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ठाँव उसने नहीं दिया मुझको जिसको कहता रहा शहर अपना !

मूलचन्द सोनकर जी ने बहुत साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर एक लंबी यात्रा की। बड़ी नौकरी तक पहुंचे और साहित्य में अपने तेवर और तल्खी के लिए जाने गए। उनको आसानी से ऐसी कोई जगह नहीं मिली जिसपर वे बैठ गए हों। गहरी मशक्कत और लगन उनका मंत्र था और उन्होंने जो भी पाया इसी के बूते पाया

मूलचन्द सोनकर (5 मार्च, 1946 – 19 मार्च, 2019) पर विशेष

शायद ही हममें से किसी ने इतने कम साथ और साहचर्य के बारे में कभी सोचा होगा। असल में तो हमारी यात्रा अभी शुरू हो रही थी और हमने एक दूसरे को थोड़ा-थोड़ा समझना शुरू किया था। आगे ढेरों योजनाएं थीं जिनको पूरा करने के लिए हम रोज ही कोई न कोई एजेंडा बनाते। सुबह-सुबह जब उनका फोन आता और किसी बात या अखबारी खबर पर वे झुंझलाते, दुखी या निराश होते तब मुझसे बात करते हुए वे देर तक मुझे बोलने देते और भविष्य में बहुत कुछ अच्छा कर जाने के मेरे विश्वास से उनकी आवाज एक कैशौर्य से भर जाती और तुरंत ही वे निराशा झटककर बोलते कि बस दाढ़ी बनाकर और नहाकर मैं आता हूं। फिर तो वे जब आते तो घंटों बातें ही बातें होतीं। न उनका जाने का मन होता न हमलोग ही चाहते कि वे जाएं। लेकिन वे अंततः यह कहते हुये उठने लगते कि फेथ और चेरी (कुत्ते) परेशान हो रहे होंगे। फिर वे अपर्णा को तिखारते – आप मुझे भगा दिया कीजिये कि अब आप जाइए। काम का हर्ज हो रहा है। लेकिन अपर्णा तो उनकी बातें और भी सुनने की चाह रखती। वह हंसती और कहती – सर काम तो हम आपके रहते भी कर ही रहे हैं। इसके बाद वे कुछ देर दरवाजे पर ही खड़े रहकर बतियाते और एक झटके से कहते – अब चलूंगा।

वे मूलचन्द सोनकर थे, जिनके नाम में आधा न की जगह बिंदी लग जाती तो बिना ठीक कराये पानी न पीते थे। उन मूलचन्द सोनकर को हमने कमाया था । वे नितांत हमारे दोस्त, आलोचक और शुभचिंतक थे। लेकिन जब वे हमारे लिए इतने अपने न थे तब वास्तव में ठेठ औपचारिक और आत्मकेंद्रित व्यक्ति थे जो लोगों को अपने भरोसे का न पाता था फिर भी इसलिए साथ निभाए चला जाता था ताकि इस शहर में एकदम से अकेला न हो। आश्चर्य मुझे इसलिए होता था कि धीरे-धीरे अपनी गज़लों के माध्यम से एकदम संवेदनशील इंसान के तौर पर दिल में जगह बनाता जा रहा है जबकि बात-विचार में वह बिलकुल खडूस है। ऐसा क्यों है कि वह अपने गद्य में एक बीहड़ बनाता है लेकिन कविताओं और गज़लों में गम-ओ-गुस्से और करुणा से लबरेज है। और यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी कि वास्तव में वे इतिहास के जिस हिस्से में  जी रहे थे वह अत्यंत जटिल है। उसमें ढेरों ऐसी प्रवृत्तियां थीं जिनका रस्सा जाति-व्यवस्था के कठोर सोपानों और बाज़ार के बीच अनेक खूंटियों से बंधा हुआ था लेकिन मूलचन्द सोनकर इनसे बाहर चले जाना चाहते थे। क्या वह इनके लिए कोई आसान बात थी ?

मूलचन्द सोनकर (5 मार्च, 1946 – 19 मार्च, 2019)

मूलचन्द जी ने बहुत साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर एक लंबी यात्रा की। बड़ी नौकरी तक पहुंचे और साहित्य में अपने तेवर और तल्खी के लिए जाने गए। उनको आसानी से ऐसी कोई जगह नहीं मिली जिसपर वे बैठ गए हों। गहरी मशक्कत और लगन उनका मंत्र था और उन्होंने जो भी पाया इसी के बूते पाया। उनका जन्म पांच मार्च 1946 को इलाहाबाद के जॉर्ज टाउन मोहल्ले के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके दादा नेहरु परिवार के एस. एस. नेहरू (आईसीएस)  के विशाल बगीचे का ठेका लिया करते थे और अपने बड़े कुनबे के साथ उसी में रहते भी थे। उन्होंने अपने छुटपन की अनेक यादें साझा की थी जिनमें बच्चों का एक विशाल हुजूम था और बाद में सहपाठियों और अच्छे अध्यापक्कों का भी। उन्हें ऐसे किसी दंश से दो-चार नहीं होना पड़ा जो दलित जीवन की आधारभूमि मानी जाती है। बचपन में मूलचन्द को कई बार नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित और इंदिरा गांधी को देखने का मौका मिला और इसलिए वे अपने मित्रों से रौब गांठते कि ‘सुल्लेव, आज तो हमारे किहाँ जवाहल्लाल आये रहे।’ असल में जिस दिन वहां नेहरू परिवार का कोई आता तो बगीचे के सभी बच्चों को नहला-धुलाकर अच्छे कपड़े पहनाकर उनके सामने परेड कराई जाती। बच्चों के गाल थपथपाए जाते और मिठाई दी जाती। वे मधुर स्मृतियां थीं।

वे शुरू से ही मेधावी थे और संयोग से अच्छे अध्यापकों की सोहबत मिली। गणित में गति अच्छी थी तो सोचते थे पढ़कर किसी कॉलेज में अध्यापक हो जाएंगे। लेकिन घर बिलकुल जुदा माहौल का था। भूत-प्रेत के साये में लोगों का गहरा भरोसा था। कोई बीमार होता तो सूअर की बलि दी जाती। मूलचन्द इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे। विरोध करते तो पीटे जाते। बात यहीं तक नहीं थी। उन्हें भी धार्मिक बनने को बाध्य किया जाता और इंकार करने पर पिता की लाठी थी। इन सबने उन्हें वहां से बाहर निकलने को प्रेरित किया। वे अपने घर के पहले व्यक्ति हैं जिसने उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में नौकरी की और वहीं से प्रधान कार्मिक प्रबंधक के रूप में रिटायर हुए।

इलाहाबाद के माहौल में मूलचन्द जी को लिखने को प्रेरित न किया हो ऐसा नहीं है। उन्होने विश्वविद्यालय के दिनों में न केवल फिराक गोरखपुरी को देखा-सुना था बल्कि उनके मुरीद भी थे। गालिब और अकबर इलाहाबादी दोनों पर वे समान भाव से बतिया लेते थे और गालिब पर तो उनकी किताब ही है –गालिब मेरी नज़र में। इतनी नफीस भाषा में है वह किताब कि आश्चर्य होता है। इसके बावजूद लिखना उन्होंने बहुत दिनों बाद शुरू किया और जब शुरू हुआ तो हर विधा में हाथ आज़माया और बेहतर से बेहतर लिखा। अनुभवों का टटकापन और भाषा की प्रांजलता उनकी कविताओं और गज़लों की मौलिक ताकत है। फिर जब वे आलोचना में आए तो बिलकुल अलग कहानी बनने लगी।

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उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘अनेक शाहकार हैं’, ‘गालिब मेरी नज़र से’ (गालिब की गज़लों का पाठ), ‘दर्द की लकीरें’, ‘अब रास्ता इधर से है’, ‘चिनार हरे रहेंगे’ (सभी गजल संग्रह) : ‘कहीं कुछ दरक रहा है’ (कविता संग्रह); ‘संतप्त साये’ (सॉनेट), ‘दलित विमर्श : विकल्प का साहित्य’, ‘दलित विमर्श और डॉ. अंबेडकर : एक प्रासंगिक हस्तक्षेप’ (लेख संग्रह); ‘नज़ीर बनारसी की शायरी’, ‘नामवर सिंह का आरक्षण विरोध और प्रगतिशील लेखक संघ के पचहत्तर साल’ (सम्पादन), ‘उपन्यासों में ‘मुस्लिम समाज की आईनदारी’, ‘भारतीय राष्ट्र, गांधी और अंबेडकर’, ‘मान्यवर कांशीराम की जापान यात्रा के दौरान बुराकू समाज सम्मेलन में दिये गए भाषण’ का अनुवाद तथा ‘डॉ. आंबेडकर के दादर में 1933 में दिये गए भाषण’ का अनुवाद ‘हिन्दू धर्म का त्याग ही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है’। किसी लेखक को स्थापित करने के लिए इतना कम नहीं होता। खासतौर से जब लेखक में इतना साहस हो कि नामवर सिंह के प्रगतिशील कुर्ते में एक सवर्ण दलित साहित्य के अस्तित्व पर इस कदर हंस रहा था कि उसकी चिंता ठाकुर बाभनों के बच्चों के भविष्य में भीख मांगने पर गहरा गई थी और इसे दूर करने के लिए वह लगातार दलित साहित्य और आंबेडकरवाद को नकार रहा था तब भी मूलचन्द सोनकर इस प्रवृत्ति के खिलाफ भिड़े और दरअसल उनकी वह संपादित किताब विद्वानों की वास्तविकता से रूबरू कराने वाली साबित हुई। किताब का नाम चर्चा में आ गया लेकिन वह जिस तरह की बहस उठा रही थी उस पर आगे बढ़ने की किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई।

मूलचन्द सोनकर जाने गए कि वे क्या शै हैं लेकिन वे पहचाने नहीं गए। आप सोच सकते हैं कि यह क्या उल्टी बात हुई। जिसे बहुत से लोग जानते हैं क्या वह व्यक्ति अनपहचाना हो सकता है? आपका सवाल अपनी जगह जायज हो सकता है। लेकिन पहचानने का भी कोई पैमाना होता है कि आपका लिखा किसी ने पढ़ा कि नहीं। या फिर किताबें यूं ही टरका दिया और ज़िंदगी के किसी संदर्भ में फिर आपको याद ही न किया गया। बस आप मिलते-जुलते रहे इसलिए चेहरा याद रहा। मूलचन्द सोनकर ऐसी ही त्रासदी के शिकार थे। उन्हें न दलितों ने पढ़ा और न गैर दलितों ने। लेकिन उनका एक खौफ था। एक रुतबा था जिसे मुंह पर लोग दुहरा देते थे। दलितों में वे इसलिए अस्पृश्य बने रहे क्योंकि उन्होंने अपनी आलोचना को किसी को स्थापित करने में नहीं लगाया। किसी की झूठी तारीफ नहीं की। जी हजूरी नहीं की और इस बात की परवाह तो बिलकुल नहीं की कि आप साहित्य के तोप हैं कि तोपुल्ली हैं। साहित्य के सौंदर्य को लेकर उनका एक मानक था जिस पर खरा न उतरने वाला कोई भी लेखक उनके लिए अमान्य था। उनके दो स्वजातीय लेखक उनसे बहुत नाराज़ थे क्योंकि वे दोनों की तारीफ नहीं करते थे। वे चाहते थे कि तमाम दलित-पिछड़े  युवा लेखन में आयें लेकिन फूहड़ और अधकचरी चीजों के लेखक होकर नहीं। असली और ठोस होकर जिनके पास विषयवस्तु और अंतर्दृष्टि हो और जिन्हें पढ़कर यूं रखना मुश्किल हो। जीवन का एक कोना विचलन से भर जाय।

असल में मूलचन्द सोनकर बहुत गंभीर अध्येता थे और जितनी किताबों के लोग नाम भी नहीं जानते होंगे उतनी किताबों को उन्होने तबीयत से पढ़ा था। किताबों के वे रसिया थे और उन्हें गहराई से पढ़ते थे। उनके पास बहुत अच्छा संग्रह था जिसे उन्होने ड्राइंग रूम में सजाया नहीं। लेकिन नियमित पढ़ते थे। किताबें खरीदते थे और वे कैसे मिलेंगी इसके बारे में उनको चिंता थी। अभी साढ़े तीन महीने पहले की बात है जब राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘मध्य एशिया का इतिहास’ मंगवा देने के लिए वे मुझसे लड़ पड़े थे और एक महीने बाद जब दो जिल्दों की यह जर्जर किताब पटना से आई तब उन्हें चैन की सांस मिली। भला हो अरुण नारायण का। वे उसे पढ़ना चाहते थे। अभी कुछ दिनों पहले जब वे रजनीकान्त शास्त्री की किताब को लेकर दिन-रात भिड़े हुये थे तो मिलने पर प्रायः राम के साम्राज्यवादी चरित्र को लेकर बहुत तल्ख होकर बोलने लगते थे। वे प्रायः इस बात पर देर तक बोलते कि धर्म को अफीम कहकर मार्क्सवादी होने का दावा करनेवाले लोगों ने राम जैसे मिथकों और उसे स्थापित करने वाली ब्राह्मणवादी बौद्धिक परंपरा के विरुद्ध खुलकर क्यों नहीं कहा और लिखा। उनकी चुप्पी खतरनाक है। तुलसी को पढ़ाये जाने और बौद्धिक जगत में घूम-फिर कर वही वही बातें करने के वे सख्त खिलाफ थे। साहित्य और संस्कृतिकर्म को  लेकर उनका साफ नज़रिया था और एक स्पष्ट मानक था। वे मानते थे कि जाति-व्यवस्था के कारण हमारे बौद्धिक जगत का आँवा टेढ़ा है इसलिए इसमें से सीधे और साफ लोगों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फिर भी प्रगतिशील खेमे से उनकी मांग थी कि सांस्कृतिक स्तर पर वह अपने रवैये को स्पष्ट करे। इतिहास की गलतियों को रिकोग्नाइज़ करे और जाति-व्यवस्था पर प्रहार करते हुये अब हाशियाई जनता को विमर्श के केंद्र में करे।

लेकिन हुआ उसका उल्टा। समन्यववादी और समरसताप्रेमी प्रगतिशीलों ने उन्हें भीड़ के एक आदमी की तरह ही देखा। आयोजनों के लिए उनसे भरपूर चंदा लिया लेकिन सहभागी होने से भरसक रोका। दिल्ली, बिलासपुर, इलाहाबाद या चंडीगढ़ हो या और कहीं, बुलाया सब जगह लेकिन मंच पर कुर्सी देना तो दूर अक्सर माइक तक छीन लिया। एक आदमी भला कितनी बार हर जगह से बैरंग लौटने का रिकार्ड बना सकता है। शातिर जमात में कोई भी स्वाभिमानी आदमी बेगैरत कब तक बना रहता। धीरे-धीरे वे सबसे कट गए लेकिन इसका मलाल उनके मन में जहर भर रहा था। उन्हें अपने दलित होने की गहरी पीड़ा थी और वे अपने साथ के हर व्यवहार को इसी चश्मे से देखने लगे।  कभी-कभी झुँझलाकर फेसबुक और व्हाट्सअप पर बहसें कर बैठते। बहुत कड़वे और अप्रिय प्रसंग छिड़ जाते। लेकिन मूलचन्द वहां भी हार मानने वाले शख्स नहीं थे। वहां भी झगड़ पड़ते और झगड़ते रहते। यहाँ तक कि जातिगत टिप्पणियों से सामने वाले को धराशायी करने की कोशिश करते। मुझे लगता है अपनी उपेक्षा की पीड़ा के कारण ही उनमें यह कड़वाहट भरी थी। लेकिन दलितों के तो वे ‘अपने’ थे फिर भी वहां उनको वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे वास्तविक हकदार थे।

मैंने बहुतों को देखा है जब वे कई तरह के पाखंड के सहारे अपनी एक छवि बनाते हैं और उसे आजीवन भुनाते रहते हैं लेकिन मूलचन्द के अपने उसूल थे। जिनपर से कभी वे विचलित नहीं हुये । जीवन भर उन्होने पेप्सी, कोला, माजा या कोई भी अन्य ठंडा पेय नहीं पिया और अनेक बार तो बहुत ज़िद करने के बावजूद नहीं पिया तो नहीं पिया। कहते थे थे एक लीटर शीतल पेय बनाने में पांच बाल्टी पानी खर्च होता है। इतने में पांच परिवार दिनभर पानी पीते हैं। और मैं किसी शौक या कर्टसी में इतने लोगों का पानी अकेले नहीं पी सकता। जीवन में कभी शराब नहीं पिया न पान खाया। हम लोग बैठकर पी रहे हैं और वे हमारी खुशी में शामिल होते और निर्गुण्ठ रहते। श्रम का आदर और उसके मूल्य को लेकर वे जीवन भर संवेदनशील रहे और अक्सर बहुत भावुक होकर मजदूरों की मजदूरी और महंगाई के बीच उनके घर के लोगों के भर पेट भोजन की अनुपलब्धता पर बात करते। उन्होंने जीवन में किसी को मुफ्त में अपनी किताबें भेंट में नहीं दी। जिसको पढना हो वह खरीदकर पढे। वे किसी किसी की तारीफ के मुस्तहक नहीं थे। जिन दिनों बनारस में विश्वनाथ कॉरीडोर के लिए तोड़-फोड़ शुरू हुई वे बहुत गुस्से में थे। कहते – और करो हर हर मोदी घर घर मोदी। उन्हें पक्के महाल के तोड़े जाने का कोई मलाल नहीं था लेकिन नवंबर की एक शाम केशव शरण, अपर्णा, मेरे, सुमिता और अनुपम ओझा के साथ वे भी मैदागीन से गली-गली होते विश्वनाथ मंदिर के पास गए। चारों तरफ टूटे मकान, दरवाजे और मध्यकालीन नक्काशी वाली मूर्तियों और घरों के भग्नावशेष थे। उस हृदय विदारक दृश्य ने उन्हें बहुत आहत कर दिया। अपनी पसंद नापसंद और उसूलों की इन्हीं पाबंदियों के कारण मूलचन्द सोनकर को अनेक बार लगता कि लिखने से क्या होगा? सत्ता के दमन के आगे सब बेकार और लाचार हैं। लेकिन फिर वे बेचैन होकर लिखने लगते। उनको लगता कि वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई बहुत तेजी से होनी चाहिए। वे इस प्रक्रिया में आंबेडकरवाद के और नजदीक होते जाते थे और व्यवहार में उन लोगों से संवाद कायम करना चाहते थे जो आनेवाले दिनों के हरावल बनने वाले होते। इसलिए वे जहां भी मौका मिलता वहाँ बोलते और बिना किसी की परवाह किए कटु भी बोलते। लेकिन मुंह देखी बोलना उनके स्वभाव में नहीं था।

एक भरा-पूरा जीवन ठहर गया है। ब्रेन ट्यूमर ने दो दिमागों के बीच किसी जहरीले नाग की तरह कुंडली बनाई और चुपचाप उन्हें कमजोर करता रहा। अभी तीन महीने पहले तक वे इन सबसे बिलकुल बेखबर थे और गांव-गांव में वर्कशॉप और मीटिंग करने के लिए वे उत्साह से भरे हुये थे। पच्चीस जनवरी को आखिरी बार डॉ. ओमशंकर के आंदोलन में शरीक हुये और सत्ताईस जनवरी को ‘गाँव के लोग’ की एक गोष्ठी की अध्यक्षता की और पहली बार सबसे कम बोले। बस गालिब का एक शेर – ‘हमारे शेर हैं अब सिर्फ दिल्लगी के असद /खुला कि फायदा अर्ज़-ए-हुनर में खाक नहीं’। क्या यह उनकी पस्ती और निराशा का संकेत था? लेकिन वे जितना काम कर गए हैं वह अभी भी अलक्षित है। वह दलित साहित्य की ऐसी थाती है जिसमें अपने दौर के साथ मुठभेड़ करने का सच्चा साहस है।  किसी के लिए भी उसके आगे पहुंचना एक दुसाध्य यात्रा होगी। क्योंकि मूलचन्द सोनकर बार-बार नहीं पैदा होते !

(कॉपी संपादन : नवल)


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रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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