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दिल्ली में आदिवासियों के साथ सड़क पर उतरे डीयू के शिक्षक

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमीन से बेदखली के संबंध में निर्णय से देश भर के आदिवासी आक्रोशित हैं। अपने आक्रोश और सरकार पर अध्यादेश लाकर अदालती फैसले को निष्प्रभावी बनाने की मांग के लिए आदिवासी समाज के लोगों ने आदिवासी बचाओ रैली का आयोजन किया। इसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संगठन डूटा के सदस्यों ने भी भाग लिया

बीते 2 मार्च 2019 को सुबह से ही दिल्ली में मौसम का मिज़ाज़ भारतीय न्याय व्यवस्था की तरह आदिवासियों के खिलाफ़ था। बूंदा-बांदी की जगह झिरझिरी ने ली थी। ठंड भी अपना असर दिखा रहा था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दस लाख आदिवासियों को जमीन से बेदखली के संबंध में दिए गए निर्णय के विरोध में उलगुलान करने आए छोटे-छोटे आदिवासी बच्चों का हौसला बारिश और ठंड पर भारी था। बच्चे भी अपना हक़ मांगने और अपने पुरखों की संस्कृति और विरासत को बचाने की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ पोस्टर बैनर लिए सबसे आगे चल रहे थे। उनके पीछे उनकी माताएं ‘जॉइंट आदिवासी युवा फोरम एवं भारतीय आदिवासी मंच’ बैनर थामे ‘हूल जोहार’ कहती चल रही थीं। और उनके पीछे डूटा (दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर एसोसिएशन) के बैनर के साथ अध्यापकगण। इसके अलावा समाज के दूसरे तबके के लोग और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग भी आदिवासियों के समर्थन में इस आदिवासी बचाओ रैली में शामिल हुए।  

सुबह 11 बजे मंडी हाउस से शुरु होकर आदिवासी बचाओ रैली संसद मार्ग तक गई। इस मौके पर साहित्यकार शंभू यादव ने कहा – “ये जो फैसला आया है क्या कहूँ इसे। देश का मायने ये नहीं होता कि विकास के लिए आप किसी को उसके अधिकार क्षेत्र से बेदखल कर दो। उनके संसाधनों को छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर दो। कोई भी देश अपने जंगलों के संरक्षकों को उजाड़कर विकास नहीं कर सकता। आज आदिवासियों वनवासियों की आवाज़ को को मजबूत करने के लिए सभी प्रगतिशील, जनवादी  व बहुजन समुदाय के लोगों का फर्ज़ बनता है कि इनके साथ आएं।”

बारिश और ठंड की परवाह किए बगैर दिल्ली की सड़क पर अपने हक-हुकूक के लिए उतरे आदिवासी समाज के बच्चे भी

मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश से आए रणजीत खरवार ने कहा- “हम आदिवासियों पर जुल्म हो रहा है। हमारे समुदायों के विधायक व सांसद हमारी आवाज को पुरजोर तरीके से उठाने के बजाय कायरतापूर्वक सरकार की जय-जयकार में लगे हुए हैं।”

राजस्थान के उमेश मीणा ने कहा – “हम यहां अपने जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ने आए हैं।” झारखंड से आए दो छात्र पंकज सोरेन और थॉमस किस्कू ने कहा- “हमें हमारे जमीन से बेदखल न किया जाए। हमारी संस्कृति हमारे पुरखों के विरासत से उजाड़ देने के बाद हमारी संस्कृति विलुप्त हो जाएगी। जंगल से ही हमारी आजीविका चलती है। जंगल छीनकर हमें बेरोजगार किया जा रहा है। हमारा निर्वासन होने से शहरों पर बोझ बढ़ेगा। संसाधनों की लड़ाई फिर शहरों में बढ़ेगी।”

यह भी पढ़ें : आदिवासियों के मामले पर पुनर्विचार करे सुप्रीम कोर्ट

डॉ. हीरा मीणा ने कहा –“जंगल हमारी अस्मिता से जुड़ा मसला है, इसे न सरकार समझ रही न ही सुप्रीम कोर्ट।”

असिसटेंट प्रोफेसर नीतिशा जाल्को ने कहा- “कोर्ट का स्टे एक नाटक है। सरकार हमें मिसगाइड करने के लिए कोर्ट से स्टे ले आई है। वो पहले हमें जख्म देते हैं और बाद में मरहम लगाते हैं। सरकार अध्यादेश लाकर कोर्ट के फैसले को रद्द करे और 2006 के फॉरेस्ट एक्ट का सख्ती से पालन करे।”

आदिवासी बचाओ रैली में शामिल हुए डूटा के सदस्य

ज्वाइंट आदिवासी युवा फोरम के समन्वयक जीतेंद्र जी ने कहा- “2 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कैलाश एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि आदिवासी जो कि भारत की आबादी का लगभग 8 प्रतिशत हिस्सा है, जो भारत के मूल निवासी हैं और भारत के शेष 92 प्रतिशत लोग बाहर से आए हुए लोगों के वंशज हैं| इसलिए सुप्रीम कोर्ट का 13 फरवरी 2019 का आदेश इस मुल्क के मूल निवासियों को जंगल से बेदखल करने की साजिश है और जंगल आदिवासियों का जीवन है तो यह संविधान का अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है। जंगल से बेदखली आदिवासियों को उनके पैतृक जमीन, जीवन शैली, परंपरा और उनके पुरखों से दूर करने की साजिश है सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यह बेदखली आदिवासियों के सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार का हनन है| यह बेदख़ली वन अधिकार अधिनियम 2006 और पेशा कानून 1996 का उल्लंघन है| पेसा (पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया) एक्ट 1996, ग्राम सभा को सर्वोच्च मानता है, न कि ग्राम पंचायत को| लेकिन इस जजमेंट में पारम्परिक ग्राम सभाओं की अनदेखी की गयी है|”  

इस अवसर पर आदिवासी समाज ने अपनी मांगें भी रखीं।

  1. अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, को सख्ती से लागू किया जाय।
  2. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पश्चात जिन परिवारों पर विस्थापन का संकट मंडरा रहा है केंद्र सरकार ने जमीन पर मालिकाना हक/पट्टा दिलाने के लिए अध्यादेश लाए।
  3. आदिम समुदायों और जिन परिवारों ने अभी तक जमीन पर मालिकाना हक का दावा नहीं किया है, सरकार उन्हें भी अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, के तहत मालिकाना हक और वन अधिकार प्रदान करें|
  4. संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची को सख्ती से लागू किया जाए|
  5. पारम्परिक ग्रामसभा के अनुसूची 5 के 13(3) (क), 244 (1) 19, (5 एंड 6) के तहत आदिवासियों एवं वन निवासियों को दिए गए अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।
  6. इस मुद्दे पर सरकार एक अध्यादेश लाए और तुरंत आदिवासियों के हित में कार्यवाही की जाए जिससे अगली बार जब सुनवाई हो तो सरकार आदिवासियों को उनके जल जंगल और जमीन से बेदखल ना कर पाए|

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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