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पूर्वोत्तर वृतांत : नागाओं के सबसे पुराने गांव खोनोमा में

खोनोमा का एक ज्वलंत इतिहास भी है और नागाओं की लिखित और मौखिक परम्पराओं में इसका विशेष स्थान है। क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में खोनोम के अधिकाँश निवासी अब पढ़ लिख गए हैं। लेकिन आम कश्मीरियों की तरह नागाओं के मन की थाह पाना ज़रा मुश्किल है

बस्ती बस्ती परबत परबत – 1

(भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य मूल रूप से आदिवासी-प्रदेश हैं, जो भारतीय राजनीति और शासन-व्यवस्था के नक्शे पर उपेक्षित और वंचित हैं। फुले-आम्बेडकरवादी आंदोलनों को समावेशी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न प्रकार की वंचनाओं की शिकार समुदायों/समाजों को गहराई से समझें और उनके साथ एका बनाने की कोशिश करें। फारवर्ड प्रेस की यह पहल इसी दिशा में है। इसके तहत हम हिंदी के चर्चित लेखक जितेंद्र भाटिया के पूर्वोत्तर यात्रा वृत्तांत की यह शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं। श्री भाटिया ने इन यात्राओं की शुरूआत  वर्ष 2014 में की थी, जो अभी तक जारी हैं। वे पूर्वोत्तर राज्यों की यात्राएं कर रहे हैं और वहां की विशेषताओं, विडंबनाओं व समस्याओं को हमारे सामने रख रहे हैं – प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस)


आज भी जारी है बृहतर नागालैंड की मांग

  • जितेन्द्र भाटिया

मयनमार की यात्रा के बाद वहां से पश्चिम में भारत के उत्तर पूर्व इलाके की ओर आना एक तरह से उसी तस्वीर को एक और ‘एंगल’ से देखना है. लोग वही हैं, वही समस्याएँ, वही सवाल, सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर वही दशकों पुरानी असम्पृक्तता और इससे आगे अब समाज के ध्रुवीकरण से पैदा होती वोट बैंक की वही अपार सम्भावनाएं!

कहा जाता है कि उत्तर पूर्व में भारत के आर्यों और मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी बाशिंदे चीन से बर्मा होते हुए इस ओर आए थे. यह एक वंचित, असंतुष्ट और विषम समाज है, जिसमें ठीक समय पर बीज बोने और सुविधा के अनुसार राजनीतिक फसल काटने के अनेकानेक सुनहरे अवसर हैं। अंग्रेजों के ज़माने में ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और धर्म परिवर्तन के ज़रिए उग्र समुदायों को अपने वश में किया था। देश की आज़ादी के बाद इन समीकरणों में फिर एक बदलाव आया है और कई क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे दबा गर्म लावा फिर से बाहर आने लगा है।

दोपहर में आखिर फ्लाइट के जा चुकने के बाद दीमापुर का हवाई अड्डा ख़ासा वीरान हो जाता है। चूंकि वहाँ से मुझे ले चलने वाले साथियों के आने में अभी थोड़ा विलम्ब था, इसलिए सामान ले चुकने के बाद मैं अराइवल हॉल में ही कुर्सी पर बैठ गया। जब एक वर्दीधारी ने मुझे वहाँ से बाहर निकल जाने के लिए कहा तो थोड़ा सा आश्चर्य होना स्वाभाविक था। लेकिन बाहर आने पर समझ में आया कि वह गार्ड अराइवल कक्ष के जंगले में ताला लगा चुकने के बाद अब घर जाने की उतावली में था।

मैदान के आखिरी छोर पर बसा दीमापुर शहर एक तरह से पर्वतीय प्रदेश नागालैंड के पहले पड़ाव की तरह है। इससे आगे पहाड़ियां और जंगल हैं, जहां वक्त अब भी किसी बहुत पुरानी तारीख पर ठहरा हुआ लगता है। यहाँ से दक्षिण पूर्व में राज्य की राजधानी कोहिमा तक के 60 किलोमीटर के ऊबड़-खाबड़ सफ़र को राज्य की अन्य सड़कों के मुकाबले राजमार्ग का दर्ज़ा दिया जा सकता है। इस घुमावदार सड़क पर शाम ढलने के साथ ही अँधेरा किसी चोर परछाईं की तरह धीरे धीरे उतरने लगता है। यहाँ-वहां शहरी सभ्यता के सबसे पुख्ता सबूत की तरह मोबाइल की दुकानें, कुछ तरतीब सब्जियों के खोखे और मणिपुर शैली के ‘राइस हाउस’ ढाबे जिनमें से एक-आध की कांच की आलमारी में कुछ बदरंग मिठाइयाँ नज़र आ जाती हैं। दो चार औरतें पोखर से पकड़ी गई मछलियों को सड़क के किनारे सजाकर बैठी हैं। हमें यहाँ से आगे, प्रदेश  की राजधानी कोहिमा होते हुए आगे कोई बीस किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव खोनोमा जाना है।

दीमापुर की सीमा से लगा एक तोड़णद्वार

अलग-अलग पहाड़ियों पर बसे कोहिमा शहर को देखते हुए बरबस अल्मोड़ा शहर की याद आती है, न जाने क्यों! लेकिन अल्मोड़ा के मुकाबले कोहिमा बेहद बेतरतीब, अव्यवस्थित और गन्दा है। देखते ही देखते हम ऐसे भयानक ट्रैफिक जैम में फंसे कि लगा, रात शायद कोहिमा की सड़क पर जीप में ही गुजारनी पड़ जाएगी।  पूर्वी राज्यों में अँधेरा बहुत जल्दी घिर आता है। शहर की बिजली के अचानक गुल होते ही अँधेरा किसी अदृश्य तीसरे किरदार की तरह हमारे बीच उतर आया। बंद पड़ी गाड़ियों में से कोई ड्राइवर जब अचानक लाल बत्तियां जलाता तो हमें पता चलता कि हम वीराने में नहीं बल्कि शहर के बीचोंबीच गाड़ियों के महासागर में फंसे हैं। लम्बे अंतराल के बाद तिल-तिलकर ट्रैफिक के उस दलदल से बाहर निकले तो आगे खुली हवा, जंगलों की खुशबू और सिकाडा कीड़ों की तेज़ आवाज़ थी। तिलिस्मों को तोड़ने में माहिर हमारा सर्वज्ञता साथी रजनीश बताता है कि पुरातन काल में इस आवाज़ को अमरत्व का पर्याय माना गया था और वर्तमान चीन के शैनडोंग प्रांत में तले हुए सिकाडा किसी लज़ीज़ पकवान की तरह बहुत चाव के साथ  खाए जाते हैं।

 कच्चे रास्ते पर आगे एक खूबसूरत प्रवेशद्वार था, जीप की तेज़ रोशनी में जगमगाता हुआ। शायद हम अपने गंतव्य गाँव खोनोमा आ पहुंचे थे। उस गाँव की अद्भुत संस्कृति और नागालैंड के लगभग विलुप्त राज्य पक्षी ब्लीथ ट्रोगोपैन की तलाश हमें यहाँ तक खींच लायी थी। यद्यपि अगले दो दिनों की लम्बी तलाश के बाद भी वह पक्षी हमें नहीं मिला, मगर मरहूम शायर शहरयार की तरह इसका कोई ख़ास अफ़सोस हमें नहीं था—

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने  !

देश के पहले ‘हरित गाँव’ के रूप में प्रचारित खोनोमा नागालैंड का संभवतः सबसे पुराना गाँव है जिसकी उम्र 600 वर्ष से भी अधिक बतायी जाती है। अंगामी नागाओं के इस  गाँव के 3000 बाशिंदों के 600 परिवारों में से अधिकाँश ने पिछले सौ वर्षों में बैप्टिस्ट ईसाई धर्म अपना लिया है। गाँव में होटल नहीं हैं लेकिन यहाँ के कई परिवार मेहमानों और पर्यटकों को पेइंग गेस्ट या ‘होम स्टे’ की हैसियत से अक्सर अपने घरों में ठहरा लेते हैं। हमारा ठिकाना गाँव के एक पुराने निवासी का लकड़ी का मकान था, जहां बूढ़े पिता के साथ-साथ काम करने वाली माता-चाचियों और बहनों का एक भरा-पूरा परिवार था। हमें इसी के दो सुसज्जित कमरों में जगह मिली जहां रौशनी के लिए दो छोटे छोटे सोलर लैंप लगे थे। ईसाई प्रभाव में छुरी काँटों के साथ टेबलों पर परोसे जाने वाले भोजन में कई तरह के मांस, मछली, सब्जियां और चावल थे। नागा लोग कुत्ते का मांस (बुश मीट) भी बड़े शौक से खाते हैं लेकिन हमारे आग्रह पर इसे दस्तरखान से दूर रक्खा गया था। (कोहिमा और दीमापुर की मांस की दुकानों पर हमें इनके साथ साथ मेढ़कों और जंगल से पकड़े गए पक्षियों का मांस भी आम बिकता दिखाई दिया!) पिछले साल नागालैंड सरकार ने कुत्ते के मांस पर प्रतिबन्ध की मांग की है,  पर इसके पूरे उन्मूलन में अभी वक्त लगेगा।

खोनोमा गांव की खूबसूरत तस्वीर

घने जंगलों, पहाड़ों, झरनों, हरे खेतों और कई तरह की वनस्पतियों एवं पशु-पक्षियों के बीच फैला खोनोमा गाँव अपनी अभिनव कृषि पद्धतियों और अपनी फसलों के लिए विख्यात है। पहाड़ियों में सीढ़ियों जैसी क्यारियाँ बनाकर ‘स्टेप फार्मिंग’ द्वारा 20 से भी अधिक किस्मों का धान उगाया जाता है। यहाँ बरसात के पानी को छोटे-छोटे ‘ज़ाबो’ (पानी रोकने) वाले तालाबों में संचित कर इनसे निचले स्तर के धान को सींचा जाता है। यही नहीं, यह पानी पशुओं के बाड़ों से होकर गुज़रता है ताकि इसमें खाद के तौर पर उनके मल-मूत्र का भी अंश मिल जाए।  मैदानों को साफ़ कर वहां ‘झूम’ पद्धति से खेती की जाती है । इन खेतों में उटिस (अंग्रेजी में ‘एल्डर’; स्थानीय अंगामी भाषा में ‘रूपो’) के पेड़ लगाए जाते हैं जिनकी जड़ों से धरती अधिक उर्वरा बनती है। समय समय पर इन पेड़ों की टहनियों को काटकर इनके जीवित ठूंठों को खेत में रहने दिया जाता है ताकि मिट्टी को इनका लाभ लगातार मिलता रहे। गाँव के आस-पास के जंगलों में बांस की कई किस्में मिलती हैं। खेतों में सिंचाई का अधिकाँश काम लोहे की पाईपों की जगह खोखले बांसों में बहते पानी से किया जाता है। कृषि की ये अभिनव पद्धतियाँ  यहाँ पिछले सौ वर्षों से चली आ रही हैं और इनपर इस गाँव की रीढ़ टिकी है।

खोनोमा गांव में खेलते हुए बच्चे

पूरे नागालैंड में जंगली जीवों और पक्षियों को मारकर खाने की पुरानी परंपरा है, जिसने प्रदेश के पर्यावरण को अकल्पनीय क्षति पहुंचाई है। कहा जाता कि 1993 वर्ष में इसी खोनोमा में कोई 300 दुर्लभ ट्रेगोपेन पक्षी मांस के लिए मारे गए थे। खोनोमा के कई निवासियों ने इस संकट को समझ अपने गाँव और आस पास के क्षेत्रों में शिकार की इस परंपरा के विरुद्ध एक व्यापक अभियान चलाया। शुरू में कई लोगों ने संस्कृति के नाम पर इसका विरोध भी किया, पर अंततः  इन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप 1998 में खोनोमा में 20 वर्ग किलोमीटर इलाके में ‘खोनोमा प्रकृति संरक्षण एवं ट्रेगोपेन अभयारण्य’ की स्थापना हुई। आज न सिर्फ इस अभयारण्य में, बल्कि पूरे खोनोमा में शिकार न सिर्फ वर्जित, बल्कि एक दंडनीय अपराध है। नागालैंड जैसे मांसभक्षी राज्य में खोनोमा आज एक अनुसरणीय उजले उदाहरण की तरह खड़ा है। और वहाँ पर्यावरण के इन नियमों के सख्ती से पालन के लिए जिम्मेदार है खोनोमा की छात्र परिषद्, जिसमें पहली कक्षा से ही बच्चों को प्रकृति से दोस्ती का पाठ सिखाया जाता है।

लेकिन देश के इस पहले हरित गाँव खोनोमा का एक ज्वलंत इतिहास भी है और नागाओं की लिखित और मौखिक परम्पराओं में इसका विशेष स्थान है। क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में खोनोमो के अधिकाँश निवासी अब पढ़ लिख गए हैं। लेकिन आम कश्मीरियों की तरह नागाओं के मन की थाह पाना ज़रा मुश्किल है। सुबह के नाश्ते के बाद घर के बूढ़े अंकल पिमोमो अंगामी पहले हम सबसे जानकारी लेते हैं कि कौन कहाँ से आया है और आश्वस्त हो चुकने के बाद कि हममें से कोई भी किसी सरकारी संस्था से नहीं जुड़ा है, वे चुपचाप आलमारी से एक किताब निकाल लाते है। यह अब्राहम लोथा की लिखी अंग्रेजी किताब ‘नागा जाति का इतिहास (1832-1947)’ है।

खोनोमा गांव के लोगों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान एक प्रस्तुति (साभार : नागालैंड टूरिज्म)

अंगामी नागा पुराने समय से प्रदेश में खेती और पशुपालन करते आए हैं। इनमें एक बड़ा तबका उन योद्धाओं का था जो विरोधी गाँवों पर हमला बोलने और दुश्मनों का सिर काटकर लाने के लिए कुख्यात थे। सिर काटकर लाने वाले को अपने स्थायी पहचान के लिए चेहरे को डरावना बनाने का अधिकार मिलता था। लेकिन फिर भी इनके समाज में कोई भेद-भाव नहीं बरता जाता था। सारी संपत्ति बेटे और बेटियों में बराबर बांटी जाती थी और परिवार के सबसे छोटे पुरुष सदस्य ‘किथोकी’ को पैतृक घर मिलती थी, जिसके एवाज़ में उसे सारे परिवार के लालन-पालन की जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी।

बर्मी राजाओं के अंग्रेजों से युद्ध में हारने के बाद (देखिए इसी श्रृंखला की पिछली  कड़ी) 1826 की ‘यांदाबू’ संधि के मुताबिक़ वर्तमान नागालैंड का सारा इलाका अंग्रेजों के कब्ज़े में आया। इसके बाद लम्बे समय तक यहाँ अंगामी नागाओं और अंग्रेजों के बीच तीखा संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों को जल्दी ही पता चल गया था कि उन दुर्गम पहाड़ियों में ‘असभ्य, जंगली एवं बेहद क्रूर’ नागाओं को हरा पाना काफी मुश्किल है। 1826 से 1865 तक के 40 वर्षों में अंग्रेज़ी सेनाओं ने खोनोमा के नागाओं पर कई तरीकों से न जाने कितने हमले किये, लेकिन हर बार उन्हें उन मुट्ठी भर अंगामी योद्धाओं के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। नागाओं का यह पराक्रम आज भी खोनोमा के ‘सरकटिया’ बुजुर्गों के चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता है। (हमारे सरकारी महकमों में इसे देश के गौरवशाली स्वतंत्रता युद्ध  का ही एक हिस्सा बनाकर पेश किया जाता है, लेकिन अंकल पिमोमो इस से इत्तफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि नागा योद्धा अंग्रेजों से अपनी खुद की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे।) बहरहाल, अंग्रेज़ प्रशासकों ने 1866 में एक नयी सोच के तहत नागा पहाड़ियों को एक अलग ज़िले का दर्ज़ा देकर वहाँ एक ओर सामाजिक विकास/ शिक्षा फैलाने का मुहिम शुरू किया तो दूसरी ओर चर्च के मिशनरियों ने इन प्रयासों के साथ साथ लोगों के बीच काम करते हुए उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया। नागाओं का पारंपरिक धर्म पितरों की मौखिक कथाओं और विश्वासों से चलता है। वे किसी देव या जीव की पूजा नहीं करते, परन्तु बुरी आत्माएं उनके भीतर भय पैदा करती हैं और उन्हें संतुष्ट रखने के लिए वे कई तरह के अनुष्ठान करते हैं। मिशनरियों की निष्ठा की दाद देनी होगी कि उन्होंने सांस्कृतिक परंपरा के बीच रहते हुए ही वहाँ की मौखिक भाषा ‘तेन्यीदि’ पर आधारित एक नई लिपि विकसित की और लोगों को उसे लिखना, पढ़ना और समझना भी सिखलाया। अंकल पिमोमो के अनुसार शिक्षा आ जाने के बाद लोगों को ‘सिरकटिया’ और पशुओं की बलि जैसे अनुष्ठानों से दूर ले जाना काफी आसान को गया। लेकिन मिशनरियों ने वहां की सांस्कृतिक पहचान को बरकरार रखते हुए ईसाई धर्म के एक बेहद ग्राह्य रूप को लोगों के बीच फैलाया। ‘तेत्यीदि’ भाषा में सभी स्थानीय नामों और पुराने मौखिक शब्दों का समावेश था। हमने अंकल के चेहरे पर उन  मिशनरियों के प्रति अत्यंत आदर एवं कृतज्ञता का भाव देखा जो कुछ देर पहले की पराक्रम कथाओं से बिलकुल विपरीत था।

खोनोमा के बैप्टिस्ट नागाओं ने ईसाइयों से जो जीवन पद्धतियाँ सीखी हैं, उनमें मृत्यु के बाद दिवंगत व्यक्ति के नाम का पत्थर या शिलालेख बनाने की परंपरा सबसे अधिक प्रचलित है। खोनोमा के रास्तों पर आपको सैंकड़ों बड़े-बड़े शिलालेख और उनपर खुदे उनके प्रियजनों के सन्देश मिल जाएंगे। दिलचस्प यह है कि मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति के शिलालेख के पास ही उसके सबसे अन्तरंग जीवित साथी (पत्नी, भाई, पुत्र/पुत्री) के शिलालेख के लिए उसी दीवार में  फ्रेम बनाकर खाली जगह छोड़ दी जाती है, ताकि कालांतर में मृत्यु के बाद उसका शिलालेख उस तयशुदा जगह पर बनाया जा सके।

नागाालैंड के खोनोमा में बने शिलालेख

अंकल पिमोमो देर तक हमें अंग्रेजों के समय में ईसाई धर्म के प्रचार की कई कहानियाँ सुनाते रहे। लेकिन हमने पाया कि इससे आगे अंग्रेजों के राज की समाप्ति और भारत की स्वतंत्रता तक पहुँचते-पहुँचते उनके भीतर गोया कि एक द्वंद्व सा उठने लगा था। खोनोमा में आने वाले सभी मेहमानों के सत्कार से आगे पिमोमो का मानना है नागालैंड की भूमि पर भारत सरकार का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि नागा प्रदेश कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा है। 1826 से पहले वह बर्मा में था और अंग्रेजों ने भी उसे एक अनुसूचित क्षेत्र का दर्ज़ा दे दिया था। 1929 में जब साइमन कमीशन का नागालैंड में आगमन हुआ था तो नागा प्रतिनिधियों ने उन्हें एक प्रतिवेदन में कहा था कि अंग्रेजों के बाद नागा पहाड़ियों को भारत में शामिल न किया जाए।

यही नहीं, नागाओं के नेता फिज़ो ने देश की स्वतंत्रता से एक दिन पहले, यानी 14 अगस्त 1947 को नागालैंड की स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। फिर इसके बाद भारत सरकार के साथ नागा नेताओं के संघर्ष का एक लम्बा सिलसिला चला। तमाम समझौतों और शांति के विभिन्न प्रयासों के बाद भी राष्ट्रीय समाजवादी नागालैंड परिषद् (एनएसएनसी) आज तक जिस ‘बृहत्तर नागालैंड’ की स्वतंत्रता की मांग पर कायम है, उसमें वर्तमान नागालैंड राज्य के अतिरिक्त असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और म्यानमार के कई हिस्से भी शामिल हैं।

इस अव्यावहारिक मांग के सुलझने की कोई उम्मीद नहीं दिखती क्योंकि मणिपुर, असम और अरुणाचल के प्रवक्ता महाभारत के अंदाज़ में अपने राज्य की सुई की नोक बराबर ज़मीन भी नागाओं के लिए छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। फिलहाल सरकार और स्थानीय प्रतिनिदियों के बीच समझौतों, प्रति-समझौतों और विरोधों-गतिरोधों  का एक अंतहीन सिलसिला जारी है जिसमें देश की तमाम राजनीतिक पार्टियाँ अशांत जल में मछलियाँ फांसने की खतरनाक कवायद में जुटी हैं।

हमारे मन के अनिश्चय को भांप अंकल पिमोमो सारी कटुता को दरकिनार कर हमें अपनी छोटी बेटी के साथ खोनोमा के प्रख्यात जंगली सेबों के जंगल की ओर ले चलते हैं। यहाँ हर तरफ सेबों के बेतरतीब पेड़ हैं। गाँव की ही एक छोटी सी दुकान पर इन सेबों को चिप्स की शक्ल में काटकर सुखाया जाता है। जंगल में बेहिसाब उगने वाले ये जंगली सेब बेहद मीठे हैं। अंकल पिमोमो गर्व से मुस्कराकर हमारी ओर देखते हैं और फिर लौटने के बाद नागा इतिहास की उस किताब को एहतियात के साथ वापस अपनी आलमारी में रख देते हैं!

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

जितेन्द्र भाटिया

जितेन्द्र भाटिया (जन्म : 1946) केमिकल इंजीनियरिंग में पी-एच.डी. हिंदी के चर्चित लेखक हैं। उनकी कृतियों में समय सीमांत, प्रत्यक्षदर्शी (उपन्यास); रक्तजीवी, शहादतनामा, सिद्धार्थ का लौटना (कहानी-संग्रह); जंगल में खुलने वाली खिड़की (नाटक); रास्ते बंद हैं (नाट्य रूपांतर, प्रकाश्य); सोचो साथ क्या जाएगा (विश्व साहित्य संचयन); विज्ञान, संस्कृति एवं टेक्नोलॉजी (प्रकाश्य) शामिल हैं।

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