस्तावों और इच्छाओं का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। बल्कि, उनका कर्तव्य है कि वे यथाशक्ति सुनिश्चित करें कि इस तरह की गैरकानूनी इच्छाएं और प्रस्ताव आधिकारिक निर्णय का रूप न ले सकें। वे ऐसा कर सकें, इसीलिए ही उन्हें संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है। इन सेवाओं की प्रतिष्ठा तभी बढ़ेगी और उन्हें तभी सम्मान मिलेगा जब वे बिना किसी समझौते के वंचित वर्गाें के संवैधानिक और विधिक अधिकारों की रक्षा करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि निर्वाचित शासकीय प्राधिकारियों को इन वर्गाें के संवैधानिक और विधिक अधिकारों की रक्षा करने की जरूरत नहीं है या उनका यह कर्तव्य नहीं है। इसका अर्थ केवल यह है कि अगर निर्वाचित प्रतिनिधि अपने कर्तव्यों का अनुपालन न करें तो स्थायी कार्यपालिका के सदस्यों को आगे आना चाहिए।

(क्रमश: जारी)

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

वासंती देवी

वासंती देवी वरिष्ठ शिक्षाविद और कार्यकर्ता हैं. वे तमिलनाडु राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष और मनोनमेनियम सुन्दरनार विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रह चुकी हैं। वे महिला अधिकारों के लिए अपनी लम्बी लड़ाई के लिए जानी जातीं हैं। उन्होंने विदुथालाई चिरुथैल्गल काची (वीसीके) पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन 2016 का विधानसभा चुनाव जे. जयललिता के विरुद्ध लड़ा था

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