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रैदास साहेब और बेगमपुरा की संकल्पना

संत रैदास का आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है  

भारत की अवैदिक और भौतिकवादी चिंतनधारा मूल रूप से समतावादी रही है। इसी को चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने भारत का मौलिक समाजवाद कहा है।[1] इस मौलिक समाजवाद की अवधारणा हमें ‘बेगमपुर शहर’ में मिलती है, जो रैदास साहेब का बहुचर्चित पद है—

बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।

ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु।

अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।

काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही।

आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।

तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै।

कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।[2]

यह पद डेरा सच्चखंड बल्लां, जालंधर के संत सुरिंदर दास द्वारा संग्रहित ‘अमृतवाणी सतगुरु रविदास महाराज जी’ से लिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि असल नाम ‘रैदास’ है, ‘रविदास’ नहीं है। यह नामान्तर गुरु ग्रन्थ साहेब में संकलन के दौरान हुआ। जिज्ञासु जी ने इस संबंध में लिखा है,  यह पता नहीं चल सका कि गुरु ग्रन्थ साहेब में संत रैदास जी के जो 40 पद मिलते हैं, वे किसके द्वारा पहुंचे और उनमें रैदास को रविदास किसने किया? यह बात विचारणीय इसलिए है, क्योंकिरैदासकारविदासकिया जाना संत प्रवर रैदास जी का ब्राह्मणीकरण है; जो रैदासभक्तों में सूर्योपासना का प्रचार है[3] अन्य संग्रहों में रैदास साहेब का यह पद कुछ पाठान्तर के साथ मिलता है और उसमें ‘रैदास’ छाप ही मिलती है। जिज्ञासु जी के संग्रह में इस पद के आरंभ में यह पंक्ति आई है- ‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा खैर सदा मन भाया।’[4]

इस पद में रैदास साहेब ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुःखविहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास साहेब अपने शिष्यों से कहते हैं- मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरेतीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।

‘बेगमपुर’ की तुलना सर टामस मोर (1478-1535) की महत्वपूर्ण कृति ‘यूटोपिया’ से की जा सकती है; जो साम्यवादी काल्पनिक चिंतन पर आधारित है। यह कृति ‘प्लेटो की परंपरा का नवीकरण करते हुए स्वयं 16वीं सदी के पश्चात साम्यवादी कल्पनालोकों के सृजन में प्रेरणा का स्रोत बन गई। ‘यूटोपिया’ एक काल्पनिक द्वीप है, जिसका वर्णन एक पुर्तगाली यात्री रैफेल हिथलोडे प्रमुख पात्र के रूप में करता है। वह इंग्लैंड और पश्चिमी यूरोप में प्रचलित सामंती समाज के व्यवस्थागत दोषों की आलोचना करता है और यूटोपिया द्वीप की आदर्श साम्यवादी प्रणाली की प्रशंसा करता है।’[5]

सर टामस मोर का यूटोपिया इतना लोकप्रिय हुआ कि उसी समय से यह दुनिया भर में एक आदर्श कल्पना के लिए रूढ़ हो गया। मोर का निष्कर्ष था कि सभी सरकारें धनिकों का षड्यंत्र हैं, जो जनहित के नाम पर धनिकों के लिए काम करती हैं।[6] कल्पित समाजवाद पर आधारित यूटोपिया को दो खंडों में लिखा गया था। किन्तु, रैदास साहेब की ‘बेगमपुर’ रचना केवल कुछ पंक्तियों की एक कविता है, जिसमें बेगमपुर देश के बाशिंदे उसी तरह दुःख से रहित हैं; जिस तरह यूटोपिया द्वीप के रहने वाले। अगर यूटोपिया इंग्लैंड की सामंतवादी व्यवस्था की प्रतिक्रिया में लिखा गया था; तो ‘बेगमपुर’ सल्तनत काल की क्रूर राज्य-व्यवस्था के प्रतिरोध में उपजी कविता है। बेगमपुर में न कोई चिंता है, और न कोई घबराहट। यह दर्शाता है कि सुल्तान के शासन में जनसामान्य को कितनी चिंताएं थीं, और भय तो हर वक्त बना रहता था; कि पता नहीं कब कोई किस अपराध में पकड़ लिया जाए। बेगमपुर में किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता है। पर, सुल्तान के राज्य में कर देना पड़ता था। सबसे बड़ा कर ‘जजिया’ था; जो गैर-मुसलमानों को देना पड़ता था। एफ.. की ने लिखा है कि गैर-मुसलमानों, खासतौर से गरीब और कम पढ़े-लिखे हिंदुओं पर जजिया कर का खौफ इतना ज्यादा था कि वे इससे बचने के लिए मुसलमान बनने के प्रलोभन से भी बच नहीं सकते थे।[7] और कहना न होगा कि बहुत से गरीब हिंदू जजिया से बचने के लिए मुसलमान बनकर अच्छी स्थिति को प्राप्त हो गए थे।[8] बेगमपुर में कोई संपत्ति का मालिक नहीं है और कोई दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं हैं। सभी समान हैसियत के हैं। जाहिर है कि सल्तनतकाल में बड़ी संख्या में जमींदार, जागीरदार और भू-स्वामी अस्तित्व में थे। वहां मुसलमानों को अव्वल, हिंदुओं को दोयम तथा दलित-शूद्रों को तीसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था। बेगमपुर हमेशा बुद्धिमान लोगों से आबाद रहता है और वहां के लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करते हुए आनंद से जी रहे हैं। यह सल्तनतकालीन लोगों के अभाव और दारिद्रय का संकेत करता है; जहां श्रम करते हुए भी आम लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते थे। बेगमपुर के निवासी स्वतंत्र हैं। वे कहीं भी घूम-फिर सकते हैं। उन पर महल की कोई रोक-टोक नहीं है। जाहिर है कि यह अस्पृश्यता के प्रतिबंधों को दर्शाता है, जिनके कारण बहुत से हिंदुओं के स्थानों, कुओं, तालाबों और सरायों में दलित जातियों का प्रवेश सल्तनतकाल में भी निषेध था।

इस प्रकार बेगमपुर शहर के ये निष्कर्ष हैं- (1) संपत्ति का स्वामी होना बुरा है। (2) कोई भी टैक्स देना बुरा है। (3) दोयम-सोयम दर्जे का नागरिक होना बुरा है। (4) अमीरी तथा गरीबी बुरी है और (5) अस्पृश्यता बुरी है। इन निष्कर्षों को हम मार्क्स के समाजवादी तत्त्व-चिंतन की दृष्टि से नहीं देख सकते। हालांकि, संपत्ति पर वैयक्तिक स्वामित्व का विरोध उसके अनुकूल है; तथापि, एक समतामूलक समाज की दृष्टि से बेगमपुर सहर अपने समय से आगे की कल्पना है। यह उस समय के दलित-चिंतन के लिहाज से क्रांतिकारी भी है। इससे पता चलता है कि रैदास साहेब केवल कोरे कवि नहीं थे; बल्कि समाज-तत्त्व चिंतक भी थे। और उनके अंदर एक अर्थशास्त्री भी सक्रिय था। विचारणीय है कि बेगमपुर शहर की कल्पना किसी भी भक्तिकालीन हिंदू संत कवि में नहीं मिलती है। इसके दो प्रमुख कारण हैं- एक, वे अमीरी और गरीबी को पूर्वजन्म का कर्मफल मानते थे; और दो, वे गरीब नहीं थे। ब्राह्मण सर्वत्र पूज्य था और दान में उसे भारी संपत्तियां मिलती थीं। क्षत्रिय भूस्वामी थे; और वैश्य व्यापारी था। इसलिए, ये सभी वैयक्तिक संपत्ति के मालिक थे। यही वैयक्तिक संपत्ति कुछ लोगों की समृद्धि और बहुत से लोगों की गरीबी का कारण था। गरीबी एक बहुआयामी अवधारणा है; जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तत्त्व शामिल हो सकते हैं। पूर्ण निर्धनता, अत्यधिक गरीबी या अभाव का मतलब भोजन, वस्त्र और छत जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक साधनों से पूर्ण वंचित होना है। शूद्र-अतिशूद्र जातियों के लोग श्रम करके भी अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते थे। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था ने एक ओर घोर सम्पन्नता पैदा कर दी थी; और दूसरी ओर घोर विपन्नता। जिसका बहुत सजीव चित्रण कबीर ने किया है कि एक ओर गली हुई गूदड़ी थी और दूसरी ओर पलंग निवाड़ी थी; मोतियों के हार थे।[9] यह उसी तरह का वर्णन है, जिस तरह सेंट बेसिल ने भोग-विलास में लिप्त धनवानों के बारे में लिखा था कि वे ऊंची नस्ल के घोड़ों को दूल्हों की तरह सजाकर रखते हैं। परन्तु, अपने गरीब भाइयों को पहनने के लिए कपड़ा नहीं देते। उनके पास बहुतसे रसोइए, हलवाई, नौकर, शिकारी, मूर्तिकार, चित्रकार और उन्हें हर तरह का सुख प्रदान करने वाले लोग होते हैं। वे ऊंटों, बैलों, भेड़ों और सूअरों के झुंडों के स्वामी हैं। वे दीवारों को फूलों से सजाते हैं। लेकिन, गरीब साथियों को नंगा रहने देते हैं।[10]

संत रैदास : श्रमण परंपरा के महान संत, समाज सुधारक और कवि

15वीं सदी में अछूत जातियों की विपन्नता का अनुमान 20वीं सदी में प्रकाशित दलित लेखकों की आत्मकथाओं से लगाया जा सकता है; जिनमें उनके आजादी के बाद के अभावपूर्ण जीवन का मार्मिक वर्णन मिलता है। उसकी तुलना में पांच सदी पहले दलित जातियों का जीवन कितना कष्टप्रद रहा होगा? -यह सहज ही समझा जा सकता है। रैदास जिस चमार जाति से थे, उनका कुटुंब बनारस के आसपास मृतक ढोरों को उठाने का काम करता था।[11] ऐसे परिवार में जन्मे रैदास का गरीब होना स्वाभाविक है। रैदास जी ने स्वयं लिखा है कि उनकी दशा ऐसी थी कि लोग उनकी गरीबी पर हँसते थे।[12] डॉ. आंबेडकर का कथन है कि, गरीब होना उतना बुरा नहीं है, जितना कि अछूत होना। गरीब व्यक्ति गर्व कर सकता है, पर एक अछूत नहीं। एक निम्न स्तर का व्यक्ति ऊपर उठ सकता है, पर एक अछूत नहीं।[13] रैदास गरीब भी थे; अछूत भी थे। इसलिए, नीच भी। गरीबी विपन्नता के स्तर तक पहुंच गई थी। एक ही कपड़ा होता था, जो धोते-धोते फट जाता था। उसे वे जितना सीते थे, उतना फिर फट जाता था। नया बनाने की क्षमता नहीं होती थी।[14] पर, एक अछूत व्यक्ति को गरीबी के साथ-साथ सामाजिक अपमान भी पीड़ा देता है। अछूत की छूत सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह पूरे जगत को लगती है।[15] अछूत व्यक्ति जिस चीज को भी छूता है, वह अपवित्र हो जाती है। उसके स्पर्श से मंदिर के देवता अपवित्र हो जाते हैं। सड़कें अपवित्र हो जाती हैं। उसके छूने से भोजन-पानी सब अपवित्र हो जाता है। यहां तक कि गंगा का पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है। ब्राह्मण निम्न जातियों के बर्तन में गंगा जल भी पीने से इनकार कर देते थे।[16] उनके लिए अछूत घर में जन्म लेना ही अपराध था।[17] एक ऐसा अपराध, जिसकी कहीं क्षमा नहीं थी। अछूत घर में जन्म लेते ही उस (बालक) पर अस्पृश्यता के प्रतिबंध लागू हो जाते थे। डॉ. आंबेडकर ने इसे हिंदू कोड कहा है; जिसका उल्लंघन अपराध की श्रेणी में आता था। डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड के ऐसे 15 नियमों का उल्लेख किया है, जिनका उल्लंघन अपराध माना जाता था। उनमें मुख्य ये हैं- (1) सवर्ण हिंदुओं की आबादी से अलग रहना। (2) दक्षिण दिशा में घर बनाकर रहना। (3) सवर्ण हिंदू पर अपनी छाया नहीं पड़ने देना। (4) धन, जमीन या पशुओं के रूप में संपत्ति अर्जित नहीं करना। (5) घर पर छत नहीं डालना। (6) साफ वस्त्र, जूते, घड़ी और सोने के जेवर नहीं पहनना। (7) बच्चों के उच्चता बोधक नाम नहीं रखना। (8) हिंदू के सामने कुर्सी पर नहीं बैठना। (9) घोड़े और पालकी पर चढ़कर नहीं गुजरना और (10) जुलुस या बरात नहीं निकालना।[18] इन नियमों का उल्लंघन करने पर अछूतों की पूरी बस्ती को सजा दी जाती थी। और बेगार तो अछूत की नियति बन चुकी थी, जिसे प्रेमचन्द ने अपनी ‘सद्गति’ कहानी में अच्छी तरह दिखाया है। अछूत को कोई भी बेगार के लिए पकड़ लेता था; और काम कराने के बाद उसे पगार तक नहीं देता था।[19] रैदास कहते हैं कि यह बेगार इतनी आतंकित थी कि जो चमार जूता गांठना (मरम्मत) नहीं भी जानता था, लोग उससे भी जबरन जूता गंठवाते थे।[20]

बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर : संविधान रचयिता, समाज सुथारक और लेखक

रैदास साहेब के समय में सत्ता के दो केंद्र थे। एक केंद्र राज-सत्ता का था और दूसरा धर्म की सत्ता का। धर्म की सत्ता के भी दो केंद्र थे; हिंदू धर्म की सत्ता का संचालन ब्राह्मणों के हाथों में था। तो इस्लाम की सत्ता का केंद्र काजी-मुल्ला के हाथों में। राज-सत्ता में इन दोनों केंद्रों का दखल रहता था। राज-सत्ता दोनों के धार्मिक और सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती थी। ब्राह्मण और मुल्ला दोनों ही गरीबी और अमीरी को ईश्वरीय व्यवस्था मानते थे। हिंदू धर्म के अनुसार, ‘अमीरी-गरीबी पूर्व जन्म का कर्मफल है।’ वह संसार को मिथ्या और ईश्वर को सत्य बताकर सांसारिक दुःखों को माया कहता है। इसमें विश्वास करते हुए आज भी गरीब जनता को जो रूखी-सूखी मिलती है। वह उसी में संतोष करके भगवान को धन्यवाद देती है। इस्लाम भी लोक को अर्थात सांसारिक जीवन को वास्तविक जीवन नहीं मानता है। उसके अनुसार, ‘परलोक ही वास्तविक जीवन है।’ वह वर्तमान दुःखों और अभावों के विरुद्ध संघर्ष को ‘बिगाड़’ कहता है; जिसे अल्लाह नापसंद करता है।[21] कुरान में अल्लाह कहता है- जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है, उसके द्वाराआखिरत’ (परलोक) में घर बनाने का उपाय कर। धरती पर बिगाड़ पैदा मत कर। अल्लाह बिगाड़ पैदा करने वालों को पसंद नहीं करता है।[22] यहां बिगाड़ का अर्थ वर्ग-संघर्ष है। इस तरह हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था जाति-संघर्ष को रोकती है; और इस्लाम वर्ग-संघर्ष को रोकता है। इस तरह ये दोनों धर्म-सत्ताएं समाजवाद की विरोधी हैं। हालांकि, इस्लाम में इतना भाईचारा है कि उसमें अस्पृश्यता नहीं है; और मस्जिद में अमीर-गरीब सब साथ खड़े होते हैं। वह गरीबों, अनाथों और कमजोरों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश देता है। किन्तु, हिंदू धर्म में यह उदारता भी नहीं थी। इसलिए, सम्मान और समानता पाने के लिए अछूत जातियों के असंख्य लोग मुसलमान बन गए थे। इस धर्मांतरण को रोकने के लिए ही मध्यकाल में ब्राह्मणों ने भक्ति आंदोलन खड़ा किया था, जिसका मकसद सिर्फ शूद्रों को कागजी वैष्णव बनाकर इस्लाम में जाने से रोकना था। किन्तु, न तो इस तरह के वैष्णव बनने से और न मस्जिद की ऐसी समानता से (जो मस्जिद से निकलते ही लुप्त हो जाती थी) गरीबी और विपन्नता का निवारण हो गया था। शूद्र जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आया था। वह जस-की-तस थी। भक्ति-आंदोलन के नेता जब यह कहते थे कि, हर का भजे सो हर का होई’, तो वे उनके बीच अमीर-गरीब और स्पृश्य-अस्पृश्य के भेदभाव की सच्चाई को नजरअंदाज कर देते थे। उनका यह कहना भी भ्रम था कि ईश्वर ने सबको समान पैदा किया है। क्योंकि, समाज में अमीर और गरीब के साथ-साथ छोटे और बड़े लोग भी थे; जिनके बीच कोई समानता नहीं थी। ईश्वर की निर्मित दुनिया में शोषक लोग भी थे; जो धर्म-कर्म का ढोंग करते थे और उन्हें धर्म-सत्ता और राज-सत्ता दोनों में आदर प्राप्त था। ऐसी परिस्थितियों में निर्बल और अछूत जातियों पर शोषकों के अत्याचारों की कहीं सुनवाई नहीं थी। दास-प्रथा थी, और दासों की खरीद-फरोख्त होती थी। ‘तारीखे-फिरोजशाही’ के अनुसार, दिल्ली सल्तनत के युग (1206-1526) में देश भर में दासों के क्रयविक्रय की मंडियां थीं; जिनका मूल्य भी खिलजी ने तय किया हुआ था।’’[23] किसानों की दशा तो अकथ थी। कहने से भी नहीं कही जा सकती थी।[24] किसानों से बेगार लेते थे। उन्हें गालियां देते थे और अंधेरी कोठरियों में बंद करके उन्हें शारीरिक यातनाएं देते थे।[25] कबीर साहेब ने एक ऐसे गांव का वर्णन किया है, जिसमें ठाकुर खेत की गलत पैमाइश करता है। काइथ (पटवारी) हिसाब-किताब नहीं रखता और ये सब मिलकर किसान को मारते हैं। दीवान सुनता नहीं है; और बलाहर उसे बंधकर ले जाता है। पांच किसान गांव छोड़कर भाग गए हैं।[26]

श्रमण परंपरा के कवि व समाज सुधारक कबीर

रैदास साहेब के ‘बेगमपुरा’की पृष्ठभूमि में इन्हीं उपर्युक्त वर्णित सत्ताओं का प्रतिरोध अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए रैदास साहेब की ‘बेगमपुरा’ कविता, उनके निर्गुणवादी पदों की तुलना में आध्यात्मिक अनुभूति की रचना नहीं है; वरन यह तत्कालीन समाज की सामंतवादी व्यवस्था का साक्षातकार कराती है। ‘यूटोपिया’ की संवाद-शैली एक कठिनाई यह पैदा करती है कि प्रधान पात्र रैफेल के विचारों को किस सीमा तक टामस मोर का चिंतन समझा जाए?[27] परन्तु, ‘बेगमपुरा’ के साथ यह समस्या नहीं है। उसमें व्यक्त विचारों का सीधा संबंध रैदास के विचारों से है; जिनमें वे एक ऐसी व्यवस्था की नींव रख रहे थे, जो समाजवाद की है। यह अद्भुत संयोग है कि मोर और रैदास दोनों समकालीन थे। मोर की मृत्यु 1535 में हुई थी और रैदास की 1520 में। और दोनों ने समाजवादी चिंतन के इतिहास में पहली बार एक आदर्शोन्मुख समाजवाद की कल्पना की थी।

‘बेगमपुरा’ में रैदास साहेब अंत में कहते हैं- जो हम सहरी, सु मीतु हमारा। यह बड़ी प्यारी और दूर तक संदेश देने वाली पंक्ति है। निश्चित रूप से 15वीं सदी में शूद्र-अतिशूद्र वर्गों के लिए संस्थागत विद्रोह करना संभव नहीं रहा होगा। पर, निर्गुणवाद में (जो समतामूलक समाज का दर्शन था) सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध संस्थागत विद्रोह के बीज बोए जा चुके थे। बेगमपुरा की अवधारणा पर 17वीं शताब्दी में सतनामी नाम से एक हथियार-बंद संगठन का उदय उन्हीं बीजों का प्रस्फुटन था।[28] पंजाब में रैदास के अनुयायियों ने ‘बेगमपुरा’’ के आधार पर ही वर्ष 2012 में एक राजनीतिक पार्टी ‘बेगमपुरा लोक पार्टी’ की स्थापना की थी; और अपने छह प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाया था।[29] यह कहना भी गलत न होगा कि रैदास साहेब की ‘बेगमपुरा’ की समाजवादी कल्पना ने ही डॉ. आंबेडकर को अभिभूत किया था; और उन्होंने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था।

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/एफपी डेस्क)


[1] जाति तोड़ो, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, बहुजन कल्याण प्रकाशन (लखनऊ), प्रथम संस्करण 1964, पृष्ठ-39.

[2] अमृतवाणी सतगुरु, रविदास महाराज जी, (सटीक), संत सुरिन्दरदास बाबा जी, श्री गुरु रविदास जन्म अस्थान पब्लिक चैरिबल ट्रस्ट, वाराणसी, पृष्ठ-4.

[3] चन्द्रिकाप्रसाद ‘जिज्ञासु’ ग्रन्थावली, खंड-2, सं.- कँवल भारती, दि मार्जिनालाइज्ड (दिल्ली) 2017, पृष्ठ-168.

[4] वही, पद-33, पृष्ठ-237.

[5] समाजवादी चिंतन का इतिहास, भाग-1, कृष्णकान्त मिश्र, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002, पृष्ठ-38.

[6] वही, पृष्ठ-43.

[7] कबीर एंड हिज फोलोवर्स, एफ़. . की, 1931, मित्तल पब्लिकेशन्स (नई दिल्ली), पुनर्मुद्रण 1995, पृष्ठ-2.

[8] वही, पृष्ठ-6.

[9] एकनि में मुक्ताहल मोती, एकनि व्याधि लगाई।

 एकनि दीना पाट पटंबर, एकनि सेज निवारा।

 एकनि दीनो गरी गूदरी, एकनि सेज प्यारा।

– कबीर ग्रंथावली, श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा (वाराणसी), चौदहवां संस्करण, संवत 2034, पद-105, पृष्ठ-93.

[10] कृष्णकांत मिश्र, उपर्युक्त, पृष्ठ-33.

[11] मेरी जाति कुटुबाग़ढल ढोरि ढोवन्ता नितहि बनारसी आसपासा (8.7).

– आदि अमृत वाणी श्री गुरु रविदास जी, रिसर्च फोरम, आल इंडिया आदि धर्म मिशन (दिल्ली).

[12] दारिद देखि सब कोई हँसे, ऐसी दसा हमारी (7.8), वही।

[13] To be poor is bad but not so bad as to be an Untouchable. The poor can be proud. The Untouchable cannot be. The low can rise above his status. An Untouchable cannot. (Away from the Hindus, Dr. Babasaheb Ambedkar : writings and speeches, Vol-5, p-412.

[14] मैला मैला केता एक धोउ, आवे आवे नीद कहा लों सीऊ।

ज्योंज्यों जोड़े त्योंत्यों फाटे, झूटे से बनिज जरै उटी गयो हाटे।। (7.9)

– आदि अमृत वाणी, उपर्युक्त।

[15] जाकी छूत जगत को लागे / पद-93, जिज्ञासु जी का संग्रह, (देखिए, च.प्र. जिज्ञासु ग्रंथावली, उपर्युक्त, पृष्ठ-256)

[16] पांडे बूझि पियहू तुम पानी। पद-111, कबीर बानी, अली सरदार जाफ़री, राजकमल प्रकाशन (नई दिल्ली), 2012, पृष्ठ-97.

[17] हम अपराधी नीच घर जनमै कुटम्ब लोक करे हांसी रे। (5.13), वही।

[18] Dr, babasaheb Ambedkar : Writings and Speeches, Vol-5, Outside the fold, p-21, 22.

[19] की बेगार ना भाड़ा पाया।कबीर ग्रंथावली,उपर्युक्त, पद-110, पृष्ठ-94.

[20] चमरटा गाँठि जानई, लोग गठावें पनही (5.12), वही।

[21] Man has enjoined to seek with the wealth which God has bestowed upon him, the Home of the Hereafter and not to neglect his portion in this world, nor create mischief in the land but do good to others as God has been to him.

– Dr. Muhammad Muslehuddin, Economics and Islam, Markazi Maktaba Islami (Delhi), 1st edition, 1982, p-43.

[22] क़ुरान मजीद (28/77), अनुवादक मुहम्मद फ़ारुक़ खां, मक्तबा अल-हसनात (दिल्ली), संस्करण 1993, पृष्ठ-353.

[23] ज़ियाउद्दीन बर्नी, तारीखे फीरोजशाही, पृष्ठ-314, (ओम पी. गुप्ता द्वारा ‘कबीर और समकालीन इतिहास’, स्वराज प्रकाशन (नई दिल्ली), पहला संस्करण 2011, पृष्ठ-168, फुटनोट-8 में उद्धृत)।

[24] कहे कबीर यह अकथ कथा है, कहता कही जाई। (पद-14, कबीर ग्रंथावली, उपर्युक्त)

[25] ओम पी. गुप्ता, ‘कबीर और समकालीन इतिहास’ उपर्युक्त, पृष्ठ-74.

[26] अब बसूं इहि गाँई गुसाईं,

 गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपे, काइथ खरच पारे।

 जोरि जेवरी खेति पसारे, सब मिलि मोकों मारे हो राम।

 बुरो दिवान दादि नहिं लागे, इक बांधे इक मारे हो राम।

 पांच किसाना भाजि गए हैं, जिव धर बांधयो पारी हो राम।

(पद-222, कबीर ग्रंथावली, उपर्युक्त),

[27] कृष्णकान्त, उपर्युक्त, पृष्ठ-38।

[28] ]1672 के सतनामी विद्रोह की कहानी गुरु रविदास (1373-1475) से शुरू होती है, जिन्होंने बेगमपुरा नामक एक यूटोपियन शहर के बारे में सपना देखा था और गाया था, जिसका शाब्दिक अर्थ बिना दुःख के एक शहर था; जिसमें कोई शोषण या जुल्म नहीं था। रविदास द्वारा शुरू किया गया अछूतों का आंदोलन उनकी मृत्यु के बाद समाप्त नहीं हुआ। उनके शिष्य ऊधो दास ने जातिविरोधी परंपरा को जीवित रखा; जहां से इसे बीरभान (1543-1658) ने आगे बढ़ाया। इस समय तक अनुयायियों को साधु या साधुओं के रूप में जाना जाता था। चूंकि एक ईश्वर में विश्वास (जिसे वे सतनाम अर्थात सच्चा नाम कहते हैं) उनके विश्वास के मूल सिद्धांत में से एक था, जिन्हें वे सतनामी भी कहते थे। सतनामी संप्रदाय के संस्थापक बीरभान थे; जो दिल्ली के पास पूर्वी पंजाब में नारनौल के पास बृजिसार के निवासी थे।

(www.anticaste.org/micropedia-dalitica-from-s-to-z/satnamichamars.html)

[29] (Indianexpress.com. 6 February 2012.)

 


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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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