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बिहार की चुनावी राजनीति पर केंद्रित फारवर्ड प्रेस की नयी किताब प्रकाशित

यह किताब बिहार की चुनावी राजनीति का एक मुकम्मल अध्ययन प्रस्तुत करती है। यह बताती है कि क्या कारण थे, जिनके चलते 1947 से 1990 तक बिहार की राजनीति में मुट्ठीभर उच्च जातियों का वर्चस्व कांग्रेस के माध्यम से कायम रहा और कैसे 1990 में मंडल आंदोलन के बाद यह वर्चस्व टूटा?

बिहार की चुनावी राजनीति का तथ्यपरक विश्लेषन करती किताब प्रकाशित हो चुकी है। यहां क्लिक कर इसे अब अमेजन के जरिए घर बैठे खरीदा जा सकता है।

इस किताब के लेखक सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार हैं।

यह पुस्तक मंडल आंदोलन के बाद बिहार की राजनीति के विभिन्न आयामों जाति, धर्म, गरीबी और राजनीतिक आकांक्षाओं आदि पर प्रकाश डालती है। वही बिहार जिसने समय-समय पर देश की राजनीति की दशा और दिशा निर्धारित करने में महती भूमिका का निर्वहन किया है।

फारवर्ड प्रेस बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक बिहार की चुनावी राजनीति : जाति-वर्ग का समीकरण (1990-2015) का कवर पृष्ठ। पुस्तक खरीदने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

किताब की भूमिका में लेखक संजय कुमार लिखते हैं कि “इतिहास इस बात का साक्षी है कि बिहार बहुत ही लंबे समय से राजनीति के केंद्र में रहा है। इसे इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले सात दशकों में भारत में जो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव हुए हैं, बिहार की धरती उसकी जननी रही है। 1990 के दशक में बिहार न केवल मंडल-समर्थक और मंडल-विरोधी आंदोलन के केंद्र में था, 1975 में वह आपातकाल-विरोधी आंदोलन का भी केंद्र रहा जो ‘जेपी आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है और जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था। यह बताना जरूरी है कि ब्रिटिश शासन के दौरान भी बिहार ने राजनीतिक बदलाव लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। हमारे इतिहास की पुस्तकों में जिसे चंपारण आंदोलन के नाम से जाना जाता है, नील की खेती करने वाले किसानों के शोषण के खिलाफ यह आंदोलन महात्मा गांधी ने 1917 में बिहार के चंपारण से शुरू किया जो कि बिहार के उत्तर-पूर्व में स्थित एक जिला है।”

मंडल-दौर के बाद देश के उत्तरी राज्यों में जिस तरह की राजनीतिक लड़ाई और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई उसकी गहरी जड़ें बिहार में ही थीं।

संजय कुमार लिखते हैं कि “देश के अन्य राज्यों की तरह ही, अतीत में बिहार की राजनीति में मुख्यतः काँग्रेस का दबदबा रहा है। बिहार में कई दशकों तक काँग्रेस का निर्बाध शासन रहा और यह 1990 तक जारी रहा। इस बीच सिर्फ पांच बार जब राज्य में कुछ समय के लिए गैर-काँग्रेसी शासन रहा। पर मंडल-आंदोलन के बाद की स्थिति ने राज्य की राजनीति की दिशा और दशा बदल दी – चुनावी राजनीति और राजनीतिक प्रतिनिधित्व अब पहले जैसे नहीं रहे। इस दौर में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का उदय हुआ और व्यापक जनाधार वाले क्षेत्रीय नेता भी सामने आए, विशेषकर समाज के निचले तबके, जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), दलित, आदिवासी (अविभाजित बिहार में) और मुस्लिमों में। मंडलोत्तर राजनीति ने राज्य में काँग्रेस के अवसान की शुरुआत कर दी। राज्य में मंडल आंदोलन के बाद पहला विधानसभा चुनाव 1995 में हुआ और उसके बाद से राज्य में काँग्रेस का जनाधार निरंतर गिरा है – चुनाव दर चुनाव – और आज 125 साल से ज्यादा पुरानी इस पार्टी का राज्य में राजनीतिक वजूद नगण्य हो गया है।”

उनकी यह किताब बिहार के सामाजिक और आर्थिक इतिहास की समझ पिछले कई दशकों में इसकी चुनावी राजनीति की बदलती प्रकृति को समझने में मदद करेगी। मसलन इसके बावजूद कि इस पुस्तक की केन्द्रीय विषयवस्तु मंडलोत्तर बिहार में चुनावी प्रक्रिया और राजनीतिक परिवर्तनों  का विश्लेषण है, वर्तमान को समझने के लिए राजनीतिक इतिहास हमेशा ही महत्त्वपूर्ण होता है।

इस प्रकार यह किताब बिहार की चुनावी राजनीति का एक मुकम्मल अध्ययन प्रस्तुत करती है। यह बताती है कि क्या कारण थे, जिनके चलते 1947 से 1990 तक बिहार की राजनीति में मुट्ठीभर उच्च जातियों का वर्चस्व कांग्रेस के माध्यम से कायम रहा और कैसे 1990 में मंडल आंदोलन के बाद यह वर्चस्व टूटा?

यह किताब इस सवाल का भी जवाब देती है कि किस तरह जनता के माध्यम से पिछड़ी जातियों का वर्चस्व कायम हुआ और यह भी कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार पिछड़ों के नेता के रूप में कैसे उभरे?

साथ ही यह किताब यह भी बताती है कि आखिर किन कारणों से बिहार की राजनीति अन्य पिछड़ा वर्ग की कुछ हिंदू जातियों के इर्द-गिर्द घूम रही है और उच्च जातियां , दलित, अत्यंत पिछड़ी जातियां और मुसलमान इनमें से ही किसी के साथ मतदान करने या गठजोड़ करने को विवश हैं?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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