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लिंग-परीक्षण की दोहरी तलवार

गर्भवती महिला यदि अपनी कोख में पल रही बच्ची को बचाना चाहे तो भी कानून के बावजूद शायद ही ऐसा कर पाए। वजह यह कि उसे अपने पति व अन्य परिजनों के खिलाफ सबूत कोर्ट को देने हाेंगे और ऐसा नही कर पाने पर उसे दस वर्षों तक जेल में रहना होगा

न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे

लिंग-परीक्षण की आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा भ्रूण का पता लगाकर लड़की होने की स्थिति में अधिकांश मामलों में गर्भपात की बढ़ती संख्या के विरुद्ध नारी-संगठनों द्वारा व्यापक स्तर पर आंदोलन छेड़ा गया। लड़कियों के खिलाफ इस जांच के दुरुपयोग को रोकने के लिए संसद के पिछले सत्र में इस संबंध में एक विधेयक पेश किया गया। विधेयक के कानून बन जाने पर दुरुपयोग कितना रूक पाएगा, यह कहना अभी कठिन है; लेकिन, निश्चित रूप से यह डर तो है ही कि कानून बन जाने के बावजूद भ्रूण-हत्याओं का सिलसिला शायद ही समाप्त हो सके। क्योंकि अब तक जो सार्वजनिक रूप से, खुलेआम और कानूनन हो रहा था, वह कल चोरी-छिपे जारी रहेगा, हालांकि जांच की फीस जरूर बढ़ जाएगी। जारी शायद इसलिए भी रहे कि समाज की स्वीकृति जब तक कानून को नहीं मिलती तब तक कानून का उल्लंघन प्रायः होता रहता है। दूसरी बात यह भी है कि कानून तो हमारे यहां बना दिये जाते हैं लेकिन प्रायः उनका सख्ती से पालन नहीं होता या फिर कानून में ही इतने चोर-दरवाजे रह जाते हैं कि अपराधी अक्सर भाग निकलता है।

बेटी नहीं चाहिए’ शीर्षक से नवभारत टाइम्स के 30 अगस्त, 1990 को प्रकाशित संपादकीय में लिखा था- दक्षेस के देश जब अपने बालिका-वर्ष समारोहों का सरकारी समापन करने की तैयारी में लगे हैं, ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की एलिजाबेथ बुमिलर हमारे लिए कुछ मनहूस खबरें लेकर हाजिर हुई हैं। उनकी ताजा किताब का नाम है : आप सौ बेटे-बेटियों की मां बनें। किताब भारतीय औरतों के बारे में है। बालिका ही बड़ी होकर औरत बनती है और यह किताब बताती है कि हमारे देश में बालिका-वध अब भी कितने संगठित रूप से चल रहा है। इससे उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए जो मानते हैं कि बड़े शहरों में गर्भस्थ शिशु के लिंग-परीक्षण पर रोक लगा देने से कन्या-हत्या रोकी जा सकेगी। एलिजाबेथ बुमिलर द्वारा पेश किए गए वृतांत से जाहिर होता है कि समर्थ लोग ही नहीं, असमर्थ लोग भी शिशु-कन्या नहीं चाहते। बल्कि शायद वे ही ज्यादा, क्योंकि यह उनके लिए एक विकट आर्थिक मामला भी है।”

अस्पताल में इलाजरत एक गर्भवती महिला का प्रतीकात्मक चित्र (तस्वीर साभार : द लॉजिकल इंडियन)

मसलन मोहन सुंदरम और उसकी पत्नी मुथैया- इन्होंने दो साल पहले अपनी दूसरी बेटी को मारने के लिए गाय के दूध में नींद की पांच गोलियां मिलाईं और उसे पिला दिया। अपनी पहली बेटी के दहेज के लिए इन्होंने एक हजार रुपया उधार लेकर बैंक में तीन हजार रुपये जमा कर दिए थे, जो उसकी शादी की उम्र तक, आशा है, बाईस हजार हो जाएंगे। और अब दूसरी बेटी के लिए इतने रुपयों का जुगाड़ बैठाना असंभव था। लेकिन बेटी जनमते ही उसे मौत के घाट उतार देनेवाले जिन चार दम्पत्तियों से लेखिका ने मुलाकात की, उनमें से तीन इतने खुशकिस्मत नहीं थे कि बैंक में फिक्स्ड खाता खुलवा सकें और न इतने आधुनिक कि गांव के केमिस्ट की दुकान से मौत का सामान खरीद सकें। उन्होंने अपनी बेटियों की हत्या के लिए एक स्थानीय पौधे एरुक्कंपाल (शायद आक[1]) का इस्तेमाल किया था, जिसके लस्सेदार दूध की कुछ बूंदें भी नवजात शिशु का काम तमाम करने के लिए काफी हैं। तमिलनाडु के जिस गांव, बेलुकुरिचि, का यह किस्सा है, वहां बच्चियों को मारने के लिए ज्यादातर इसी पौधे के दूध का इस्तेमाल किया जाता है। यह गांव निश्चय ही कोई खास गांव नहीं है, जहां इस तरह की घटनाएं होती हैं। चार साल पहले इंडिया टुडे ने तमिलनाडु के ही मदुरै जिले के पास के एक इलाके से हमें परिचित कराया था, जहां एक दशक में लगभग छह हजार नवजात कन्याओं को विष देकर मार डाला गया था। देश के अन्य हिस्सों में भी कन्या-वध के लिए स्थानीय तरीके आजमाए जाते होंगे। गला घोंट देना, पानी-भरी बाल्टी में डाल देना और छाती पर पत्थर रखकर उस पर बैठ जाना जैसे आम तरीके तो खैर हैं ही।

इस तरह के रिवाजों के प्रकाश में आने से ही, हम यह समझ पाते हैं कि 1901 में हजार पुरुषों पर 972 औरतों का जो औसत था, वह क्रमशः कम होते-होते 1981 में 934 क्यों हो गया। उदारवादी मूल्यों के प्रसार तथा स्त्रियों के लिए काम और रोजगार के विभिन्न दरवाजे खुलने के साथ अनेक परिवारों में बेटी का जन्म अब पहले की तरह मनहूस घटना नहीं रह गया है। लेकिन गांवों में पुराने नुस्खों का जारी रहना और शहरों में लिंग-परीक्षण के लिए बढ़ती भीड़ बताती है कि चुनौती न केवल बड़ी है, बल्कि नए-नए रूपों में भी सामने आ रही है। गर्भपात के इरादे से लिंग-परीक्षण रोकने का कानून तो बन जाएगा (उस पर अमल कितना होगा, यह दूसरी बात है), लेकिन देश का अधिकांश हिस्सा जिस अंधेरे युग में जी रहा है, उसके बारे में भी क्या कोई एक्शन प्लान है?

भ्रूण-लिंग परीक्षण के दुरुपयोग-संबंधी विधेयक की धारा-4 में प्रावधान किया गया है कि अन्य जांच (लिंग-निर्धारण के अलावा) की जा सकती है बशर्ते  कि गर्भवती महिला की उम्र 25 वर्ष से अधिक हो, दो या दो से अधिक बार गर्भपात हो गया हो, मानसिक रोग की परिवार में परंपरा हो, लेकिन धारा-5 के अनुसार गर्भवती महिला की लिखित सहमति लेना अनिवार्य है।

विधेयक की धारा-7 में एक केंद्रीय बोर्ड की स्थापना का प्रावधान है जिसमें कहा गया है कि इसमें परिवार कल्याण मंत्री बोर्ड के अध्यक्ष, भारत सरकार के सचिव, उपाध्यक्ष होंगे। दो सदस्य महिला और बाल-विकास मंत्रालय और कानून मंत्रालय से होंगे। आठ सदस्य प्रसिद्ध डाक्टर, समाजशास्त्री और नारी संगठनों से लिए जाएंगे। दो सदस्य राज्य सरकारों से रखे जायेंगे।

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विधेयक की धारा-9 में उल्लेख है कि उपरोक्त बोर्ड की बैठक छह महीने में एक बार अवश्य हो। अध्यक्ष (मंत्रीजी) और उपाध्यक्ष (सचिव, भारत सरकार) यदि बैठक में उपस्थित न हों तो कोई बात नहीं, शेष सदस्यों में से कोई भी एक व्यक्ति सभा की अध्यक्षता कर सकेगा।

विधेयक की धारा-17 में प्रावधान किया गया है कि केंद्र और राज्य सरकार इस संबंध में दो व्यक्तियों का एक प्राधिकरण बनाएगा जिसमें परिवार कल्याण और स्वास्थ्य विभाग के सह-निदेशक के पद से ऊपर के दो अधिकारी होंगे। इनके पास क्लीनिक खोलने, रजिस्ट्रेशन करने, रजिस्ट्रेशन रद्द या स्थगित  करने के अधिकार होंगे। इसके अलावा शिकायतों की जांच-पड़ताल का अधिकार भी इन्हें रहेगा।

धारा-18 में रजिस्ट्रेशन और धारा-20 में रजिस्ट्रेशन रद्द करने संबंधी कानूनी प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। किसी भी स्थिति में ‘कारण बताओ’ नोटिस दिए गए बिना रजिस्ट्रेशन रद्द नहीं किया जा सकता।

विधेयक की धारा-22 में लिंग-परीक्षा-संबंधी प्रावधानों में कहा गया है कि लिंग-परीक्षण के बारे में किसी भी प्रकार का विज्ञापन (नोटिस, परिचय-पत्र, प्रचार-प्रसार) नहीं दिया जा सकता। विज्ञापन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। उल्लंघन करने पर दोषी व्यक्ति को तीन साल तक की कैद और दस हजार रुपये तक जुर्माना किया जा सकता है। धारा-23 में लिंग-परीक्षण संबंधी प्रावधानों का उल्लंघन करने पर डाक्टर व अन्य सहयोगियों को भी तीन साल तक की कैद और दस हजार रुपये तक जुर्माना हो सकता है। दोबारा उल्लंघन करने पर पांच साल तक की कैद और पचास हजार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है। साथ ही उप-धारा 2 में कहा गया है कि पहली बार अपराध करने पर डाक्टर को दो साल और दोबारा अपराध करने पर सदा के लिए राज्य चिकित्सा परिषद की सदस्यता से हटाया जा सकता है। इसी धारा की उप-धारा 3 में लिखा है, लिंग-परीक्षण के लिए सहयोग करनेवाले किसी भी व्यक्ति और गर्भवती महिला (बशर्ते कि उसे मजबूर न किया गया हो) को उल्लंघन के लिए तीन साल तक की कैद और जुर्माना (दस हजार रुपये तक) हो सकता है। दोबारा अपराध पर पांच साल तक की कैद और पचास हजार रुपये तक जुर्माना किया जा सकता है।

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विधेयक की धारा-24 में स्पष्ट किया गया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के किसी भी प्रावधान से अलग अदालत यह मानेगी कि गर्भवती महिला को पति या संबंधी द्वारा लिंग-परीक्षण करवाने के लिए विवश किया गया है बशर्ते कि अन्यथा सिद्ध न किया जाए। ऐसे व्यक्तियों को अपराध के लिए उकसाने का दोषी मानकर दंडित किया जाएगा।

उपरोक्त प्रावधान को अगर बारीकी से देखा, पढ़ा और समझा जाए तो इस विधेयक का कानूनी पेंच सामने आ जाएगा। गर्भवती महिला को भी इस कानून के तहत दंडित किया जा सकता है बशर्ते कि उसे विवश न किया गया हो। ऐसी स्थिति में यह मानकर चला जाएगा कि उसे पति या संबंधी व्यक्तियों ने विवश किया होगा बशर्ते कि अन्यथा सिद्ध न हो। मान लें कि मुकदमे में गर्भवती महिला के पति या संबंधी यह सिद्ध करने में कामयाब हो गये कि उन्होंने लिंग-परीक्षण के लिए विवश नहीं किया था तो ऐसे में गर्भवती महिला को ही दंडित कर दिया जाएगा? तीन साल कैद तो शायद वह किसी तरह रो-पीटकर काट लेगी, लेकिन दस हजार रुपये हर्जाना बेचारी कहां से भरेगी?

भारतीय अदालतों, कानूनी चक्रव्यूहों और वकीली नुक्तों को देखते हुए उपरोक्त संभावना या स्थिति असंभव नहीं है। ऐसे में क्या मौजूदा विधेयक पीड़ित गर्भवती महिला को अपराधी के कटघरे में खड़ा करके, सालों कोर्ट के चक्कर लगवाकर और उसी को दंडित करके किसके साथ न्याय करेगा? गर्भवती महिला को अपनी विवशता सिद्ध करने के लिए भी कानून की अग्निपरीक्षा से गुजरना ही पड़ेगा और वह अगर यह सिद्ध करने में असफल रही कि उसे विवश किया गया था तो जेल में चक्की पीसेगी और अगर सिद्ध करने में सफल भी हो गई तो पति के जेल जाने के बाद घर में उसकी क्या सचमुच परिवारवाले ‘पूजा’ करेंगे?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)

संदर्भ :

[1] यूपी और बिहार में इसे अकवन का फूल कहा जाता है।


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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