h n

ललई सिंह यादव केस : सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हिंदी अनुवाद

1968 में सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता ललई सिंह ने ईवी रामासामी पेरियार की चर्चित पुस्तिका ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ का हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ के नाम से प्रकाशित किया था, जिस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। ललई सिंह ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ लंबी लडाई लडी, जिसमें उनकी जीत हुई

(9 दिसंबर, 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार ने ईवी रामासामी नायकर ‘पेरियार’ की अंग्रेजी पुस्तक  ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ व उसके हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ को ज़ब्त कर लिया था, तथा इसके प्रकाशक पर मुक़दमा कर दिया था। इसके हिंदी अनुवाद के प्रकाशक उत्तर प्रदेश -बिहार के प्रसिद्ध मानवतावादी संगठन अर्जक संघ से जुडे लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता  ललई सिंह थे।

बाद में उत्तर भारत के पेरियार नाम से चर्चित हुए  ललई सिंह ने जब्ती के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुकदमा जीत गए।  सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई तीन जजों की खंडपीठ ने की। खंडपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर थे तथा दो अन्य  न्यायमूर्ति पी .एन. भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली थे।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले पर 16 सितंबर 1976 को  सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया।

कोर्ट के न्यायाधीशों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को मानव समुदाय की विकास  यात्रा के साथ जोड़कर देखा और व्यक्ति एवं समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में रेखांकित किया।  निम्नांकित सुप्रीम कोर्ट के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के प्रासंगिक अंशों का अनुवाद है ।   


पेरियार की सच्ची रामायण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

  • सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ

 

भारत का सर्वोच्च न्यायालय उत्तर प्रदेश राज्य बनाम ललई सिंह यादव

याचिकाकर्ता : उत्तर प्रदेश राज्य  बनाम प्रत्यर्थी : ललई सिंह यादव

निर्णय की तारीख  : 16, सितंबर, 1976

पूर्णपीठ : कृष्ण अय्यर, वी. आर. भगवती, पी.एन.फज़ल अली सैय्यद मुर्तजा

निर्णय : आपराधिक अपीली अधिकारिता: आपराधिक अपील संख्या 291 , 1971

(इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 19 जनवरी, 1971 के निर्णय और आदेश से विशेष अनुमति की अपील। विविध आपराधिक केस संख्या 412/70)

अपीलकर्ता की ओर से डी.पी. उनियाल तथा ओ.पी. राणा। प्रत्यर्थी की ओर से एस.एन. सिंह।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय :

कुछ मामले ऊपर से दिखने में अहानिकर लग सकते  हैं, किन्तु वास्तविक रूप में ये लोगों की स्वतंत्रता के संदर्भ में अत्यधिक चिंताजनक समस्याएं पैदा कर सकते हैं। प्रस्तुत अपील उसी का एक उदाहरण है। इस तरह की समस्याओं से मुक्त होकर ही ऐसे लोकतंत्र की की नींव पड़ सकती है, जो आगे चलकर फल-फूल सके।

इस न्यायालय के समक्ष यह अपील विशेष अनुमति से उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार द्वारा की गई है। अपील तमिलनाडु के दिवंगत राजनीतिक आंदोलनकर्ता तथा तर्कवादी आंदोलन के नेता पेरियार ईवीआर द्वारा अंग्रेज़ी में लिखित ‘रामायण : ए ट्रू रीडिंग’ नामक पुस्तक और उसके हिंदी अनुवाद की ज़ब्ती के आदेश के संबंध में की गई है। अपील का यह आवेदन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99-ए के तहत दिया गया है।  

अपीलकर्ता उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार [जब्ती की अधिसूचना इसलिए जारी की गई है क्योंकि], ‘यह पुस्तक पवित्रता को दूषित करने तथा अपमानजनक होने के कारण आपत्तिजनक है। भारत के नागरिकों के एक वर्ग- हिन्दुओं के धर्म और उनकी धार्मिक भावनाओं को अपमानित करते हुए जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने की मंशा [इसमें] है। अतः इसका प्रकाशन धारा 295 एआईपीसी के तहत दंडनीय है।’  [उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी] अधिसूचना में सारणीबद्ध रूप में एक परिशिष्ट प्रस्तुत किया है, जिसमें पुस्तक के अंग्रेज़ी और हिंदी संस्करणों के उन प्रासंगिक पृष्ठों तथा वाक्यों का सन्दर्भ दिया गया है, जिन्हें संभवतः अपमानजनक सामग्री के रूप में देखा गया है। उत्तर प्रदेश सरकार की इस अधिसूचना के बाद प्रत्यर्थी प्रकाशक [ललई सिंह] ने धारा 99  सी के तहत [इलाहाबाद] उच्च न्यायालय को आवेदन भेजा था। उच्च न्यायालय की विशिष्ट पीठ ने उनके आवेदन स्वीकार किया तथा सच्ची रामायण पर प्रतिबंध लगाने और इसकी जब्ती करने से संबंधित उत्तर प्रदेश सरकार की अधिसूचना को ख़ारिज कर दिया।

 

पूरा लेख फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ई.वी. रामासामी पेरियार : दर्शन-चिंतन और सच्ची रामायण’ में संकलित है।

किताब खरीदने के लिए विज्ञापन पर क्लिक करें

 

लेखक के बारे में

सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ

यह फैसला 16 सितंबर 1976 को सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सुनाया था। इसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने की थी और इसके दो अन्य जज पी .एन. भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली थे

संबंधित आलेख

पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (अंतिम कड़ी)
आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (पहली कड़ी)
नूपुर चरण ने औरत की ज़ात से औरत की ज़ात तक वही छिपी-दबी वर्जित बात ‘मासिक और धर्म’, ‘कम्फर्ट वुमन’, ‘आबरू-बाखता औरतें’, ‘हाँ’, ‘जरूरत’,...
‘गबन’ में प्रेमचंद का आदर्शवाद
प्रेमचंद ने ‘गबन’ में जिस वर्गीय-जातीय चरित्र को लेकर कथा बुना है उससे प्रतीत होता है कि कहानी वास्तविक है। उपन्यास के नायक-नायिका भी...