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लोकतंत्र में सेना के नाम पर वोट मांगने के खतरे

अभय कुमार का कहना है कि चुनावों के दौरान सेना से जुड़े जनता के जज्बातों के साथ खेलना लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत हैं। ठोस सवालों से जनता का ध्यान दूर करने के लिए जज्बाती मसलों को उठाया रहा हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना को राजनीति से दूर रखने की अहमियत पर ज़ोर दिया जाता है। यह कहना कि फौज का सियासत में कोई दखलअंदाजी नहीं होता, नादानी ही होगी। मगर इस हकीकत के बावजूद, लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व की हमेशा यह कोशिश रहती है कि सेना को ज़्यादा से ज्यादा ‘बैरक’ तक सीमित रखा जाए।

मगर दक्षिणपंथी ताक़तें इन बातों को ताक पर रखती जा रही हैं। यही वजह है कि आजकल सेना को भारतीय राजनीति में कुछ ज़्यादा ही घसीटा जा रहा है।

दूसरों की कौन कहे खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सेना और शहीद जवानों के नाम पर वोट मांग रहें हैं। राजस्थान के सीकर में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने कांग्रेस सरकार द्वारा ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने की क्षमता का उपहास उड़ाया और इस तरह  सारा ‘क्रेडिट’ स्वयं लेते हुए कहा कि ‘चुनाव के पहले चार चरणों में चारों खाने चित्त होने के बाद अब कांग्रेस एक नया पैंतरा चला रही है। कल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने बयान दिया कि हमारे समय में भी कई बार सर्जिकल स्ट्राइक की गयी। अब कांग्रेस किसी भी तरह यह साबित करने पर तुली है कि हमने भी सर्जिकल स्ट्राइक की थी।’

सीकर, राजस्थान में चुनावी रैली को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

सर्जिकल स्ट्राइक हवाई हमला होता है, जिसमें लड़ाकू विमान सीमा पार जा कर ‘आतंकवादियों’ के ठिकानों पर हमला करता है। कहा जाता है कि ये हमले कुछ हद तक इजरायल के ‘वार स्ट्रेटजी’ पर आधारित है। आतंकवाद से निपटने के लिए भाजपा के बहुत सारे नेतागण ‘इजरायल मॉडल’ को अपनाने की वकालत करते रहे हैं।

इजरायल मॉडल से संघ परिवार के लगाव की वजह यह है कि संघ परिवार और उस से जुड़े हुए संगठन हमेशा से शक्ति के पूजक रहे हैं। ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ की बात करने वाला संघ परिवार का यह एजेंडा रहा है कि भारत दुनिया का शक्तिशाली देश बने। लिहाज़ा साठ के दशक से ही, जब चीन ने एटम बम का परीक्षण किया, तब से संघ परिवार भारत को न्यूक्लिअर शक्ति बनने की वकालत करना आरंभ किया।

सेना का ‘गुणगान’ और उसे ‘आलोचना से दूर’ रखने की बात करना, संघ परिवार के इसी शक्ति-पूजा के सिद्धांत का फल है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में लिबरल और गांधीवादी ट्रेंड की आलोचना और कई मौकों पर हिटलर की उग्र राजनीति के साथ सहमति, संघ परिवार के इसी दक्षिणपंथी राजनीति का हिस्सा रहा है।

सेना के जवानों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य की एक अहम् संस्था के बतौर, सेना भी आलोचना से परे नहीं है। सेना के अंदर भी बहुत सी खामियां पाई जाती हैं। जैसे- भ्रष्ट्राचार, भेदभाव, साहेब और निचले रैंक के जवानों के बीच में दूरी, पदोन्नति के मामले में अनियमितता, पूर्व सैनिकों की परेशानियाँ, इत्यादि। आज भी सेना के शीर्ष पदों पर पिछड़े और वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है।

मगर मोदी इन को बातों को दरकिनार करते हुए, विपक्षी कांग्रेस पर हमला बोल रहे हैं। अक्सर मौकों पर भाजपा और उसके नेतागण कांग्रेस पर यह इल्ज़ाम लगाते हैं कि  कांग्रेस ‘हिंदू हित’ की हिफाज़त नहीं कर पाती है। कांग्रेस पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि वह ‘देशद्रोहियों’ की ज़बान बोलती है। ज़रा गौर कीजिए किस तरह सेना और हिन्दू को एक करने की कोशिश हो रही है।

इस प्रकार कांग्रेस शासन के दौरान की सर्जिकल स्ट्राइक पर कटाक्ष करते हुए मोदी कहते हैं- ‘ये कैसी स्ट्राइक थी भाई, जिसके बारे में आतंकियों को कुछ नहीं पता, स्ट्राइक करने वालों को कुछ नहीं पता, पाकिस्तान को कुछ नहीं पता और न देश की जनता को कुछ पता है।’

विडम्बना देखिए कि खुद प्रधानमंत्री स्ट्रेटजिक और सैन्य मामलों से जुड़ी हुई कार्रवाई के प्रचार की बात कह रहे हैं। क्या हर सैनिक कार्रवाई को जब तक प्राइम टाइम टीवी शो में दिखा ना दिया जाए और उसका राजनैतिक लाभ न ले लिया जाए, तब तक उसकी सच्चाई नहीं स्वीकार की जाएगी? दूसरी अहम बात यह है कि अगर सेना ने सही में अपना ‘पराक्रम’ दिखाया है, तो क्या उसका सेहरा सेना के बजाए किसी खास राजनीति दल और नेता को जाना चाहिए? ध्यान देने वाली बात है कि भाषण के दौरान  मोदी बड़ी आसानी से इस बात को नज़र अंदाज़ कर गए कि क्या देश की सुरक्षा में कांग्रेस लीडरशीप का भी कभी कोई रोल रहा है? अगर नहीं, तो फिर मोदी से पहले देश की सुरक्षा कौन कर रहा था?

इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है मानो लड़ाई सेना ने नहीं, बल्कि मोदी ने लड़ी हो। अगर इन सर्जिकल स्ट्राइक में सेना को बड़ी कामयाबी हासिल हुई हो तो इसका ‘क्रेडिट’ सेना को जाना चाहिए था या सत्ताधारी दल को?

सत्ताधारी दल हर कोशिश कर रहा है कि पाकिस्तान, आतंकवाद, और सुरक्षा का भय दिखा कर पहले लोगों को डराया जाए। डरी हुई जनता के सामने फिर कमजोर विपक्ष और मजबूत मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का विकल्प पेश किया जाए। मोदी की ‘छवि’ एक शक्तिशाली नेता के तौर पर पेश की जा रही है। मोदी के बारे में खूब प्रचार किया जा रहा है कि मोदी ही सेना के सब से बड़े ‘हितैषी’ हैं।

अब ज़रा एक नजर मोदी हुकूमत के सेना “प्रेम” पर भी डाल लें। क्या यह हकीकत नहीं है कि सेना के निचले रैंक के जवानों की हालत खराब बनी हुए है और उनको कई अवसर पर संतुलित भोजन तक नहीं मिलता है? यही बात बीएसएफ जवान  तेज़ बहादुर यादव ने उठा दी तो उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया और वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है। क्या यह हकीकत नहीं है कि फौज के अंदर में भी प्राइवेटाइजेशन बढ़ रहा है और जवानों के अधिकारों को काटा जा रहा है? क्या यह सही नहीं है कि मोदी सरकार ने हाइयर मिलिट्री पे सर्विसेस, जिसका फायदा 1.12 लाख जवानों को मिलता, की मांग को ठुकरा दिया था? क्या यह सही नहीं है कि  मोदी के चार सालों के कार्यकाल के दौरान जम्मू और कश्मीर में 219 जवान मरे,जो उनसे पहले के पांच सालों में मरे 144 जवानों से कहीं ज़्यादा है? क्या उस बात को झुठलाया जा सकता है कि मोदी के दौर में हमलों का सिलसिला थमा नहीं। मगर इन बातों को मोदी और भाजपा याद नहीं करना चाहेगी। उनकी पूरी कोशिश है कि ठोस सवालों से जनता का ध्यान दूर किया जाए और जज्बाती मसलों को उठाया जाए। सेना के नाम पर वोट की मांग करना इसी राजनीति का हिस्सा है जो लोकतंत्र के लिए काफी नुकसानदेह है।


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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