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आदिवासियों के मामले पर पुनर्विचार करे सुप्रीम कोर्ट

भारत सरकार के पूर्व सचिव पी.एस. कृष्णन ने केंद्रीय मंत्री जुआल ओराम को पत्र लिखकर कहा है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए जल्द-से-जल्द अध्यादेश लाए। वहीं झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का कहना है कि सरकार ने आदिवासियों का पक्ष ईमानदारी से नहीं रखा

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को दिए अपने फैसले में 21 राज्यों के 10 लाख से अधिक आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने काे कहा है। इसके लिए अदालत ने जुलाई तक का समय केंद्र व राज्य सरकारों को दिया है। अदालत का यह फैसला वनाधिकार कानून-2006 के संदर्भ में आया है। इसे लेकर देश भर के आदिवासी संगठनों, नेताओं और बुद्धिजीवियों ने सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि आदिवासियों को बेघर होने से बचाने के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के लिए अध्यादेश लाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि जुलाई महीने के अंत तक उन सभी लोगों से जमीन पर से उनके अधिकार वापस ले लिए जाएं और जमीन को मुक्त करा लिया जाए, जिनके दावे खारिज हो चुके हैं। खंडपीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी शामिल हैं। इससे पहले 29 जून 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि यदि दावों की संपुष्टि समर्थ प्राधिकार द्वारा नहीं की जाती है, तो वनाधिकार कानून के तहत दावा करने वाले को जमीन का कोई पट्टा या कोई अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन, साथ ही ऐसा दावा करने वालों को उस जमीन से बेदखल भी कर दिया जाना चाहिए, जिस पर उनका दावा खारिज हो चुका है।

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सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 21 राज्यों की सरकारों ने शपथ-पत्र दाखिल कर, वनाधिकार कानून-2006 के आलोक में प्राप्त दावों और खारिज दावों की सूची अदालत को दी थी। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, आसाम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा, राजस्थान, तामिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।

क्या कहता है वनाधिकार कानून-2006?

वर्ष 2006 में बने वनाधिकार कानून के मुताबिक, “भू-अभिलेखों और अन्य अधिकारों के दस्तोवजीकरण नहीं किए जाने से पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति और पारंपरिक तौर पर जंगलों में रहने वाले अन्य लोगों के खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। यह कानून ऐसे लोगों को संरक्षण प्रदान करता है; ताकि जंगल की जमीन पर पेशे का उनका अधिकार कायम रहे और वे अपनी आजीविका के लिए वन संपदा के लघु उत्पाद, यथा- फलों, पत्तों, सूखी लकड़ियों आदि का इस्तेमाल कर सकें।”

झारखंड की राजधानी रांची में जमीन पर बेदखली के खिलाफ प्रदर्शन करतीं आदिवासी समाज की महिलाएं (तस्वीर साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

कानून में दो तरह के लोगों की बात कही गई है। पहले, फॉरेस्ट ड्वेलिंग शेड्यूल ट्राइब, जिसके अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के सदस्य शमिल हैं, जो जंगलों में रहते हैं। दूसरे, अदर ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलर्स (ओटीएफडी) के तहत पिछले 75 वर्षों से जंगलों में रहने वाले या वनोत्पादों पर आश्रित लोग शामिल हैं।

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वनाधिकार कानून के उपखंड-6 में ऐसे लोगों के द्वारा दावे प्रस्तुत किए जाने का प्रावधान किया गया है। एक बार दावा सत्यापित होने के बाद ऐसे लोगों को जमीन पर अधिकार मिल जाएगा।

वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नामक एनजीओ और कुछ सेवानिवृत्त वन अधिकारियों ने उठाया था सवाल

बताते चलें कि वाइल्ड लाइफ फर्स्ट और वन विभाग के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने 2008 में जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में उन्होंने कहा था कि वनाधिकार कानून के कारण जंगल की जमीन पर अतिक्रमण को बढ़ावा मिला है। उन्होंने उन लोगों से जमीन वापस लेने की बात कही थी, जिनके दावे वनाधिकार कानून-2006 के तहत खारिज हो गए हैं। याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट को यह बताया था कि पूरे देश में 44 लाख से अधिक दावे सामने आए और इनमें करीब 22.5 लाख दावे खारिज कर दिए गए।

फैसले पर लगे रोक, सरकार जल्द लाए अध्यादेश : पी.एस. कृष्णन

भारत सरकार के पूर्व सचिव पी.एस. कृष्णन ने 23 फरवरी 2019 आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री जुआल ओराम को पत्र लिखकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए अध्यादेश लाने की मांग की है। अपने पत्र में उन्होंने लिखा है कि, “आप सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अवगत होंगे, जिसके कारण 21 राज्यों में बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को यदि लागू किया गया, तो कई तरह की समस्याएं सामने आएंगी।”

भारत सरकार के पूर्व सचिव पी.एस. कृष्णन

श्री कृष्णन ने यह भी कहा है कि, “सरकार ने आदिवासियों के पक्ष को सुप्रीम कोर्ट में वाजिब तरीके से नहीं रखा है।’’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि, ‘‘सबसे पहला काम सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रोक लगाना है। चूंकि फैसले में जुलाई तक आदिवासियों को बेदखल किए जाने की बात कही गई है। लिहाजा समय बहुत कम है। इसलिए बिना समय गंवाए अध्यादेश लाए जाने की जरूरत है।”

आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री जुआल ओराम

खारिज दावों की फिर से हो जांच : बाबूलाल मरांडी

झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री व झारखंड विकास मोर्चा के नेता बाबूलाल मरांडी के मुताबिक, ‘‘इस मामले में कोई नया कानून या नया अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं है।’’ दूरभाष पर फारवर्ड प्रेस से बातचीत में उन्होंने कहा कि, “कानून तो पहले ही बन चुका है। 2006 में बनाए गए कानून में सारे प्रावधान किए गए हैं, जिनसे आदिवासियों की जमीन व उनके अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। मामला दावों की संपुष्टि का है। मेरा मानना है कि सरकारी तंत्र ने आदिवासियों से प्राप्त दावों को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया है। यह भी संभव है कि जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई, उन्होंने सही तरीके से अपना काम न किया हो। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों के पक्ष को ईमानदारी से नहीं रखा है और इसके कारण माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया है, जिसके कारण लाखों आदिवासियाें पर संकट आ गया है।”

झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी

उन्होंने कहा कि, ‘‘अब सरकार को चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दाखिल करे और आदिवासियों से प्राप्त उन दावों की दोबारा जांच हो, जिन्हें खारिज किया गया है।’’

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


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