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राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण

राजनीति के अपराधीकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों के द्वारा कदम उठाए गए हैं। लेकिन दूसरी ओर रोशनदान भी छोड़ दिए गए हैं। इनमें से एक सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला है

 न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे

सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायमूर्तियों (दीपक मिश्रा, नरीमन खानविलकर, धनन्जय चंद्रचूड, इंदु मल्होत्रा) की संविधान पीठ का निर्णय[1]  है कि अदालत उन अपराधियों को जिनके मुकदमे लंबित हैं और आरोप भी तय हो चुके हैं, चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकती। तर्क यह कि  न्यायशास्त्र की निगाह में जब तक दोष सिद्ध ना हो, तब तक हर अभियुक्त निर्दोष माना-समझ जाता है/जाना चाहिए। हाँ! सरकार/संसद चाहे तो कानून बनाए/बनाना चाहिए। बनाती क्यों नहीं? राजनीति में अपराधीकरण को रोकने/कम करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार और चुनाव आयोग को एक बार फिर से दिशा निर्देश जारी किए हैं, बशर्ते वे सब ईमानदारी से लागू हों। सर्वोच्च न्यायालय ने दिशा-निर्देश जारी किए थे कि उम्मीदवार अपने विचाराधीन मुकदमों का विवरण चुनाव आयोग और अपने दल को देगा। इतना ही नहीं, आपराधिक मुकदमों की सूचना अखबार और मीडिया में भी प्रचारित की जाय।

29 मार्च, 2019 को एक अवमानना याचिका पर नोटिस जारी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से इस संदर्भ में जवाब मांगा है। जाहिर है कि व्यवहार में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश/दिशा-निर्देशों का कितना पालन होता है- यह एक बार नहीं, अनेक बार देखा-समझा जा चुका है। मौजूद व्यवस्था में हर संस्था की अपनी विवशता भी है और राजनेताओं को नियंत्रित करने की लक्ष्मण रेखा भी। चुनाव 2019 की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है, देखते रहिए कानून, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन-अनुपालन या सरेआम उल्लंघन और अवमानना।

उल्लेखनीय है कि राजनीति में अधराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। 2004 में जहां 24 प्रतिशत  आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद थे, वह संख्या 2009 में 30 प्रतिशत और 2014 में बढ़ कर 34 प्रतिशत हो गई। ऐसे नेताओं को संसदीय लोकतंत्र से दूर रखने की जिम्मेवारी संसद की है, मगर ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि राजनीतिक दलों पर इनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि उनके बिना सत्ता और चुनाव की राजनीति संभव नहीं। सच है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के, आवारा पूंजी,धर्म और अपराध के विषवृक्ष कैसे फलते-फूलते! महंगे चुनावों का आर्थिक बोझ कौन उठाएगा! बाहुबली जो पहले नेताओं का पीछे से समर्थन करते थे, बाद में खुद राजनेता बन कर उभरने लगे। साम्प्रदायिक राजनीति के दौर में मंदिर-मस्जिद और मठों की भूमिका भी, निरंतर निर्णायक होती चली गई। वस्तुस्थिति यह भी है कि सब कुछ जानते हुए भी मतदाताओं ने आपराधिक छवि वाले नेताओं को भी, भारी बहुमत से जीतने दिया है। धनबल, बाहुबल के अलावा सामंती संस्कार और जातीय वर्चस्व के सामने मतदाता अभी भी कितना कमजोर और असहाय है, महानगरों के वातानुकूलित ड्राइंग रूम में बैठ कर इसका अनुमान तक लगाना मुश्किल है। अनपढ़, गरीब-ग्रामीण क्या करे, किससे कहे।

पिछले तीस-चालीस सालों में प्रमुख राजनीतिक दलों और ज्यादातर धार्मिक संस्थाओं (बाबा,गुरु,संत, महंत, स्वामी) के पास हजारों करोड़ की संपत्ति जमा हो गई है। कारण- धार्मिक संस्थाओं और राजनीतिक दलों को आयकर से पूरी छूट। इन्हें दान देने वालों को, दान के पचास प्रतिशत पर आयकर से छूट। अक्सर कालाधन भी रातों-रात सफ़ेद। धीरे-धीरे अधिकांश धार्मिक संस्थाओं में व्यवसायीकरण और राजनीतीकरण के साथ-साथ अपराधीकरण भी बढ़ता गया। सिद्ध-प्रसिद्ध धार्मिक बाबा,गुरु,संत, महंत, स्वामी और धर्माचार्यों के सामने, बहुत से मंत्री-मुख्यमंत्री और अफसर चरण वंदना करते पाये गये, सो सत्ता संरक्षण के अलावा समाज में इनका मान-सम्मान भी बढ़ा और भारतीय मध्यम वर्ग की अंधभक्ति या अटूट आस्था-विश्वास भी। देखते-देखते राजनीति में धर्माचार्यों का हस्तक्षेप और राजनेताओं द्वारा चुनाव की राजनीति में धर्म का इस्तेमाल भी बढ़ता गया। परिणामस्वरूप अशिक्षित, निर्धन, दलित और असहाय आम जनता का हर तरह से शोषण और उत्पीड़न लगातार बढ़ता जा रहा है। देश में हर पांचवे साल बिछती है चुनाव की चौपड़ और ‘नोट के बदले वोट’ में देखते ही देखते नीलाम हो जाता है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र-प्रजातंत्र।

आम आदमी के दिमाग में यह धारणा काई की तरह जमती जा रही है कि हर संभव लूट-खसोट, भृष्टाचार, आरक्षण, दंगे-फसाद, आंदोलन-प्रदर्शन, भारत बंद, रेल रोको और रक्षा अभियानों की कामयाबी के लिए, साधन संपन्न बाहुबलियों और संगठित दबंगों की मदद अपरिहार्य है। इसे रोकना आसान नहीं है, श्रीमान! हैरान-परेशान होने से कोई लाभ नहीं। राजनीति के अपराधीकरण के बारे में अधिक विस्तार में जानना हो तो एन. एन. वोहरा समिति की रपट (1993) पढ़ लें कि कैसे आपराधिक गिरोहों ने राजनीति और भृष्ट नौकरशाही को धनबल से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है और एक समानांतर सरकार चला रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने निर्णय में इस रपट का विस्तार से उल्लेख किया है। आपराधिक गिरोहों या माफिया से सम्बद्ध मध्यम वर्ग की उद्दाम महत्वाकंक्षायें, बिहार-गुजरात में हत्यारी सिद्ध हुई हैं और राजधानी दिल्ली में आत्मघाती। उद्दाम महत्वाकंक्षाओं का मारा मध्यम वर्ग, अपने शिक्षित-शहरी प्रतिनिधियों को आगे कर (अपराधियों को पीछे से सक्रिय) ‘हल्लाबोल’ रणनीति से अब, किसी भी तरह खुद सत्ता पर काबिज़ होना-रहना चाहता है। नारा कुछ भी…. भ्रष्टाचार… महंगाई… बदलाव….युवा सपनों को इन्द्रधनुषी आसमान दिखा कर सत्ता पाओ-हथियाओ! हमारा नेता जिंदाबाद …जिंदाबाद..!

प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के राजनीतिशास्त्र में, आतंक, हत्या और खून-खराबा यानी अपराध अवश्यम्भावी है। महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय, प्रताप सिंह कैरो और ललित नारायण मिश्रा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व अन्य तक की हत्या भी तो, उसी हत्या की आपराधिक राजनीति का ऐतिहासिक अध्याय है। हत्यारा भी हमेशा घटनास्थल पर नहीं होता। ‘रिमोट कंट्रोल’ का ज़माना है- कभी भी, कहीं भी हिंसक और हत्यारी भीड़ या भाड़े के अपराधी बर्बर अपराधों को अंज़ाम दे सकते है। पिछले कुछ सालों में निर्दोष बुद्धिजीवियों की हत्या और बढ़ते अभिव्यक्ति के खतरे भी राजनीति के अपराधीकरण का ही परिणाम है। आश्चर्यजनक है कि अधिकांश  अपराधी नेता जमानत पर हैं या फरार (भगोड़े) या कानून की पकड़ से परे अभेद्य विदेशी किलों में सुरक्षित। आपराधिक छवि वाले राजनेताओं के विरुद्ध भारतीय अदालतों में कितने ही संगीन मुकदमे दशकों से लंबित पड़े हैं? पूछो तो फंड नहीं, जज नहीं, पद खाली पड़े हैं, भवन नहीं, कंप्यूटर नहीं, स्टाफ नहीं आदि..आदि की लिस्ट सामने है। मतलब यह कि आई बला को दूसरों की तरफ धकेलो और यथास्थिति बनाये-बचाये रखो।

अपराधी राजनेताओं के बचाव के लिए, प्रतिबद्ध वकील राजनेताओं/सांसदों की भी कोई कमी नहीं। 25 सितंबर 2018 को  ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य फैसले में कहा है कि वकील सांसद या विधायक वकालत भी कर सकते हैं, क्योंकि वो पूर्णकालिक लोक सेवक नहीं कहे-माने जा सकते। हम सब जानते हैं कि (तथाकथित) अपराधी संसद के मुख्यद्वार से ही नहीं, चोर दरवाजों से भी तो प्रवेश करते ही रहे हैं। जब सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के सम्मान में, सुरक्षा कवच की तरह ‘बचाव पक्ष’ बन कर खड़ी हो, तो राजनीति को अपराधीकरण से आखिर कैसे बचाया जा सकता है! सर्वोच्च न्यायालय का लोक प्रहरी मामले में एक और नया फैसला/व्याख्या  (न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, खानविलकर और धनन्जय चंद्रचूड) आ गया है कि “दोषसिद्धि पर स्टे से बहाल हो सकती है संसद सदस्यता”।[2] पाठक याद करें लिली थॉमस बनाम भारत सरकार (2013) जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सदस्यता उसी दिन से समाप्त मानी जायेगी, जिस दिन सज़ा का आदेश हुआ। अब कानून के किले में न्यायशास्त्र का नया ‘चोर दरवाज़ा’ या ‘रोशनदान’ बना-बनाया गया है कि अपील में सज़ा पर स्थगन आदेश से, सारे दाग धुले मानें जाएंगे। है ना, कानून की चमत्कारी परिभाषा  (सर्फ या साबुन टिकिया)!

बेशक़ अपराधियों के बचाव में अक्सर, राजनीतिक विवशता आड़े आती रही है…रहेगी। सरकार, संसद और राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विवशता भी है और सीमा भी। सर्वोच्च न्यायालय भी ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं लांघ सकती। खैर…बहस के लिए निर्णय पढ़े-सोचें-समझें- आगे क्या? मौजूद चुनावी मौसम में भारतीय समाज की मूल चिंता यह है कि  पूंजी-धर्म-अपराध और राजनीति के अटूट महागठबंधन कब और कैसे टूट पाएंगे!

(कॉपी संपादन : नवल)

 

[1] पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत सरकार, याचिका नंबर (सिविल) 536/2011 निर्णय दिनांक 25.9.2018

[2] 2013 एस.एस. सी (7) 653


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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