h n

झाड़-फूंक नहीं है छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की चिकित्सा प्रणाली

छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान अंकिता आनंद ने वहां की स्वास्थ्य सुविधाओं की टोह ली है। उन्होंने बताया है कि कैसे आदिवासी समाज के लोग आज भी अपने स्वास्थ्य के लिए कथित तौर पर सभ्य समाज की चिकित्सकीय प्रणाली के बजाय पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली पर विश्वास करते हैं

(पूरे देश में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर गंभीर सवाल हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक अस्पतालों में तो चिकित्सक जाना ही पसंद नहीं करते हैं। आदिवासी बहुल इलाकों में स्थिति और भी भयावह है। बड़ी संख्या में लोग या तो इलाज के अभाव में मर जाते हैं या फिर शहरों में इलाज कराने के क्रम में सूदखोर महाजनों के गुलाम बन जाते हैं। प्रस्तुत यात्रा संस्मरण में अंकिता बता रही हैं कि किस तरह अभावग्रस्त छत्तीसगढ़ में लोग इलाज के लिए स्थानीय वैद्यों पर आश्रित हैं। वे यह भी बता रही हैं कि आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों का उपयोग कर ये वैद्य गंभीर से गंभीर रोगों का इलाज करते हैं, लेकिन उन्हें मान्यता नहीं मिलती)

पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली पर यकीन करते हैं आदिवासी

  • अंकिता आनंद

छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिन मुश्किलों से आज गुजर रहे हैं, उनके मुकाबले उन्हें अपना अतीत शांत और सुखद लगता है। उनकी असली कठिनाईयां तब शुरु हुईं जब राज्य की अपार खनिज संपदा से आकर्षित होकर सरकार और निजी कंपनियों ने युद्ध स्तर पर वहाँ ‘विकास’ कार्य आरंभ किए। फिर सरकार और कंपनियों की भिड़न्त माओवादियों से होने लगी। इन सबके बीच आदिवासियों को ऐसे देखा जाने लगा जैसे वे उद्धार की प्रतीक्षा करते एक पीड़ित समूह मात्र हैं या पाषाण युग की कुछ बची हुई निशानियाँ हैं जिन्हें ‘सभ्य’ बनाने की जरुरत है।

परंतु, वास्तविकता कुछ और ही है। कथित तौर सभ्य समाज ने आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन का दोहन तो किया ही है, उनकी संस्कृति और परंपराओं को भी नुकसान पहुंचाया है। इसमें उनका अपना विज्ञान भी शामिल है जो उन्हें पुरखों से मिला है।

आदिवासी अस्थि चिकित्सक से एक मुलाकात  

मार्च 2018 में जब मैं छत्तीसगढ़ के काँकेर जिले में थी। तब वहां के खमडोंगड़ी गाँव में वहाँ के प्रसिद्ध वैद्यराज का घर ढूंढ़ना आसान था। सिर्फ गाँववाले ही नहीं, रायपुर और दूसरे शहरों से सरकारी अफसर तक वहाँ इलाज कराने आते हैं। उनका ‘क्लिनिक’ भी वहीं चलता है और पड़ोसियों के अनुसार वहां  सुबह से आधी रात तक मरीजों की भीड़ बनी रहती है। सप्ताह के बीच भी, जब मैं वहाँ थी, रायपुर से कोई आनेवाला था। 

गाँव के इस नामी, पचासी वर्षीय हड्डी के डाक्टर सुंदर सिंह कावड़े ने अपने पुत्र की मृत्यु के बाद ये काम बंद कर दिया था। लोग धीरे-धीरे दूसरे चिकित्सकों के पास जाने लगे। जिस बेटे की मौत हुई, उनकी ख्याति भी दूर तक थी। गांव के लोगों ने बताया कि अस्पतालों से शल्य-चिकित्सक वहाँ सीखने आते थे और जिन मरीजों को ठीक नहीं कर पाते थे उन्हें भी यहाँ भेज देते थे। दीवार पर लगे मानव शरीर के विभिन्न अंगों को दर्शाते हुए एक चार्ट की तरफ इशारा कर एक युवक ने बताया, ‘वो इसकी मदद से दूसरे डाक्टरों को समझाते थे। पर रीढ़ की हड्डी पर आई चोट को ठीक करना उनके लिए भी चुनौती भरा था क्योंकि उस पर न ही ठीक से पट्टी बँधती है और न ही दवा ठीक से घाव तक पहुँचती है।’ तो कितने लोग ठीक हो पाते थे? ‘जो ठीक न होने की शिकायत करते थे वे ऐसे लोग थे जो मना करने पर के बावजूद ऐसी हालत में भी शराब नहीं छोड़ते थे।’ मैंने प्रांगण में एक आधे बने मकान को देखा जो वैद्यराज के बेटे मरीजों और उनके रिश्तेदारों के ठहरने के लिए बनवा रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद काम बीच में ही रुक गया। 

झोपड़े में मरीज का इलाज करते सुंदर सिंह

सुंदर सिंह ने बताया कि कैसे एक दिन उनके पूर्वजों ने सपने में आकर उन्हें चिकित्सा दोबारा शुरु करने के लिए कहा और सिंह ने ऐसा ही किया। जो झोपड़ी चिकित्सालय का काम कर रही थी, उसके भीतर कुछ जड़ें और पत्ते रखे थे। सुंदर सिंह ने ओखली में उन्हें कूटा जिससे उनका लेप बना सकें। मिक्सर के गाँव में प्रवेश के बाद उसका उपयोग वे दवाओं को पीसने के लिए करते हैं। लकड़ी के एक खम्भे पर, जिसने फूस की छत के एक हिस्से को भी संभाला हुआ था, एक स्विचबोर्ड बाँध दिया गया था। बीच में विभाजन कर एक और कमरा बना दिया गया था जहाँ मिट्टी का चूल्हा था। ताकि रात रुकने पर मरीज या उसके परिवारवाले अपना खाना बना सकें। 

एक रोगी के पैर पर पट्टी बांध सुंदर सिंह प्लास्टिक की एक कुर्सी पर आकर बैठ गए: ‘मेरे पिता, दादा, सब यही करते थे। ये हमारे डी.एन.ए. में है। पहले जानवरों का इलाज ज्यादा होता था। अब सड़क पर इतनी मोटरें हो गई हैं तो लोग भी खूब आते हैं।’ इलाज के लिए जड़ी-बूटियाँ वे पहाड़ों से लाते हैं। राज्य में यात्रा के दौरान मैंने सुन रखा था कि वन उपज पर आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करते वन अधिकार कानून के होते हुए भी कई बार वन अधिकारी इस अधिकार की पूर्ति के आड़े आते हैं। इस पर सुंदर सिंह ने कहा, ‘सरकार के लोग यहां इलाज के लिए आते हैं। अगर मुझे जंगल से दवा लेने से रोकेंगे तो उनका इलाज कैसे होगा?’ पर उन्हें इस बात का दुख है कि लगातार बढ़ते सैन्यीकरण और निर्माण कार्य के चलते काफी जंगल नष्ट हो चुके हैं। 

फीस की बात पूछ्ने पर सिंह ने बताया, ‘हम कभी पैसे नहीं मांगते। बस लोगों को उनके इलाज के लिए पट्टी (पहले पेड़ की छाल का इस्तेमाल होता था) और हमारे सुझाए गए तेल, इत्यादि, को लाना होता है। कभी कोई भेंट के तौर पर कुछ ले आता है, जैसे एक नारियल। कोई कुछ न लाए तो भी दिक्कत नहीं।’

क्या वैद्य को स्वयं कभी डाक्टर की जरुरत पड़ती है? सिंह ने जवाब दिया, ‘हाँ, कभी अपने बुखार या टायफाइड के इलाज के लिए चले जाते हैं। वे मुझे जानते हैं सो अक्सर यही आकर देख जाते हैं। पर एक बार कई सुईयां लगने के बाद भी मैं ठीक नहीं हो रहा था। मैं जंगल में गया, जिन पौधों की मुझे जरुरत थी उन्हें लिया और ठीक हो गया।’

सुंदर सिंह जैसे ‘बेयरफुट डाक्टर’ जब जंगल में जाते हैं तो अपनी आवश्यकता भर वन सामग्री लेकर बाकी और लोगों व अगली पीढियों के लिए छोड़ देते हैं। उन्हें दुख है कि कुछ बाहर व कुछ अंदर के ही लोगों ने अपनी संपदा को लालच के लिए बेच दिया। 

बृजेश साहू से मैंने पूछा कि रायपुर से इतनी दूर वे इलाज के लिए इस गाँव तक क्यों आए। उनका कहना था, ‘अस्पताल महँगे होते हैं और ठीक होने की गारंटी नहीं होती। यहाँ भरोसा रहता है कि उपचार के बाद अगर हम वैद्य के हिसाब से खाने-पीने में भी परहेज करें तो ठीक हो जाएँगे।’

वैद्य ने यहां अपनी बात भी जोड़ी, ‘अगर किसी के पास तीस-चालीस हजार रुपये फालतू हैं तो वो अस्पताल में ऑपरेशन करवा सकता है। पर बहुत बार उसके बाद भी लोग पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो पाते और फिर यहीं आते हैं।’

एक किसान जो चिकित्सक भी है 

कांकेर के ही बेवार्ती गाँव में मने सिंह कावड़े के खेत हैं। उनसे मिलने के पहले पोल्ट्री की एक बंद दुकान के सामने हमें इंतजार करने के लिए कहा गया। कुछ समय बाद हमें उनके खेत तक ले जाया गया जहां मने सिंह कई प्रकार की सब्जियां, फल और पेड़ उगाते हैं। ग्रीनहाउस में कावड़े से बात शुरु हुई पर गर्मी की वजह से फिर हम बाहर जमीन पर बोरियाँ बिछा कर बैठ गए। उन्होंने बताया कि कैसे उनकी नीयत ने नहीं, नियति ने फैसला किया कि वे चिकित्सक बनेंगे। उनका मानना था कि अक्सर एक पीढ़ी छोड़ डीएनए के जरिए औषधियों का ज्ञान परिवार की आनेवाली पीढ़ियों में चलता रहता है। इस तरह हर गांव को अपना एक सर्जन मिल जाता है। मने सिंह ने बताया,‘जो मुझे विरासत में मिला, और जो सलाह सपनों में मेरे पूर्वज मुझे देते हैं, उसके अलावा भी मैंने अपना शोध शुरु किया। हमारा शरीर प्रकृति का हिस्सा है। जब हम कुछ प्राकृतिक खाते हैं, शरीर स्वतः उसे स्वीकारता है। शरीर में प्रकृति की कमी ही बीमारी बन जाती है।’

वैद्य मने सिंह विष की औषधि वाले गरुड पेड़ के नीचे

उनके अनुसार रोग की वजह है उन पदार्थों को खाना जो हमें पसंद है, न कि उनको जिनकी हमें जरूरत है। इससे कितनी ज्यादा हानि हो सकती है, ये तब पता चलता है जब नुकसान हो चुका होता है। हमारी रोगों से लड़ने की शक्ति कम होती जा रही है और जो दवा की गोलियां हम निगलते हैं उनका आकार बढ़ता जा रहा है। पहले के लोग प्राकृतिक तौर से उगा कर हरा-भरा खाते थे। पर आज सरकार को खाने में नहीं, खनिज में रुचि है। उनका इशारा राज्य में बढ़ते खनन के काम से है। वे विकास को भौतिकवाद की निशानी मानते हैं, और ‘विकसित’ भोजन को भी ग्राहक को बेचे जाने के खिलाफ हैं, ‘जैसा खाना हम आज अपने शरीर में डाल रहे हैं, वो कुछ ऐसा है जैसे दाल पीसने वाली मशीन में लोहा डालना।’

कावड़े मुनाफा कमाने वाले एक व्यापारी थे। फिर एक बार बीमार पड़े और इलाज के लिए खुद ही दवाओं को ढूँढ़ कर उन्हें तैयार करना पड़ा। ‘आधुनिक उपचार शैली की बात करें तो उसमें एक बीमारी की पचास दवाएँ दी जाती हैं। प्रकृति की एक औषधि आपके पचास रोगों को दूर कर सकती है।’ कावड़े ने कहा कि जो दवाएँ वो खुद लोगों को देते हैं वो वायरस को मारने का काम सबसे पहले करती है। फिर बीमारी से होनेवाली जो शारीरिक तकलीफ और असहजता है उसे ठीक होने में थोड़ा और वक्त लगता है। 

कुछ औषाधियों से हमारा परिचय कराने के लिए कावड़े ने पहले हमें अपने पेड़ों से तेंदू के फल दिए। उनके अनुसार तेंदू छह महीने तक रोगों से लड़ने की शक्ति देता है। फिर वो गरुड़ नाम के पेड़ के पत्ते दिखाने लगे जो साँप के जहर से बचाव करते हैं। ‘पर मरीज को एक घंटे के भीतर लाना पड़ता है, इससे पहले की दिल काम करना बंद कर दे।’ गरुड़ की शक्ति की बात करते हुए कावड़े  ने कहा कि अगर उस पेड़ के नीचे साँप थोड़ी देर ठहर जाए तो उसकी मृत्यु हो सकती है।’ गिलोय की बेल को वो पट्टी बाँधने के उपयोग में लाते हैं। मने सिंह पेड़ों को लिंग से पहचानते हैं: ‘अगर पेड़ की छाल मोटी है, तो वो पुरुष की है। औरतों के दिलों में करुणा होती है, सो उन पेड़ों की छाल नरम होती है और चबाई जा सकती है।’

सरकारी अनुदान और अपनी मेहनत और जानकारी की बुनियाद पर कावड़े की खेती अच्छी चलने लगी। एक वक्त पर कई मरीज उनसे समय माँगने लगे। एक अत्यधिक वजन वाले नौजवान की बात उन्होंने बताई जिसे चलने में भी तकलीफ हो रही थी। ‘मैंने तब अपने पुश्तैनी पेन (देव) के कहे अनुसार एक खास पौधे का बीस मिलीलीटर रस उस मरीज को पिलाया। उपचार के बाद उसे वापस ले जाने के लिए जब तक उसके परिवार ने स्ट्रेचर् निकाला, तब तक वो चल कर जाने लायक हो गया था।’ कावड़े तक मुझे लानेवाले मेरे स्रोत उस दो वर्षीय शिशु की चर्चा छेड़ते हैं जिसके दिल में छेद था, और कैसे कावड़े के उपचार से बच्ची ठीक होने लगी थी। कावड़े ने बात पूरी की,’पर अफसोस कि उसके माता-पिता को पता लग गया कि मुझे एक ही गोत्र में हुई उनकी शादी के बारे में मालूम है। क्योंकि हमारे समाज में ऐसी शादियाँ मना हैं, वे शर्मिंदगी की वजह से मेरे पास आने से कतराने लगे।’

इस प्राकृतिक वैद्य की सबसे बड़ी चुनौती थी एच.आई.वी. से ग्रस्त एक मरीज। कावड़े का कहना था महिला खुद एक नर्स थी और समाज के कुण्ठित नजरिए की वजह से इस बीमारी को लेकर शर्मिंदा थी। कावड़े को एच.आई.वी. से लड़ती मरीज पहली बार मिली थी। और वो बार-बार पूछ्ती थी कि क्या वो ठीक हो सकेगी। मने सिंह का कथन था, ‘अपने ईश्वर से मार्गदर्शन की प्रार्थना करने पर मैं उसे सही दवाई दे पाया और अगली बार मिलने पर औरत के रुग्न चेहरे पर एक चमक थी।’

प्रसिद्ध होने पर कावड़े लोगों से मिलने का समय, दिन आदि तय करने लग गए। पर वो उसे व्यवसाय नहीं, ज्ञान साझा करने का तरीका मानते हैं। सुनियोजित ढ़ंग से इस काम को समय देने से वो वापस खेती में जुट पाए। पर बतौर किसान उनकी अलग चिंताएँ हैं: ’न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे जाकर किसानों को अपनी उपज व्यापारियों को बेचनी पड़ती है। हर चीज के लिए सब्सिडी उपलब्ध नहीं। वो समय बेहतर था जब हम आपस में वस्तु-विनिमय कर लेते थे। अब पड़ोसी जो उगाता है वो हम व्यापारी के जरिए महँगी कीमत पर खरीदते हैं। तभी विकास की बातें खोखली लगती हैं। विदेशों से आए हुए प्रतिनिधि बड़े शहरों की जगह गाँवों के दौरों पर आएँ तब उन्हें सच का पता लगे। हम पहले ज्यादा विकसित थे क्योंकि ज्यादा संपन्न थे। अब केवल पूँजीवाद का विकास हो रहा है।’

सुंदर सिंह और मने सिंह, दोनों ही उस प्रण का पालन करते हैं जो मरीजों के उपचार को चिकित्सक का पहला कर्तव्य बताता है। बड़े शहरों के अस्पतालों और नीम-हकीम के कारनामों की वजह से बहुत लोग देशी दवाओं में विश्वास खो चुके हैं। पर इस ज्ञान पर कब्जा कर जब कम्पनियाँ पेटेंटों और पैकेटों में बाँध कर उसे ऊंचे दामों पर हमें देती है तो उस पर हम भरोसा कर लेते हैं। जिन वैद्यों से मैं मिली वे इस बात से खुश नहीं थे क्योंकि उनके अनुसार फिर सब लोग उन दवाओं तक नहीं पहुंच पाते और इस प्रक्रिया में औषधियों की प्राकृतिक शुद्धता से भी छेड़-छाड़ की जाती है। पर व्यक्तिगत तौर पर वे इस प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं होना चाहते। क्योंकि किसी का स्वास्थ्य लाभ उनके लिए एक व्यावसायिक काम नहीं। मने सिंह के शब्दों में: ‘यहाँ हम अपनी विद्या समाज के साथ बांटते हैं। हमारे बुज़ुर्गों से हमें ये विरासत मिली है लोगों की मदद के लिए, मुनाफा कमाने के लिए नहीं।’ 

शायद तभी छत्तीसगढ़ में कोया भूमकाल क्रान्ति सेना जैसे युवा समूह ऊँची शिक्षा भी प्राप्त कर रहे हैं और स्थानीय प्रशिक्षण भी। अलग-अलग राज्यों की आदिवासी सभाओं में जाकर वे खुद को भी सिखा रहे हैं और अपने आदिवासी समाज को भी, उनके अधिकारों को लेकर सजग कर रहे हैं, ताकि वे अपनी परम्परा की रक्षा कर पाएँ और किसी के निजी स्वार्थ के लिए अपने समाज के ज्ञान और उसकी संपदा का दुरुपयोग न होने दें। 

(कॉपी संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें

 

आरएसएस और बहुजन चिंतन 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

 

लेखक के बारे में

अंकिता आनंद

दिल्ली की अंकिता आनंद स्वतंत्र पत्रकार और रंगकर्मी हैं

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...