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पूर्वोत्तर वृतांत : मेहनतकश शेरपाओं की धरती पर ….       

जितेंद्र भाटिया बताते हैं कि भारत के उत्तर पूर्व के तराई के इलाकों के लोगों में असीम जीवटता है। ये वही लोग हैं जिन्हें शेष भारत में दोयम दर्जे का माना जाता है। ठिगना कद होने की वजह से उनकी खिल्ली उड़ायी जाती है। परंतु हकीकत तो यह है कि वे सचमुच बहादुर हैं जो प्रकृति को सहेजना भी जानते हैं और विषमताओं के मध्य मुस्कराना भी

बस्ती बस्ती परबत परबत – 4

भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य मूल रूप से आदिवासी-प्रदेश हैं, जो भारतीय राजनीति और शासन-व्यवस्था के नक्शे पर उपेक्षित और वंचित हैं। फुले-आम्बेडकरवादी आंदोलनों को समावेशी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न प्रकार की वंचनाओं की शिकार समुदायों/समाजों को गहराई से समझें और उनके साथ एका बनाने की कोशिश करें। फारवर्ड प्रेस की यह पहल इसी दिशा में है। इसके तहत हम हिंदी के चर्चित लेखक जितेंद्र भाटिया के पूर्वोत्तर यात्रा वृत्तांत की यह शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं। श्री भाटिया ने इन यात्राओं की शुरूआत  वर्ष 2014 में की थी, जो अभी तक जारी हैं। वे पूर्वोत्तर राज्यों की यात्राएं कर रहे हैं और वहां की विशेषताओं, विडंबनाओं व समस्याओं को हमारे सामने रख रहे हैं – प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस)


गोरखालैंड : प्राकृतिक मनोरम दृश्यों से इतर

  • जितेंद्र भाटिया

पश्चिमी बंगाल के जिस हिस्से पर गोरखालैंड का लेबल चस्पां किया गया है वह एक मिथ्या प्रदेश या कि अंग्रेज़ी में ‘मिस्नोमर’ है, क्योंकि इसका पूरा सांस्कृतिक क्षेत्रफल आंदोलनकारियों के दावे  से कहीं अधिक बड़ा और विस्तृत है।

यह नेपाली भाषा बोलने वालों के प्रदेश के साथ-साथ पूरे नेपाल, सिक्किम, भूटान, दार्जीलिंग, असम और उससे भी आगे पूरे देश के शहरों में फैले बहादुर के उन ठिगने वंशजों का प्रतीक है जिन्हें कभी तमगा देने वाले अंदाज़ में शौर्य और वफादारी की मिसाल की तरह पेश किया जाता है तो कभी उनके भोले स्वभाव को मंदबुद्धि लतीफों की शक्ल देकर फिल्म और टेलीविज़न के कार्यक्रमों में सुविधा के साथ भुनाया जाता है। वे हर जगह हैं, कभी हमारे आलीशान बंगलों की रखवाली करते हुए, कभी सुदूर ठिकानों के रसोईघरों में अलस्सुबह जीवन-दायिनी गर्म चाय के कप आप तक पहुंचाते हुए तो कभी दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर सबसे पहले चढ़ जाने के बाद भी गोरी चमड़ी वाले नायकों के मुकाबले बहुत छोटे और कम आंके लाने वाले।

दार्जीलिंग के संदकफू इलाके में एक गांव का दृश्य

वे बहुत कम में खुश हो जाते हैं और इसीलिये उनके साथ हर चीज़ को लेकर मोलभाव करने में हमें अभूतपूर्व आनंद आता है। वे दोयम कहलाये जाने और माथे पर असंभव वज़न ढोने के बावजूद कभी मुसकराना नहीं भूलते और हम मान लेते हैं कि वे अपने हाल से खुश हैं, संतुष्ट हैं और ले देकर उन्हें देश के तथाकथित विकास का वह केन्द्रीय मॉडल स्वीकार्य है जिसके अंतर्गत दशकों तक समूचे उत्तर पूर्व और तराई के लोगों को स्थितप्रज्ञता में छोड़ दिया गया और जिस असंतुलित विकास का खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं। अपने तमाम नारों और आश्वासनों के बावजूद कथनी में सरकार और हमने कभी उन्हें अपने बराबर नहीं समझा।

इसी का नतीजा है कि आज अपनी अलग पहचान के नारे पूरे देश में कोंगुनाडू, सौराष्ट्र, रायलासीमा, पानुन कश्मीर, विदर्भ, बुंदेलखंड, हरितप्रदेश और उत्तर पूर्व में बोडोलैंड और गोरखालैंड की शक्ल में गूँज रहे हैं, छोटे बड़े आंदोलनों की शक्ल में।

पृथक गोरखालैंड को लेकर प्रदर्शन करते स्थानीय

किसी जमाने में यह देश सौ से अधिक छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था, जिनके आतंरिक मतभेदों का पूरा फायदा उठाकर अंग्रेजों ने चार सौ साल हम पर राज किया। उत्तर पूर्व को सात राज्यों में बांटकर वहां की सांस्कृतिक विविधताओं को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया था, लेकिन यह विभाजन प्रदेश के धार्मिक और भाषाई अंतरों को बहुत कोशिश के बाद भी पाट नहीं सका है। बल्कि पिछले चार-पांच वर्षों में भाषा, धर्म और जाति के ये अंतर पूरे देश में ध्रुवीकरण के एक कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल किये जाने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के बाद उत्तर पूर्व में बी जे पी और संघ  की सफलता शायद धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटने का ऐसा भरोसेमंद मॉडल है जिसे आने वाले चुनावों में आप बार बार घटित होता देखेंगे। इनमें त्रिपुरा का मॉडल सबसे विस्मयकारी है जिसमें प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में धार्मिक/जातिगत गणित की मुकम्मल पहचान के आधार पर विपक्ष (सी.पी.एम.) के 42 प्रतिशत वोटों में सेंध लगाए बगैर भी समूचे सत्ता पक्ष को पटखनी देकर चित्त किया जा सका है।

किशोर कुमार की फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ के मजरूह रचित मकबूल गीतों में से एक की पंक्ति है ‘जाते थे जापान पहुँच गए चीन, समझ गए ना? ‘ कुछ उसी अंदाज़ में हम मिज़ोराम जाते-जाते आधे रास्ते से पूर्व नियोजित कार्यक्रम के रद्द हो जाने के बाद, वापस लौटने की जगह अपने पागल जूनून में फिर उसी बागडोगरा से होते हुए पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में जा पहुंचे थे जहाँ इससे पहले हमने कभी कदम नहीं रक्खे थे और समकालीन राजनीतिक मुहावरे में जिसे गोरखालैंड का अंदरूनी हिस्सा समझा जाता है, जहाँ पिछले चुनाव में दीदी की तृणमूल कांग्रेस को दूर दूर तक कोई सीट नहीं मिली थी।

हमारी मिज़ोरम की यात्रा रद्द होने के कारण भी राजनीतिक-सामजिक थे। असम और मिजोराम के बीच एक अरसे से सीमा विवाद चला आ रहा है। पिछली मार्च में विद्यार्थियों के एक जुलूस और असम पुलिस के बीच हुई झड़प में कुछ विद्यार्थियों पर हमला हुआ और कई विद्यार्थियों के साथ एक पत्रकार भी घायल हो गया। मंदिर-मस्जिद जैसे विवाद में किस्सा यूं हुआ कि मिजोरम की विद्यार्थी संस्था मिज़ो ज़िर्लाई पॉल राज्य ने असम सीमा के पास अपने किसानों के लिए एक विश्रामगृह बना दिया था। लेकिन असम के वन विभाग और पुलिस का मानना था कि वह जगह असम राज्य की सीमा के भीतर थी। लिहाजा असम पुलिस ने जब बलपूर्वक लकड़ी का वह ढांचा तोड़ डाला था तो दोनों पक्षों के बीच घमासान छिड़ गया।

गगनचुंबी पहाड़ पर फसल लगाती एक गोरखा महिला

जैसा कि इन वारदातों में  अक्सर होता है, शांति बहाल करने के लिए असम और मिज़ोरम के बहुत सारे हिस्सों में धारा 144 लगा दी गयी, जिसके चलते ऐज़व्ल का विमान पकड़ने से कुछ घंटे पहले ही स्थानीय मेजबानों ने हमें यात्रा मुल्तवी करने की सलाह दी थी। हम सब अपनी व्यस्तताएं छोड़कर इस यात्रा के लिए आये थे और कोलकाता तक जा पहुँचने के बाद लौटने का ख्याल दुखदायी था। ऐसे में बागडोगरा की ओर मुड़कर वहां से कुछ और उत्तर की ओर निकल चलने का विचार कहीं अधिक सांत्वना देने वाला था।  

लेकिन सिलीगुड़ी और उससे आगे दार्जीलिंग को जाने वाले मुख्य राजमार्ग पर राजनीति एक बार फिर हमारा पीछा करती मिली। सड़क के दोनों ओर थोड़े थोड़े फासले पर ममता दीदी की मुस्कराती छवि वाले पोस्टर दिखाई देते रहे। पता चला कि मुख्यमंत्री एक सम्मेलन के उद्घाटन के लिए दार्जीलिंग आयी हुई हैं। तृणमूल कांग्रेस को शायद यह अवसर गोरखा निवासियों के बीच उनकी छवि सुधारने के लिए सबसे उपयुक्त लगा होगा। गोरखा समस्या के मद्दे नज़र इसकी बहुत ज़रुरत भी थी। आधे से अधिक पोस्टर देवनागरी में थे जिनमें छोटे बड़े स्थानीय संस्थानों ने दीदी के आने का भावपूर्ण स्वागत नेपाली भाषा में किया था।

अश्वमेध पर निकले राजनीतिज्ञों के स्वागत की यह प्रथा आजकल पूरे हिन्दुस्तान में ज़ोर शोर पर है। इसमें अनिवार्य रूप से राजनीतिज्ञों के साथ कुछ स्थानीय छुटभैयों की तस्वीरें भी वरीयता के क्रम में सुशोभित होती हैं और इत्तफाक कुछ ऐसा है कि आम आदमी को डराने वाले इन पोस्टरों में दिखते अधिकाँश चेहरे हमेशा किसी माफिया गिरोह के सक्रिय सदस्य से मिलते जुलते नज़र आते हैं। आजकल तो ये पोस्टर यात्राओं के अलावा मुख्य त्यौहारों या किसी अत्यंत महत्वपूर्ण घटना की तरह इन शरीफजादों के जन्मदिनों पर भी दिखाई देने लगे हैं।

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मुझे नहीं लगता कि इन पोस्टरों से जनता के बीच इन नेताओं की छवि में कोई ख़ास सुधार होता होगा। बल्कि ये पोस्टर जिस तरह उन चुने हुए स्थानों पर लगाए जाते हैं जहां से नेता को गुज़रना होता है, उससे तो यही लगता  है कि इनका उद्देश्य आम लोगों से अधिक स्वयं उन नेताओं के नार्सिज्म और उनकी आत्ममुग्धता की तुष्टि करना होता है। आम आदमी तो इन विशालकाय पोस्टरों को देखकर सिर्फ आतंकित ही हो सकता है।

दार्जीलिंग की ओर  जाने वाली सेवोक रोड पर कोई एक घंटा चलने के बाद कालीझोरा में जब हम बायीं ओर मुड़े तो वे पोस्टर भी आश्चर्यजनक ढंग से दिखने बंद हो गए, जिससे स्पष्ट था कि हमने मुख्यमंत्री का रास्ता छोड़ दिया है। एक क्षत-विक्षत पतली सी सड़क पर कोई पौन घंटे के दौरान साढ़े चार हज़ार फीट की ऊँचाई तक चढ़ने के बाद हम एक विस्मृत गाँव लाटपंचोर में थे जो अंग्रेजों के ज़माने में अपेक्षाकृत आबाद हुआ करता था। तब यहाँ दक्षिणी अमेरिका से लाये गए सिंचोना के पौधे कोई 4000 एकड़ क्षेत्र में चाय के बगानों की तरह उगाये गए थे।

लाटपंचोर का मनोरम दृश्य

कहा जाता है कि पेरू के इनका वंशज इन पौधों के औषधीय गुणों से भली भांति परिचित थे। बाद में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों ने भी इन्हें पहचाना। लाटपंचोर में ये पौधे कोई डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजों ने लगाए थे। इसकी छाल से निकाली जाने वाली मलेरिया की रामबाण औषधि कुनैन यहाँ के छोटे छोटे कारखानों से होकर पूरे देश की दवा कंपनियों तक पहुँचती थी। सिंचोना के वे जंगल अब सिमटकर एक तिहाई से भी कम रह गए हैं और उनका व्यावसायिक महत्त्व भी जाता रहा है। प्रयोगशालाओं में अब कृत्रिम सिंथेटिक कुनैन बनने लगी है जो मलेरिया की नयी दवा-विरोधक किस्मों के उपचार में अधिक प्रभावी है। मलेरिया की सिर्फ एक किस्म में प्राकृतिक सिंचोना से निकला कुनैन अब भी काम में आता है। बाज़ार उठने के बाद लाटपंचोर में छाल से कुनैन निकालने वाले अनगिनत छोटे छोटे कारखाने अब ठप्प पड़े हैं। इन्हीं कारखानों से सरकारों ने किसी ज़माने में बेहिसाब पैसा बटोरा था।

चुनाव से पहले ममता दीदी ने इसी धरती से अपने भाषणों में कहा था कि “मैं इन सिंचोना बगानों की पुरानी गरिमा वापस लेकर आऊंगी!” लेकिन मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक के खोखले आश्वासनों से बखूबी परिचित  लाटपंचोर के निवासियों पर इसका बहुत कम असर हुआ था।

सिंचोना की छाल में कुनैन के अलावा कई दूसरे स्टेरॉयड रसायन भी मिलते हैं जिनमें पेचिश रोकने  और कैंसर के प्रतिरोध में काम आने वाली ‘टक्सौल’ शामिल है। तकनीकी विशेषज्ञों का मानना है कि उनमें से किसी एक या दो के कुशल व्यावसायिक संयोजन से सिंचोना उद्योग को मरने से बचाया जा सकता था। लेकिन इसके लिए सरकारों और वैज्ञानिकों को एक साथ दूर तक जाने की ज़रुरत थी, और इस लम्बे सफ़र को तय करने का मनोबल या संकल्प किसी के पास नहीं था।  लाटपंचोर के पर्वतीय निवासी स्वीकार कर चुके हैं कि सिंचोना के ज़रिये जीविका चला पाना अब संभव नहीं रहा। उनमें से अधिकाँश ने अपने मकानों में कमरे बढ़ाकर वहां पर्यटकों के लिए छोटे मोटे आवास या ‘होमस्टे’ बना लिए हैं। ऐसे ही एक घर में मेहमान की हैसियत से लाटपंचोर में हमारी पहली रात गुज़री।

महानंदा अभयारण्य का ‘कोर’ इलाका यहाँ से 6 किलोमीटर के फासले पर है, फिर भी सैलानियों के बीच लाटपंचोर की पहचान अपेक्षाकृत नयी है। यहाँ होटलों  और रिसोर्ट की जगह सिर्फ अंग्रेजों के समय में बना वन विभाग का एक छोटा सा कामचलाऊ विश्राम गृह है। लेकिन प्रकृति प्रेमियों के चलते यहाँ घरों में ठहरना आसान हो गया है। आसमान साफ़ होने पर यहाँ एक ओर कंचनजंघा के पहाड़ दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर तीस्ता नदी नीचे चमचमाती नज़र आती है। यहाँ पहाड़ी से नीचे उतरते जंगलों में आपको यहाँ के ख़ास पक्षी लालकंठ धनेश का घोंसला दिखाने वाले स्थानीय गाइड भी मिल जायेंगे।

इसी के घोंसले के नाम पर बना होमस्टे आवास ‘हार्नबिल नेस्ट’ पदम् गुरंग अपने दो साथियों प्रेमचंद राय और सुनील छेत्री के साथ मिलकर चलाते हैं। ऊपर की मंजिल पर तीन कमरे और सीढ़ियों के नीचे रसोईघर, जहां घर की औरतें मेहमानों के लिए भोजन बनाती हैं। यहीं गुरंग नीचे अपने परिवार के साथ रहते हैं। मुख्य दरवाज़े पर होमस्टे का बोर्ड लगाया जाना भी अभी बाकी है। लेकिन लाटपंचोर के सब बाशिंदे गुरंग जितने भाग्यशाली नहीं। गुरंग की देखादेखी कुछ ने अपने घरों में होमस्टे बनाए हैं, लेकिन मेहमानों के अभाव में ये अधिकाँश समय खाली रहते हैं। कुछ अब भी सिंचोना के घिसटते  कारखानों से जुड़े हैं तो बाकी जीविका के लिए खेती की ओर लौट गए हैं। इन सबकी मातृभाषा नेपाली है, हालांकि हिंदी-बंगला से भी इनका नज़दीक का रिश्ता है।

इसके बावजूद पिछले साल जब तृणमूल सरकार ने स्कूल में माध्यमिक कक्षाओं तक बंगला पढ़ना अनिवार्य घोषित किया था तो लोग सड़कों पर उतर आए थे। इस व्यापक रोष देखते हुए सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा था, लेकिन इससे भी लोगों का गुस्सा कम नहीं हुआ था। अधिकाँश स्थानीय निवासी मानते हैं कि गोरखालैंड के संघर्ष में भाषा का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कुछ उसी तरह जैसे पूर्वी बंगाल के बंगाली नागरिकों ने सालों पहले वहां उर्दू थोपे जाने के विरोध में बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम छेड़ा था।  

गुरंग बताता है कि लाटपंचोर का नेपाली में अर्थ है बांस का झुरमुट। लेकिन यहाँ के बांस कब के  ख़त्म हो चुके हैं। अलबत्ता जंगलों में सिंचोना के अलावा साल, शीशम और चीड़ के पेड़ों की भरमार है। इन्हीं के बीच लालकंठ  धनेश का एक जोड़ा हमारे पास से उड़ता हुआ दूर चला जाता है। इस पक्षी की एक झलक पाने के लिए पक्षी प्रेमी कई बार यहाँ सारा-सारा दिन तपस्या की मुद्रा में बिता देते हैं। गुरंग और उनके साथी इसी जुनून में संभावनाएं तलाश रहे हैं। वे जानते हैं कि सिंचोना के बाद अब यह पर्यावरण और यहाँ पाए जाने वाले ये रंग बिरंगे पक्षी ही उन्हें बाज़ार की मंदी से उबार सकते हैं।

होमस्टे की औरतें विशेष बँगला भोजन बनाने में निपुण हैं, हालांकि उनकी अपनी हर रोज़ खायी जाने वाली दाल भात तरकारी भी इससे बहुत अलग नहीं है। बंगला मसाले ‘पांचफोरन’ में बनी आलू की सब्जी और रोटी खाकर हम लाटपंचोर से आगे चलते हैं तो मुख्य सड़क पर एक बार फिर वे तोरण, रंग बिरंगी झंडियाँ और पोस्टर हमारा स्वागत करते हैं। दार्जीलिंग में इस वक्त राजनीतिज्ञों और बिज़नस प्रतिनिधियों का जमावड़ा है। गनीमत है कि सारी राजनीतिक चहल-पहल को पीछे छोड़ते हुए हम शहर में प्रवेश करने से पहले ही ‘घूम’ के चौराहे से शहर का रास्ता छोड़ ऊपर की  ओर निकल जाते हैं।

पश्चिम बंगाल का यह उत्तरी छोर पश्चिम में नेपाल और उत्तर में सिक्किम से सटा हुआ है। इसी में पूरी लम्बाई पर फैला है सिंगालीला राष्ट्रीय अभयारण्य, जिसकी पश्चिमी सीमा नेपाल को छूती चलती है। यह एक अनौपचारिक रेखा है जिसके आर-पार नेपाल और भारत की धरती के बीच फर्क करना भी कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। पश्चिमी बंगाल की सबसे ऊंची चोटी संदकफू (बारह हज़ार फीट) भी यहीं ठीक भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित है। यह पैदल ट्रैकिंग करने वाले शौकीनों का भी प्रिय इलाका है।

सिंगालीला राष्ट्रीय अभयारण्य का दृश्य

‘घूम’ से आगे दार्जीलिंग का प्रभाव समाप्त होते-होते सड़क भी संकरी होकर टूटनी शुरू को जाती है। यहाँ से सूखिया पोखरी का 11 किलोमीटर का छोटा सा फासला तय करने में एक घंटे से अधिक का समय लग गया। यहाँ जंगल के बीच से एक अधिक सुखकारी पैदल रास्ता भी जाता है, लेकिन परमिट का दफ्तर दोपहर में जल्दी बंद हो जाता था, लिहाजा कुछ और समय के लिए हमें उस सड़क को बर्दाश्त करना पड़ा। लेकिन हमें मालूम नहीं था कि जिसे हम खराब समझ रहे थे, वह दरअसल अगले दस दिनों के दौरान न्यूनतम परिभाषाओं के मुताबिक़ वहाँ की सबसे  शानदार सड़क साबित होने वाली थी!

मणिभंजन एक तरह से उत्तर की ओर जाने वाला आखिरी बाज़ारनुमा शहर या कि गाँव है। यह बाज़ार यात्रा की आम ज़रूरतें खरीदने का आखिरी ठिकाना भी है। इससे आगे कुछ नहीं मिलेगा, छोटे छोटे ढाबों पर मिलते भोजन और सर्दी दूर करने वाली छुट्टी शराब के नापे हुए अद्धों के सिवाय। मणिभंजन की दुकानें चीन के सामन से भरी रहती हैं। खिलौने, टॉर्च, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक सामान, कपड़े, बौद्ध मूर्तियाँ, चीनी मिट्टी के टी सेट और ड्रैगन के चित्रों से सुसज्जित तोरण एवं चमकीली पताकाएं!  बहुत सी दुकानें स्त्रियाँ चलाती हैं। उनके सिन्दूर से उनके धर्म का स्पष्ट संकेत मिलता है और नेपाली के अलावा वे बहुत साफ़ हिंदी बोलती हैं। मेरा मानना है कि गोरखा प्रदेश में लिंगभेद के आधार पर सत्ता और अधिकारों का विभाजन देश के हमारे दूसरे इलाकों से कहीं अधिक स्वस्थ और जनतांत्रिक है। शायद पहाड़ों की ठंडी आबोहवा और कठिन ज़िन्दगी में स्त्री और पुरुष दोनों को ही संघर्ष और श्रम की आदत पड़ जाती होगी।

मणिभंजन शहर का एक दृश्य

 वन विभाग का दफ्तर मणिभंजन की इसी भीड़-भड़क्के वाली इकलौती सड़क पर था। सिंगालीला अभयारण्य और संदकफू के रास्ते पर जाने से पहले इसी दफ्तर से अनुमति पत्र लेकर दोपहर के 2 से पहले प्रवेश द्वार से गुज़रना ज़रूरी था। शायद अँधेरा घिर जाने के बाद उस ऊबड़-खाबड़ सड़क पर आगे बढ़ना नामुमकिन हो जाता होगा। यूं भी आम गाड़ियाँ यहाँ कुछ दूर जाने के बाद ही दम तोड़ देंगी। अंग्रेजों के ज़माने की पुरानी खस्ताहाल फोर व्हील ड्राइव वाली लैंड रोवर गाड़ियाँ अपने सारथी-नुमा चालकों के साथ मणिभंजन की संकरी सड़क के दोनों ओर खड़ी थीं। इन गाड़ियों के अलावा दूसरी आम टैक्सियों को  यहाँ से आगे जाने की अनुमति नहीं है।

अपना सामान सिलीगुड़ी की टैक्सी से उस द्वितीय विश्व युद्ध की एंटीक जीप में स्थानांतरित करते हुए हमने गौर किया कि उस जीप का लगभग हर हिस्सा वक्त के साथ हिन्दुस्तनी ठोका-पीटी पद्धति से बदला जा चुका था। खिड़की के शीशे कीलों से फिट किए गए थे और चढ़ाई चढ़ते वक्त गाड़ी को पहले गियर में डालने के लिए एक अजीबोगरीब भद्दी सी कवायद करनी पड़ती थी। चलते वक्त हमें अविश्वास नहीं हुआ था कि डेढ़ हड्डी का ड्राईवर दिलीप थापा उस प्रागैतिहासिक दैत्य को कैसे और क्योंकर संभाल पायेगा, लेकिन उस ऊबड़खाबड़ रास्ते पर अपनी किडनी, आमाशय और अंतड़ियों को बमुश्किल बचा  चुकने के बाद हमें भली भांति समझ में आ गया कि वह मशीनी जानवर ख़ास दिलीप के लिए बना था और बहादुर सारथी दिलीप थापा ने भी उस बेलगाम दैत्य को हांकने के लिए ही इस पार्थिव दुनिया में जन्म लिया था। हमारे लिए विश्वास करना मुश्किल था कि वह पिद्दी सा नेपाली पिछले दस वर्षों से प्रतिदिन औसतन दस घंटे उस जीप के साथ उन रास्तों पर सफ़र करता था।

चाँद की धरती जैसे रास्ते पर उस जीप में 13 किलोमीटर दूर अपने पहले पड़ाव टुमलिंग तक पहुँचने में गोया कि अनंत काल लग गया। जब दिलीप ने मुस्कराते हुए हमें सूचित किया कि सामने ढाई किलोमीटर के फासले पर जो मकान दिखते हैं, वहीं हमें जाना है, तो हमारे दो साथियों को जीप में बैठे-बैठे उस सीधी चढ़ाई को तय करने की अपेक्षा वहां से पैदल चलने का विकल्प अधिक आरामदेह और सुरक्षित लगा। जीप की उस यात्रा ने दरअसल ‘कलेजा मुंह तक आ जाने’ वाले मुहावरे का वास्तविक अर्थ हमें समझा दिया था।

संदकफू इलाके के लिए अभी भी सक्षम हैं 1940 के दशक के लैंड रोवर जीप

टुमलिंग में उन दो चार मकानों और एक आध छोटे से रिसोर्ट के अलावा कुछ नहीं है। इनमें से हर एक के सामने या उसके आस पास आपको एकाधिक पहाड़ी कुत्ता मिल जाएगा। दिलीप हमें बताता है कि यात्रियों के संपर्क में आने के बाद ये कुत्ते इतने मित्रवत नज़र आने लगे हैं। वर्ना सुदूर बस्तियों में तो ये काफी खूंखार भी साबित हो सकते हैं।

टुमलिंग आगे की चढ़ाई तय करने से पहले रात में रुकने का एक लोकप्रिय पड़ाव है। यहाँ से आगे संदकफू तक आपको रुकने के बहुत कम ठिकाने मिलेंगे। मार्च के महीने में भी यहाँ कड़ाके की सर्दी थी। हमें आगाह किया गया था कि संदकफू में तो तापमान शून्य से नीचे भी जा सकता है। इसके लिए हमारी तैयारी नाकाफी थी। अपने गाइड शिडिंग शेरपा से हम इसके बारे में पूछते हैं तो वह सिर्फ मुस्कराता रहता है, जिसका मतलब ‘हाँ’ से लेकर ‘ना’ तक कुछ भी हो सकता है। लेकिन कुछ ही देर बाद जब वह अपनी पुरानी जैकेट उतारकर हमें पहना देने की तजवीज पेश करता है तो हम कुछ लज्जित हो उसे गले से लगा लेते हैं।

कहते हैं कि ‘पहला कदम ऊपर बढ़ाने और शिखर तक  पहुँचने के बीच कहीं वह रहस्य छिपा होता है जिसे पाने के लिए हम निकले होते हैं!’ अपने अविस्मरणीय यात्रा वृत्तान्त ‘स्नो लेपर्ड’ में लेखक पीटर मैथीसन ने इसी धरती पर हिम तेंदुए की तलाश करते हुए स्वयं अपने आपको पा लिया था। टुमलिंग से अलस्सुबह दिखती कंचनजंघा की ‘सोये हुए बुद्ध’ की बर्फ से ढंकी पर्वतमाला ऐसे ही  किसी बहुत बड़े, अप्राप्य गंतव्य को ढूँढने की प्रेरणा देती है।

बुरांश के फूल अभी निकलने शुरू हुए हैं। अप्रैल- मई आते आते ये पहाड़ियां उनके सुर्ख रंगों से ढँक जायेंगी। उनकी एक सफ़ेद जाति भी है जो बड़े बड़े पत्तों वाले मैगनोलिया वृक्षों के झक्क सफ़ेद फूलों के बीच कहीं-कहीं दिख जाती है। इन दोनों के अलावा यहाँ भरमार है बैगनी रंगों की ‘दाफने’ झाड़ियों की, जिनके फूल शिडिंग शेरपा के अनुसार ज़हरीले होते हैं। वह हमें यह भी बताता है कि इन्हीं जंगलों में किस्मत वालों को कभी कभी प्रदेश का सबसे दुर्लभ और खूबसूरत जीव–लाल पांडा भी मिलता है। लेकिन अपनी भाग्य रेखा से ऐसी किसी उम्मीद के अभाव में वह शानदार पांडा हमारे लिए मैथीसन के हिम तेंदुए की तरह अप्राप्य बना रहता है। अलबत्ता जंगल के बीच, किसी डाल से हमारी ओर अविकल देखता और फिर पलक झपकते दौड़कर ओझल होता पीले गले वाले नेवले ‘मार्टेन’ का एक जोड़ा ज़रूर मिला। शिडिंग हमें बताता है कि जंगल में ये खूंखार ‘मार्टेन’ कई बार अपने से कहीं अधिक बड़े आकार के जीवों को भी मारने  में कामयाब हो जाते हैं।

रास्ते पर सूरज की पहली किरणों के गिरने के साथ साथ हमारी ठिठुरन भी कम होने लगी है।  रास्ते से गुज़रता हर व्यक्ति हमारा अभिवादन करता निकलता है। यह यहाँ की परंपरा है, या फिर वे सब शिडिंग शेरपा को अच्छी तरह जानते हैं। शेडिंग सालों-साल इन्हीं पहाड़ियों में मेहमानों के साथ घूमता रहता है, सिर्फ बरसात के दो तीन महीनों को छोड़ कर। ड्राइवर दिलीप थापा का घर भी मणिभंजन में शेडिंग के घर के पास ही है। हमने तय किया है कि जहाँ तक हो सके, उस जीप में बैठकर धक्के खाने की अपेक्षा पैदल चलना ही हमारे शरीर की मांसपेशियों और जोड़ों के लिए अधिक हितकर होगा।

पिछली रात टुमलिंग के उस छोटे से होटल में, अलाव के नज़दीक बैठकर तले हुए आलुओं के साथ दार्जीलिंग की बेहतरीन चाय पीते हुए हमने गोरखालैंड आन्दोलन के बारे में शेडिंग शेरपा के विचार जानने चाहे थे तो उसने अपने परिचित अंदाज़ में मुस्कराते हुए पलटकर पूछा था कि हम क्या चाय का एक और कप पीना पसंद करेंगे? ज़ाहिर था कि वह बचना चाह रहा था। पर्यटकों और मेहमानों के बीच काम करने वाले स्थानीय लोग अपने राजनीतिक विचार आसानी से दूसरों के साथ नहीं बांटते। सवालों से बेतरह घिर चुकने के बाद शेडिंग शेरपा ने किसी कुशल कूटनीतिज्ञ की तरह सिर्फ इतना कहा था कि गोरखालैंड बनने से क्या लोगों को पहले से बेहतर काम मिल पायेगा? या कि मणिभंजन से यहाँ तक आने वाली सड़क पक्की हो जायेगी?।।।।ज़ाहिर है कि हमारे पास उसके सवालों का जवाब नहीं था।

हमारे देश में आजकल उथली देशभक्ति की मशीनरी रवीश कुमार की व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी’ की तरह ओवरटाइम पर चल रही है। देश और इसके लोगों को नए हिस्सों या स्वतंत्र सूबों या नए राज्यों में बांटने के अधिकाँश प्रस्ताव या आन्दोलन हमेशा एक ख़ास किस्म के राजनीतिक तबके द्वारा उठाये जाते हैं और यह ज़रूरी नहीं कि जुलूसों में हिस्सा लेने से आगे उनमें आम लोगों की वास्तविक समस्याओं के समाधान भी शामिल हो। उत्तर पूर्व की अधिकांश चिंताएं सत्ता की बरसों लम्बी उपेक्षा और उदासीनता से जन्मी हैं ,जिन्हें समय रहते वर्तमान व्यवस्था के भीतर भी  ठीक किया जा सकता था। शेडिंग शेरपा की सहज समझ भी कहती है कि टुमलिंग की खस्ताहाल सड़क या कि सिंचोना के बगानों की बदहाली गोरखालैंड की मांग उठने से पहले या उसके बगैर भी दूर की जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

यह जानना दिलचस्प है कि नेपाली भाषा के वर्चस्व के बावजूद इस प्रदेश का सम्बन्ध नेपाल से अधिक सिक्किम एवं भूटान से रहा है। 1780 तक इसका कुछ हिस्सा इलाका सिक्किम के चोग्याल के अधीन, तो कुछ भूटान के पास था। बाद में नेपाल के गोरखाओं ने सिक्किम से युद्ध में इसका बहुत सारा हिस्सा हथिया लिया था। 1814-15 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को हराकर उनके जीते हुए प्रदेश को पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में सिक्किम के चोग्याल को दे दिया। फिर क्रमशः 1835 और 1864 में अंग्रेजों के साथ सिक्किम और भूटान की स्वायत्तता कायम रखने वाली दो अलग अलग संधियों के तहत सिक्किम और भूटान ने अपनी स्वतंत्रता के बदले इन हिस्सों को दुबारा अंग्रेजों के हवाले कर दिया और इन्हीं को जोड़कर वहां एक गैर अविनियमित क्षेत्र वाले जिले दार्जीलिंग का उदय हुआ।    

दार्जीलिंग को एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने की मांग के परिणामस्वरूप  1935 में अंग्रेजों ने दार्जीलिं को एक ‘आंशिक रूप से असम्बद्ध क्षेत्र’ घोषित किया था और स्वतंत्रता के बाद पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के बनने के बाद यह हिस्सा पश्चिम बंगाल में शामिल कर दिया गया था। अस्सी के दशक में जी एन एल एफ (गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा) के संस्थापक सुभाष घिसिंग ने पहली बार जोर-शोर के साथ  ‘गोरखालैंड’ आन्दोलन का सूत्रपात किया। वे यहाँ बंगाल से अलग एक स्वतंत्र राज्य चाहते थे। 1988 में पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र के साथ जी एन एल एफ के समझौते में घिसिंग को फ़िलहाल ‘गोरखालैंड’ की मांग वापस लेने पर राज़ी कर लिया गया और आगे की बातचीत के लिए दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद् का गठन किया गया। इन्हीं तीनों पक्षों के बीच लम्बी बातचीत के बाद  2005 में दार्जीलिंग को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने का फैसला हुआ।

2007 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता बिमल गुरुंग ने इस समझौते को प्रदेश के लोगों के साथ ‘विश्वासघात’ बताते हुए अलग गोरखालैंड राज्य स्थापित करने का मोर्चा फिर से खोल दिया। प्रदेश में चार वर्षों के घमासान संघर्ष के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने शान्ति बहाल करने के लिए  गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से समझौता कर दार्जीलिंग के शासन की ज़िम्मेदारी एक स्वायत्त संस्था गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के हाथों में सौंप दी। लेकिन 2013 में आंध्र प्रदेश के विभाजन से शह पाकर यह सोया मुद्दा फिर जाग्रत हो गया और स्थानीय नेताओं ने कहा कि वे एक स्वतंत्र राज्य की अलग सांस्कृतिक पहचान से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे। उनकी मानें तो न सिर्फ उत्तरी बंगाल बल्कि असम का एक हिस्सा भी गोरखालैंड में शामिल होना चाहिए। गोरखालैंड पर एकाधिक पुस्तक लिख चुके विशेषज्ञ रजत गांगुली कहते हैं कि यह आन्दोलन आज प्रशासनिक विफलताओं और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का मिला जुला स्वरुप बनकर रह गया है।

खूबसूरत जंगलों और  बुरांश की झाड़ियों के बीच सारा दिन चलने के बाद शाम से पहले हम जिस मुकाम पर पहुंचे, उसे एक छोटे से नामालूम तालाब के कारण काली पोखरी नाम से जाना जाता था। यहाँ से संदकफू महज़ 6 किलोमीटर दूर सीधी चढ़ाई पर था लेकिन इस छोटे से फासले को रात के समय जीप पर भी पार नहीं किया जा सकता था। लिहाजा काली पोखरी में  सड़क से सटे दो चार नामालूम मकानों में बने एक तथाकथित ‘होटल’ में रात गुजारनी पड़ी। गाँव में बिजली नहीं थी और अँधेरा घिर चुकने के बाद एकाध सोलर बल्ब से काम चलाने की मजबूरी थी। ठंडी तेज़ हवा के चलते ढलती दोपहर में भी वहां तापमान शून्य से बहुत ऊपर नहीं रहा होगा। दिलीप ने जीप से सामान उतारते हुए जब हमें सूचित किया कि हम अब नेपाल में हैं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था क्योंकि हमने रास्ते में किसी सीमा को पार नहीं किया था। शेडिंग शेरपा ने बताया कि वह रास्ता लगभग नेपाल की सीमा पर चलता है जहां औपचारिक पाबंदियां नहीं हैं हालाँकि भारतीय सेना की मौजूदगी लगभग हर जगह है।  

हमारे कमरे से दूसरी ओर, सड़क के पार होटल का रसोईघर, छोटी सी दुकान और भोजन का कमरा था, जिसकी दीवारों से सटकर किसी बड़े अवसर पर इस्तेमाल होने वाले बर्तन सजे हुए थे; एक बड़ा सा प्रेशर कुकर, कड़ाहे, भगौने और तेल के पुराने पीपे। कुछ रंग बिरंगी झालरें और एकाध बदरंग तस्वीरें जिनमें चेहरों को पहचानना भी मुश्किल था। लेकिन कमरे का सबसे बड़ा आकर्षण थी बीचोंबीच रक्खी एक बड़े आकार की कोयलों से जलती अंगीठी, जिससे सारे कमरे में एक सुखद गर्माहट फ़ैल रही थी। मौसम को देखते हुए सारे ग्राहक ही नहीं, घर के कुत्ते और बिल्लियाँ भी उस अंगीठी के आस पास पसर गए थे और किसी को इस पर ऐतराज़ नहीं था। होटल के मालिक/रसोइये/वेटर सुम्थंग  ने हमारे लिए जगह बनाते हुए काली चाय के साथ हमें हाल ही में गुज़रे तिब्बती नव वर्ष ‘ग्यालपो ल्होसर’ पर बनी मिठाइयाँ और नमकीन खिलाये। उसी कमरे के एक हिस्से में भट्टी पर हमारे लिए रात का खाना पक रहा था। शेडिंग शेरपा हमारा साथ छोड़ रसोईघर में उनकी मदद में जुट गया। उनके हंसी-मज़ाक से ज़ाहिर था कि उन सबके साथ उसका रोज़ का उठना-बैठना था। खाना खाने के बाद हमें कड़ाकेदार ठण्ड और तेज़ हवा में बाहर निकलकर अपने सर्द कमरे तक जाने की ज़हमत उठानी थी और उसके बाद अलस्सुबह संदकफू के लिए निकल जाना था।

काली पोखरी से संदकफू शिखर पहुँचने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता नेपाल से और दूसरा कुछ आगे जाकर भारत की ओर से ऊपर जाता है। पश्चिम बंगाल का सबसे ऊंचा शिखर संदकफू दोनों देशों की सीमा पर इस कदर खड़ा है कि उसे काटने वाली सड़क के एक ओर नेपाल है और दूसरी ओर हिंदुस्तान।

नेपाल के रास्ते से जीप में उस अत्यंत मुश्किल चढ़ाई को तय करते हुए हमें ताज्जुब था कि वह भयावह सड़क ठीक क्यों नहीं हो सकती। कुछ फासले पर ही हमारी आँखों के सामने दो नौजवानों की मोटरसाइकिलें दम तोड़ चुकी थी। लेकिन जान हथेली पर रखकर भी हम आखिरकार दिलीप की लैंड रोवर में सही सलामत और साबुत संदकफू पहुँच गए। संदकफू से भी कंचनजंघा की वही सोये हुए बुद्ध वाली बर्फीली पर्वतमाला कुछ और नज़दीक से देखी जा सकती है। लेकिन एक बड़ा फर्क यह है कि इस नज़ारे में यहाँ एवरेस्ट का शिखर भी शामिल हो जाता है। यहाँ से 21 किलोमीटर आगे एक अन्य शिखर फालुत है, जिसकी ऊँचाई संदकफू से कुछ ही कम है और जो एक तरह से पश्चिम बंगाल की उत्तरी सीमा का आख़िरी पड़ाव है।  

संदकफू का मनोरम दृश्य

बंगाल का संदकफू नेपाल की सीमा में संदकपुर हो जाता है। यही शायद इसका शुद्ध नाम भी है। हमारा होटल सड़क के उस ओर नेपाल में था। बच्चों के किसी खेल की तरह सुबह की सैर के लिए हम भारत आते हैं, फिर नाश्ते के लिए वापस नेपाल लौट जाते हैं। यहाँ भी बिजली नहीं हैं और पानी भी नीचे से टैंकरों में आता है। होटल की बूढ़ी मालकिन कमला छेत्री अपने तीन बौद्ध सहायकों के साथ यहाँ मेहमानों की देखभाल करती हैं। तीन वर्ष पहले उनके दिवंगत पति को कैंसर हो गया था तो वे उसे इलाज के लिए तमिलनाडु में वेलोर तक गयी थी। वहाँ के डॉक्टरों पर उनका असीम विश्वास है और अपनी आँखों के इलाज के लिए भी वे वहीं जाना चाहती हैं। क्या नेपाल और बंगाल में अस्पताल नहीं हैं? वे एक गहरी सांस लेकर कहती हैं कि नहीं, पहाड़ों में बस यही एक कमी है। यहाँ वैसे तो लोग बीमार नहीं पड़ते, लेकिन कभी कुछ हो जाए तो…

भारत के रास्ते नीचे उतरते हुए हम गैरीबास में गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के छोटे से यात्री निवास में एक और साहसी नौजवान महिला कनु और उनके कुत्ते पीपी से मिलते हैं। कनु जंगल के बीचों-बीच अकेली एक सहायक के साथ उस रेस्ट हाउस को चलती हैं जहाँ ट्रांजिस्टर रेडियो पर हर वक्त ऊंची आवाज़ में नेपाली गाने बजते रहते हैं। संगीत के बीच ही वह मेहमानों को खाना खिलाती है, उनकी गंदी चादरों को बाहर धूप में टांगती है,बाथरूम धोती है और छः किलोमीटर दूर बाज़ार से राशन लाने के लिए पैदल जाती है। उसे अकेले वहाँ डर नहीं लगता? नहीं, वह मुस्कराती है — डर किस बात का ? यह जंगल उसका अपना घर है। यहाँ के जानवर तक उसे पहचानते हैं।

शेडिंग शेरपा, दिलीप की 1946 की लैंड रोवर, कमला छेत्री, कनु और उनके झक्क सफ़ेद कुत्ते पीपी से विदा लेते हुए हम फिर से अपने कहीं अधिक खूंखार शहरी जंगल में वापस लौट आते हैं जहां कभी गोरखालैंड तो कभी बोडोलैंड के नाम पर नयी राजनीतिक सीमाएं खींची जा रही होती हैं, जहाँ मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री चंद वोटों के लिए बेहिचक जघन्य झूठ बोलते दिखते हैं और जहाँ  गरीब मुसलमान घुमंतू चरवाहों को सबक सिखाने के लिए एक अबोध बच्ची के साथ मंदिर में अकल्पनीय कुकर्म करने वालों के बचाव में लोग तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आते हैं।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

जितेन्द्र भाटिया

जितेन्द्र भाटिया (जन्म : 1946) केमिकल इंजीनियरिंग में पी-एच.डी. हिंदी के चर्चित लेखक हैं। उनकी कृतियों में समय सीमांत, प्रत्यक्षदर्शी (उपन्यास); रक्तजीवी, शहादतनामा, सिद्धार्थ का लौटना (कहानी-संग्रह); जंगल में खुलने वाली खिड़की (नाटक); रास्ते बंद हैं (नाट्य रूपांतर, प्रकाश्य); सोचो साथ क्या जाएगा (विश्व साहित्य संचयन); विज्ञान, संस्कृति एवं टेक्नोलॉजी (प्रकाश्य) शामिल हैं।

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