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युद्ध और सत्ताधीशों के खेल पर एफपी राइटर्स ग्रुप में बहस

फारवर्ड प्रेस के राइटर्स ग्रुप में भारत पाक तनाव को लेकर अनेक भारतीय व विदेशी लेखक-बुद्धिजीवियों की टिप्पणियां आई हैं। एक विदेशी लेखक ने सवाल उठाया है कि क्या पुलवामा हमला भारतीय सत्ताधीशों द्वारा प्रायोजित था? बहस में मेधा पाटकर, आनंद पटवर्द्धन, विभूति नारायण राय, एलियस डेविडसन, फ्रांसिस ए. बॉयल समेत दर्जनों लोग शामिल हैं

भारत-पाक सीमा पर जारी तनाव पर कई प्रकार के विमर्श जारी हैं। नए तथ्यों की रोशनी में यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि हमारे देश की सत्ताधारी पार्टी ने कश्मीर में आतंकी हमले में मारे गए सीआरपीएफ के 40 जवानों की लाशों पर निम्न स्तर की राजनीति की है।

इन सबके बीच हमने फारवर्ड प्रेस में कई लेख प्रकाशित किए हैं। इसके अतिरिक्त इससे संबंधित चर्चाएं फारवर्ड प्रेस के आंतरिक ईमेल ग्रुप ( एफपी राइटर्स) में भी जारी हैं। ईमेल ग्रुप में जिन लोगों की प्रतिक्रियाएं आई हैं, उनमें से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अनेक प्रमुख भारतीय व विदेशी कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखक, फिल्मकार, प्राध्यापक आदि शामिल हैं। चर्चा के चुनिंदा अंशों को हम यह पाठकों के सामने रख रहे हैं।

चर्चा की शुरूआत
14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के फुलवामा में सीआरपीएफ के 40 जवान आतंकी हमले में मारे गए थे। 26 फरवरी की तडके सुबह भारतीय वायुसेना ने कथित तौर पर पाकिस्तान पर हमला किया। इस हमले की सूचना मीडिया के माध्यम से मिलते ही  फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने फारवर्ड प्रेस के ईमेल ग्रुप (एफपी राइटर्स) में शामिल लेखकों से इस पर प्रकाशनार्थ सामग्री शीघ्र भेजने का आग्रह किया। श्री रंजन ने  लिखा – “भारतीय वायु सेना द्वारा पाकिस्तान में घुस कर हमला किये जाने की सूचनाएं आ रही हैं। इस हमले में कथित तौर पर जैशे मोहम्मद के ठिकाने ध्वस्त किये गए हैं। हम फ़ारवर्ड प्रेस में इस घटनाक्रम का विश्लेषण यथाशीघ्र प्रकाशित करना चाहते हैं।…हमेशा की तरह हमारा रुख युद्ध विरोधी रहेगा। हम मानते हैं कि यह युद्धोन्माद भारत की सामाजिक रूप से वंचित समुदायों को राजनीतिक रूप से शोषित करने के लिए रचा जा रहा है। इसमें न भारत का भला है, न ही पाकिस्तान का।..”

इस ईमेल के बाद लोगों की विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं बहुत तेजी आईं और विमर्श में युद्ध के नुकसान, सत्ता प्रयोजित युद्धोन्माद, मुंबई हमले की हकीकत, भारतीय सुरक्षा तंत्र और राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता समेत अनेक विषय जुडते गए।

लीना कनाल और विमल कुमार की चिंताएं

बुंदेलखंड स्नातकोत्तर महाविद्यालय, झाँसी में अंग्रेजी की पूर्व विभागाध्यक्ष लीना कनल ने ईमेल ग्रुप में कहा कि – “युद्ध अच्छा नहीं है लेकिन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने हमारे सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा है। पिछले कुछ दशकों से वे हमारे लोगों पर हमला बोलते रहे हैं। पुलवामा आतंकी हमले को हमारे देश की पीठ में घोंपा गया अंतिम खंजर माना जाना चाहिए। हमें हमारे सामाजिक विषमताओं को अलग रख, एक हो जाना चाहिए ताकि हम अपने देश पर कोई और हमला न होने दें। आतंकवादी हमारे चारों ओर हैं। यहां तक कि वे हमारे कालेजों में अध्ययन भी कर रहे हैं और हमारे देश के खिलाफ षडयंत्र भी रच रहे हैं।”

कवि व पत्रकार विमल कुमार की प्रतिक्रिया अलग थी। उन्होंने लिखा कि “मैं पिछले कई साल से कह रहा था कि लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार युद्ध का माहौल बनाएगी। मेरी बात सही निकली। सत्तावर्ग चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकता है। पुलवामा के पीछे अगर इन सत्तासीन लोगों का हाथ हो तो इसमें अचरज की कोई बात नही। इतिहास में अनेक उदाहरण हैं कि शासकों ने गद्दी के लिए क्या-क्या नही  किया। युद्ध में शासक नहीं मरते हैं बल्कि गरीब और कमजोर वर्ग के लोग मरते हैं। देश के आर्थिक हालात पहले से बुरे हैं। युद्ध से हालात और खराब होंगे। विदेशी कर्ज़ हम पर बढ़ेगा। लेकिन मोदी सरकार को इस से क्या लेना देना? जैश-ए-मोहम्मद पर 5 सालों से कोई कारवाई क्यों नही की गई। अब सब कुछ चुनाव से पहले होगा।”

जेएनयू में समाजशास्त्री की प्रोफेसर सुसान विश्वनाथन ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “युद्ध का दंश धरती और आने वाली पीढ़ियों को झेलना पड़ता है। हम युद्ध नहीं, अमन चाहते हैं।”

यह भी पढ़ें : खुली छूट का मतलब क्या है प्रधानमंत्री जी? सीआरपीएफ के पूर्व कमांडेंट ने पूछा सवाल

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शिक्षाशास्त्र की प्रोफेसर मिनाती पांडा ने लिखा कि “हम सुरक्षा के और विकल्प चाहते हैं लेकिन युद्ध नहीं चाहते। युद्ध से केवल पीढ़ियां ही प्रभावित नहीं होतीं बल्कि सुकून और सुरक्षित माहौल बनाने के लिए जनमानस को नफरत की भावना से उबरने के लिए लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए मैं युद्ध का विरोध करती हूं।”

वहीं इंडियन इन्स्टीच्यूट ऑफ मैनेजमेंट, कोलकाता के अर्थशास्त्री मृत्युंजय मोहंती ने लिखा कि “मैं सहमत हूं कि युद्ध का असर इस हद तक आक्रांत करने वाला होता है कि उससे बाहर निकलने में दशकों गुजर जाते हैं। इसलिए युद्ध नहीं होने चाहिए।”

एलियस डेविडसन ने उठाया राज्य प्रायोजित हमले का सवाल

युद्ध के पक्ष और विपक्ष में यह बहस चल ही रही थी कि जर्मनी के लेखक एलियस डेविडसन की टिप्पणी ने  पूरी बातचीत को एक अलग मोड दे दिया। उन्होंने लिखा कि “तथ्य बताते हैं कि भारतीय शासकों ने खुद अपराध कर  दूसरे के सिर पर मढ़ने के लिए अपने नागरिकों पर ही हमले करवाए हैं। कम से कम  2008 में मुंबई हमले के बाद तो यह कहा ही जा सकता है। भारत में हुए आतंकी घटनाओं की जांच निष्पक्ष और स्वतंत्र लोगों द्वारा करायी जानी चाहिए।” उन्होंने लिखा कि “पाकिस्तान ने कश्मीर में हाल ही में हुए हमलों के मद्देनजर भारत से आग्रह किया है कि एक संयुक्त जांच हो। इस पर भारत सरकार के इन्कार से  उसकी साख कमजोर होती है।”

डेविडसन ने  ईमेल ग्रुप में शामिल लोगों को सलाह दी कि आप लोग “पाकिस्तानी आतंकवाद के संबंध में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कृपया मेरी किताब ‘दी बिट्रायल ऑफ इंडिया : रिविजिटिंग दी 26/11 एविडेंस’ पढ़ें।”

दरअसल, एलिअस डेविडसन फारवर्ड प्रेस परिवार से परिचित नहीं हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार, उनका जन्म 1941 में फिलिस्तीन में एक जर्मन-यहूदी दंपत्ति के घर में हुआ। कुछ वेबसाइटों पर बताया गया है कि इनकी पहचान न्याय से जुड़े मुद्दों के प्रति संवेदनशील लेखक के रूप में है। इनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘हाईजैकिंग अमेरिकाज माइंड ऑन 9/11 : काउंटरफिटिंग एविडेंस (2013)’ चर्चित रही थी। बाद में इन्होंने 26/11 (मुंबई हमला)  पर भी किताब के जरिए यह तथ्य बताने का प्रयास किया कि इस हमले में पाकिस्तानी आतंकियों की भूमिका से अधिक स्वयं भारत सरकार और उसके तंत्र की भूमिका संदिग्ध रही है।

डेविडसन की टिप्पणी पर एनसीईएआर के सौरव बंद्योपध्याय ने सवाल उठाया और  पूछा कि “वे किस आधार पर कह सकते हैं मुंबई हमला द फाल्स फ्लैग-अटैक’ (खुद  अपराध कर,दूसरे के सिर पर मढ़ने के) था। उन्होंने कहा कि डेविडसन इस संबंध में सबूत के साथा विस्तार से बताएं।

विभूति नारायण राय, एलियस डेविडसन, मेधा पाटेकर और आनंद पटवर्द्धन (बाएं से दाएं)

जवाब में डेविडसन ने लिखा – “26/11 (मुंबई हमला) मामले में भारतीय न्यायपालिका ने सत्य क्या है, इसका पता लगाने और उसके आधार पर न्याय करने के अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया। यह अन्याय  तीन स्तरों (ट्रायल कोर्ट (स्पेशल कोर्ट), बम्बई हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट) पर हुआ। न्याय का बुनियादी सिद्धांत होता है कि साक्ष्यों और गवाहों की प्रमाणिकता की जांच की जाए। तीन स्तरों पर न्यायालयों ने सिर्फ पुलिस द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों को प्रमाण मान लिया। भारतीय सुरक्षा तंत्र अदालत के समक्ष मुंबई हमले में 160 लोगों की हत्याओं के मामले में एक भी विश्वसनीय गवाह प्रस्तुत नहीं कर सका। यहां तक कि पुलिस द्वारा प्रस्तुत गवाहों के परस्पर विरोधी बयानों पर ध्यान नहीं दिया गया। न्यायालय में पुलिस कस्टडी में अजमल कसाब के दिए बयान को ही प्रमाण मान लिया।”

उनके मुताबिक, “व्यापारियों, राजनीतिज्ञों और सैन्य दायरे के लोगों को मुंबई हमले ( 26/11) से लाभ हुआ। इस हमले से पाकिस्तान की सरकार, पाकिस्तान की सेना या पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों को कोई फायदा पहुंचने वाला नहीं था। इससे तो उनकी सारी दुनिया में बदनामी ही होनी थी। इससे पाकिस्तान की आंतक समर्थक देश की विश्वव्यापी छवि बनती। हां, इस हमले हमले से भारत, अमेरिका और इजरायल को फायदा पहुंचा। भारत को अमेरिका और इजरायल से सैन्य और आर्थिक सहयोग प्रगाढ करने का बहाना मिला। भारत ने इस अवसर का इस्तेमाल अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए किया।”

अमेजन पर उपलब्ध है नई दिल्ली के एक प्रकाशक द्वारा प्रकाशित जर्मन लेखक एलियस एलियस डेविडसन की किताब

प्रमोद यादव की आपत्ति, विभूति नारायण राय भडके

डेविडसन के इस जवाब पर जेएनयू के प्रोफेसर प्रमोद यादव ने टिप्पणी की। उन्होंने लिखा कि “भारतीय राजनीतिक समूहों में मेरा कुछ विश्वास अब भी कायम है। फिर चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस। राष्ट्र के संदर्भ में उनके पास विजन और सोच भले न हो, लेकिन ये इतने बेवकूफ नहीं हैं कि मुंबई सीरियल विस्फोटों के जरिए अपनी ही जनता पर कहर बरपायें। निश्चित तौर पर वे आतंकवादी ही थे। वैसे हम पूरी तरह से इसके समर्थक हैं कि युद्ध न हों और सृजनात्मक बातचीत से मामलों को सुलझाया जाय। यहां तक कि हम सभ्यता और मानवता के लिए ‘एक विश्व’ मिशन का भी समर्थन कर सकते हैं।”

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व प्रमुख व अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय ने डेविडसन की बातों पर तीखी टिप्पणी की। उन्होंने  व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि “वास्तव में 9/11 के बारे में कहना चाहिए कि इसे यहूदियों और ईसाईयों ने अंजाम दिया क्योंकि मुसलमान ऐसा कर ही नहीं सकते हैं और इसकी वजह यह कि इस्लाम शांति का मजहब है। सभी आत्मघाती सिक्ख और बौद्ध धर्मावलम्बी हैं क्योंकि वे इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं।”

उन्होंने लिखा  – “मुझे लगता है कि हमलोगों को डेविडसन जैसे बुद्धिजीवियों की आलोचना करनी चाहिए। ऐसे लोग हमारे उद्देश्यों के लिए खतरनाक हैं। यदि आप सचमुच संप्रदाय के खिलाफ लड़ने में दिलचस्पी रखते हैं तो आपको कट्टर हिंदुत्व, कट्टर इस्लाम और यहूदी कट्टरता  या किसी अन्य धार्मिक उन्माद के खिलाफ लड़ना होगा।”

विभूति नारायण का समर्थन करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहासविद् प्रो. आर. सी. ठाकरान ने लिखा – “मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूं कि चयन के आधार पर रूढिवादिता से नहीं लड़ा जा सकता है। विश्व स्तर पर सामाजिक व धार्मिक मामलों को लेकर लड़ाई पहले भी चल रही थी, अभी भी चल रही है और आगे भी चलती रहेगी।”

आनंद पटवर्द्धन का विभूति नारायण पर पलटवार और मेधा पाटेकर की टिप्पणी

डेविडसन से नाराज विभूति नारायण राय को  जवाब ‘जय भीम-जय कामरेड’ बनाने वाले मशहूर फिल्म निर्देशक आनंद पटवर्द्धन ने दिया। उन्होंने ग्रुप में  लिखा कि- “विभूति जी, क्या आपने डेविडसन की किताब पढ़ी है? क्या आपने मुशरिफ की वह दो किताबें और विनीता कामटे की किताब पढ़ी है जो उन्होंने 26/11 पर लिखी हैं? बिना तह तक जाए किसी भी विचार को एक झटके में खारिज कर देना बुद्धिमानी नहीं है। आप किसी भी प्रकार के रूढिवादिता के खिलाफ नहीं लड़ सकते।”

इस पर विभूति नारायण राय ने टिप्पणी की कि – “हां, मैंने दोनों किताबें पढ़ी है। लेकिन माफ कीजिए, मैंने दोनों किताबें कचरे के डब्बे में फेंक दी। एक बार मैंने मुंबई अटैक की जांच में लगे अधिकारियों से बातचीत की थी। इनमें से वह भी थे जिनके पास कसाब की गिरफ्तारी की पहली सूचना थी। पुलिस अधिकारियों पर यदि यकीन न हो तो न सही लेकिन क्या आप 9/11 के मामले में लाइव दिखायी जा रही तस्वीरों व दृश्यों पर अविश्वास करेंगे? कुछ ऐसे पक्ष विशेष के समर्थक हैं जो चाहते हैं कि हम उनका कहा यह मान लें कि 9/11 हमले के पीछे ईसाई और यहूदी थे और ऐसा उन्होंने इस्लाम को बदनाम करने के लिए किया। वे यह भूल जाते हैं कि 9/11 हमले में मारे गए लोगों की सूची में हर धर्म के लोग थे।इस पर लंबा विमर्श हो सकता है लेकिन समय और स्पेस हमें इसकी इजाजत नहीं देता है कि हम विस्तारपूर्वक इस पर बात करें। मैं अपनी बात केवल एक वाक्य में रखकर खत्म कर रहा हूं कि इस्लामिक कट्टरता के प्रति उदारभाव रखने से हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई में हमें कोई सहायता नहीं मिलेगी।”

इसके बाद आनंद पटवर्द्धन ने विभूति नारायण एक बार फिर से कडी टिप्पणी करते हुए लिखा कि – “तीन किताबों के केवल कुछ हिस्सों को पढ़कर उन्हें कचरे के ढेर में फेंके जाने लायक सामान कहना और फेंकना दोनों आसान है। जबकि हाईकोर्ट ने सरकार को उन किताबों में दर्ज जानकारियों और सवालों पर जवाब देने को कहा, लेकिन  सरकारें विफल रहीं। माफ करिए विभूति नारायण, मैं आप पर और विश्वास नहीं कर सकता हूं। भले ही आपने अतीत में कुछ अच्छे काम किए हैं। लेकिन दुनिया बदलती है और लोग भी बदलते हैं।”

इस बीच प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर ने लिखा कि वे शांति की जरूरत को समझने के लिए किसी किताब को पढने की जरूरत महसूस नहीं करतीं।

बहस का सिलसिला आगे बढ़ा। एलियस डेविडसन ने विभूति नारायण राय को जवाब देते हुए लिखा कि- “आपकी तरह मैं भी संप्रदायवाद का विरोध करता हूं। फिर चाहे वह हिंदुत्व हो, धार्मिक उन्माद हो या फिर यहूदी कट्टरता। मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के मुंबई हमले पर शोध करने के लिए गया। तब मेरे पास भारत और पाकिस्तान के संबंध में शायद ही कोई विशेष जानकारी थी। मेरे लिए यह केवल एक ऐसा अपराध था जिसे बड़े स्तर पर अंजाम दिया गया। अपने दो वर्षों के जमीनी अध्ययन के बाद जो तथ्य मैंने पाया, उसे लिखा ताकि लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला हर भारतीय सच जान सके। मुझे विश्वास है कि आप मेरी किताब पढ़ेंगे और तब टिप्पणी करेंगे।’’

अमेरिकी विधि विशेषज्ञ ने किया अमेरिकी साजिश का संकेत

भारतीय वायु सेना की कार्रवाई से मुंबई हमले की ओर अनायास मुड गई इस बहस को एक अलग दिशा देते हुए अमेरिकी विधि विशेषज्ञ फ्रांसिस ए. बॉयल ने  ईमेल ग्रुप में लिखा कि “यदि मैं ठीक से याद कर पा रहा हूं तो यह बहुत पहले की बात है। अमेरिकी ड्रग इन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन से संबद्ध एक एजेंट उस आतंकी हमले (26/11 मुंबई हमला) में शामिल था। यह तब हुआ जब भारत और पाकिस्तान दोनों बातचीत के जरिए कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। तब  इस घटना ने मुझे संकेत दिया कि अमेरिका नहीं चाहता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच अमन कायम हो। वह कश्मीर के मुद्दे को बनाए रखना चाहता है। मैंने भारत के एक प्रमुख मीडिया संस्थान को साक्षात्कार के जरिए बताया भी, लेकिन उन्होंने प्रकाशित करने से इंकार कर दिया।”

संतोष कुमार मैमगेन की टिप्पणी

सत्ता प्रायोजित हमलों को लेकर चल रहे विमर्श को दिल्ली में केंद्रीय विद्यालय के शिक्षक संतोष कुमार मैमगेन ने मूल विषय की ओर मोड़ा। उन्होंने विस्तार से लिखते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा कि – “मेरे हिसाब से विमर्श का मुद्दा युद्ध और युद्ध के कारण होने वाले नुकसान होना चाहिए। इससे हम सभी वाकिफ भी हैं कि युद्ध से व्यापक स्तर पर जान-माल का नुकसान होता है। यह सब दो राष्ट्रों के अहंकार को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। साथ ही जब युद्ध होता है तो केवल एक सीमा में रहने वाले लोग ही प्रभावित नहीं होते हैं बल्कि शेष विश्व में रहने वाले लोगों पर असर पड़ता है।”

बहरहाल, युद्ध की विभिषिका के बरक्स अमन-चैन को लेकर एफपी राइटर्स ग्रुप में शामिल लेखकों की ओर से टिप्पणियों का सिलसिला जारी है। इन टिप्पणियों में विरोधाभास भले ही दिखता हो, लेकिन कुल मिलाकर सभी का आशय एक ही है कि युद्ध पीढ़ियों को बर्बाद करती है। फिर मुल्क चाहे अपना हो या पराया।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)


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