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“दिल्ली के बेघर लोग नगर-निर्माता हैं, भिखारी नहीं”

राजधानी में बेघरों के लिए दिल्ली सरकार रैन बसेरे मुहैया कराने के प्रयास कर रही है, लेकिन उसके पास जमीन की कमी है। वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर संज्ञान लेते हुए दिशा-निर्देश जारी किए थे। हालांकि, इन बेघरों को कुछ रैन बसेरे मिले हैं, लेकिन अभी काम बाकी है। प्रस्तुत है रिपोर्ट

बेघरों का दर्द : डीडीए ने तोड़ दिए रैन बसेरे, एम्स ने नहीं दी जगह

भारत में 9.77 लाख बेघर लोग हैं। देश की राजधानी दिल्ली में सबसे ज्यादा बेघर लोग रहते हैं। दिल्ली के 193 रैन बसेरों की सोशल ऑडिट करने वाली संस्था इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विस सोसायटी (आईजीएसएसएस) ने 9 फरवरी 2019 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में प्रेस कान्फ्रेंस करके दिल्ली के रैन बसेरों की सोशल ऑडिट की रिपोर्ट मीडिया से साझा की। इस दरमियान दिल्ली के रैन बसेरों से आए कई लोगों ने अपनी बातें कहीं। कार्यक्रम का संचालन सोनू हरि ने किया।

बेघरों पर किए गए अध्ययन पर आधारित आंकड़े  

अनिरुद्ध सिंह ने बताया कि हमारा अध्ययन 1141 लोगों से बातचीत पर आधारित है। जिसमें 90 प्रतिशत पुरुष और 10 प्रतिशत स्त्रियां हैं। हम लोग 193 रैन बसेरों की दो साल की स्टडी के बाद ये आंकड़े लेकर आए हैं कि बेघर लोग कैसे सफर करते हैं? कितने मरते हैं? इनकी मूल पहचना क्या है? ये यहां रहने, काम करने के लिए कहां से आए? क्या चुनौतियां या समस्याएं इनके सामने आती हैं, आदि-आदि। अधिकांश लोग फुटपाथ आदि पर या खुले में रहते हैं यानी आज यहां, कल वहां। कई ऐसे हैं, जो बहुत समय से दिल्ली में हैं। ये एक जगह विशेष से आए हैं। इसमें 42 प्रतिशत यूपी के हैं, 37 प्रतिशत बिहार के और कुछ हद तक पश्चिम बंगाल के हैं। इनके दिल्ली में रहने का कारण पूछने पर 84 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी, 12 प्रतिशत ने गरीबी और बाकी ने दोनों ही वजहें बताईं। इन बेघरों में 54 प्रतिशत लोग 10 साल से ज्यादा समय से दिल्ली में रह रहे हैं। 96 प्रतिशत बेघर लोगो को कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण नहीं मिला है। इन बेघरों में 82 प्रतिशत हिंदू हैं और 18  प्रतिशत मुस्लिम। दिल्ली के कुल बेघरों में 39 प्रतिशत दलित, 36 प्रतिशत ओबीसी, 17 प्रतिशत सामान्य और बाकी अन्य वर्गों के लोग हैं। इन बेघरों में 37 प्रतिशत लोग 30-40 आयु वर्ग के, 21 प्रतिशत लोग 40-50 आयु वर्ग के और 33 प्रतिशत लोग 19-30 आयु वर्ग के तथा अन्य बुजुर्ग हैं। इन बेघरों में 33 प्रतिशत शिक्षित और 67 प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं।

दिल्ली में बाहर से आए बेघर लोगों पर किए गए सर्वे की रिपोर्ट जारी करते आईजीएसएसएस के पदाधिकारी

बेघरों के सोने की सुविधा और तरीका क्या है, यह पूछने पर पता चला कि 50 प्रतिशत लोग खुले में फुटपाथ आदि पर सोते हैं, जबकि 22 प्रतिशत रैन बसेरों में, 9 प्रतिशत लोगफ्लाईओवर के नीचे और बाकी लोग दुकानों, बस स्टैंडों आदि की आढ़ लेकर सोते हैं। वहीं, एक महीने में 16-25 दिन काम पाने वाले 73 प्रतिशत हैं, जबकि 25 दिन से ज्यादा काम पाने वाले सिर्फ 20 प्रतिशत हैं। बाकी के पास काम नहीं है। बेघर महिलाओं के नहाने-धोने के बारे में  पूछने पर चला कि 38 प्रतिशत बेघर महिलाएं खुले में नहाती हैं। 44 प्रतिशत सुलभ शौचालय में और बाकी रैन बसेरों में। 70 प्रतिशत बेघरों ने बताया कि रैन बसेरों में जगह की कमी होने के चलते वो वहां नहीं जाते। अधिकांश 73 प्रतिशत के पास आधार कार्ड और 64 प्रतिशत के पास वोटर कार्ड हैं। पर पहचान के ये दस्तावेज दिल्ली से बाहर के हैं। इनमें से किसी के भी पास कोई पेशागत पहचान-पत्र नहीं है।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद पत्रकार और बेघर लोग

बेघरों का सबसे ज्यादा खर्च होता है खाने पर

बेघर लोगों का सबसे ज्यादा खर्चा खाने पर होता है। यह चौंकाने वाली बात इसलिए भी है कि दिल्ली में सैकड़ों मंदिर और गुरुद्वारे चल रहे हैं, जहां लंगर और भंडारा चलता है. जहां फ्री खाना मिल सकता है। बेघर लोग रैन बसेरे की सुविधा को पॉजिटिव रूप में देखते हैं।

बैठक में नहीं आते मॉनीटरिंग कमेटी के मेंबर

इंदु प्रकाश ने कहा कि वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने बेघरों के मामले को स्वतः संज्ञान लिया। रैन बसेरों पर और उसके बाद एक गाइडलाइन बनी तथा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाली मॉनिटरिंग कमेटी गठित हुई। सुप्रीम कोर्ट का सख्त आदेश है कि मॉनिटरिंग कमेटी के सदस्य बैठक में मौजूद रहें। लेकिन, अब तक सात बैठकें हुई हैं, उसमें एक भी मेंबर नहीं आया। बेघर पुरुषों की तुलना में बेघर स्त्रियां जल्दी गांव नहीं जातीं। हमें उनके लिए लंबे समय तक ठहरने वाले रैन बसेरे उपलब्ध करवाने चाहिए। जो दिमागी तौर पर बीमार या शारीरिक रूप से अक्षम हैं, उनके लिए स्थितियां ज्यादा खतरनाक हैं। इसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। रैन बसेरों में इनका प्रथम पड़ाव हैं। 2011 से 2019 में टेंट की जगह पोर्टा कैबिन (अस्थाई घर) हो गए। अब वर्कर्स होस्टल (कामगार आवास), रैंडम हाउस (घर) बनाए जाने चाहिए।

रैन बसेरों में रहने वाली महिलाएं- रानी मलिक, तरन्नुम, मोना और राधा

आंकड़े ही गलत होंगे तो पॉलिसी कैसे सही होगी

इंदु प्रकाश ने आगे कहा कि वर्ष 2000 में 52000 लोग बेघर थे। वर्ष 2011 के सेंसस में बेघरों का आंकड़ा डेढ़ लाख के ऊपर हो गया। सरकारी आंकड़े काफी कम बताते हैं। सांख्यिकी के आधार पर ही तो आपकी प्लानिंग होती है। संख्या ही गलत होगी, तो सब गलत हो जाएगा और गलत पॉलिसी बनेगी। बेघर लोग गरीबी के आखिरी पायदान के लोग हैं। गांधी जिन्हें अंत्योदय कहा करते थे। इन पर मौसम की मार के साथ पुलिस की बेरहम मार भी पड़ती है। अधिकतर जगहों से पुलिस इन्हें बंग्लादेशी कहकर मार भगाती है।

नगर निर्माता हैं बेघर

इंदु प्रकाश ने कहा कि बेघर होना सामाजिक, राजनीतिक डिसऑर्डर का लक्षण है। बावजूद इसके सरकारी व सामान्य भ्रांतिया बेघरों के बारे में ये है कि ये लोग भिखारी,चोर या ड्रग्स लेने वाले हैं जोकि गलत है। 90 प्रतिशत बेघर कामगार लोग हैं। ये नगर निर्माता हैं। इन्हें प्रति सम्मान की दृष्टि विकसित किए जाने की ज़रूरत है। इन्हें स्किल ट्रेनिंग दिए जाने की ज़रूरत है। जिन्हें समाज से कम मिला है उन्हें सरकार द्वारा ज्यादा दिया जाना चाहिए।”

दिल्ली में बना एक और रैन बसेरा

डीडीए ने तोड़ दिए तीन रैन बसेरे

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के सदस्य विपिन राय ने बताया कि चूंकि ये आईजीएसएसएस का अध्ययन वर्ष 2017 से शुरू हुआ था, तबसे काफी इंप्रूवमेंट हुआ है, साथ ही हम उस प्रक्रिया में हैं। बेघरों को सुविधाएं देने में अभी भी बहुत-सी खामियां और चुनौतियां हैं। दरअसल, दिल्ली सरकार के पास जमीन नहीं है। निजामुद्दीन के पास हमने रैन बसेरा बनाया था, लेकिन डीडीए ने उसे तोड़ दिया। हमें सामान हटाने तक का समय नहीं दिया। दिल्ली में कुल तीन रैन बसेरे डीडीए द्वारा तोड़े गए। सुप्रीम कोर्ट के मॉनीटरिंग कमेटी के सदस्य इंदु प्रकाश की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने डीडीए पर 25 लाख का जुर्माना किया है।

एम्स से तीमारदारों के लिए रैन बसेरे बनाने को मांगी जमीन, पर नहीं दी

विपिन राय ने कहा कि एम्स को मंदिर कहा जाता है, लेकिन उस मंदिर के बाहर मरीज और उनके परिजन भिखारियों की तरह रहने को क्यों मजबूर हैं? बारिश, गर्मी, सर्दी हर मौसम की मार उन्हें झेलनी पड़ती है। वहां की जमीन एनडीएमसी की है या फिर एम्स की। हमने उन्हें कई बार लिखा कि आप हमें जमीन मुहैया करवाइए तो हम अपने पैसे रैन बसेरा बनाकर देंगे। साथ ही उसके रख-रखाव की जिम्मेदारी भी हमारी होगी। लेकिन, उन्होंने कभी रिप्लाई नहीं किया। बावजूद, इसके हमने वहां फुटपाथ पर 18 छोटे टेंट और एक बड़ा टेंट बनाया है, जिसमें 150 लोगों के रहने की व्यवस्था है। इसके अलावा हम 11ः00 बजे मेट्रो स्टेशन बंद होने के बाद पीडब्ल्यूडी के अंडरपास को भी रात्रि रैन बसेरे के तौर पर उपयोग करते हैं। जहां करीब 200-300 लोग रहते हैं।

बेघर लोग मजदूर हैं, भिखारी नहीं

विपिन राय ने कहा कि रैन बसेरे में रहने वाले बेघर लोग सबसे ज्यादा पैसा खाने पर खर्च करते हैं। इससे यह साबित होता है कि ये लोग भिखारी नहीं, बल्कि मजदूर हैं। ये सम्मानजनक तरीके से खरीदकर खाते हैं। एम्स के पास कुछ लोग खाना बांटते हैं, पर वो चैरिटी हैं।

बेघरों के घर नहीं बनाने दिए जा रहे

हमने रैन बसेरे की जगह आवास योजना की बात की। सरकार ने तो जहां झुग्गी, वहीं मकान की भी बात की। पर, पीडब्ल्यूडी और डीडीए ने इसका विरोध किया। हम सेंट्रल दिल्ली में उनके लिए घर वर्कर्स बिल्डिंग हाउसिंग बनाना चाहते हैं। लेकिन, उसके लिए स्पेस की समस्या है। जमीन और पुलिस केंद्र सरकार के अधीन आती है। वह (सरकार) स्पेस नहीं दे रही। हम तो कहते हैं कि कनॉट प्लेस के आस-पास जो वेंडर्स (इधर-उधर भटकने वाले लोग) हैं, श्रमिक हैं, सेवा प्रदाता हैं; वे काम वहां करेंगे, तो रहने कहां जाएंगे? कनॉट प्लेस में उनके लिए आवास योजना लानी चाहिए। इसके अलावा हमने सभी रैन बसेरों में सीसीटीवी कैमरे लगवाए हैं, जबकि यह एनयूएलएम-एसयूएच के दिशा-निर्देश में भी नहीं है। इसके अलावा हमने लगभग मनोरंजन के लिए सभी रैन बसेरों में टीवी उपलब्ध करवाए हैं। कैरम व लूडो जैसे घरेलू खेल, बच्चों के रैन बसेरों में झूले और (आउटडोर एक्टिविटी) बाहरी क्रिया-कलाप के उपकरण आदि लगवाए हैं।

दिल्ली में बना एक रैन बसेरा (दाएं), उसका निरीक्षण करते दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (बाएं)-फोटो साभार : समाचार नामा

दिल्ली सरकार के आगामी प्रोजेक्ट

विपिन राय ने बताया कि उनकी संस्था ने सत्येंद्र जैन के साथ दिल्ली की कई जगहों का दौरा करके चिह्नित किया है कि कहां-कहां रैन बसेरे बन सकते हैं। फ्लाई ओवर के नीचे की खाली जगह का इसके लिए बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। ये जगहें ऊपर और तीन साइड से ढकी होती हैं, बस एक तरफ से उसे ढकना होगा। गर्मी से पहले हम सर्वे करके इसे तैयार कर लेंगे। इसके अलावा घनी आबादी वाले इलाकों में हम दो मंजिला बनाएंगे। जिसमें नीचे रैन बसेरा और ऊपर डॉरमेट्री की सुविधा होगी। इसके अलावा हम बस शेल्टर यानी चलते-फिरते रैन बसेरे बनाएंगे। जैसे चांदनी चौक, पुरानी दिल्ली और शाहदरा में जो ट्रक लोड-अनलोड करने वाले श्रमिक हैं, तो वे बाहर नहीं जा सकते; क्योंकि सुबह 4ः00 बजे ही ट्रक आकर खड़े हो जाते हैं, जिन पर माल लादने-उतारने का उन्हें काम करना होता है। तो हम उनके लिए रात में 10ः00 बजे से सुबह के 4ः00 बजे तक के लिए बस शेल्टर उपलब्ध कराएंगे।

फैक्ट फाइंडिंग और आईजीएसएसएस के रिकमेंडेशन

विकास कुमार ने आईजीएसएसएस के अध्ययन के फैक्ट फाइंडिंग पेश करते हुए बताया कि दिल्ली में करीब 250 रैन बसेरे हैं। शेल्टर फॉर बेघर अर्बन की 2013 की पॉलिसी के तहत उनकी स्थिति क्या है? कैसे बेहतर हो? इस पर अपनी फैक्ट फांइडिंग रिपोर्ट तैयार की है। जो क्रमवार इस तरह है-

  1. 40 प्रतिशत रैन बसैरे स्थाई और 60 प्रतिशत अस्थाई हैं।
  2. 2010 सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस थी कि एक लाख की आबादी पर 100 लोगों के रहने की क्षमता वाला एक रैन बसेरा होना चाहिए। दिल्ली में उससे ज्यादा हैं, बावजूद इसके वो कम पड़ते हैं।
  3. सामान्यतः इन्हें अस्थाई उपाय के रूप में देखा जाता है कि ये (बेघर) चले जाएंगे, पर ये काफी समय से रह रहे हैं। इनके स्थाई समाधान के बारे में सोचा ही नहीं जाता।
  4. 200 रैन बसेरों की व्यवस्था तीन अलग संस्थाओं को दी गई है।
  5. अधिकांशतः रैन बसेरे पुरुष प्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। जबकि स्त्रियों की संख्या भी ज्यादा है।
  6. अधिकांश रैन बसेरों तक पहुंचना आसान और सुलभ हैं। यहां सप्ताह के सातों दिन और 24 घंटे रहने की सुविधा है, यह ठीक है।
  7. लाइट, पंखे, रोशनदान की बेहतर सुविधा है। 50 प्रतिशत रैन बसेरों में पानी भी मौजूद है। किचन की सुविधा है।
  8. बेघरों को खाने-पीने, रहने के अलावा मनोरंजन की भी जरूरत है। केवल 6 प्रतिशत रैन बसेरों में मनोरंजन की सुविधा है।
  9. केवल 18 प्रतिशत रैन बसेरे दिव्यांग लोगों के लिए सुविधाजनक हैं।
  10. फर्स्ट-एड की उचित सुविधा उपलब्ध है।
  11. सामान रखने के लिए 43 प्रतिशत स्टोरेज की सुविधा है। हालांकि, क्षमता कम है। जबकि, सर्दियों में लोगों के पास सामान ज्यादा हो जाता है।
  12. गर्म पानी के लिए मात्र 38 प्रतिशत रैन बसेरों में गीजर है।
  13. सीसीटीवी कैमरे नहीं है। प्रवाधान में बावजूद इसके 16 प्रतिशत रैन बसेरों में सीसीटीवी दिल्ली सरकार की बढ़िया पहल है।
  14. खाने की सुविधा सिर्फ 14.7 प्रतिशत रैन बसेरों में है। पौष्टिक खाने का प्रावधान होना चाहिए।
  15. कानूनी अधिकार की जरूरत है। पहचान स्थापित करने की जरूरत है। हालांकि, कुछ काम हुआ है। रैन बसेरों में 924 वोटर आईडी कार्ड और 643 आधार कार्ड बनाया गया है।
  16. दिशा-निर्देश के मुताबिक, एक रैन बसेरों में चार लोगों का स्टॉफ होना चाहिए। पर, औसतन दो लोगों का स्टॉफ ही है। स्टॉफ की भी समुचित प्रशिक्षण नहीं हुआ है। गर्भवती औरतों, बच्चों व शारीरिक विकलांग लोगों के देखभाल के लिए 74 प्रतिशत स्टॉफ प्रशिक्षित नहीं है।
  17. एसएफएचयू के लिए 2013 पॉलिसी के मुताबिक, नाइट शेल्टर को अस्थाई कार्य के रूप में देखने के बजाय स्थाई किया जाए।
  18. रोजगारपरक रैन बसेरों को विकसित किया जाए, इसका केरल एक बढ़िया उदाहरण है।

सवाल-जवाब

प्रेस कॉन्फ्रेंस के अंत में पत्रकारों ने विपिन राय से सवाल पूछे, जिनके जवाब उन्होंने दिए :

फॉरवर्ड प्रेस ने पूछा कि सर्दियों में मरने वालों में अधिकांश संख्या दिमागी तौर पर पीड़ित लोगों की होती है। ये दिन-रात आपको पुरानी दिल्ली क्षेत्र में सैंकड़ों की संख्या में मिल जाएंगे। इनके लिए आपके पास क्या है?

जवाब- दिमागी तौर पर बीमार लोगों के लिए अभी हमारे पास कुछ नहीं है। इसके लिए कुछ दूसरी संस्थाएं काम कर रही हैं। पर शारीरिक अक्षम लोगों के लिए हम कुछ सहूलियतें देते हैं। हम उनके लिए कालका, सराय काले खां और निजामुद्दीन में रिकवरी शेल्टर चलाते हैं।

सवाल (अन्य पत्रकार)- बाहर घूमने वाले, जिनका पहुंच से रैन बसेरे दूर हैं; उनके लिए आप क्या करते हैं? क्या आप दिल्ली पुलिस सहयोग करती हैं?

जवाब- हम इधर-उधर घूमने वाले लोगों को पकड़कर रैनबसेरों में लाने के लिए एनजीओ की मदद लेते हैं। उन्हें रेस्क्यू वैन भी उपलब्ध कराते हैं। इसके लिए हम पुलिस की मदद नहीं ले सकते। पुलिस से सहायता मांगेंगे, तो वह उलटे पीड़ितों पर ही लाठियां भांजने लगेगी।

सवाल (अन्य पत्रकार)- इतनी सुविधा के बाद दिल्ली में अब तक ठंड से 99 लोग कैसे मर गए?

जवाब- रैन बसेरों से जुड़ी मीडिया की पूरी रिपोर्टिंग डेड स्कल डाटा पर चलती है। ये आंकड़े आपको कौन देता है? फर्जी आंकड़ों पर खबरें बना दी जाती हैं। साल भर की मौतें जोड़ दी जाती हैं, जबकि अधिकतर मौतें मई-जून में होती हैं। गर्मियों के लिए अभी रैन बसेरे उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं। पर, हम उस पर भी काम कर रहे हैं। मीडिया दिल्ली के रैन बसेरों पर लिखता है। यहीं एनसीआर में कई रैन बसेरों में मूलभूत सुविधाएं नदारद हैं। मुंबई में तो रैन बसेरे ही नहीं हैं। आप हमारी खामियों की आलोचना कीजिए, वह ठीक है। लेकिन, हमारे प्रयासों को पूरी तरह नकारिए तो नहीं।

सवाल (अन्य पत्रकार)- आपके नाम में ग्लोबल लगा है। फिर आपने सोशल ऑडिट दिल्ली के ही रैन बसेरों में क्यों किया?

जवाब (सोनू)- हम 22 राज्यों के रैन बसेरों पर काम कर रहे हैं।

सवाल- लोग शहर आएं ही क्यों? उनके कमाने-खाने का इंतजाम गांव में ही क्यों नहीं किया जाता?

जवाब (इंदु प्रकाश)- आपका सवाल जायज है। इसका जवाब पॉलिसी मेकर्स को देना चाहिए। हमारे एक पूर्व पीएम ने कहा था कि ‘सिटी इज द इंजन ऑफ डेवलपमेंट।’

बेघरों ने बयान किया दर्द, पूछे सवाल

एक बेघर महिला तरन्नुम ने पूछा कि क्या हम लोग रैन बसेरों में रहते-रहते ही मर जाएंगे? हमारा अपना घर कभी नहीं होगा? जबकि एक और बेघर महिला राधा ने पूछा कि मेरा बेटा जब 14 साल का हो जाएगा, तो उसे महिला रैन बसेरे में नहीं रहने दिया जाएगा। तो क्या वह बाहर रहेगा और बाहर ही सोयेगा? इसके जवाब में विपिन राय ने कहा कि हम फैमिली रैन बसेरों के लिए भी काम कर रहे हैं।


(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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