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पौराणिकता और इतिहास

हम कल्पना, भावना या जरूरतों के आधार पर इतिहास नहीं बना सकते। इतिहास और मिथ में कुछ अंतर्संबंध हो सकते हैं, लेकिन साफ तौर पर दोनों दो चीजें हैं। इनके बीच घालमेल करना फिजूल की बात है

जन-विकल्प

पौराणिकता शब्द का इस्तेमाल माइथोलॉजी के लिए किया जाता है, जिसे हिंदी भाषियों के बीच मिथक कहने का भी रिवाज है। मिथ या मिथक का मतलब है, ऐसा आख्यान जिनका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। प्रत्येक देश-समाज में आमजन कुछ ऐसी पारलौकिक बातों, आख्यानों से जुड़े दीखते हैं, जिनके कोई वैज्ञानिक आधार नहीं हैं। ग्रीक, रोमन, चीनी माइथोलॉजी अत्यंत विकसित हैं और इनमें अनेक प्रकार के देवी-देवताओं की चर्चा है। असीमित और अपरिमित शक्तियों से युक्त इन देवी-देवताओं का सृजन उन समाजों की कल्पना शक्ति का तो परिचय कराता ही है, उनकी इच्छा-आकांक्षाओं को भी प्रतिबिंबित करता है। इन सब के बनने में एक लम्बा समय लगा होगा और जाने कितने लोगों ने मिलकर इनका सृजन किया होगा। इनकी सार्वजनिक स्वीकृति और फिर दिलचस्प क्रमिक विकास का आख्यान हमारे दिलों में झुरझुरी पैदा करते हैं।

 

प्रायः देखा गया है कि इन पौरणिकताओं के पीछे आमजन की न्याय और मुक्ति की भावना होती है, लेकिन कभी-कभार समाज का वर्चस्वशाली शासक तबका अपने निहित स्वार्थों के लिए भी इसका रूपांतरण करता है। लगभग सभी पौराणिक पात्र अपनी प्राथमिक संरचना में दयालु-कृपालु और समदर्शी होते हैं। अपनी ताकत से उत्पीड़ित मनुष्य की मुक्ति के लिए ये कोई भी जादू करने में सक्षम होते हैं। इसीलिए जनता इन्हें स्वयं से जोड़ कर रखना चाहती है। शायद इसीलिए प्रायः सभी संस्थागत धर्मों के साथ एक पौराणिकता होती है। अन्य धर्म समाजों की तरह ही हिन्दू माइथोलॉजी भी एक विकसित माइथोलॉजी है। डब्ल्यू. जे. विल्किंस की किताब ‘हिन्दू माइथोलॉजी‘ हमें इसकी विस्तृत और व्यवस्थित जानकारी देता है। पौराणिकता हमारे सोच, साहित्य, भाषा और मुहावरों में बारीक स्तर तक घुले-मिले होते हैं और इन्हे ख़त्म करना किसी भी तरह संभव नहीं है। हम इसकी व्याख्या-पुनर्व्याख्या अथवा पाठ-पुनर्पाठ से ही इसकी ताकत का इस्तेमाल कर सकते हैं।

आधुनिक उपकरण विद्युतचालित ड्रिल के जरिए पत्थर को तराश हिंदू देवता की प्रतिमा को अंतिम रूप देता एक कलाकार

हिन्दू अथवा भारतीय माइथोलॉजी का इतना अधिक विस्तार है कि इस पर विस्तृत चर्चा के लिए इत्मीनान चाहिए। संक्षेप में इतना ही कहा जाना है कि मोटे तौर पर इसे दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। इसका एक हिस्सा वेद, पुराण और महाकाव्यात्मक पात्रों, देवताओं और उनसे जुडी कहानियों का है, तो दूसरा हिस्सा लोकविश्वासों से उपजी हुई स्थानीय स्तर के देवताओं से। हर गांव का अलग देवता भी है और विस्तृत विश्वदेवता विष्णु भी। देवताओं के भी देवता महादेव हैं। दौलत, कला-संगीत से लेकर अग्नि, जल के अलग-अलग देवी-देवता हैं। हनुमान रामायण काव्य से उभर कर आये हैं तो गणेश शिव कथा से। नदी, नाले, पहाड़, पेड़, पशु-पक्षी भी यहां देवता रूप हैं, शीतला माता जैसी चेचक नामक बीमारी की देवी भी है।

पौराणिकता की जड़ें बहुत गहरी हैं, ऐसा मैंने कहा है और इसके कारण हैं। समाज के वर्चस्वशाली तबके ने जिसमें पुरोहितों और सामंतों की बड़ी भूमिका रही, कई दफा इतिहास को विकृत पौराणिकता में बदल देना चाहा, तो कभी पौराणिकता को इतिहास मान लेने का आग्रह किया। कभी कोई टीले या इसी तरह की किसी चीज का उत्खनन हुआ और पुरातात्विक प्रमाण मिले, तब उन साक्ष्यों के आधार पर इतिहास का एक नया परिदृश्य उभरता है। नालंदा की पुरातत्वविदों द्वारा खुदाई के पहले वहां एक बड़ा टीला था, जिसे लोग राजा रुक्मण का गढ़ या टीला कहते थे। खुदाई के बाद वह एक बौद्ध शिक्षा केंद्र (महाविहार) का भग्नावशेष पाया गया, जिसका एक समृद्ध इतिहास था। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की भी ऐसी ही कहानी है( उसे मुर्दों का टीला कहा जाता था। मैंने पहले ही बतलाया है की जनता की स्मृति संक्षिप्त-सी होती है। निहित स्वार्थों के लोग इसका लाभ उठाते हैं और ऐसे टीलों, स्थानों, भुतहे घरों आदि को लेकर ऐसी कथाएं गढ़ देते हैं, जिनसे उनके स्वार्थ सिद्ध होते हों। जब इनका सत्य उद्घाटित होता है, तब वे चुप लगा जाते हैं या गलत दलीलें देने लगते हैं। ऐसे लोग सत्य के उद्घाटन से भयभीत भी रहते हैं। उनकी कोशिश होती है कि पुरातात्विक खुदाइयां और इतिहास सम्बन्धी अनुसन्धान स्थगित हो जाएँ ताकि मिहनत से तैयार की गयी उनके पूर्वजों की ऐसी कथाएं जो माइथोलॉजी का रूप ले चुकी हैं, और उनके सामूहिक स्वार्थों का समर्थन करती हैं, अविश्वसनीय नहीं हो जाय।

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हालांकि इतना भर ही यह नहीं है। माइथोलॉजी अपने शुद्ध रूप में इतिहास से बड़ी एक ताकत है, जिसकी व्याख्या एक ही समाज का भिन्न वर्ग अलग-अलग ढंग से करता है। क्लॉड लेवी स्ट्रास जैसे विद्वानों ने यूरोपीय इतिहासकारों के उस आग्रह की अनदेखी करते हुए, जिसमे उन्होंने पौराणिकता को अगंभीर स्तर पर देखा था, अपने निष्कर्ष में इसकी यानी पौराणिकता की ताकत को रेखांकित करने का प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में आज भी निरंतर काम हो रहे हैं।

प्रायः यह देखा गया है, सामान्यजन इतिहास और पौराणिकता के प्रभेद को नहीं समझते अथवा इन्हें एक साथ गड्ड-मड्ड करने के वे अभ्यस्त हो गए हैं। आम तौर पर इतिहास की बातें करते हुए लोग राम, कृष्ण आदि का प्रसंग इस रूप में लाते हैं, जैसे वे इतिहास के प्रसंग हों। रामजन्मभूमि या कृष्णजन्मभूमि प्रसंग को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। हां, वे शिव, दुर्गा, हनुमान जैसे दूसरे देवी-देवताओं के लिए कभी ऐतिहासिकता का दावा नहीं करते। इससे पता चलता है, वह इस बात को बखूब समझते हैं कि इतिहास और पौराणिकता अलग हैं। राम-कृष्ण जैसे नायकों को इतिहास से जोड़ने के प्रति उनके आग्रह को समझा जा सकता है। या इसे समझा जाना चाहिए। एक तो यह कि इन नायकों को शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि की तरह पूरी तरह से पारलौकिक अथवा कल्पित मानने से उनका मन इंकार करता है। वे इनसे घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं, इनका मन उनसे पूरी तरह जुड़ा हुआ है, ऐसे में उन्हें पारलौकिक या कल्पित मानना इन्हे गवारा नहीं। शायद होना भी नहीं चाहिए। लेकिन क्यों? इस बात पर हमने सोचने का प्रयास किया है? शायद नहीं।

दरअसल राम और कृष्ण हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों से नहीं, हमारे साहित्यिक काव्य ग्रंथों से ताल्लुक रखते हैं। वे वेद, उपनिषद या पुराणों में वर्णित देवता नहीं; हमारे देश के दो अमर काव्य-ग्रन्थ रामायण और महाभारत के प्रमुख नायक हैं। काव्य ग्रंथों का सब कुछ कल्पित नहीं है। इसमें हमारे सामाजिक जीवन के सुदीर्घ अनुभव, उनके सोच-विचार, रीति-रिवाज, उनकी कल्पना शक्ति, नैतिकता आदि बहुत सी बातें खूबसूरत अंदाज में गुंथी हुई हैं, सजाई हुई हैं। हम कह सकते हैं कि यह हमारे देश-समाज की धड़कन है। राम और कृष्ण अमुक जगह पर पैदा हुए या कोई इनके माता-पिता थे, यह सब तो अपनी जगह है, क्योंकि यदि कोई जन्म लेता है तब उसके माता-पिता और जगह तो होगी। लेकिन जब यह जगह-जमीन ही उस नायक से महत्वपूर्ण होने लगते हैं, या ऐसा करने की कोशिशें होने लगती हैं, तब झंझट होने लगते हैं, और हम मूल चीजों से भटक जाते हैं। बहुत संभव है ये दोनों अयोध्या और मथुरा के ऐसे परिवारों से हों, जिनका उस इलाके पर दबदबा और राज-पाट जैसा कुछ रहा हो. जैसा कि अलबरूनी ने राम को एक जाट राजा के रूप में जाना। यह जानकारी उसे भारत के जनसामान्य से ही हासिल हुई होगी। राम और कृष्ण का वंश क्रमश: इक्ष्वाकु और यदुवंश कहा गया है। इक्ष्वाकु में उस इक्ष शब्द का जुड़ाव जान पड़ता है, जो गन्ने अथवा ईख के लिए संस्कृत में प्रयुक्त होता है। संभवतः ईख उत्पादक किसानों के प्रमुख राज परिवार से राम का जुड़ाव हो, जो अब जाट कहे जाते हैं। लेकिन यह सब सच है, इसका कोई दावा कैसे कर सकता है? अधिक से अधिक हम यही कर सकते हैं कि अनुमान और प्रमाण के मिले-जुले सोपान से सत्य के निकट पहुंचें। मैं नहीं कहता कि राम या कृष्ण का कोई इतिहास है ही, लेकिन इस पूरी कथा में भारतीय जीवन की सच्चाई का बहुत बड़ा हिस्सा समाहित जान पड़ता है। कहीं-न-कहीं, किसी न किसी अंश में इन कथाओं के भौतिक आधार होने ही चाहिए। सब कुछ कल्पना नहीं हो सकता। मैं जब सब कुछ कहता हूं तब मेरा आशय नायकों से अधिक उनके समाज से है, उस काव्यकथा में वर्णित जीवन की धड़कनों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। राम और कृष्ण किसान परिवारों से हैं। किसान जीवन का ताना-बाना, उनकी नैतिकता, उनके संस्कार, रिवाज और विचार ही रामायण और महाभारत के मुख्य आधार हैं। उनके गृहकलह, सत्य और वचन पर टिके होने की उनकी जिद्द, आम तौर पर युद्ध से परहेज करने की प्रवृत्ति और युद्ध यदि जरुरी हो जाय तो जम कर, पूरी तरह सन्नद्ध हो कर लड़ने का उनका जोश इन काव्यों को विस्तार देते हैं। इसके बाद नायकों के होने न होने का बहुत मतलब नहीं रह जाता। भारत में निर्गुण संत परंपरा, जो कि संत परंपरा के सगुन परंपरा के मुकाबले कहीं बड़ा हिस्सा है, ने इन राम-कृष्ण को इन कथाओं से साफ़ तौर पर निकाल लिया है और इसे अपने विश्वास का हिस्सा बना लिया है। कबीर के राम और मीरा के कृष्ण उनकी सांसों में बसते हैं। वे जन्मने और मरने वाले नहीं हैं। अमर हैं। उन्हें देवत्व प्राप्त हो चुका है। फिर यह एक अलग विषय है कि सगुन देवताओं से मिहनतक़श तबकों ने दूरी क्यों बनाई। इनके कारणों को जानना हमें उत्साहजनक जानकारियों से मंडित करता है। लेकिन इस पर फिलहाल अधिक चर्चा करना विषयांतर होना होगा।

पौराणिकता के विपरीत दुनिया के किसी भी हिस्से या काल का इतिहास, चाहे किसी देश-समाज का हो अथवा राजनीतिक या आर्थिक विकास का, या फिर कृषि और उद्योगों के विकास का या कि साहित्य-संस्कृति के विभिन्न पड़ावों का, वह पुख्ता प्रमाणों की मांग करता है। इसलिए जब हम इतिहास की बात करते हैं, तब पहले यह तय करते हैं कि इनका आधार क्या है। उन स्रोत-सामग्रियों की चर्चा लाजिमी हो जाती है जिनके आधार पर यह बात कही जा रही है। अनुमानों की एक सीमित भूमिका संभव है, लेकिन उनका भी कोई प्रच्छन्न आधार होता ही है। हम कल्पना, भावना या जरूरतों के आधार पर इतिहास नहीं बना सकते। इतिहास और मिथ में कुछ अंतर्संबंध हो सकते हैं, लेकिन साफ तौर पर दोनों दो चीजें हैं। इनके बीच घालमेल करना फिजूल की बात है।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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