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किन्नौर में बौद्ध धर्म, जाति प्रथा और राजनीति

खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण किन्नौर का समाज व संस्कृति शेष भारत से अलग है। यह बौद्ध धर्म का इलाका है, जिसे हिंदूवादी संस्कृति लीलती जा रही है। हालांकि आर्थिक संपन्नता के आगमन से जाति-आधारित उत्पीड़न और भेदभाव कम हो रहा है। पढें, फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन की किन्नौर यात्रा के दौरान की गई यह बातचीत :

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से उत्तर-पूर्व में करीब 250 किलोमीटर दूर स्थित है किन्नौर। बौद्ध धर्म यहां का मुख्य धर्म है, जिसका अनूठा संगम वहां की विशिष्ट प्राचीन देव-संस्कृति से हुआ था। यहां यह ध्यातव्य रहे कि देव-संस्कृति हिंदू धर्म का पर्याय नहीं है, बल्कि हिमालय के इस इलाके की विशिष्ठ संस्कृति है।

जून, 2018 में मैंने सपरिवार किन्नाैर और लाहौल-स्पीति की यात्रा की। लगभग 20 दिनों की इस यात्रा के इस दौरान हमने पाया कि हिंदूवादी संस्कृति सब कुछ लीलती जा रही है। दरअसल हिंदूवाद और पश्चिमी संस्कृति का एक अजीब संगम कन्याकुमारी से लेकर इन ऊंची पर्वत शृंखलाओं तक फैल रहा है।

किन्नौर-लाहौल-स्पीति यात्रा के दौरान हमने दर्जनों लोगों से लंबी गपशप की। इनमें से एक थे किन्नौर के करला गांव के अमीर लामा15 जून की सुबह हम वास्पा घाटी के  छितकुल गांव से कानम जाने के लिए चले थे। लेकिन रमणीय स्थलों पर समय बिताते हुए चलने के कारण शाम गहरी हो गई और हम रास्ता भटक गए। मैदानी लोगों के लिए इन दुर्गम पहाडों में देर रात कार ड्राइव करना मौत को दावत देने के समान है। गनीमत थी कि हमारे फोन चल रहे थे और हम किसी प्रकार दिल्ली युनिवर्सिर्टी में बौद्ध धर्म पर शोध कर रहे लकी नेगी से संपर्क करने में सफल रहे। उनका घर उसी इलाके के एक छोटे से गांव करला में था,। उन्होंने फोन से ही हमारा संपर्क अपने पिता अमीर लामा से करवाया। हम देर रात हांफते-भयभीत करला पहुंचे। उस रात की कहानी अन्यत्र लिखूंगा। बहरहाल, करला स्थित प्राचीन धरोहरों को समेटे उनके पैतृक घर और स्पीलो स्थित उनके गेस्ट हाऊस में हमने दो दिन बिताए।

बौद्ध धर्म के अनुयायी अमीर लामा तीन भाई और पांच बहनें हैं। पिता शरब होज़ेर गांव के सांगोपांग लामा एवं क्षेत्र के चर्चित व्यक्ति थे। यह परिवार किन्नौर की बहु-पति प्रथा का पालन करता रहा है। अमीर लामा व उनके एक बड़े भाई की भी साझा पत्नी धर्म जङमो हैं तथा साझा विवाह से उनके चार बच्चे हैं। इनके छोटे भाई गृहस्थ जीवन से दूर हैं तथा बौद्ध भिक्षुक बन गए हैं। यह परिवार मध्य-हिमालय की प्राचीन परंपराओं व अनूठे स्थापत्य व कलाओं का भी वारिस है। स्वयं उनके घर में अनेक ऐसी बौद्ध-चित्राकृतियां व अन्य कलाकृतियां हैं, जिनकी उम्र संभवत: एक हजार वर्ष से अधिक की है।

अमीर लामा स्थानीय स्तर पर सामाजिक और राजनीति रूप से सक्रिय हैं, लेकिन उनकी बातचीत में उस धूर्तता का अभाव है, जो प्राय: मैदानी इलाकों के समाजकर्मियों में होती है। उनकी इस बातचीत से किन्नौर के समाज में व्याप्त जाति-प्रथा, छुआछूत का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी बात सामने आती है कि सामाजिक श्रेणीक्रम, अंधविश्वास और कर्मकांडों ने पारंपरिक बौद्ध धर्म की भी क्या गत बनाई है। हालांकि, यह देखना सुखद है कि आर्थिक संपन्नता और अर्थ-निर्भरता बढ़ी है, जिससे सामाजिक भेदभाव कम हो रहे हैं।

अमीर लामा से यह बातचीत मैंने अपने मोबाइल कैमरे से रिकॉर्ड की थी, जिसे सहकर्मी प्रेम बरेलवी ने लिप्यांतरित किया है तथा नवल किशोर कुमार ने सुपाठ्य बनाने के लिए संपादित किया है। दोनों का आभार!- प्रमोद रंजन, प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस


अमीर लामा से बातचीत (भाग-1)

  • एफपी टीम की भारत यात्रा

 

प्रमोद रंजन : आपका नाम क्या है?

अमीर लामा : मेरा नाम अमीर लामा है, जो मेरी माता जी ने रखा था। हालांकि, यहां बाहर से जो अध्यापक नियुक्त होकर आते हैं, वो यहां के लोगों के नामों का उच्चारण नहीं कर पाते हैं और अपनी सुविधा के लिए हमसे से अधिकांश का नाम बदल देते हैं। जैसे किसी का नाम शिवङ है, तो कोई (बाहरी अध्यापक) शिवा बना देगा, कोई शिवम बना देगा। कइयों के नाम इस तरह से बदल दिए गए हैं।

प्र. रं. : मैंने एक किताब पढ़ी कृष्णनाथ की। वे 1967 में किन्नौर आए थे। उन्होंने इस पर विस्तार से लिखा है कि किन्नौर के अनेक लोगों ने उनसे शिकायत किया कि  निचले इलाके में रहने वाले लोग अपनी जुबान (भाषा) नहीं बदल सकते; हमारा नाम बदल देते हैं।

अ. ला. : हां जी, हां जी; (जोर से हँसते हैं…)

प्र. रं. : आप लामा (बौद्धों के धार्मिक गुरु) हैं?

अ. ला. : हम राजपूत हैं।

प्र. रं. :क्या यहां राजपूतों को  ‘नेगी’ भी कहते हैं? इस इलाके के समाज के बारे में बताएं।

अ. ला. : देखिए, सबसे पहले तो मैं आपको बताऊं कि मेरे इस गांव का नाम करला है, जो किन्नौर जिले के पूह तहसील में पड़ता है। यहां हरिजन और राजपूत; – दाे ही जातियां हैं। राजपूत नेगी होते हैं। हालांकि, अब तो सब लोगों ने नेगी लिखना शुरू कर दिया है। चाहे लाेअर कास्ट के हैं, चाहे अपर कास्ट के, सब नेगी लिख रहे हैं।

अमीर लामा

प्र. रं. : आपको हरिजन नहीं दलित बोलना चाहिए। हरिजन शब्द एक बडी आबादी के लिए अपमानक है। वैसे, राजपूत जाति तो मैदानी इलाकों में होती है। किन्नौरी भाषा में कोई अलग नाम होगा न! वह नाम क्या है?

अ. ला. : हम लोगों की जाति कुंडस है। चमार जाति के लोगों को हम लोग बहरू बोलते हैं। जबकि अपनी भाषा में उन्हें चमङ (उच्चारण चमंग्) बोलते हैं।

प्र. रं. : अपने गांव करला के बारे में बताएं।

अ. ला. : इस इलाके की आबादी करीब 600 है। हालांकि मेरे गांव करला में कुल 16 घर हैं और आबादी करीब 80 है। किन्नौर के बारे में आप जानते होंगे कि हमारे जिले में कोई बाहरी आदमी जमीन नहीं ले सकता। यह बस नहीं सकता। जो यहां के स्थानीय निवासी हैं, वे आपस में तो खरीद-बेच सकते हैं। लेकिन, जमीन है ही नहीं। आजकल कोई अपनी जमीन बेचने को तैयार ही नहीं हाेता। जैसे मुझे कोई एक कराेड़ रुपए दे, तो भी मैं अपनी जमीन नहीं दूंगा। कौन देगा जमीन? आज इसकी वैल्यू है। वैसे भी हमारे गांव में अब जमीन बची ही नहीं है और गांव के बाहर घर बनाने लायक जमीन भी नहीं है। हमारे गांव में पानी की समस्या है। आज अगर हमारे गांव में पानी की सुविधा हो जाए, तो वैल्यू और बढ़ जाए। पानी की कमी के बावजूद हमारे यहां बहुत कुछ होता है। आलू, मटर, और भी सब्जियां; जो भी चाहें उगता है यहां। सब्जियों की यहां बहुत अच्छी कीमत मिलती है।

(इस बीच अमीर लामा एक तस्वीर दिखाते हैं.) यह नेगी लामा जी हैं। वे मूलत: रोपा वेली के सुन्नम गांव के रहने वाले थे, जिसे सुमनाम भी कहते हैं। यह मूलत: फुआल (पालस) थे।  

करला गांव

प्र. रं. : फुआल कोई जाति होती है?

अ. ला. : नहीं, नहीं; फुआल मैं भी हो सकता हूं। फुआल बोलते हैं- भेड़-बकरी चराने वालों को। फुआल कोई जाति नहीं होती। जो कोई भी व्यक्ति भेड़-बकरी चराता है, वह फुआल कहलाता है। यह एक पेशा है। यहां हम सबके घरों में भेड़-बकरी होती ही होती हैं। घर का जो सदस्य भेड़-बकरी चराने जाएगा, उसको फुआल बोलते हैं। भेड़-बकरियों को आम आदमी नहीं चरा सकता। उसको उसका रूट (रास्ता, जिससे होकर भेड़-बकरियां घास के मैदानों में पहुंचती हैं) नहीं मालूम। तो यह (नेगी लामा) फुआल थे। इन्होंने पाप भी काफी किए। क्योंकि भेड़-बकरियों को खिलाना-पिलाना फिर उनको काट देना; उनका मांस खाना भी एक पाप है। एक दिन उन्हें अचानक विचार आया कि मैं यह क्या काम कर रहा हूं? इनको मैं पकड़कर ले जाता हूं। खिलाता-पिलाता हूं। तो क्या मेरा इन पर इतना अधिकार हो गया  कि मैं इनकी हत्या भी कर सकता हूं? ये भेड़-बकरियां बात नहीं कर सकते, समझ ताे सकते हैं। हमारी काेई उंगली भी काटे, तो कितना दर्द होता है। हम रोते हैं। कोई मरता है, तो रोते हैं। इन बेचारों के लिए काेई रोने वाला नहीं है। यह तो गलत बात है।

नेगी लामा (1894-1977) : तिब्बती के विद्वान लेखक और बौद्ध धर्म के प्रचारक। संस्कृत भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ थी

वे घर-बार छोड़कर के काशी चले गए। काशी में जाकर के उन्होंने गंगा के किनारे तपस्या की। तपस्या करने के बाद जगह-जगह जाकर धर्म की शिक्षा देने लगे। जाे आज के दलाई लामा जी हैं, इनके शिष्य हैं। बुद्धिज्म समाज में हम लोगों को खूनूपा बोला जाता हैं। वैसे खूनू किन्नौर को बोलते हैं। तिब्बती लोग हमें खुनूपा बोलते हैं। हमें जाे इतनी इज्जत मिलती है, मात्र इनकी (नेगी लामा जी की) वजह से। तो आज की तारीख में इनका (नेगी लाम जी का) जन्म (पुर्नजन्म) हुआ है- डेनमार्क में।

प्र. रं. : ऐसा क्यों? विद्वान थे इसलिए? लोग इस विश्वास कैसे करते हैं?

अ. ला. : विद्वान थे; हां जी। विद्वान होने की वजह से इनका पुनर्जन्म हुआ है। तो बचपन में यह तोतला करके बोलते थे। दरअसल आज बड़े-बड़े लामा यह सब करते हैं। जिन्हें लामा बनाया जाना तय किया गया होता है, उनको वे अपने मठों में ले जाते हैं- वहां हजारों की संख्या में कुर्सियां लगी हाेती हैं। लामा बनने पर पैसा, खाना-पीना, इज्जत सब मिलता है। मैं भी अपने लड़के को लामा बना सकता हूं; यह कहकर कि यह भी लामा है।  इसमें होता यह है कि हमें अपनी सीट को पहचानना पड़ता है। वाे दरवाजे के अंदर छोड़ेंगे, उसके बाद वह अपनी सीट पर बैठेगा। सीट पर बैठने के बाद वह पुराने सामान को पकड़ेगा; उस टेबल पर जो है। जैसे- मेरी अंगूठी है, इसी के साथ दूसरी अंगूठी भी रखी जाएगी; ताे उसे अंगूठी (नई अंगूठी) को साइड करना पड़ेगा। जो यह सब पहचान पाएगा; (यानी) पिछले जन्म का उनको सब कुछ ज्ञान होगा। इसी तरह से जब इनको (नेगी लामा जी काे) इनके गांव सुन्नम में लाया गया; ताे नए गेट को छोड़कर ये पुराने गेट से गांव में गए। उसके बाद जो नाग देवता हैं, उस नाग देवता की पूजा की। पूजा करके अपने उनके जो-जाे पुराने दोस्त थे, उनके पास जाकर उनसे मिले, गले लगाया। जबकि, उस समय तुतलाकर बात करते थे। लेकिन, इस तरह करके इन्होंने चमत्कार दिखाया।

लामा (बौद्ध भिक्षु)

प्र. रं. : इन्होंने किताबें भी लिखी हैं? कुछ किताबों के नाम याद हैं आपको?

अ. ला. : इन्होंने तिब्बती भाषा (तिब्बतन) में बौद्ध धर्म पर कई किताबें भी लिखी हैं। किताबों के नाम याद नहीं… धम्म पद भी उन्हीं का है।

प्र. रं. : क्या यहां के लोग तिब्बती भाषा समझते हैं? क्या यहां स्कूलों में तिब्बती पढाई जाती है?

अ. ला. : हां, तिब्बती भाषा कुछ लोग समझते हैं। जिस तरह से हिंदू धर्म पुराण वगैरह ये सब संस्कृत में हैं। उसी तरह हमारी सभी किताबें तिब्बती भाषा में हैं। मुझे यह भाषा आती है। लेकिन आम आदमी नहीं जानते। वे धर्म ग्रंथ नहीं पढ़ सकते हैं। हमारे लोग तिब्बती बोलते भी नहीं हैं, समझते भी नहीं हैं। बौद्ध मठों में जाकर इसका अध्ययन करना पड़ता है। जैसे मेरे पिताजी हैं, वे काफी विद्वान हैं, तिब्बती पढ़कर आए हैं। वे  गांव में कई लोगों को तिब्बती सिखा रहे हैं। यहां स्कूलों में भी तिब्बती नहीं पढ़ाई जाती है। अभी हम लोग शुरू करवाने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले दिनों जब मैं अपनी पार्टी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का जिलाध्यक्ष बना तो मैंने पार्टी और सरकारी महकमों की बैठकों में प्रस्ताव रखा कि हर शिक्षण संस्थान में पढ़ाई की एक भाषा तिब्बती होनी चाहिए। अभी तो स्कूलों में सिर्फ हिंदी और इंग्लिश पढ़ाई जाती हैं। किन्नौरवासियों की अपनी कोई भाषा नहीं है। हमारी बोली है। उसे किन्नौरी कहते हैं।

प्र. रं. : यहां ऐसे लोग हैं, जो तिब्बती भाषा बोलते हों?

अ. ला. : हां, काफी लोग हैं। वे मंत्र जपना, मणि (माला) फेरना आदि करते हैं। यह तो हर आदमी कुछ न कुछ तिब्बती भाषा में बोलता ही बोलता है। जैसे जब कोई मंदिर जाता है तब। यहां तक कि रात में चलने पर डर लग रहा है तो लोग- ‘ॐ तारे तुत्तारे तुरे स्वाहा ताराधारणी’ बोलते हैं। यह मंजूश्री का मंत्र है। यह मंत्र पढ़ने से जिसको बच्चा नहीं होता, उसको बच्चा होता है। जिसको धन की प्राप्ति नहीं होती है, उसको धन की प्राप्ति होती है। कहीं भूत-प्रेत हो, तो भूत-प्रेत भी भाग जाता है। स्वर्ग का रास्ता भी ये मंजूश्री ही दिखाते हैं।

प्र. रं. : किन्नौर का एक आम आदमी या परिवार दिन में किस तरह से पूजा-पाठ करता है? रोज पाठ करता है, या नहीं करता है?

अ. ला. : रोज तो करते ही करते हैं। सुबह की पोथी होती है, वह पढ़नी-ही-पढ़नी पड़ती है।

प्र. रं. :  लेकिन सामान्य लोगोे को तो तिब्बती आती नहीं है, पढ़ेंगे कैसे?

अ. ला. : जैसे हिंदुओं में कुछ मंत्र होते हैं। जैसे- राम-राम बोलना होता है, तो आम आदमी राम राम नहीं पढ़ सकता है। सुबह उठता है, तो विचार करता है। क्या सोचता है? पैसे के लिए सोचता है। इसी तरह हमारे धर्म में भी आम आदमी ऐसा नहीं है। जैसे मेरे परिवार में ही मेरे पिताजी हैं, मैं हूं, मेरी लड़की है; ताे हम दो-चार लोग वह पूजा-पाठ करते हैं। बाकी फैमिली के लाेग नहीं करते।

प्र. रं. : अभी आपने जो माला पहनी हुई है, उससे कौन-से मंत्र जपते हैं?

अ. ला. : कई तरह के मंत्र जपता रहता हूं मैं… ‘ॐ भद्रा पनि हया गृपा गरूड हुङ फट’, ‘ॐ मणिपद्मे हूं अरपचन हृदयमंत्र’, ‘ॐ अरपचन धीः मञ्जुघोष अरपचन हृदयमंत्र’, ‘ॐ तारे तुत्तारे तुरे स्वाहा ताराधारणी’,  ‘लामा ला क्यबसू छे, सङज्ञस ला क्यूबसु छे’, ‘छोई ला क्यूबसु छे’, ‘गेदुन ला क्यबसु छे…’ मतलब ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मं शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि’। इस तरह के कई मंत्र हैं।

प्र. रं. :  यह जो अंगूठी पहनी है आपने, इसे क्या बोलते हैं?

अ. ला. : यह गुरु पद्म संभव जी के रूप में है। हमारे यहां इसे दोरजे बोलते हैं।

प्र. रं. : बौद्ध धर्म में भी ग्रहों को मानते हैं? यह तो किसी ग्रंथ में नहीं है।

अ. ला. : नहीं! नहीं!! ग्रहों को नहीं मानते।

प्र. रं. : जो नीचे (मैदानी इलाकों में) बौद्ध धर्म है, जैसे- राजगीर और बोधगया में जो बौद्ध धर्म है और आपके इधर किन्नौर में बौद्ध धर्म है; उसमें क्या अंतर है?

अ. ला. : वो लोग हीनयान के हैं। हम लोग महायान के हैं।

प्र. रं. : क्या अंतर है हीनयान और महायान में?

अ. ला. : अंतर यही है कि वे लोग कर्मकांड को नहीं मानते, हम लोग मानते हैं।

प्र. रं. : आपकी नजर में कर्मकांड अच्छा है?

अ. ला. : हम लोग कर्मकांड करते हैं। कर्मकांड अच्छा है, करना चाहिए। हालांकि कई बार हम भी दुविधा में पड़ जाते हैं। लेकिन एक बात तो है कि गृहस्थ जीवन में रहने पर कर्मकांड से कई बार हम लोगों को सुख मिलता है। तो इसलिए हम सोचते हैं कि मानना चाहिए। लेकिन जिस तरह मेरे गुरू जी कहते हैं, उस हिसाब से हमारे धर्म में कर्मकांड को बिलकुल नहीं माना गया है।

प्र. रं. : आपके गुरु जी के हिसाब से?

अ. ला. : हां, मेरे गुरु जी के मुताबिक तो कर्मकांड को मानना ही नहीं है। उनके हिसाब से तो मैं जो यह माला से मंत्र जपता हूं; यह भी नहीं करना चाहिए। उसमें तो यह है कि आप मेडिटेशन करते जाओ और वर्तमान में जीओ। खाना खा रहे हो, तब यह कि मैं खाना खा रहा हूं, तब क्या आपके दिल में संवेदना हो रही है; उस संवेदना को देखकर महसूस करो। और अनित्य का बोध करो और जीओ।

प्र. रं. : डॉ. आंबेडकर ने जो धर्म परिवर्तन किया, उसको किस तरह देखते हैं आप? क्योंकि जब उन्होंने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, उसके बाद तो भारत में  बड़ी संख्या में लोग बौद्ध बने हैं। अभी भी दलित, ओबीसी तबकों के लोग बौद्ध बन रहे हैं। इस पर आप क्या कहेंगे?

अ. ला. : कुछ छुआछूत की वजह से भी लोग उसमें आए हैं। मैं तो मैं यह समझता हूं कि छुआछूत की वजह से ही उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया। दूसरी, उनको भगवान बुद्ध की शिक्षाएं अच्छी लगी हाेंगी। क्योंकि, उन्होंने (भगवान बुद्ध ने) जबरदस्ती कहीं भी नहीं की है। भगवान बुद्ध ने कहा है कि एक बार देखो, सोचो, परखाे उसके बाद ही तुम मेरे रास्ते पर चलो। ताे जो पीछे से जुड़े हैं; ये चीजें भी शायद उनको अच्छी लगी होंगी। तो मैं ताे यही समझता हूं कि जो अनपढ़ आदमी टूट रहा है; ताे इसका मुख्य कारण दलितों को यही लगा हाेगा कि हर धर्म में छुआछूत है, पर यहां (बौद्ध धर्म में) तो कोई छुआछूत नहीं है। मंदिर में आप खुलेआम जा सकते हैं; कोई रोक-टोक नहीं है। यहां पर (किन्नौर में) छुआछूत की बात करें, तो मैं ताे यही कहूंगा कि यहां निचार बेल्ट (क्षेत्र), सांगला घाटी में या कुछ और जगहाें पर आज ऐसा है कि जो चमार होंगे- आज ताे उन्हें चमार बाेलने का भी नहीं है। किसी ने उनका नाम रखा है कबीर तो, किसी ने कहा है- हरिजन। इस तरह जाे भी है; -ताे वे लाेग जाे हैं, मकान को भी छू नहीं सकते हैं। निचार बेल्ट या सांगला  घाटी में या और जगह भी हैं; वहां तो ऐसा है कि सीढ़ियों से चढ़ना तो छोड़ो, मकान को छू भी नहीं सकते। ताे उनलोगों को देवी-देवताओं के पूर्व कार्यक्रम में भी उनको दूर बैठकर के बजंतरी (संगीत के वादन यंत्र) बजाने पड़ते हैं। ताे बाैद्ध धर्म में ऐसा कुछ नहीं है। बौद्ध धर्म के लोग तो साथ ही बिठाएंगे, खाएंगे-पीएंगे।

प्र. रं. : यही हालत तो इन ऊपरी इलाकों में भी है?

अ. ला. : यहां, जहां पर कट्टर (सच्चे) बुद्धिस्ट हैं; वहां ऐसी हालत नहीं है। जैसे यहां से पूह से ऊपर जाएंगे, वहां पर दलित आपके घर में आएंगे; साथ बैठेंगे। ये कुरीतियां हमारे यहां भी हैं। लेकिन, हमारे यहां उतनी ज्यादा नहीं है कि मकान को छू नहीं सकते। मकान से ऊपर नहीं आ सकते। खा-पी नहीं सकते। हां, बर्तन उनके अलग रखते हैं। (… इशारा करते हुए) यहां पर जो गिलास पड़े हैं अंदर, ताे यह सब उन्हीं (दलितों) के हैं।

प्र. रं. : ये गिलास अलग रखते हैं आप?

अ. ला. : हां, उनको अलग रखते हैं। शामिल नहीं करते हैं। वाे लोग यहां आएंगे। मकान में जहां हम रहते हैं, वहां भी आएंगे घर में; बाहर भी बैठेंगे। लेकिन, निचार में और अल्फा में क्या है कि वाे लाेग जाे पौड़ी (सीढ़ी) लगी होती है; पौड़ी से ऊपर नहीं आ सकते।

प्र. रं. : आप लोग इसको खत्म क्यों नहीं करते?

अ. ला. :  मैं तो कर रहा हूं।

प्र. रं. : अच्छा आप कर रहे हैं, तो इसका विरोध भी होता होगा समाज में?

अ. ला. : हां, समाज में विरोध होता है। जब मैं जब चुनाव जीतकर प्रधान बना, ताे मुझे हरिजनों का प्रधान कहा गया। मैंने छुआछूत को खत्म करके… मेरा तो एक मकसद यह था कि… हम राजनीति में हैं, चाहे भाजपा आए या कांग्रेस आए -जाे हम सक्षम लोग हैं; हमारे को काम निकालने में कोई टेंशन नहीं है। हम अपना काम निकाल लेंगे- चाहे नाते-रिश्ते की वजह से या पहुंच की वजह से। लेकिन, बेचारा गरीब आदमी ऐसा हाेता है कि (अगर उसने) कांग्रेस काे पकड़ा और भाजपा का राज आया, तो भाजपा वाले उसे तंग करेंगे। अगर भाजपा को पकड़कर बैठा है और कांग्रेस का राज आएगा, ताे कांग्रेस वाले तंग करेंगे। बेचारे बड़े तंग हाेते हैं। ब्यूराेक्रेसी में उनकी पकड़ नहीं हाेती। ताे मैं जब प्रधान बना, ताे उनकी मदद की। पहले हाउसिंग सब्सिडी जीवन में एक बार मिलती थी। मैंने उनको तीन-तीन बार हाउसिंग सब्सिडी दिलाई। मैंने कहा कि वे भी हमारे बराबर पहुंचें। उनका मकान तो ठीक हो! तो इस तरह से हमने किया उनके लिए।

प्र. रं. : एक चीज मैंने महसूस की। हलांकि यहां मुझे दिशाओं का भान ठीक से नहीं हो रहा।  वह जो गांव था कानम, वहां मैं दलित बस्ती में गया। क्या दक्षिण की तरफ है वह? मैं जानना चाह रहा हूं कि उत्तर भारत में दलित बस्तियां प्राय: दक्षिण में होती हैं। कानम गांव है ऊपर की तरफ, नीचे दलित बस्ती है। तो क्या यहां भी दलित बस्तियां दक्षिण की तरफ होती हैं?

अ. ला. : कानम में जो दलित बसे हैं, वह पूरब साइड में है। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है कि दक्षिण में ही दलित को बसाना है। जहां जगह है, बसे हैं। हमारे यहां पर पूरब-पश्चिम-दक्षिण का कोई रोल नहीं है। कानम में तो मैं आपको इतना तक बता दूं कि जहां पर अपर कास्ट के लोग हैं, तो उन्हीं के बीच में अब कुछ दलितों के घर भी हैं। इसमें भी दलितों में दो प्रकार के दलित हैं। एक कारपेंटर टाइप के हैं, उनको भी हम दलित मानते हैं। एक जो आपके जुलाहा, जिन्हें यहां हम चमङ बोलते हैं।

प्र. रं. : जो कारपेंटर है, लोहार और बढ़ई हैं; वे ओबीसी में आते हैं?

अ. ला. : हां, ओबीसी में आते हैं।

प्र. रं. : और चमङ जो हैं, वो अनुसूचित जाति में आते हैं?

अ. ला. : मैंने बोला कि हमारे यहां सामाजिक रूप से एक ही हैं। लेकिन, वह लोग आपस में एक-दूसरे के घर का खाना तक नहीं खाते हैं। बुनकर के यहां लोहार नहीं खाते; लोहार के यहां बुनकर नहीं खाते हैं। बुनकर बोलते हैं कि लोहार जाति हमारे से छोटी जाति है; और जो लोहार है, वह उनको छोटा बोलता है।  

प्र. रं. : अच्छा उनको छोटा बोलते हैं? लोहार और बढ़ई एक-दूसरे का खाना खाते हैं?

अ. ला. : हां, वो लोग तो खा लेते हैं। चमङ (जुलाहा या बुनकर) और लोहार नहीं खाते हैं एक-दूसरे के यहां। लोहार और बढ़ई जो हैं, वे आपस में एक-दूसरे को एक मानते हैं।

प्र. रं. : नेपालियों के बारे में बताइए; नेपाली लोग इतनी बड़ी संख्या में यहां कैसे आए? दूसरा सवाल यह कि मुझे लोगों ने बताया कि जबसे यहां समृद्धि बढ़ी है, पैसा बढ़ा है। जो लोकल लोग हैं, उन्होंने काम करना बंद कर दिया। वहीं, आपका गांव हो, चाहे दूसरा गांव, यहां गांवों की गलियां पूरी तरह सुनसान रहती हैं; कोई भी आदमी नहीं दिखता है; कहीं से कहीं तक। नेपाली भी नहीं दिखते। एक चीज मैंने यह गौर की कि जो राजपूतों का इलाका है, वहां नेपाली बड़ी संख्या में हैं। लेकिन, जो दलितों का इलाका है, वहां कोई नहीं दिखता। तो यह क्या है?

अ. ला. : नेपालियों के आने का कारण तो यही है। पहले तो हम लोग जो हैं बिलासपुर मंडी में काम करने जाते थे। तब यहां रोड नहीं था। सेब के बाग नहीं थे। बादाम नहीं होते थे। इनकम का सोर्स नहीं था। तब तो हम लोग नीचे जाते थे। बादाम और सेब थे, नीचे की ओर होते थे, कम होते थे और वो बिकते नहीं थे। आज भी नेपाल में मैंने देखा कि झुमला वैली में जो है, हमारे जैसा ही सब होता है। रोड नहीं होने की वजह से वहां के लोग ज्यादा मजदूरी के लिए यहां आते हैं, वे बड़े मेहनती हैं। पैदल जाना पड़ता है… जाते हैं। यहां भी बहुत अच्छा काम करते हैं। तो हम लोग भी उनकी तरह जाते थे। मगर, आज सक्षम हो गए हैं हम लोग; तो काम करना हमने छोड़ दिया है। इस तरह नेपाली यहां बड़ी संख्या में आने लगे। गलियां सुनसान रहने का कारण यह है कि हम लोग भी 24 घंटे व्यस्त रहते हैं। काम में मजदूर लगे होते हैं, तो मजदूरों के पीछे जाना पड़ता है; काम करना पड़ता है। काम नहीं करते हैं, तो क्या मजदूर के साथ में रहते हैं। काम कराते हैं। किसानी का काम तो करते ही करते हैं। पढ़ाई के लिए ज्यादातर बच्चे जो हैं, बाहर भी हैं।

प्र. रं. : बिहारी लोग भी मजदूरी करने आते हैं यहां? क्या वे लोग काम कर पाते हैं, पहाड़ों में?

अ. ला. : बिहारी आते हैं। वो लोग बिल्डिंग वगैरह में काम कर लेते हैं। खेतों में नेपाली काम करते हैं।

प्र. रं. : जो किन्नौर के स्थानीय दलित लोग हैं, वे भी नेपालियों को काम करवाने के लिए रखते हैं या खुद काम करते हैं?

अ. ला. : जो सक्षम हैं, वे नेपालियों को रखते हैं; जो सक्षम नहीं हैं, वे खुद काम करते हैं। कई दलित तो ऐसे हैं, जैसे एक हार्डवेयर वाला है, दलित समाज से आता है। मगर, उसके पास इतना पैसा है कि घर बैठे काम करता है। सरकारी नौकरी में था। उसके पास तीन-चार गाड़ियां हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो सक्षम हैं। वे भी नेपालियों को मजदूरी और नौकरी पर रखते हैं।

प्र. रं. : राजपूतों में लगभग सभी लोग नेपालियों को नौकरी पर रखते हैं?

अ. ला. : नहीं, ऐसा नहीं है। राजपूतों में भी सब एक बराबर के नहीं हैं। कुछ गरीब भी हैं, जो लेबर नहीं रख सकते हैं। लेकिन, थोड़े कम हैं। कुछ हमारी जाति के लोग हैं, जो मजदूरी भी करते हैं। जैसे हमारे पड़ोसी हैं, वे लोग हमारे यहां काम करने आते हैं। यानी सारे सक्षम नहीं है।

प्र. रं. : अच्छा, अब यह बताएं कि यहां ये जो छोटे-बड़े बौद्ध स्तूप बने हैं, इनका क्या महत्व है?

अ. ला. : यह लंबी उम्र जीने के लिए बनाए जाते हैं। (एक बड़े स्तूप की ओर इशारा करते हुए) यह बड़ा वाला हमारे परिवार का है और छोटे-छोटे जो हैं, वे दूसरे गांव वालों के हैं।

प्र. रं. : तो यह क्या अलग-अलग घर के होते हैं? मतलब अलग-अलग घराें के बनाए हुए होते हैं? क्या इसमें कुछ होता है अंदर?

अ. ला. : हां, होते भी हैं। कुछ के सम्मिलत होते हैं। इसके अंदर पोथी, सोना-चांदी होता है। जो जितना सक्षम होता है, उतना बड़ा स्तूप बनाता है और उतना ही रखता है, इसके अंदर। मेरे घर वाले ज्यादा सक्षम रहे होंगे, तो मेरे घर वालों ने बड़ा स्तूप बनाया हुआ है। तो स्तूप बनाने के बाद हमारे लोग काफी लंबी आयु जीने लगे, पहले बहुत कम उम्र तक जीते थे।

प्र. रं. : यह कितने साल पहले की बात होगी? क्या यहां पूजा भी होती है?

अ. ला. : इसकी कोई हिस्ट्री तो है नहीं, हजारों साल का है। गुरु लोग बताते हैं कि बहुत पुराना है। यह (एक बड़े स्तूप पर हाथ रखते हुए) सौ साल से भी ऊपर का है। हां, यहां पूजा भी होती है। पूर्णमासी के दिन दीपक जलाना है; वह करते रहते हैं। सब लोग हर पूर्णमासी को दीपक जलाते हैं।

प्र. रं. : बौद्ध मंदिर को यहां क्या कहते हैं?

अ. ला. : गोनपा कहते हैं।

गोनपा (एक बौद्ध मंदिर)

प्र. रं. : ये जो जोमो मंदिर हैं, वो भी गोनपा कहलाएंगे या कुछ और?

अ. ला. : गोनपा ही कहलाते हैं। महिलाओं वाले को जोमो गोनपा कहते हैं।

जोमो (बौद्ध भिक्षुणी)

प्र. रं. : आपका वाला (स्तूप) है, उसको क्या बोलते हैं? क्या अंतर है दोनों में?

अ. ला. : उसको छोक्कन कहते हैं। अंतर यह है कि हमारा पर्टिकुलर (निजी) है। बाकी लोगों के सामूहिक हैं।

प्र. रं. : और एक जो घूमने वाला होता है, उसको क्या बोलते हैं?

अ. ला. : उसको दुङज्ञुर बोलते हैं। वह सामूहिक हो या निजी, उसे दुङज्ञुर ही बोलते हैं।

प्र. रं. : और भी आपके गांव में मंदिर है, जो स्तूप के जैसे हैं। उन्हें क्या बोलते हैं?

अ. ला. : उन्हें छोक्कन बोलते हैं।

प्र. रं. : उसका क्या उपयोग होता है?

अ. ला. : वह अच्छाई के लिए बनाया होता है। आदमी के मरने के बाद उसका अच्छा हो। कोई क्रिया-कर्म नहीं कर पाए, कुछ न कर पाए। तो वह जो है, उसी स्थिति में बनाया जाता है। इसमें एक तो आदमी मरने के बाद बनाया जाता है, जिसमें उसके हाथ की अंगूठी और कड़े आदि के अलावा उसके द्वारा उपयोग में लाया जाने वाला कोई अच्छा सामान उनको लगाकर बनाते हैं। और जो जीते-जी बनाया जाता है। वो भविष्य की अच्छाई के लिए बनाया जाता है।

अ. ला. : (अपने घर के इतिहास के बारे में बताते हुए अमीर लामा कहते हैं…)

हमारे यहां पहले एक मुख्य दरवाजा होता था घर का। उस दरवाजे को खोलते समय उसकी आवाज आठ किलोमीटर दूर तक सुनाई देती थी। एक दिन अचानक रात को आग लग गई। उस समय मकान में छोटी-सी एक खिड़की होती थी। इतनी छोटी कि उससे बाहर नहीं निकल सकते थे। रात को सभी परिवार वाले सोए हुए थे। आग कैसे लगी? मेरी परदादी जी एक रात को जागकर कुछ काम कर रही थीं। उसी समय आधी रात को घर में एक सांप प्रकट हुआ। सांप से दादी ने पूछा कि कौन है तू? अगर तू राक्षस है, तो मैं तुम्हें मार दूंगी; और अगर भगवान हो, तो आप यहां से चले जाओ, मैं आपको भेंट चढ़ाऊंगी। इतनी बात कहते ही वह सांप गायब हो गया। लेकिन, उसके जाते ही घर में आग लग गई। दादी आग देखकर घबरा गईं। अकेली इधर-उघर दौड़ने लगीं। तब दादी जी ने सोचा कि सब खत्म हो रहे हैं, तो उसने छत पर चढ़कर सबको बचाने के लिए शोर मचाया। लेकिन घर तो पूरा जल गया। सब लोग भी उसी में जलकर मर गए, केवल मेरे एक दादाजी बचे थे। क्योंकि, वे रामपुर (किन्नौर) में रहते थे। रामपुर में वह राजा साहब के पुजारी थे।

अपने परिवार के साथ अमीर लामा

प्र. रं. : यह कब की बात हैं?

अ. ला. : दादा के भी दादा के समय की बात है। इसकी हिस्ट्री हमारे यहां कहानी में चल रही है। इस पर गाने भी हैं। उनसे पता चलता है। उन गानों में ये सभी बातें मिलती हैं।

(लामा जी गाकर सुनाते हैं) ….

शु निमा मङशीरई शुना निमा ज़ा चीरई।

कोली गो होलो न यायियाला वे होलो न !

तुरिंदेन बिरीमा धनतो नया कुल्लाया  धनतो ते,

कुल्लाया कुल्ला लामा धनतो तो।

कुल्ला लाम बोलो रे….

प्र. रं. : ‘राजा साहब’ मतलब वे मौजूदा वे कांग्रेसी नेता और हिमाचल के मौजूदा मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के परिवार में पुजारी थे?

अ. ला. : हां, उनके परिवार में पुजारी थे। …तो उनको बिना बताए लोग (आग वाली घटना के बाद) लाए यहां तक। यहां सामने दार  (मोड़) है (एक तरफ इशारा करते हुए); उसी दार के पास पहुंचते समय उनको बताया गया कि आपके परिवार में सब जलकर मर गए, तो उन्होंने देखा कि यहां तो सब राख बना पड़ा है। तो वह बहुत रोए; उनको बड़ी मुश्किल से लोगों ने संभाला-समझाया। तो यह जो हमारा मकान है (एक पुराने मकान की ओर इशारा करके), यह गांव के लोगों ने श्रमदान करके बनवाया। …तो मेरे घर का जो नाग देवता है। वह चूरू बन गया। ( ज़ोफो यानी गाय और यॉक के प्रजनन से पैदा होता है, उसको चूरू बोलते हैं। बैल से जो बच्चा पैदा होता है, उसे तो बैल ही बोलते हैं।) तो चूरू बन करके भों-भों (रम्हाते हुए) करते हुए दूर तक भागा; और यहां से दूर जाकर नाग देवता काले रंग का चुरू बन करके पत्थर के बीच में मां और बेटे दोनों समा गए। वह निशान (पत्थर में) अभी भी बना हुआ है, सांप का।

चट्टान पर साँप (देवता) का निशान (माँ ऊपर, बेटा नीचे)

अच्छा, नाग देवता भी हमारे यहां दो प्रकार के होते हैं। एक होता है धन-दौलत देने वाला। एक होता है हमारे धन-दौलत को खत्म करने वाला। इस तरह से जो वहां छाप (निशान) है, वहां पर बच्चा जो है, वह नीचे है और मां ऊपर बनी हुई है, देखने लायक है। लोग यह भी बताते हैं कि मेरे दादा जी बहुत शक्तिशाली थे। ऐसा बोलते हैं कि रामपुर में देवी-देवता के साथ (उनका) प्रतिस्पर्धा (तंत्र-मंत्र की शक्ति का प्रदर्शन) हुई। प्रतिस्पर्धा में देवता बोले कि हम कांसे की थाली फेंकेंगे तो धूप को रोक देंगे।

प्र. रं. : देवता ने कहा?

अ. ला. : हां, देवता ने कहा। तो मेरे दादा जी गए हाेंगे वहां टाणा-वाणा (तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक) करने। हमारे भी देवी-देवताओं के साथ हमारे लामाओं का काफी कंपटीशन (तंत्र-मंत्र शक्ति प्रदर्शन) चलता है। देवी-देवता बोलते हैं कि हम बड़े हैं। लामा ताे अपने काे बड़ा बोलते नहीं। लोग भी अब इस तरह से नास्तिक हो गए हैं। अब देवी-देवता को ज्यादा मानते हैं। धर्म को कम मानते हैं।

प्र. रं. : आप कह रहे हैं कि देवी-देवता काे मानना एक तरह से नास्तिक हाे जाना है? आपका मानना है कि जाे नास्तिक हो जाते हैं, वे मूल धर्म को, सच्चे धर्म को नहीं मानते। कर्मकांड में उलझ जाते हैं?

अ. ला. : हां जी! हां जी!! …ताे वहां (रामपुर में) किसी काे काेढ़ जैसी काेई बीमारी हुई हाेगी। उसे कोई ठीक नहीं कर पा रहा था। मेरे दादा जी गए, ताे देवता ने बोला- तू मेरे गांव कैसे आया? तू इस तरह की बीमारी ठीक करने वाला कौन है? तू अपने आप काे बहुत बड़ा समझता है? तो दादा जी बाेले- मैं ताे बड़ा नहीं समझता। मैं ताे लोगों की सेवा कर रहा हूं। तो उनमें बहस हो गई।

प्र. रं. : किसमें? देवता और आपके दादा जी में?

अ. ला. : हां, देवता और मेरे दादा जी में। …बहस होते-होते देवता ने कहा कि तू बड़ी शक्ति दिखा रहा है। मैं कांसे की थाली फेंककर सूरज की किरण (धूप) को बंद कर सकता हूं। तू कर सकता है? तो दादाजी ने कहा कि आप बंद कर सकते हैं; ताे मैं भी कर सकता हूं। इसमें कौन-सी बड़ी बात है। ताे देवता बोला कि करके दिखा तू। तो मेरे दादाजी ने बोला कि पहले आप बंद करो। मगर, नीचे थाली जब नीचे आए, तो टूटनी नहीं चाहिए। तो देवता ने थाली फेंक दी। थाली फेंक दी, धूप को ताे बंद कर दी; लेकिन दाे मिनट बाद थाली नीचे आई, तो टूट गई। फिर मेरे दादाजी ने फेंकी, तो उन्होंने धूप काे ताे बंद कर ही दिया,और जब थाली नीचे आई, ताे उनके हाथ में आ गई। थाली नहीं टूटने की वजह से वह (देवता) हार गया। आज तक भी वहां देवता का माली उठने से पहले बाेलता है कि, ‘ऐती पछी करला लामा तो न आसे।’ इसका मतलब यह है कि यहां आस-पास करला लामा तो नहीं है। अगर किसी ने झूठ को भी बोल दिया, कि है; तो देवता का माली उठता ही नहीं है।

प्र. रं. : माली? माली क्या होता है?

अ. ला. : देवता का माली उसकाे बोलते हैं, जाे… जैसे देवता आपके शरीर में आ जाएगा। आपके शरीर में आकर के पूरी बातचीत करेगा वह।

प्र. रं. : अच्छा! जिसके शरीर में देवता आता है; वह माली?

अ. ला. : हां, वह माली होता है।

प्र. रं. : अभी यहां राजनीतिक हालात क्या हैं? यहां तो वीरभद्र सिंह का ज्यादा प्रभाव है?

अ. ला. : नहीं, जी नहीं; बेचारे वीरभद्र सिंह तो खत्म हो रहे हैं। जैसे हमारे यहां के टीएस नेगी जी थे। आज टीएस नेगी जी की वजह से हम बचे हैं। नहीं तो, आप सब लोग यहां आ करके, यहां के वासी होते और हम सब लोग चौकीदार होते। आज हम गर्व से जीते हैं, तो टी.एस. नेगी जी की वजह से।

प्र. रं. : क्या किया उन्होंने?

अ. ला. : किन्नौर में आज बाहर का आदमी कोई जगह नहीं ले सकता।

प्र. रं. : उन्होंने एवं कानून बनाया इस तरह का?

अ. ला. : हां जी, उन्होंने कानून बनाया।

प्र. रं. : सही बात है यह। नहीं तो बाहर वाले आकर सब कुछ कब्जा कर लेते और धीरे-धीरे स्थाई हो जाते?

अ. ला. :  हां जी, हां जी।

प्र. रं. : क्या नाम है उस कानून का? जिसके हिसाब से बाहर वाले यहां जमीन नहीं ले सकते?

एक्ट होगी कोई?

अ. ला. : नहीं, एक्ट तो वही है जी; मौजूदा कानून में एक यह भी जोड़ा गया कि किन्नौर की जमीन बाहर के लोग नहीं ले सकते।

प्र. रं. : टी.एस. नेगी जी क्या मंत्री रहे हैं?

अ. ला. : विधानसभा अध्यक्ष रहे हैं।

प्र. रं. : यह ठाकुर सैन सिंह क्या थे?

अ. ला. : ठाकुर सैन सिंह बहुत खोपड़ी (ज्ञानी) थे। उनके टाइम में मेरे पिताजी अकेले थे भाजपा में; यहां इस गांव से। तो लोग बहुत चिढ़ते थे मेरे पिता जी से। तो आज की तारीख में तो हमारे यहां से बहुत सारे लोग हैं, भाजपा में।

प्र. रं. : अभी कौन है विधानसभा में, कौन सी पार्टी है?  : कौन है इस समय एमएलए कौन है? और एमपी?

अ. ला. : कांग्रेस ही है।  जगत सिंह एमएलए हैं। एमपी भाजपा के हैं।

प्र. रं. : तो यहां से तो जड़ उखाड़ दी आप लोगों ने वीरभद्र सिंह की?

अ. ला. : हां जी। बेचारों का…!

प्र. रं. : हम लोग तो यही मानते थे कि किन्नौर उन्हीं का है?

अ. ला. : (अमीर लामा हंसकर…) टीएस नेगी जी ने बहुत काम किया, बहुत ज्यादा। उनके समय में काम करने का मजा ही कुछ और था।

प्र. रं. : कितने साल पहले उनका समय (कार्यकाल) था?

अ. ला. : 10 साल हो गए। हम उनके पास कोई काम कराने जाते थे, तो एकदम यस नहीं करते थे। बोलेंगे आप कहां से हैं? क्या हैं आप? उसके बाद कहेंगे- ठीक है, देखेंगे। उन दिनों फोन वगैरह तो होतो नहीं थे। फिर वह चिट्ठी लिखते थे; मेरे पिताजी को। चिट्ठी लिखते थे कि इस नाम का आदमी है आपके यहां? और वह किस पार्टी का है? तो जब हमारे पिता जी यहां से लिखकर भेजते थे कि हां जी, यह हमारा आदमी है, इसका काम करो। तब वह काम करते थे, उस आदमी का।

प्र. रं. : लेकिन आपकी पार्टी (भाजपा) तो यह मानती है कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का हिस्सा है। आप लोग कैसे देखते हैं इसे?

अ. ला. : हम लोग नहीं मानते हैं ऐसा। भाजपा बिलकुल मान रही है। आरएसएस वाले भी यही खेल फैला रहे हैं। लेकिन, जो एक्चुअल में बुद्धिस्ट लोग हैं, वे इस चीज को नहीं मानते।

प्र. रं. : वह है भी नहीं न, बौद्ध धर्म के विरोध में खड़ा है। उसकी संस्कृति अलग है।

अ. ला. : हां जी, हां जी; अलग हैं; दोनों की संस्कृति अलग है। जो मूल विचार हैं, उनमें जमीन-आसमान का अंतर है। भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाया।

प्र. रं. : हां मध्य मार्ग, समानता, समता ये सारे हैं इसमें।

अ. ला. : हिंदू तो सभी ऐसे ही बोलते हैं। अब मुझे जबसे जिला अध्यक्ष बना दिया है; तो मुझसे आरएसएस वाले बड़ा खार (दुश्मनी मानना) खाते हैं। मैं आरएसएस में जाने नहीं दे रहा हूं किन्नौरियों के। मैं बोला कि किन्नौरी हम जो भी हैं…। उस समय तो मुझे दिक्कत यह पड़ी कि हम (बौद्धिस्ट) अल्पसंख्यक में आ नहीं पा रहे हैं। कोई हिंदू बन रहा है, कोई क्रिश्चियन बन रहा है, कोई कुछ बन रहा है। तो हमारे किन्नौरियों को अपने धर्म के बारे में नहीं पता है। एक तो अधिकतर लोग बाहर से आकर टीचिंग लाइन (अध्यापन क्षेत्र) में गड़बड़ी कर रहे हैं। हमारे लोगों के नाम तक बदल दे रहे हैं।

(लिप्यांतरण : प्रेम बरेलवी, कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/नवल)

(क्रमश: जारी)
अगला खंड यहां पढें : किन्नौर में बहु-पति प्रथा : ‘मैं अपने दोनों बेटों को कहता हूं कि वे एक ही लड़की से विवाह करें’


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