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बापू के चार बंदर

अरविंद जैन बता रहे हैं कि स्त्रियों को "संपत्ति और सत्ता में बराबर हिस्से के लिए स्त्रियों को वैधानिक, संवैधानिक और अन्य सभी अधिकारों का इस्तेमाल हथियारों की तरह करना होगा। सौंदर्य के लिए ‘प्राइज’ (पुरस्कार) नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमताओं और श्रम के ‘प्राइस’ (मूल्य) के लिए लड़ना होगा

(सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता चर्चित लेखक अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सजा’ को हिंदी के वैचारिक लेखन में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। यह किताब भारतीय समाज व कानून की नजर में महिलाओं की दोयम दर्जे को सामने लाती है। इसका पहला प्रकाशन ‘विकास पेपरबैक’, नई दिल्ली से 1994 में हुआ था। 1996 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अब तक इसके 25 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्रीवाद व स्त्री अधिकारों से संबंधी अध्ययन के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हम अपने पाठकों के लिए यहां इस किताब को हिंदी व अंग्रेजी में

अध्याय-दर-अध्याय सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस बुक्स की ओर से हम इसे अंग्रेजी में पुस्तकाकार भी प्रकाशित करेंगे। हिंदी किताब राजकमल प्रकाशन के पास उपलब्ध है। पाठक इसे अमेजन से यहां क्लिक कर मंगवा सकते हैं।

लेखक ने फारवर्ड प्रेस के लिए इन लेखों को विशेष तौर पर परिवर्द्धित किया है तथा पिछले सालों में संबंधित कानूनों/प्रावधानों में हुए संशोधनों को भी फुटनोट्स के रूप में दर्ज कर दिया है, जिससे इनकी प्रासंगिकता आने वाले अनेक वर्षों के लिए बढ गई है।

आज पढें, इस किताब में संकलित ‘बापू के चार बंदर’ शीर्षक लेख। इसमें बताया गया है कि कैसे कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया ने महिलाओं की अबतक उपेक्षा की है – प्रबंध संपादक)


महिलाओं के खिलाफ रहा है कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया का रवैया

  • अरविंद जैन

बापू ने अपने तीनों बंदरों से कहा था, ‘बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो।लेकिन ये तीनों ही हर समय कान, मुंह और आंखों पर हाथ रखे बैठे रहते हैं- बुरा क्या, अच्छा भी नहीं सुनते, बोलते, देखते। पहला बंदर, कानों पर हाथ धरे बैठा रहता है- कुछ सुनता ही नहीं। न जाने क्या-क्या बोलता रहता है। झूठे वायदे, खोखले आश्वासन और हवाई घोषणायें। क्या करें, किसी की भी तो नहीं सुनता-मानता। दूसरा बंदर, सब कुछ देखता है और सबकी सुनता रहता है (या सुन लेता है) मगर बोलता कुछ नहीं। और तीसरा, सालों बाद तो सुनता है और न मालूम कैसे-कैसे बहुअर्थी फैसले सुनाता रहता है। मगर देखता कुछ नहीं। तीनों मिलकर बहरा, गूंगा और अंधा होने का नाटक (नौटंकी) करते रहते हैं।

और तीनों बंदरों की सुरक्षित ओट में छिपा वो जो चौथा बंदर है न। सब कुछ देखता, सुनता और बोलता है, मगर हमेशा भ्रामक और सनसनीखेज। उसे तो सेक्स, स्काॅच और सुंदरी (विश्व सुंदरी) के सपने देखने-बेचने से ही फुर्सत नहीं मिलती। किसी के भी अंतःवस्त्र उठाकर चौराहे पर प्रदर्शनी लगा देता है। किसी की पकड़ में नहीं आता।

यहां से सोचना शुरू करता हूं तो पितृसत्ता रोज नया मुखौटालगा सामने आ खड़ी होती है। कुछ समझ ही नहीं आता कि कहां, कैसे, क्या और क्यों हो रहा है? कौन है इस नाटक (नौटंकी) का सूत्रधार? दिखता, सुनता कुछ है और अर्थ-अनर्थ कुछ और। बराबरी के मौलिक अधिकार का मतलब बताया जा रहा है बराबरों में बराबरी।’… उत्तराधिकार का अर्थ- पुत्राधिकार…। वैध, जायज या कानूनी (संतान) पुरुष की और अवैध-नाजायज-गैर कानूनी (संतान) स्त्री की…। बाल विवाह दंडनीय अपराध। लेकिन विवाह हर हाल में मान्य होगा।… महिला आरक्षण विधेयक- देश के मर्दों एक होओ।… बलात्कार और हत्या का अभियुक्त बाइज्जत रिहा- सी.बी.आई. अपील दायर करेगी।… यौन हिंसा- बलात्कारियों को फांसी देंगे’… कानून बनाएंगे… कब? कैसे?… सामाजिक न्याय… समान नागरिक संहिता बनाएंगे’… अभी नहीं… कभी नहीं।…धर्मनिरपेक्षता… धर्मांतरण पर राष्ट्रीय बहस हो।… यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’…‘शाबास! सुष्मिता, ऐश्वर्या, डायना, युक्ता… घर में बुर्का, बाजार में बिकनी…। रोटी, कपड़ा और मकान… परिवार नियोजन… हम दो… बेटी नहीं चाहिए’…। जनसंख्या नियंत्रण का उद्देश्य- स्त्री की कोख पर नियंत्रण। संबंधों के लिए निरोध इस्तेमाल करें।… जन, गण, मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता।

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खैर… जब राजसत्ता की पंचवर्षीय योजनायें विफल हो गईं और सरकार रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन के लिए अनिवार्य न्यूनतम सुविधायें उपलब्ध करने-करवाने में विफल होने लगी तो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने सलाह दी कि संकट की इस घड़ी का सामना करने के लिए जनसंख्या नियंत्रणपरम आवश्यक है, वरना…। जनसंख्या नियंत्रण का मतलब था (है), स्त्री की कोख पर नियंत्रण। कोख पर नियंत्रण के लिए निरोध, गर्भनिरोधक उपकरणों और गोलियों के आविष्कार पर कुछ लाखों-करोड़ों रुपए (डालर, पौंड) खर्च करना कोई बड़ी बात नहीं थी। हां! धार्मिक संस्थाओं के विरोध-प्रतिरोध की परेशानी तो थी मगर राजसत्ता के सामने धर्म (मठाधीश या धर्माचार्य) कब तक घुटने नहीं टेकते! राष्ट्र के विकास के नाम पर जनंसख्या नियंत्रण यानी कोख पर नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन या कल्याण की एक से बढ़कर एक क्रांतिकारीस्कीम सामने आने लगी। इसी महाअभियान का एक महत्वपूर्ण हथियार था गर्भपात कानून।

संसद भवन, नई दिल्ली के सामने गांधी की प्रतिमा

परिवार नियोजन योजनाओं का परिणाम यह हुआ कि बेटियों की संख्या लागातार घटती गई क्योंकि हर परिवार को अनिवार्य रूप से सिर्फ पुत्राधिकारियों की ही जरूरत थी। एमनियो सेंटोसिस टेस्टने बेटियों का गर्भ में ही गला घोंट दिया। वरना शिक्षा, जागरूकता, साधन और स्वास्थ्य सेवाओं में तो अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी ना! फिर लड़कियों की संख्या लगातार कम क्यों होती चली गई? दरअसल निरोध, गोलियां और गर्भपात के कानूनी अधिकार देने का मुख्य उद्देश्य औरत की कोख पर नियंत्रण करके राष्ट्र की जनसंख्या का नियंत्रण करना भी था और स्त्री को पुरुष के आनंद की वस्तुबनाना भी। स्त्री को देह का स्वामित्व और उपभोग की आजादी का पाठ पढ़ाए बिना, यह सब कैसे संभव हो सकता था?

पश्चिम का इतिहास गवाह है कि यौन क्रांतिएक सीमा तक ही स्त्री मुक्तिका संबल बन पाई। गर्भ निरोधक गोलियों से लेकर एड्सतक की यात्रा में नारी की आजादी का मतलब मर्दों को पहले से अधिक आजादी और फायदे में निकला। न गर्भ ठहरने का डर और न सामाजिक बदनामी का खतरा। एक तरफ स्त्रियों को अपनी देह का स्वयं स्वामी-मालिक बताकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ब्रांड बेचने के लिए नग्न-अर्द्धनग्न माडलऔर कामना या आनंद की वस्तु में बदला जा रहा है, मगर दूसरी तरफ घर में पत्नी, मां, बहू, बेटी या बहन के लिए वही सदियों पुरानी नैतिक मर्यादा, यौन शुचिता और पतिव्रता के कड़े नियम लागू हैं। इन दोनों अंतर्विरोधों और जटिल स्थितियों में नारी अस्मिता और मुक्ति के प्रश्न अधिक पेचीदा और घातक सिद्ध हो रहे हैं।

कौमार्य बचाए रखने के लिए स्त्री घर में कैद होकर रहे या घर से बाहर निकलने की कामना हो तो निरंतर बलात्कार… हत्या… का भय झेलती रहे? हालांकि सुरक्षित कहीं नहीं। सती-सावित्री बने रहना है तो चैस्टिटी बैल्टऔर बुर्का या घूंघट पहने रहें। यौन स्वतंत्रता चाहिए तो खतरनाक औरतया छिन्नमस्ताहोने-कहलाने की हिम्मत तो बटोरनी ही पड़ेगी। घरऔर बेघरके बीच चुनाव, अभी भी स्त्री को ही करना है। घर का सुख-सुरग चाहिए या बेघरहोने की सजा-फैसला खुद कर लें…। बस, यही है चुनाव का अधिकार और निर्णय लेेने की आजादी।

कौमार्य भंग होने का अर्थ जीवन बर्बादहोना। विवाह तक कौमार्य बचाए रखने की सीख, सचमुच स्त्री को घर में कैद रखने और परंपरागत परिवार और विवाह संस्था में स्त्री पर पुरुष का एकाधिकार बनाए-बचाए रखने के लिए ही दी जाती है। सीख, आदेश या उपदेश का वास्तविक उद्देश्य स्त्री को निरंतर बर्बाद होते-दिखाते रहना ही है। सावधान! आगे खतरे हैं।

गत वर्षों में परिवार के भीतर-बाहर यौन-हिंसा के आंकड़ों का आतंक लगातार बढ़ रहा है। स्त्री मुक्ति आंदोलन के प्रभावों-दबावों के कारण सुधारवादी-उदारवादी-संशोधनवादी मेकअपजरूर हुआ परन्तु उससे न परिधि पर स्त्रीकी स्थिति (सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक…) बदली और न अन्य संकट कम हुए। शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के आधार पर, नारी मुक्ति का सपना देखने-दिखानेवाले सिद्धांतों को ही लकवा मार गया। महिलाओं की समस्या पहले से अधिक गंभीर और जटिल हो गई। शोषण दोहरा। जिम्मेवारी दोगुनी। अधिकार शून्य।

महानगर की मध्यवर्गीय स्त्री के लिए शिक्षा सुटेबल ब्वायढूंढ़ने के लिए आवश्यक प्रमाण पत्र भर बन पाया। जितना ज्यादा पढ़ाओ, उतना ही ज्यादा सुयोग्यवर ढूंढ़ना पड़ेगा और विवाह मंडी में वरानुसार दहेज तो देना ही पड़ेगा। दहेज न हो तो बेटियां कुंआरी बैठी रहें। और मुंहमांगा दहेज देने के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि ससुराल में कब तक जिंदा रहेंगी। शिक्षित हो तो नौकरी करो। कमाओ और हर महीने लिफाफालाकर घर में संभलवाओ। महंगाई क्या कम है? पत्नी के वेतन से घर का खर्च चलेगा और बाकी बचत से पति के नाम संपत्ति, फिक्स्ड डिपाजिट या शेयर बाजार जिंदाबाद। यही है नौकरी का अर्थशास्त्र’- महिलाओं के लिए।

परिवार के बाहर हिंसा, लूट, दमन, शोषण और उत्पीड़न से बचने के लिए मध्यवर्गीय स्त्री परिवार या विवाह संस्था की घरेलू गुलामीस्वीकार करती है। लेकिन परिवार में ही हिंसा (भ्रूण हत्या, हत्या, दहेज हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, यौनशोषण)  और उत्पीड़न कम नहीं। इसीलिए वह प्रायः घर छोड़ने पर विवश होती है या कर दी जाती है। घरेलू गुलामी से मुक्ति की तलाश में निकली औरत के पास जीवन-यापन के लिए श्रम है या शरीर। निम्नवर्ग की स्त्रियों के लिए तो मेहनत-मजदूरी करना आर्थिक विवशता है ही। वेतन या मजदूरी तक पुरुष के बराबर नहीं मिलती, ऊपर से यौन शोषण अलग।

स्त्री के श्रम और देह शोषण की नींव पर खड़ी ऐसी परिवार व्यवस्था और पूंजी संबंधों को नष्ट होने से कौन रोक सकता है? पितृशक्ति अभी भी घर में अपनी बहू-बेटियों को घूंघट या बुर्के में कैद रखना चाहती है मगर घर के बाहर उसे बिकनीवाली सुंदरियां (विश्व और ब्रह्मांड सुंदरियां) चाहिए जो उसके सेवा, उद्योग मनोरंजन, व्यवसाय चला सकें और रोज नए ब्रांड बेच सकें। विश्व सुंदरियों और नारी चेतना के स्वर जब उसके अपने घर में सुनाई पड़ते हैं (पड़ेंगे ही) तो वह चिल्लाने लगता है परिवार बचाओ’…‘संयुक्त परिवार लाओ।

अविवाहित लड़कियों और बिना विवाह किए मां बननेवाली युवतियों की संख्या जब लगातार बढ़ने लगी तो पितृसत्ता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंता सताने लगी कि परिवार ही नहीं होगा/रहेगा, तो पुरुष की पूंजी और सत्ता का क्या होगा? राजसत्ता और समाज का मुख्य एजेंट (मुखिया) राज कहां और किस पर करेगा?… औरत को वापस घर लाओ वरना…।

स्त्री के व्यक्ति, व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास में पुरुष (पिता, पति, पुत्र) अक्सर खलनायक की भूमिका में ही क्यों दिखाई देते हैं? स्त्री परिवार या विवाह संस्था से बाहर स्वतंत्र रूप से सम्मानजनक जीवन क्यों नहीं जी सकती? विवाह के अलावा क्या और कोई विकल्प हो ही नहीं सकता? क्या औरत को हमेशा रक्त या यौन संबंधों और संपत्ति के समीकरणों में ही जाना-पहचाना जाएगा? उसकी न अपनी कोई स्वतंत्र पहचान और न कोई स्वतंत्र निर्णय। मौजूदा परिवार के सड़ते मनुवादीढांचे को और अधिक लंबे समय तक बचा पाना सर्वथा असंभव ही नहीं, बेहद खतरनाक भी है।

मातृत्व अगर स्त्री की सार्थकता है तो बेड़ियां भी कम नहीं है। मां बनना या न बनना उसका अधिकार है लेकिन न्यायिक सक्रियताके इस दौर में भी न्यायमूर्तियों का कहना है कि पति की सहमति के बिना गर्भपात करवाना, पत्नी द्वारा पति पर की गई मानसिक क्रूरताहै। तलाक…तलाक…तलाक…। समझाना आसान नहीं कि वास्तव में कौन, कितना क्रूर है। क्यों? यह तो मेरे समय की स्त्री ही जानती है या स्त्री का समय। वह जब भी कहती है, ‘‘यह मेरा शरीर है। इसके बारे में फैसला करने का अधिकार भी मुझे ही होना चाहिए।’’ तो पितृसत्ता समझाती है, ‘‘महिलाएं घरों में जाकर (रहकर) बच्चे पालें, क्योंकि मातृत्व से बड़ा कोई सुख नहीं।’’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित गोरेपन की क्रीम और पिताश्री के परिवार वापसी के अर्थ बेचती विश्व सुंदरियां संदेशदोहराती हैं मां होना स्त्री की सबसे बड़ी उपलब्धि है।अजीब विरोधाभास है कि ‘‘संस्कृति की सारी बहस स्त्री के स्कर्टकी ऊंचाई-नीचाई से तय होती रहती हैं,’’ मगर सौंदर्य प्रतियोगिता में स्त्री अपनी मर्जीसे शामिल हो रही है। स्त्रियां मर्दों के बनाए विधान से बाहर निकल रही हैं। उसे तोड़ रही हैं। मगर सवाल है यहां से आगे कहां जाएंगी? रास्ता किधर है?

वैसे 1950 के बाद भारतीय समाज (विशेषकर शहरी मध्यवर्ग) में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पारिवारिक स्तर पर संविधान, कानून, शिक्षा और जनचेतना के कारण व्यक्तिगत संबंधों और परंपरागत विवाह संस्था के स्वरूप, स्वभाव और स्थितियों में निरंतर परिवर्तन भी हुआ है। शहरीकरण, औद्योगीकरण और आर्थिक दबावों की वजह से संयुक्त परिवारों के टूटने-बिखरने की सामाजिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया पहले से अधिक तेज हुई और छोटा परिवार-सुख का आधारमाना जाने लगा। शिक्षित स्त्रियां भी घर से बाहर निकल नौकरी या अन्य काम-धंधा करने लगीं। आरंभ में बढ़ती महंगाई और परिवार के आर्थिक बोझ को कम करने के उद्देश्य से ही महिलाओं ने ऐसा करना शुरू किया था। आर्थिक स्वतंत्रता और व्यक्तित्व के विकास की चेतना बहुत बाद में आई। इस बीच धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, नैतिकता, मर्यादा और बंधनों का बदलना भी अनिवार्य था- सो एक हद तक बदले भी। परिवार की प्रतिष्ठा के प्रश्न व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों के सामने गौण होते गए और परिणामस्वरूप मध्यवर्गीय एकल परिवारों में पति-पत्नी के बीच तनाव या एक-दूसरे से मुक्त होने की इच्छा, आकांक्षा या विवशता कोर्ट-कचहरी तक पहुंचने लगी। अदालतों में लगातार बढ़ते तलाक, गुजारा-भत्ता, बच्चों का संरक्षण, दहेज, स्त्रीधन, मानसिक यातना के मुकदमे भारत में परिवार या विवाह-संस्था और मौजूदा परिस्थिति और भविष्य पर शोधकर्ताओं के लिए काफी है। परिवार में तनाव के कारण स्त्री-पुरूष विशेषकर बच्चों में मानसिक असंतुलन, भावनात्मक विकृतियां, मनोवैज्ञनिक बीमारियां, अपराध बोध और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण लगातार बढ़ता और गहराता गया है।

लेकिन नारी प्रश्नअभी भी बना हुआ है कि सामाजिक परिवर्तन, सांस्कृतिक बदलाव, प्रजातांत्रिक मूल्यों और व्यक्ति के मानवाधिकारों की लगातार बढ़ती जनचेतना, शिक्षा और प्रसार के तकनीकी दौर में क्या मौजूदा परिवार व्यवस्था को पुरानी पितृसत्ता की निरंकुशता को बनाए-बचाए रखकर बचाना संभव है? सामंती परिवार सत्ता से प्रजातांत्रिक राजसत्ता (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैधानिक) तक में आज भी स्त्री की स्थिति, सम्मान और अधिकार क्या है? विवाह से विवाहविच्छेद तक के निर्णयों में उसका अपना निर्णय कहां और कितना है? एक संबंध से मुक्त होने की विवशता से लेकर दूसरे संबंध में बंधने की मजबूरी के पीछे स्त्री कितनी अपमानित, आहत और असहाय है? इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। विवाह संस्था में जब तक पत्नी और पुत्र, पति की संपत्ति माने-समझे जाते रहेंगे तब तक किसी भी संवैधानिक मौलिक अधिकार का अर्थ क्या है? परिवार या समाज में स्त्री के लिए जगहक्या है? कहां है?

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो, पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री (गुड़िया) के धड़ का सुंदर, सुडौल और सुचारू होना ही, सर्वगुण संपन्न होना माना जाता (रहा) है। स्त्री सिर्फ सुंदर धड़ होनी चाहिए (सिर हो तो काटकर फेंक दो- बेकार के प्रश्न करेगा)। विडंबना यह है कि स्त्री (विशेषकर शहरी, शिक्षित, स्वावलंबी और स्वतंत्र) देह को एक सुंदर, ‘रसीला फल’, वस्तु, चीज और भोग्य रूप में न पूर्ण रूप से स्वीकार पाती है और न नकार पाती है। ऐसे अंतर्विरोधी देह के चौराहे पर खड़ी स्त्री के नैतिक संकटों, विस्फोटक स्थितियों, प्रतिरोधों, दमन और द्वन्द्वों में मानसिक उपद्रव को रेखांकित करना कठिन है।

मर्यादाओं के मकड़जाल में स्त्री के लिए प्राइवेट लाइफका मतलब है व्यभिचार एक सिंदूरी संबंधों से बाहर, हर संबंध अनैतिक, पाप और अक्षम्य अपराध है। एकल विवाह या संबंध के सारे प्रतिबंध सिर्फ स्त्री के लिए। पुरुष के लिए व्यभिचार की खुली वैधानिक छूट। रखैल, रक्षिता, वेश्या, कालगर्ल सब उसी के आनंद की संस्थायें हैं। पूंजी के शर्मनाक खेल में औरत को भोग-उपभोग की सुंदरवस्तु बनाया जा रहा है। एक ओर पोर्नोग्राफी के माध्यम से नपुंसक होते पुरुषों की कामवासना का आनंद बाजार बढ़ा रहा है, दूसरी ओर नारी विरोधी अपराधों (यौन अपराध) की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। होगी, क्योंकि जैसे-जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की आड़ में अश्लीलता बढ़ेगी, वैसे-वैसे हिंसा भी। पर्दे पर बढ़ी यौन हिंसा का सीधा प्रभाव समाज में प्रतिध्वनित होगा। हो रहा है। उल्लेखनीय है कि पूंजी के बाजार में यौन हिंसासे ज्यादा बिकाऊ खबर, साहित्य या फिल्म क्या हो सकती है? एक तो पोर्नोग्राफी पितृसत्ता के लिए भारी मुनाफे का व्यापार है, दूसरा विश्वभर की स्त्रियों को मानसिक रूप से उत्पीड़ित-शोषित करके, अपनी पूंजी सत्ता बनाए-बचाए रखने का षड्यंत्र। ऐसा अश्लील साहित्य विरोध और विद्रोह की भावना को कुंठित करके पूरी पीढ़ी को नपुंसक, बीमार और विकृत मानसिकता की ओर अग्रसर भी करता है। कर रहा है।

स्त्री देह के व्यवसायीकरण; निःसंदेह उन्हें शो गल्र्जबनाने के लिए ही उत्प्रेरित करेगा (करता है) करता रहेगा। लेकिन बापू का चैथा बंदर प्रचारित कर रहा है, ‘‘उसे भी सत्ता में हिस्सा चाहिए था और उसके पास हथियार के रूप में सिर्फ उसकी देह थी। चूंकि देह उसकी थी, इसलिए वह उसका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्रथी- वह फिल्मों में, राजनीति में, उद्योग में, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में देह की कीमत वसूल रही थी- वह पुरुषों के खेल में अपनी राजी से शामिल हो गई थी- और उनके नियमों के हिसाब से खेल रही थी।’’ पूंजी का प्रचार-संचार तंत्र देह की सौंदर्य स्वतंत्रता के ऐसे ही मिथकों और भ्रामक दुश्चक्रों को रचता रहा है। स्त्रियों के लिए घर में बुर्के और बाजार में बिकनियां नहीं बनाता-पहनाता तो उसका अरबों-खरबों का धंधा (फिल्म, राजनीति, विज्ञापन, उद्योग, प्रसाधन, सेवा, प्रचार तंत्र, पोर्नोग्राफी प्रकाशन और आनंदबाजार) चौपट नहीं हो जाता?

स्त्री को देह के हथियारसे कितना सत्ता में हिस्सामिला या मिल पाया- हम सब अच्छी तरह जानते हैं। पुरुषों के इस भयावह खेलमें स्त्री की सहमति का निर्णय वह स्वयं ले रही है या सिक्का (रुपया, डालर, पौंड)? देह के अर्थशास्त्र में स्वेच्छा और स्वतंत्रता का निर्णायक आधार बिंदु क्या है? देह के व्यवसाय का मुनाफे और देह की कीमतके बीच क्या अंतर्सम्बन्ध है? खेल के नियम, शर्तें और चुनाव प्रक्रिया कौन निर्धारित कर रहा है? बहुराष्ट्रीय पूंजी के सामने सुंदर स्त्री के विरोध, प्रतिरोध और मोलभाव का क्या कोई मतलब है? पुरुष उद्योगपतियों द्वारा पहले से तय कीमत (इनाम, पुरस्कार, पारिश्रमिक…) पर, जब हजारों विश्व सुंदरियों को लाइन लगाकर देह प्रदर्शनों के लिए लाकर खड़ा कर दिया जाता हो तब राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दलालों के हाथों में नाचतीं कठपुतलियां या सुंदर गुड़िया सिर्फ वस्तु, माल या साधन भर होती है। खरीदार की शर्तों का खेल खेलने में, सुंदरी की हार पहले से ही निश्चित है। हार में ही जीत का अहसास कब तक बना रह सकता है? आज जो टाप हीरोइनहै या मानी-समझी जा रही है, कल वही इतिहास नायिका गुमनाम मौत मारी जाएगी। मार्लिन मुनरो से लेकर पामेला बोर्डेस और डायना तक, सुंदर स्त्रियों की व्यथा-कथा कौन समझ-समझा सकता है?

लगता है कि पूर्व से पश्चिम तक बसे-उजड़े परिवारों में स्त्री की (ऐतिहासिक-सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक)स्थिति, क्षमता, सीमा, संघर्ष और शुभकामनाओं को सूक्ष्मता से समझने या बहस, चिंता और चिंतन के बाद ही परिवार बचाओको अंतर्राष्ट्रीय वर्ष बनाया गया होगा। विवाह संस्था में स्त्री-पुरुष के बीच निरंतर गहराते शीतयुद्ध और सत्ता-विमर्श के रणक्षेत्र में सड़ते संबंधों की शव-परीक्षा के बाद सोचा गया होगा कि अब क्या करें? पितृसत्तात्मक समाज के भीतर-बाहर, चारों तरफ फैली भयंकर हिंसक संस्कृति और विस्फोटक परिस्थितियों में घिरी (घेरी गई) स्त्री के चेतन-अवचेतन में बिछी बारूदी सुरंगों के बेहद जटिल मानचित्रों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके ही समाज-सेवा और सौंदर्य प्रतियोगिताओं के सुरक्षित (बेहद आकर्षक और मोहक) विकल्पों की ऐसी परियोजनायें बनाई गई होंगी, जिसमें उच्च मध्यम वर्ग के शिक्षित विद्रोहीऔर क्रांतिकारीसमाज सुधारकों को पूंजी की परियोजनाओं के अंतर्गत समाज सेवा का महानकाम सौंपकर पितृसत्ता फिलहाल खतरा टाल सके ताकि यथास्थिति बनी रहे।

पिछले दो दशकों में (भारत में) हजारों समाजसेवी संस्थाओं की स्थापना, गोष्ठी, सेमिनार और अरबों रुपये की सरकारी, गैर सरकारी, देशी-विदेशी मदद, अनुदान और योजनाओं का कुल परिणाम क्या है? क्या भारतीय समाज में औरतों की स्थिति में कोई गुणात्मक सार्थक बदलाव आ पाया? इस दौरान है कोई राष्ट्रीय-प्रांतीय स्तर का बड़ा नारी मुक्ति आंदोलन? आम भारतीय औरतों (विशेषकर ग्रामीण) की हालत हर जगह पहले से बदतर हुई है। साक्षरता अभियान का असली मकसद स्त्रियों को शिक्षित और जागृत करना नहीं बल्कि सिर्फ इतना साक्षर करना है कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ब्रांडपहचान-खरीद सकें। पूंजी के नए खेल में अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं के संस्थापक साम्राज्यवादी पितृसत्ता के हाथों में नाचती वो कमजोर कठपुतलियां हैं, जो स्थानीय परिवार के मुखिया के काबू में नहीं आ रही थीं। इन्हें अगर समाज सेवाके सुविधाजनक और समृद्धि के सपने नहीं दिए जाते, तो कहना न होगा कि इसका विरोध या विद्रोह कहीं कुछ और गुलखिलाता… जहरफैलता।

दरअसल आम समाज के स्टीरियो टाइपनर-नारी को अपनी-अपनी रोजी-रोटी के संघर्ष से ही फुर्सत नहीं है। पितृसत्ता की परेशानी यह है कि उसे अपने आधुनिकतम उद्योग और अन्य समस्याओं को संभालने-सुलझाने के लिए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष (एंटी स्टीरियो टाइप) चाहिए, जो माडलिंग से लेकर समाजसेवी परियोजनाओं पर काम कर सकें। काफी जोखिम का काम है, इसलिए कीमत भी थोड़ी देनी पड़ेगी और वह भी इस रूप में कि कीमत न लगे। सिक्के के साथ सम्मानभी जोड़ना पड़ेगा- विश्व संुदरी से लेकर समाजसेवियों तक के लिए कुछ बड़ी धनराशि के पुरस्कार। यौन नैतिकता और सामाजिक मर्यादा के पाखंडी पाठों का पर्दाफाश- ये रोल माडलअपने आप कर ही देंगे। प्रचार तंत्र रातोरात गांव की गलियों तक ढिंढोरा पीट देगा। कुछ सिरफिरे देते रहें सांस्कृतिक साम्राज्यवादकी दुहाई या दुर्ग द्वार पर दस्तक। फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं। सारे पुख्ता इंतजाम किए जा चुके हैं। शेष-अशेष विकल्पों की हत्या के बिना गतिशील समाजके विकास-विस्तार का सपना कैसे साकार हो सकता है? ऐसे में तीसरी दुनिया की अगूंठा टेक स्त्री कब तक ढोएगी अपने कंधों पर (या कोख में) पितृसत्ता की खतरनाक योजनाओं का भार? ‘बंजर जमीनमें सामाजिक बदलाव की बेचैनी के बीज कहां हैं? स्त्रियों को कब तक आतंकित, अपमानित, असुरक्षित और संपत्ति अधिकारों से वंचित रहना होगा? संपत्ति में बराबर बंटवारे के बिना, सत्ता में बराबर भागीदारी कैसे होगी? उसे कब तक आशीर्वाद स्वरूप कहा जाता रहेगा मे यू बी द मदर आफ हंड्रेड संस।

उल्लेखनीय है कि कभी-कभार सत्ता संस्थानों में महिलाओं का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व व्यवस्था की विवशता है। पचास सालों में दो महिला न्यायाधीशों का सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना, कुछ अन्य विद्वान विदुषियों का हाई कोर्ट तक आ जाना, कुछ विशेषाधिकारी वर्ग की बहू-बेटियों का अफसर, मंत्री, राज्यपाल या  प्रधानमंत्री बन जाना (या बना देना) संयोग, सौभाग्य या सत्ताधीश वर्ग की उदारता के परिणाम या प्रमाण नहीं हैं। सत्ताशिखरों तक पहुंचने या पहुंचाने के बाद भी, महिलाओं की न पुरुष प्रत्याशाओं पर खरा उतरने की चुनौतियां बदलती हैं और न पहले से तय पद की भूमिका। सत्ता संघर्ष में सिंहासन तक पहुंचने या बने रहने की कोशिश में अब तक न जाने कितनी औरतों को मौत के घाट उतार दिया गया है या गुमनाम मरने के लिए विधवाश्रमों और पागलखानों की अंधेरी कोठरियों में कैद करके छोड़ दिया गया है। सत्ताधीश स्त्री को पितृसत्ता द्वारा खिंची लक्ष्मण रेखालांघने की अनुमति नहीं। यही वजह है कि स्त्रियों के राष्ट्राध्यक्ष होने के बावजूद देश की आम औरतों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया। आंकड़ों और अपवादों के उदाहरण गिनने-गिनाने से क्या लाभ?

जब तक पितृसत्तात्मक पूंजीवादी समाज में, व्यक्तिगत संपत्ति के उत्तरााधिकार के लिए वैध पुत्रों (यानी विवाह संस्था अपरिहार्य) की अनिवार्यता और परिवार में पुरुष (पिता-पति-पुत्र) का अधिनायकवादी वर्चस्व (सर्वाधिकार सुरक्षित) बना रहेगा, तब तक औरत की अस्मत और अस्मिता, अस्तित्व और व्यक्तित्व, अधिकार और अभिव्यक्ति, समानता और सम्मान का हर संघर्ष अधूरा और सारे घोषणा पत्र बेमानी हैं। संपत्ति और सत्ता में बराबर हिस्से के लिए स्त्रियों को वैधानिक, संवैधानिक और अन्य सभी अधिकारों का इस्तेमाल हथियारों की तरह करना होगा। सौंदर्य के लिए प्राइज’ (पुरस्कार) नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमताओं और श्रम के प्राइम’ (मूल्य) के लिए लड़ना होगा। वरना… बापू के चारों बंदरों के षड्यंत्रकारी चक्रव्यूह को तोड़ना नामुमकिन है/होगा।

(काॅपी संपादन : इमामुद्दीन/नवल)


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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