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दलित, मुस्लिम व पिछड़ों को एक मंच पर आने का वक्त : दद्दू  प्रसाद

प्रतिनिधित्व होगा तभी सभी वर्गों का हित होगा। छत्रपति शाहु महाराज के दिमाग में भी यही बात थी और इस बात को डॉ. आंबेडकर ने भी आगे बढ़ाई, लेकिन अब आरक्षण को खत्म करने की कोशिश हो रही है

आरक्षण गरीबी उन्मूलन की कोई योजना नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि इसके जरिए शासन-प्रशासन में उन तबकों की भी हिस्सेदारी हो, जो सदियों से वंचित रखे गए हैं। लेकिन अब आरक्षण की मूल अवधारणा में बदलाव किया जा रहा है। इसका आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन के बजाय आर्थिक बताया जा रहा है। यह बहुत ही खतरनाक है। बहुजन समाज पार्टी के पूर्व विधायक व मायावती सरकार में मंत्री रहे दद्दू प्रसाद लगातार बहुजनों के सवालों को लेकर मुखर रहे हैं। हाल के दिनों में भीम आर्मी को लेकर उनकी सक्रियता बढ़ी है। वे मानते हैं कि आज की राजनीति में युवाओं को आगे लाने की आवश्यकता है। इसके लिए मान्यवर कांशीराम के बताए रास्ते पर चलना होगा। हाल के दिनों में आरक्षण को लेकर जो विवाद शुरू हुए हैं, इस संदर्भ में दलित नेताओं की सोच क्या है, शिक्षा को लेकर उनके दृष्टिकोण क्या हैं, फारवर्ड प्रेस ने दद्दू प्रसाद से बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश :

फारवर्ड प्रेस (एफपी) : आरक्षण को लेकर इन दिनों जो कुछ चल रहा है, उस पर आपका क्या कहना है?

दद्दू प्रसाद (द.प्र.) : आरक्षण है क्या, इसका उद्देश्य क्या है और इसकी जरूरत क्यों पड़ी? ये ऐसे कुछ बुनियादी सवाल हैं जिन्हें समझने की जरूरत है, क्योंकि साजिश के तहत आरक्षण की अवधारणा को खत्म करने की कोशिश हो रही है। भारतीय समाज में सवर्ण अल्पसंख्यक हैं। इनमें भी खासतौर पर ब्राह्मण केवल तीन प्रतिशत हैं, शासन-प्रशासन पर उनका कब्जा बना हुआ है। बहुसंख्यक एससी, एसटी व ओबीसी शोषित हो रहे हैं। इस खाई को पाटने के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था संविधान के तहत डॉ. आंबेडकर ने सुनिश्चित करवायी लेकिन अब आरक्षण की अवधारणा को खत्म करने की ही साजिश रची जा रही है।

एफपी : इसे थोड़ा विस्तार से बताएं?

द.प्र. : जी हां। आरक्षण के खिलाफ भारी षडयंत्र हो रहा है और समय रहते इसे नहीं रोका गया तो डॉ. आंबेडकर का सपना चकनाचूर हो जाएगा और अल्पसंख्यक खासकर ब्राह्मण जो कुल जनसंख्या का मात्र 3-4 प्रतिशत हैं, वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगा। इनलोगों ने आरक्षण की अवधारणा को उस दिन से ही खत्म करने की शुरूआत कर दी जिस दिन आरक्षण को आर्थिक आधार से जोड़ दिया गया जबकि उन्हें भी पता है कि आरक्षण प्रतिनिधित्व का मामला है, गरीबी खत्म करने का मामला नहीं है। प्रतिनिधित्व होगा तो ही सभी वर्गों का हित होगा। छत्रपति शाहु महाराज के दिमाग में भी यही बात थी और आंबेडकर भी ऐसा ही महसूस करते थे। हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हर क्षेत्र में चाहे वह विधायिका हो या कार्यपालिका या शिक्षा या फिर कोई और क्षेत्र होनी ही चाहिए। हाल में चर्चा में आया उच्च शिक्षा में रोस्टर मामला भी आरक्षण की अवधारणा को खत्म करने की चाल है ताकि वंचित तबके के लोग उच्च शिक्षा में नहीं पहुंच सकें।

  • वंचित, शोषितों में शिक्षा से क्रांति आयी है और उसी क्रांति को रोके जाने की चली जा रही है चाल

  • आरक्षण की अवधारणा को खत्म करने के लिए बड़ी चालाकी से रचा जा रहा षडयंत्र
  • 13 प्वाइंट रोस्टर मामला उच्च शिक्षा में वंचितों के प्रतिनिधित्व को घटाने की चाल है

एफपी : रोस्टर मामले के गणित पर थोड़ा प्रकाश डालें?

द.प्र.: नया विभागवार रोस्टर उच्च शिक्षा में वंचितों, पिछड़ों के प्रतिनिधित्व को घटाने की चाल है। ये लोग उच्च शिक्षा में नहीं आएं, यही मूल मकसद है और यह भी आरक्षण की अवधारणा के खिलाफ है क्योंकि इससे हिस्सेदारी व भागीदारी कम होगी। आरक्षण के बाद शिक्षा में जो क्रांति आयी और वंचितों, पिछड़ों की इसमें जिस तरह रुचि बढ़नी शुरू हुई, उसे रोकने की चाल है। समाज का अल्पसंख्यक (सवर्ण) मात्र 15 फीसदी आबादी के साथ इनमें भी खासतौर पर ब्राह्मण जो केवल तीन से चार प्रतिशत हैं, शासक बने हुए हैं। इन्हीं की मंशा है आरक्षण की अवधारणा को खत्म करने की। हमें इन्हें रोकना होगा ताकि ये अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो सकें। इसके साथ-साथ हमें शोषितों के हाथ में शिक्षा व्यवस्था आए, इस दिशा में प्रयास करना होगा तभी सभी वर्गों का हित हो सकता है।



एफपी : शिक्षा व्यवस्था में और कहां कमियां नजर आ रही हैं?

द.प्र.: दोहरी शिक्षा प्रणाली शिक्षा की चोरी है। हमें इस पर तत्काल रोक लगानी चाहिए और सबों के लिए एक समान शिक्षा बहाल किया जाना चाहिए। सरकार को इसके लिए बजट में अतिरिक्त प्रावधान करना होगा। मौजूदा बजट जो कुल जीडीपी का केवल तीन प्रतिशत है, उससे काम नहीं चलने वाला है। हमें क्वालिटी एजूकेशन पर ध्यान देना होगा और केंद्रीय विद्यालय व जवाहर नवोदय विद्यालय की तर्ज पर देश भर में इन स्कूलों का जाल बिछाना होगा ताकि शिक्षा  निजी हाथों से पूरी तरह से दूर हो जाए। अभी देश भर में 600 जवाहर नवोदय विद्यालय व 1125 केंद्रीय विद्यालय हैं। हमें इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी करनी होगी ताकि देश भर में एक समान शिक्षा व्यवस्था बहाल हो सके।

एफपी : प्राथमिक शिक्षा पर तो सरकार ठीक-ठाक खर्च कर रही है?

द.प्र.: प्राथमिक शिक्षा की क्या स्थिति है इसका अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि सरकार एक तरफ 6-14 साल के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने की बात करती है, वहीं उसके द्वारा खोले गए केंद्रीय विद्यालय व नवोदय विद्यालय में कुल केवल 12 लाख बच्चों के ही पढ़ाई की व्यवस्था है, जबकि इस आयु वर्ग के कुल बच्चों की संख्या 20 करोड़ है। यानि 20 करोड़ में 12 लाख बच्चों को क्वालिटी एजूकेशन मुहैया कराकर कोई सोचे कि हमने बहुत कुछ कर दिया तो क्या कहा जा सकता है?

एफपी : केंद्रीय विद्यालय व नवोदय विद्यालय के अलावा भी तो काफी संख्या में सरकारी स्कूल हैं?

द.प्र.: सच कहें तो इन स्कूलों में ‘थाली बजाओ, घर जाओ’ कार्यक्रम चल रहा है। इन स्कूलों में भोजन है, किताबें हैं, स्कूल ड्रेस हैं लेकिन पर्याप्त संख्या में शिक्षक ही नहीं हैं। कई स्कूलों में तो केवल एक-एक शिक्षक हैं। कई स्कूल तो अप्रशिक्षित शिक्षा मित्र के सहारे चल रहे हैं, ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व ‘एक देश-एक शिक्षा’ की कल्पना कैसे की जा सकती है।

एफपी : इसका मतलब यह हुआ कि प्राथमिक विद्यालय पर सरकार का दावा और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर है?
द.प्र.: बिल्कुल। सरकार का दावा जो भी रहा हो लेकिन हमें इस हकीकत को भी नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों के जाने के बाद 40 साल तक एक भी नए प्राथमिक विद्यालय नहीं खोले गए। इसकी शुरुआत 1990 में तब हुई जब वर्ल्ड बैंक का सहयोग प्राथमिक शिक्षा के लिए मिलना शुरू हुआ। समय पर शिक्षक नियुक्त नहीं होना, अप्रशिक्षित शिक्षक के तौर पर शिक्षामित्र की नियुक्ति और फिर उनके सहारे ही स्कूल का चलना क्या दर्शाता है? शिक्षामित्र के बारे में तो सुप्रीम कोर्ट तक की टिप्पणी आ चुकी है कि वे सुपात्र नहीं हैं।

एफपी : इसके पीछे की क्या मंशा हो सकती है?

द.प्र.: चालाक बौद्धिक वर्ग जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व है, वही लोग पूरा खेल कर रहे हैं। बता दें कि नौकरशाही में ब्राह्मण अकेले 40-45 फीसदी की संख्या में हैं वहीं शिक्षण संस्थानों में तो इनकी संख्या 70 फीसदी तक हैं। ये शासक हो शोषक बने हुए हैं और बांटो और राज करो के तर्ज पर चल रहे हैं। आरक्षण को गरीबी उन्मलन कार्यक्रम बता उसकी अवधारणा को ही खत्म करने की इनकी तरफ से चाल चली जा रही है। हमें इसका पुरजोर विरोध करना होगा।

एफपी : विरोध की रूपरेखा क्या होगी?

द.प्र.: जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी विरोध का मूलमंत्र होगा। आबादी के हिसाब से ओबीसी (52 फीसदी), एससी/एसटी (25 फीसदी) मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यक (15 फीसदी) यानि कुल 85 फीसदी से ज्यादा हैं इसलिए उस हिसाब से ही नौकरी, शिक्षा सभी जगह उन्हें प्रतिनिधित्व मिले यही विरोध की मुख्य मांग होगी। बेसिक एजूकेशन पर दलित, मुस्लिम व पिछड़ों को एक मंच पर लाकर तीव्र जागृति शुरू करने की जरूरत है और जिस दिन बहुजन समाज जो अब तक शोषित रहा है, शासक बन गया, एक देश एक शिक्षा बहाल खुद-ब-खुद हो जाएगा। शिक्षा माफियाओं का नामो-निशान मिट जाएगा।


(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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