h n

सिंधु घाटी की सभ्यता

प्रेमकुमार मणि इस लेख में बता रहे हैं कि 1920 में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा और राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में 1921 में मोहनजोदड़ो का उत्खनन कार्य शुरू हुआ। उत्खनन के बाद जो सामने आया, उसने भारत की एक दूसरी तस्वीर दुनिया के सामने रख दी। इसके पहले भारत का इतिहास आर्यों तक सीमित था

जन-विकल्प

मेसोपोटामिया के टिगरिस (दज़ला) व  युफ्रेटस (फुरात) और मिस्र के नील की तरह ही, भारतीय उपमहाद्वीप में ऐतिहासिक महत्व की एक नदी है सिंधु। यह भारतीय उपमहाद्वीप की तीन बड़ी नदियों में से एक है, जिसकी लम्बाई लगभग 2880 किलोमीटर है। जैसे गंगा के अनेक नाम हैं, सिंधु के भी हैं। इसे घग्घर, रावी, परुसनी आदि के नाम से भी जाना जाता है। इसका उद्गम तिब्बत स्थित मानसरोवर के निकट सिन-का-बाब नाम का जलस्रोत है,जैसे गंगा का उद्गम गंगोत्री है। यह नदी तिब्बत (चीन) से निकल कर कश्मीर घाटी तक आती है और फिर नंगा पर्वत के उत्तरी हिस्से से घूमते हुए मौजूदा पाकिस्तान में प्रवेश करती है। इस  तरह एक लम्बी और उतार-चढ़ाव वाली यात्रा तय करते हुए आख़िरकार यह करांची के पास अरब सागर में मिल जाती है। आज इसका अधिकांश भाग पाकिस्तान में है और यह वहां की सबसे बड़ी नदी है। यह पाकिस्तान की राष्ट्रीय नदी भी है, जैसे भारत की गंगा।

 

सिंधु की पाँच उपनदियाँ हैं, जिनके संस्कृत नाम हैं- वितस्ता, चंद्रभागा, ईरावती, विपासा एवं शतद्रु। वितस्ता आज का झेलम है, चंद्रभागा चिनाब हो गया है, ईरावती अब रावी है, विपासा और शतद्रु क्रमशः व्यास और सतलज हो गए हैं। इन्हें एक साथ पंचनद भी कहा जाता है, जिसके कारण इससे जुड़े पूरे भूभाग को पंजाब अर्थात पाँच नदियों का इलाका कहा जाता है। आज इस नदी का सम्पूर्ण भौगोलिक परिदृश्य देखा जाय तो इसके बाएँ-दाएँ दर्जन भर से अधिक नदियाँ और लगभग इतने ही शहर मिलेंगे। जास्कर, सुरु, सूण,  झेलम, चिनाब, राबी, ब्यास, सतलज, पानजनाद (पंचनद ), श्योक, हुनजा, गिलगिट, स्वात, कुनार, काबुल, कुर्रम, गोमल और झोब नदियाँ हैं। इन सब के किनारे लेह, स्कार्दू, दासु, बेशम, थाकोर, डेरा इस्माइल खान और हैदराबाद जैसे शहर बसे हैं।

सिंधु सांस्कृतिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे महत्वपूर्ण नदी है। पंचनद के रूप में यह पंजाब बना; लेकिन आगे चलकर इस से गंगा और यमुना भी जुड़े, और तब यह सप्तसिंधु कहा जाने लगा। एक समय समग्र भारतवर्ष सप्तसिंधु के नाम से जाना जाता था। संभव है तब दक्कन के पूरे इलाके से उत्तर भारत के लोग अनजान हों, अथवा तब का भारत ही छोटा हो, आज के पश्चिमोत्तर भारत से थोड़ा बड़ा या उतना ही। लेकिन धीरे-धीरे इसका सांस्कृतिक प्रभाव पूरे भारत  पर छा गया, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन इतना तो अभी ही जान लेना चाहिए कि इसी सिंधु के नाम पर बना शब्द है इंडस और हिन्दू, जिससे इस देश का नाम क्रमशः इंडिया और हिन्दुस्तान पड़ा। फारसी जुबान में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है, जैसे सप्तः हप्ता हो गया और स्पताल हस्पताल। इसी तरह सिंधु चुपचाप हिन्दू हो गया। बाहरी लोगों ने इस नदी के किनारे बसने वालों को भी हिन्दू कहना शुरू किया। एक समय ऐसा आया जब पूरे सप्तसिंधु प्रदेश में रहने वाले लोगों को बाहरी लोगों ने हिन्दू कहना शुरू किया। तब लोगों ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि एक ऐसा भी जमाना आएगा जब इस शब्द को लेकर कुछ लोग कोहराम करेंगे। आश्चर्य  की बात तो यह है कि यह कोहराम उन लोगों की ओर से हो रहा है, जो एकाध सदी पहले तक अपने को हिन्दू कहने में तौहीन समझते थे। वे स्वयं को आर्य कहना अधिक पसंद करते थे। हिन्दू कहने से तो बड़ा परिप्रेक्ष्य बनता था। आर्यावर्त से खास द्विजभूमि अथवा देवभूमि का बोध होता था। उनका सांस्कृतिक देश भारत या हिंदुस्तान नहीं, अपितु आर्यावर्त था। लेकिन हम यहाँ किसी कोहराम के बजाय एक सभ्यता पर विमर्श करना पसंद करेंगे।

पाकिस्तान के सिन्ध में मोहनजोदड़ो में उत्खनन स्थल

हम जिस सभ्यता की कहानी बतलाने जा रहे हैं, वह मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं की श्रंखला में है और जिससे पूरे भारत के इतिहास अध्ययन में एक नया मोड़ आता है। अनुमान है, ईसा से 3300 वर्ष पूर्व इस सभ्यता ने आकार  लेना आरम्भ किया और कम से कम 1700 ईसा पूर्व तक यह बना रहा। लेकिन 2700 या 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक इसका उत्कर्ष-काल रहा। इस तरह इस सभ्यता के उत्कर्ष का काल 800 से 600 साल तक तो जरूर रहा। किसी भी सभ्यता के लिए इसे लम्बा  समय ही कहा जाना चाहिए।

यह भी पढ़ें : नदी घाटी सभ्यताएं

मेसोपोटामिया, मिस्र और सिंधु घाटी सभ्यता में कुछ समानताएं हैं। तीनों सभ्यताओं के पार्श्व में नदियाँ हैं। कृषि की समृद्ध पृष्ठभूमि है। धातुज्ञान के हिसाब से तीनों सभ्यताओं के पास ताम्बा (कॉपर) और काँसा (ब्रॉन्ज़) तो है, लोहा (आयरन) बिलकुल नहीं है। यानि ये सभ्यताएं लौह-पूर्व  ज़माने की हैं। तीनों सभ्यताओं के केंद्र में शिल्पीजन हैं। लेकिन इतना भी तय है कि पुरोहित और राजा जैसे लोग प्रकट हो चुके थे और उनका दब-दबा भी कायम हो चुका था। किसी सामाजिक संगठन में व्यवस्था कायम करने के लिए शायद यह आवश्यक हो जाता है कि उसका नेतृवर्ग बन जाय। अब यह एक अलग विषय है कि इनकी निर्मिति सहमति से होती है, या शक्ति-प्रदर्शन से। मिस्र में तो नहीं, लेकिन मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी में सुव्यवस्थित नगर आकार  ले चुके थे। उन तीनों सभ्यताओं के पास लिपि थी। यानी लिखना वह जान गए थे। लेकिन सिंधु सभ्यता की लिपि आज तक रहस्य बनी हुई है। यह दाएं से बाएं और फिर बाएं से दाएं की ओर लिखी जाती थी। इससे इसकी एक सर्पिल आकृति बनती है। ऐसी लिपि को बॉसट्रोफेड लिपि कहते हैं। यूँ तो एक एपिग्राफिस्ट इरावथम महादेवन (1930 -2018) ने इस लिपि के रहयोद्घाटन का दावा किया है और हमारे दिवंगत मित्र मोतीरावण कंगाली भी इसके पाठ का दावा करते रहे थे और इस विषय पर उनकी एक किताब भी प्रकाशित है, लेकिन इस पर सर्वानुमति अभी भी नहीं बन सकी है। इस विषय पर आज भी अनुसन्धान चल रहे हैं।

तांबे की बनी स्त्री की एक प्रतिमा

सब से अधिक चमत्कृत करने वाली चीज है, उनकी नगर-योजना। एक दूसरे से समकोण अर्थात नब्बे डिग्री के ज्यामितिक ज्ञान  से काटती हुई वीथियाँ उनके परिपक्व गणितीय ज्ञान की सूचना देती है। उनकी आवास-योजना सेक्टर में हुआ करती थी। एक सेक्टर अथवा आवासीय खंड में वे तमाम चीजें उपलब्ध होती थीं, जो उसमें निवास करने वाले लोगों के लिए आवश्यक हो और जिनकी उपलब्धता उस काल में  संभव थी। सामूहिक स्नानागार, जलनिकासी के लिए पक्की ईंटों की बनी नालियां, अनाज रखने के लिए वृहद् कोठार सुव्यवस्थित रूप से बने थे। राजाओं और पुरोहितों के घर सेक्टर अथवा आवासीय खंड के पश्चिम दिशा में होते थे, जिन्हें ऊँची चारदीवारी घेरे होती थी, इसे नगरदुर्ग या सिटाडेल कह सकते हैं। अन्य दूसरे नागरिकों के आवास पूरब की दिशा में होते थे। पूरी नगर योजना पकी हुई और एक सामान ईंटों की बनी हुई है और उन्हें अत्यंत बारीकी से ज्यामितीय ढंग से जोड़ा गया है। ध्यान देने लायक है कि मुख्य सड़क तैंतीस फुट की चौड़ाई लिए हुए है, जो आज के ज़माने में भी नगर के आंतरिक सड़कों की आदर्श चौड़ाई है।  उस वक़्त में इस तरह का परिष्कृत भवन-निर्माण ज्ञान होना किसी को भी आश्चर्य में डाल देता है। यह भी पता चलता है कि यह सब इक्के-दुक्के कारीगरों के बूते कदापि संभव नहीं था। कारीगरों-शिल्पियों की एक भरी-पूरी जमात थी, एक पूरा वर्ग था। निश्चित वे इधर हाल के शिल्पियों की तरह लिपि और गणित के ज्ञान से वंचित नहीं किये गए थे, अन्यथा इतनी तरक्की संभव नहीं थी।

सिंधु-सभ्यता में लोग व्यापार करते थे, इसकी पक्की सूचना है, क्योंकि मोहरों  (सील ) की इक्की-दुक्की नहीं अपितु प्रचुर उपस्थिति वहां मिलती है। केवल मोहनजो-दड़ो की खुदाई से ही 1200 से अधिक मोहरें (सील) मिली हैं।  नदियों में नावों द्वारा वे विचरण करते थे और ऐसा प्रतीत होता है समुद्र पर भी उन्होंने हाथ आजमाया था। मेसोपोटामिया से उनके व्यापारिक रिश्तों के पक्के सबूत हैं, जैसे चाँदी की बनी चीजें हड़प्पा में मिलना और सिन्धु के कई जेवरात मेसोपोटामिया में मिलना, इनके व्यापारिक  रिश्तों को पुष्ट करते हैं। हड़प्पा और मोहनजो-दड़ो के बीच भी कोई 482 किलोमीटर की दूरी है। इन दोनों को सिंधु नदी जोड़ती है। इसलिए मानी हुई बात है कि नावों के द्वारा ये परिचालन करते होंगे। उनका धातुज्ञान परिष्कृत था, क्योंकि ताम्बे की ढलाई से बनी एक डान्सिंग गर्ल अर्थात नृत्यमुद्रा में कन्या की भावपूर्ण मूर्ती मिली है। टेराकोटा से बनी एक दाढ़ीयुक्त मानव का उर्ध्व-वक्ष  हिस्सा मिला है, जिसकी नाक तीखी है और जिसने फूलदार कपडे या चादर से अपना वक्षस्थल ढका हुआ है। टेराकोटा से ही बने सील, जिस में कुछ पर कूबड़युक्त सांढ़ और दूसरे पर योगमुद्रा में बैठे सींग धारण किये एक आदमी की आकृति है, जिसे पशुपति कहा गया है ,यहां मिले हैं। यह पशुपति संभवतः उस ज़माने के स्वीकृत देवता थे। अनुमान किया गया है इस पशुपति और बाद के शिव में बुद्ध और बोधिसत्व जैसा कोई रिश्ता है। कम से कम यह तो मानी हुई बात है कि पशुपति नामक देवता लोगों को मान्य हो चुका था। सील पर बनी हुई मानव आकृति के साथ कुछ पशुओं की आकृतियां भी हैं जिनमे हाथी, हिरन, भैंस और गैंडा प्रमुख है। इन सब के बीच अभय मुद्रा में बैठे पशुपति इन पशुओं के संरक्षक जैसे प्रतीत होते हैं। यह इस बात की भी सूचना देता है कि इस पूरी सभ्यता की पृष्ठभूमि में पशुपालकों और कृषकों की उपस्थिति को सिन्धुवासियों ने महत्व दिया था अथवा ग्रामीण और नगरीय देवता अलग-अलग नहीं, बल्कि एक थे और ये समन्वित समाज के प्रतिनिधि या उसके स्वाभाविक संयोजक थे। हाथी, हिरन, भैंस, गैंडा और एक अलग सील में प्राप्त सांढ़ से ज्ञात होता है कि गाय भी सिन्धुवासियों की घरेलु हो चुकी थी। लेकिन घोड़े का कोई चित्र नहीं मिला है। ऐसा लगता घोड़े से तब लोग परिचित नहीं थे। घोड़े के अवशेष धौलावीरा में अवश्य मिले हैं, जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। लेकिन कपडे, श्रृंगार की सामग्रियां जैसे कंघी, उस्तरा, काजल और चन्हूदड़ो में तो लिपस्टिक भी मिले हैं। इन सब से ज्ञात होता है कि सभ्यता पूरे परवान पर थी। हड़प्पा-मोहनजो दड़ो के लोगों को लिपि का ज्ञान था, लेकिन उनके लिखे का बहुत कम हिस्सा उपलब्ध हो पाया। केवल उतना ही जितना सील और धातुओं पर उकेरे मिले हैं। ऐसा लगता है वे कपड़ों या वनस्पति-पत्रों पर लिखते रहे होंगे और वे विनष्ट हो गए। सील पर लिखी गयी लिपि को यदि महादेवन और अन्य विशेषज्ञों  ने पशुपति ही पढ़ा है, तब यह भी स्पष्ट है कि संस्कृत आर्यों की नहीं, सिन्धुवासियों की भाषा थी। क्योंकि पशु और पति दोनों संस्कृत मूल के शब्द हैं। यह संभव है कि आर्यों के आने के बाद सिन्धुवासियों की जुबान में कुछ नए शब्द जुड़े हों, अथवा उनका परिष्कार या संस्कार हुआ हो। हालांकि अनुमान यही है कि आर्यों की प्रकृति और प्रवृति इतनी सभ्य -सुसंस्कृत नहीं थी कि वह एक विकसित भाषा का संस्कार कर सकें, सीमित परिष्कार अवश्य संभव है। दरअसल जुबानों-भाषाओं के संस्कार निरंतर आहिस्ता-आहिस्ता होते ही रहते हैं। जैसे आज हमारी हिंदी ही भारतेन्दु के ज़माने से कितनी अधिक बदल गयी।

मोहनजोदड़ों में प्राप्त टेराकोटा से बनी एक पुरूष की मूर्ति

सिंधु घाटी में हड़प्पा और मोहनजो -दड़ो के उत्खनन के पूर्व ब्रिटिश और भारतीय इतिहासकारों के प्राचीन भारत पर अजीबोगरीब ख़याल थे। अंग्रेज तो भारत को सँपेरों और साधुओं का देश मानते ही थे, जहाँ ज्ञान और विज्ञान की कोई विशेष परंपरा नहीं थी। ओरियन्टलिज़्म अथवा प्राच्यवादी ज़माने में जिन यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारत का अध्ययन किया, उनकी रूढ़ि आर्य-श्रेष्ठता बनी रही।  मैक्स मूलर (1823 -1900 ई.) को यदि सिंधु सभ्यता का कुछ भी आभास होता तो वेद सम्बन्धी उनके अध्ययन में कुछ दूसरे कोण भी उभरते। भारतीय इतिहासकार, जो प्रायः यहां के अभिजन वर्ग से ताल्लुक रखते थे और स्वघोषित आर्य थे, देश के प्राचीन इतिहास को ‘हा हिन्दू’ मनोवृत्ति से बाहर नहीं होने देना चाहते थे। उनका हिंदुत्व आर्यत्व के सिटाडेल में होता था। गुप्त-काल उनका स्वर्ण-काल था, जिसके झूले पर वह लम्बे समय तक झूलते रहे। उसके पीछे बस वेद, उपनिषद और पुराण-ग्रन्थ थे। बुद्ध, अशोक और नन्द-मौर्य काल की विस्तृत जानकारी उन्हें बीसवीं सदी के आरम्भ में ही मिल सकी। आप अनुमान कर सकते हैं, सिंधु-सभ्यता और बुद्ध-अशोक की विस्तृत जानकारी के अभाव में भारतीय इतिहास चिंतन का प्रारूप कैसा होगा। ऐसे में हड़प्पा और मोहनजो-दड़ो की खुदाई से जब एक सुव्यवस्थित सभ्यता के अवशेष मिले, तब भारत का इतिहास यकायक ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व खिंच गया और प्राचीन भारतीय इतिहास  सम्बन्धी हमारी अनेक पूर्व मान्यताएं ध्वस्त हो गयीं। कहा जाना चाहिए कि हड़प्पा ने भारतीय इतिहास में हड़कंप मचा दिया।

मोहनजोदड़ो में प्राप्त सील

पहले हम उस दिलचस्प कहानी को जानें, जो हमें अंततः हड़प्पा तक पहुँचाती है। हड़प्पा ही वह पहली जगह है जहाँ 1920 में पहली बार पुरातात्विक उत्खनन हुआ। साल भर बाद मोहनजोदड़ो में 1921 में उत्खनन हुए।  आज यह दोनों इलाका पाकिस्तान में पड़ता है। इस स्थान की ओर जिस पहले जिम्मेदार व्यक्ति का ध्यान गया था, वह था चार्ल्स मैसन, जो ईस्ट इंडिया कंपनी का एक जिज्ञासु अधिकारी था। उसने 1826 ई . में पंजाब के साहीबाल जिले के एक गांव हड़प्पा में एक टीले को देखा और उसे यह ऐतिहासिक महत्व का लगा। लेकिन इतिहास से अनुराग रखने वाले इस अधिकारी ने उस स्थान के रूप में चिन्हित किया, जहाँ चौथी सदी ईसा पूर्व में सिकंदर और पोरस की लड़ाई हुई थी। इसी निष्कर्ष के आधार पर अलेक्सेंडर बर्न्स नामक एक अधिकारी ने भी इस जगह की यात्रा की। 1853 ई, में अलेक्सेंडर कनिंघम ने भी इस जगह का निरीक्षण किया। लेकिन कोई बात आगे नहीं बढ़ी। 1872 में कनिंघम यहां पुनः यात्रा करते हैं। उनकी यह यात्रा एक आधिकारिक और उद्देश्यपूर्ण  यात्रा थी, क्योंकि इस बीच वह आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के संस्थापक जनरल डायरेक्टर बन चुके थे और उन्हें सूचना दी गयी थी कि रेल लाइन बिछाने के दौरान हुई खुदाई में पुरातात्विक महत्व की कुछ चीजें मिली हैं। कनिंघम जब वहां पहुंचे तब उन्हें सब से महत्वपूर्ण जो सामग्री मिली, वह थी कुबड़े सांढ़ वाली वह सील, जो आजकल भारतीय इतिहास की किताबों में छपते-छपते सामान्य हो गयी है। लेकिन तब कनिंघम इस से बहुत प्रभावित नहीं हुआ। उस पर सिकंदर की प्रेतात्मा सवार थी और उसका अवचेतन उसी ज़माने की कोई चीज वहां से प्राप्त करना चाहता रहा होगा। यह भी कि भारत के बारे में उनका बहुत ऊँचा ख्याल नहीं रहा होगा। उनके लिए तो पंजाब का यह भारतीय भूभाग हमेशा पराजित होने वाला भूभाग था, जो सिकंदर से लेकर अंग्रेजों तक से लगातार पराजित होता रहा। यहां कोई सभ्यता कैसे प्रस्फुटित हो सकती थी। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि कनिंघम ने उसे एक विदेशी सील करार दिया।

जब लार्ड कर्ज़न ब्रिटिश भारत के वायसराय बने, तब उन्होंने इस दिशा में दिलचस्पी ली। 1902 में सर जॉन हुबर्ट मार्शल (1876 – 1958) आर्किओलॉजिकल सर्वे  ऑफ़ इंडिया के जनरल डायरेक्टर बनाये गए। 1904 में प्राचीन स्मारकों के संरक्षण के लिए विधान बना। लार्ड कर्ज़न ने हड़प्पा की खुदाई में स्वयं दिलचस्पी ली। नतीजतन जॉन मार्शल ने हीरानंद शास्त्री को वहां भेजा।  हड़प्पा के प्रति उदासीन रुख केवल ब्रिटिश अधिकारियों-शोधार्थियों का ही नहीं था। भारतीय अधिकारी भी उसे लेकर कोई अधिक उत्सुक नहीं थे। हीरानंद शास्त्री ने हड़प्पा के सम्बन्ध में टिप्पणी की कि इस से कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला है। वहीँ दूसरे भारतीय पुरातत्वविद जी . आर. भंडारकर को यह टीला अधिक से अधिक ढाई सौ साल पुराना प्रतीत हुआ।

इन विपरीत परिस्थितियों के बीच दयाराम साहनी के नेतृत्व में 1920 में हड़प्पा और राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में 1921 में मोहनजोदड़ो का उत्खनन कार्य शुरू हुआ। इसके जो नतीजे आये वे विस्मयकारी थे। 1924 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शल ने इस सम्बन्ध में पूरी दुनिया को जानकारी दी तब भारत की प्राचीनता वेदों से कई हज़ार वर्ष पीछे चली गयी। पूरी दुनिया का भारत सम्बन्धी दृष्टिकोण अचानक बदल गया। 1930  तक इस कार्य को पुरातत्वविद माधो सरूप वत्स और के. एन. दीक्षित ने पूरा किया। जॉन मार्शल की विस्तृत रिपोर्ट दो खण्डों में 1931 में प्रकाशित हुई। फिर तो एक और ही प्राचीन भारत हमारे सामने था।

लेकिन यह केवल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की कहानी थी।  पूरी सिंधु घाटी की सभ्यता इतनी व्यापक है कि इसकी तलाश आज भी जारी है। इस सभ्यता से जुड़े अब तक 1022 स्थानों की जानकारी इतिहासकारों ने हासिल की है, जिनमें 406 पाकिस्तान में और 616 भारत में हैं। इनमें से अब तक 97 स्थानों की ही खुदाई अब तक हुई है। अर्थात नब्बे फीसद से अधिक कार्य अभी शेष हैं। इस पूरी सभ्यता का विशाल क्षेत्र लगभग आठ लाख वर्ग किलोमीटर को घेरता है, जिसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान, उत्तरपश्चिम सीमान्तप्रदेश के इलाके पाकिस्तान में पड़ते हैं और गुजरात, महाराष्ट्र, भारतीय पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हरियाणा के हिस्से भारत में पड़ते हैं। भारतीय भूभाग में जिन स्थानों  के विस्तृत सर्वेक्षण हुए हैं, उस पर हम आगे चर्चा करेंगे।

(कॉपी संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें

 

आरएसएस और बहुजन चिंतन 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...