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देशज आधुनिकता के प्रवर्तक : पेरियार

इस आलेख में ओमप्रकाश कश्यप पेरियार को देशज आधुनिकता के प्रवर्तक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। जिनका मानना था कि वर्ण-जाति के विनाश के बिना भारत को एक आधुनिक राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है

  ई.वी. रामासामी पेरियार  (17 सितंबर 1879 – 24 दिसंबर 1973) : जीवन और आधुनिकताबोध

  • यदि ईश्वर हमारे अपकर्ष का कारण है, तो उस ईश्वर को नष्ट कर दो। यदि धर्म ऐसा करता है, उसे दुत्कार दो। यदि मनुस्मृति, गीता या कोई और धर्मग्रंथ हमारे अपकर्ष का कारण बनता है, तो उसे जलाकर खाक कर दो। जो मंदिर, तालाब या त्योहार हमारे अपमान और अपकर्ष की वजह हैं, उनका बहिष्कार करो। यदि कोई कहता है कि इसके पीछे हमारी राजनीति है, तो आगे बढ़ो और इसे खुलकर स्वीकार करो—पेरियार
  • झूठे विश्वासों द्वारा लुभाकर वे (धर्माचार्य) आपको धर्मोन्मत्त बना देते हैं, ताकि वे आपके स्वामी बन सकें। वे आपको अंधविश्वासी बनाते हैं। इसलिए नहीं कि आप ईश्वर से डरने लगें, बल्कि इसलिए कि आपके हृदय में उनका भय समा जाए—वाल्तेयर

‘ईश्वर एक खूंटा है। धर्म रस्सी। जो भी इसमें फंसता है, आजीवन चक्कर काटता रहता है’—फ्रांसिसी विचारक वाल्तेयर (21 नवंबर 1694-30 मई 1778) ने कुछ ऐसा ही कहा था। उसके सामने चर्च की मनमानी और तेजी से उभरते पूंजीवाद की विकृतियां थीं। भारत में इन दोनों के अलावा जाति की महामारी भी है। धर्म के साथ मिलकर वह कोढ़ में खाज का रूप ले लेती है। बावजूद इसके समाज का अल्पसंख्यक वर्ग ऐसा है, जो जाति और धर्म की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाता। उसे दुनिया को चलाने के लिए धर्म चाहिए, समाज व्यवस्थित रखने के लिए जाति। इसमें वे लोग शामिल हैं जो जाति-व्यवस्था के शीर्ष पर हैं। जिनके लिए वह लाभ का सौदा है। धर्म जाति का संरक्षण करता है। धर्म को संरक्षित करने के लिए उन्होंने पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क जैसी व्यवस्थाएं निर्मित की हैं। इन दोनों के संरक्षण हेतु, मनुष्य को जन्म से ही छोटा-बड़ा बताने वाली, आदमी-आदमी में भेद करने वाली संस्कृति है, जिसे वे ‘भारतीय संस्कृति’ जैसा लुभावना नाम देते हैं।

ऐसा नहीं है कि इस प्रवृत्ति का विरोध नहीं हुआ। प्राचीन काल में आजीवक दार्शनिकों से लेकर, गौतम बुद्ध तक, सभी इसके विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए थे। मध्यकाल में कबीर और रविदास ने आदमी-आदमी में भेद करने की प्रवृत्ति को ललकारा। धर्म के नाम पर तरह-तरह के आडंबर थोपने वाले पुरोहितों को चुनौती दी। पश्चिमी पुनर्जागरण की प्रेरणा से भारत में भी नवजागरण की शुरुआत हुई। राजा राममोहन राय, केशवचंद सेन, ईश्वरचंद विद्यासागर, रानाडे, शाहूजी महाराज ने जातिभेद को चुनौती दी। उनमें से अधिकांश उच्च जातियों से आए थे। उनके अपने-अपने पूर्वाग्रह थे, जिनका असर उनके आंदोलनों पर भी पड़ा था। वे समानता के बजाए समरसता की मांग कर रहे थे। चाहते थे कि जाति बनी रहे, केवल जातिभेद मिट जाए। बबूल की बगिया हो, पर पांव में कांटे न चुभें। 19वीं शताब्दी में जाति और धर्म के नाम पर हो रही मनमानियों के विरोध में सबसे पहली सशक्त और वास्तविक चुनौती ज्योतिराव फुले की ओर से मिली। उनके बाद डॉ. आंबेडकर ने उसे बड़े आंदोलन में तब्दील करने का काम किया। दक्षिण में आंदोलन के सूत्रधार, नायक और प्रवर्त्तक बने—ई. वी. रामासामी पेरियार। ब्राह्मणवाद के विरोध के लिए पेरियार ने द्रविड़ अस्मिता को औजार बनाया। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के माध्यम से उन्होंने पूरे दक्षिण भारत में विरोध की सशक्त लहर तैयार की। फलस्वरूप सामाजिक न्याय की मांग बढ़ती गई।

केरल के कोट्टायम जिले के वाइकोम में पेरियार स्मारक में स्थापित पेरियार की प्रतिमा (फोटो : एफपी ऑन द रोड, फरवरी 2017)

पेरियार का जन्म 17 सिंतबर, 1879 तमिलनाडु के कस्बे इरोड में हुआ था। पिता का नाम था—वेंकट नायकर। जाति —बलिगा नायडू। इस जाति के सदस्य सामान्यत: खेती और व्यापार करते हैं; तथा वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार शूद्र की श्रेणी में आते हैं। पेरियार के पिता सफल व्यापारी थे। इरोड और आसपास के कस्बों में उनका नाम था। परंतु समाज में उनकी हैसियत सामान्य शूद्र जैसी ही थी। बचपन से मेधावी और स्वाभिमानी रामासामी ने छह वर्ष की अवस्था में स्कूल जाना शुरू किया। वहां उन्हें जाति-व्यवस्था का घिनौना रूप देखने को मिला। स्कूल के दिनों की एक घटना का उल्लेख स्वयं पेरियार ने किया है—

‘उन दिनों अन्य जातियों(शूद्र) के लोग उनके(सवर्ण) घर से भोजन नहीं ले सकते थे। स्कूल जाते समय मुझे समझाया गया था कि मैं उन लोगों के घरों में न जाऊं। उस दिन मुझे प्यास लगी थी। मुझसे कहा गया कि मैं अध्यापक के घर से पानी मांग लूं। वे पक्के शाकाहारी थे। ‘ओदुवर’ जाति से उनका संबंध था। उनके घर में एक छोटी लड़की पीतल के गिलास को जमीन पर रख देती थी। उसके बाद वह उसमें पानी डालती। मुझे बताया गया था कि मैं उस पानी को बिना गिलास में मुंह लगाए हुए पियूं। पानी पीने के बाद मुझसे गिलास को नीचे रख देने को कहा गया। यह उन दिनों की लोकमान्य व्यवस्था थी।’

बालक रामासामी को जब भी अवसर मिलता, ऐसी घटनाओं का विरोध करता। माता-पिता सामाजिक व्यवस्था के प्रति नतमस्तक थे। चाहते थे कि रामासामी भी उसका पालन करे। इसलिए घर में बात पहुंचती तो पिता नाराज होते। लगातार शिकायत मिलने के बाद अंतत: पिता ने उन्हें स्कूल से निकाल लिया। उस समय वे दस वर्ष के थे। बारह वर्ष की अवस्था में रामासामी पिता के व्यापार में बंटाने लगे। पिता की तरह रामासामी भी सफल व्यापारी सिद्ध हुए। उनका परिवार इससे प्रसन्न था। पिता ने दुकान के बोर्ड हटवाकर उनपर रामासामी का नाम लिखवा दिया। कुछ सार्वजनिक कार्यों में भी वे परिवार का प्रतिनिधित्व करने लगे। इसी बीच रामासामी ने हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन आरंभ किया। व्यापार के सिलसिले में मिलने वाले व्यक्तियों से वे धर्म और जाति को लेकर सवाल करते। पंडितों और शास्त्रियों के साथ मिलकर धर्म-चर्चा करते। किशोरावस्था में ही वे महसूस करने लगे थे कि रामायण, महाभारत और गीता जैसे ग्रंथों को ब्राह्मणों ने अपने विशेष उद्देश्य के लिए लिखा है। उनका उद्देश्य धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक है।

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रामासामी के साहस और सरोकारों की अनेक कहानियां हैं। 1905 की एक घटना है। इरोड में प्लेग का भीषण हमला हुआ। लोग तड़प-तड़प कर मरने लगे। देखते ही देखते प्लेग वह महामारी इरोड में 100 से अधिक जिंदगियां लील गई। लोग वहां से पलायन करने लगे। युवा पेरियार ने इरोड से बाहर जाने के बजाय चुनौती से टकराने का फैसला किया। उन्होंने खुद को प्लेग ग्रस्त लोगों की सेवा में झोंक दिया। मृतक के परिजन जिस लाश को छूने से भी इन्कार कर देते थे, पेरियार उसे अकेले ही पीठ पर लादकर शमशान ले जाते। महामारी टल गई। उस घटना के बाद पेरियार का नया चरित्र उभरकर सामने आया। परोपकारी, साहसी और दूसरों की मदद को तैयार रहने वाला। चुनौतियों से बचने के बजाय उनसे जूझना। नायकत्व का यह हौसला आगे भी बना रहा।

पत्नी मनियाम्माई के साथ पेरियार

19 वर्ष की उम्र में रामासामी का विवाह कर दिया गया। उस समय तक वे अपने व्यवसाय में नाम कमा चुके थे। पिता को बेटे पर गर्व था। तभी एक घटना घटी, जिससे उनके सामने ब्राह्मणवाद का कुटिल चेहरा एक बार फिर उजागर हो गया। कदाचित किसी पारिवारिक विवाद के कारण रामासामी ने संन्यास लेने की घोषणा कर दी। संन्यासी के रूप में उनका लक्ष्य था, बनारस पहुंचना। यात्रा के दौरान वे दो ब्राह्मण मित्रों के साथ थे। बनारस में पेरियार ने तथाकथित धर्म-नगरी का वह रूप देखा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना तक न की थी। ब्राह्मण मित्र तो बनारस पहुंचते ही उनका साथ छोड़ चुके थे। ब्राह्मण होने के नाते उन्हें वहां कोई समस्या न थी। मठों और आश्रमों के दरवाजे उनके लिए खुले हुए थे। मगर पेरियार के लिए ब्राह्मण न होना, समस्या बन गया। वे लगभग खाली हाथ घर से चले थे। जो थोड़े-बहुत पैसे थे वे रास्ते में काम आ चुके थे। खाली जेब पेरियार के आगे भोजन तक की समस्या खड़ी हो गई।

ब्राह्मण मित्रों की देखा-देखी उन्होंने भी मठों में जाकर भोजन करने की कोशिश की, परंतु नाकाम रहे। जनेऊ धारण कर आश्रम में घुसे, वहां मूंछों के कारण पहचान लिए गए। भूखे-प्यासे पेरियार कई दिनों तक बनारस की सड़कों और गलियों में भटकते रहे। भूख असहनीय हुई तो आश्रमों के बाहर उच्छिष्ट से काम चलाना पड़ा। पेट भरने के लिए एक बार उन्होंने कुत्तों के साथ भी भोजन साझा किया। मूंछों के कारण ब्राह्मण न होने की पोल खुल जाती थी, सो मूंछें ही साफ करवा दीं। उसके बाद एक मठ में नौकरी मिल गई। परंतु वह ज्यादा दिन टिक न सकी। मठ के पुजारियों को पेरियार की जाति के बारे में पता चल गया तो उन्होंने तत्काल मठ छोड़ने का आदेश सुना दिया। अपमान से आहत और क्षुब्ध पेरियार फिर सड़क पर आ गए।

आज हम कह सकते हैं कि पेरियार को जाति छिपाकर रहने की क्या आवश्यकता थी! लेकिन अपने गृहस्थान से दूर, जहां कोई जानने-पहचानने वाला न हो, वहां शरण पाने के लिए इस तरह के प्रयास आपदधर्म भी कहे जा सकते हैं। असल में वे ‘रामासामी’ के ‘रामासामी पेरियार’ बनने के दिन थे। बनारस में उन्होंने आश्रमों में पलते भ्रष्टाचार को देखा था। स्त्रियों के साथ अमानवीय अत्याचार और वेश्यावृत्ति से भी उनका सामना हुआ था। ‘धर्म-नगरी’ में धर्म और ईश्वर के नाम पर पनप रहे पाखंडों को उन्होंने निकट रहकर देखा। लूट-खसोट, धोखाधड़ी, भिखारियों की भीड़, नदी में तैरती हुई अधजली लाशें….पेरियार का जी घबराने लगा। भारतीय समाज की कड़वी सचाइयों को लेकर ये जीवनानुभव आगे चलकर पेरियार के बहुत काम आए। छुआछूत उन्मूलन और स्वाभिमान आंदोलन के दौरान उन्होंने बार-बार इन घटनाओं का जिक्र किया था।

1920 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। गांधी द्वारा चलाए जा रहे असहयोग आंदोलनों में हिस्सा लिया। विदेशी सामान के बहिष्कार के लिए सड़कों पर उतरे। धीरे-धीरे कांग्रेसी नेताओं का दुहरा चरित्र उनके सामने आने लगा। उन्होंने देखा कि खुद को भारत की आमजन का नेता कहने वाले कांग्रेसी जाति के मामले में रूढ़िवादी हैं। वे धर्म और ईश्वर के नाम पर पनप रही विकृतियों को बचाए रखना चाहते हैं। शेष भारत की तरह उन दिनों दक्षिण में भी जातिवाद विरोधी आंदोलन उबाल पर थे। 1925 में एक और घटना सामने आई, जिससे पेरियार की सामाजिक प्रतिबद्धताएं और सरोकार खुलकर सामने आ गए।

त्रिनेलवलि जिले में ब्राह्मणों का एक गांव है—कल्लीदेइकुरिुचि। वहां पर ‘गुरुकुलम’ नाम से स्कूल चलाया जाता था। जैसा कि नाम स्पष्ट है, संस्थान पर ब्राह्मणों का कब्जा था। कांग्रेस का समर्थन भी ‘गुरुकुलम’ को प्राप्त था। संस्थान के आंतरिक प्रशासन पर ब्राह्मणवाद हावी था। उसमें सबसे पहले ब्राह्मण विद्यार्थियों को भोजन परोसा जाता था। भोजन के लिए उन्हें हॉल में बिठाया जाता था। परोसने के लिए साफ-सुथरे कपड़ों में ब्राह्मण लगे रहते। गैर-ब्राह्मण बच्चों के लिए हॉल से बाहर भोजन की व्यवस्था थी। उनके लिए इंतजाम भी अपेक्षित साफ-सुथरे न थे। उन दिनों पेरियार प्रदेश कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे। ‘गुरुकुलम’ की व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उन्होंने पार्टी की ओर से दी जाने वाली सहायता पर रोक लगा दी। इसका खूब विरोध हुआ। लेकिन पेरियार अपने निर्णय पर अटल रहे।

चुनौती बड़ी हो तो वे कठोर निर्णय लेने में भी नहीं हिचकिचाते थे। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि मद्य-निषेध कार्यक्रम की भूमिका पेरियार के घर ही में तैयार हुई थी। 1919 के आसपास गांधी इरोड पहुंचे तो पेरियार के घर को ठिकाना बनाया। रात्रि को चर्चा के दौरान पेरियार की पत्नी नागम्मल और बहन कनम्मल ने गांधी से शराब के कारण होने स्त्रियों की दुर्दशा के बारे में चर्चा की। उन्होंने कहा कि पति ताड़ी और कच्ची शराब में अपनी रकम खर्च कर देते हैं। पति तो नशे में सबकुछ भूल जाता है, मगर स्त्रियों का जीवन उससे नर्क बन जाता है। अगले दिन दोपहर के भोजन के दौरान दोनों स्त्रियों ने फिर इस मुद्दे को उठाया और मद्यपान निषेध के लिए आवश्यक कानून बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। गांधी को उनका सुझाव पसंद आया। उन्होंने ऐलान कर दिया कि कांग्रेस के कार्यकर्ता ताड़ी की दुकानों के आगे धरना देंगे।

आंदोलन आरंभ हुआ तो पेरियार के साथ उनकी पत्नी और बहन भी आंदोलन में कूद पड़ीं। पेरियार आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे थे। उन दिनों उनके अधिकार में 500 से अधिक नारियल के पेड़ थे। यह सोचकर कि उनसे भी ताड़ी का उत्पादन होता है, पेरियार ने सारे पेड़ कटवा डाले। आंदोलन लगातार तेज होता गया। आखिर पेरियार को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके जेल जाने के बाद भी नागम्मल और कनम्मल आंदोलन में बनी रहीं। उस दौरान कुछ कांग्रेसी नेताओं से उस आंदोलन को वापस लेने की मांग की। इस पर गांधी ने हाथ खड़े कर दिए। उनका कहना था कि आंदोलन पर उनसे ज्यादा दो स्त्रियों की पकड़ है। इस कारण वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं।

पेरियार राजनीति में सक्रिय थे। प्रदेश की राजनीति में उनकी अच्छी पैठ थी। 1924 तक वे कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष बन चुके थे। उसी दौरान उन्हें ‘वायकम सत्याग्रह’ में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला। पेरियार बिना देर किए, नारायण गुरु के नेतृत्व में शूद्रों और अतिशूद्रों के मंदिर प्रवेश हेतु चलाए जा रहे सत्याग्रह में कूद पड़े। उसके लिए दो बार जेल यात्राएं कीं। अंततः आंदोलनकारियों की जीत हुई। मंदिर प्रवेश के अधिकार का महत्त्व प्रतीकात्मक था। वास्तविक परिवर्तन से काफी दूर। परंतु शताब्दियों से सवर्णों के दमन और उत्पीड़न का शिकार रहे दलित और पिछडे़ समुदायों के लिए छोटी-छोटी सफलताएं भी महत्त्वपूर्ण थीं। ऐसा कोई भी अवसर पेरियार चूकना नहीं चाहते थे। तीखे भाषणों के कारण अपने ही दल में उनके अनेक विरोधी पैदा हो चुके थे। पेरियार को लगा कि इस भेदभाव को राजनीतिक सक्रियता द्वारा मिटाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने वंचित समूहों के लिए प्रांतीय विधायिकाओं में 50 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने की मांग की। प्रांतीय सभा की वार्षिक बैठक में उन्होंने इस आशय का एक प्रस्ताव भी पेश किया। कांग्रेस संगठन पर उन दिनों ब्राह्मणों का कब्जा था। परिणामस्वरूप पेरियार द्वारा पेश किया गया बिल पास न हो सका। इससे क्षुब्ध पेरियार ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया।

27 जून 1970 को यूनेस्को द्वारा जारी सम्मान पत्र जिसमें उन्हें “नये युग का पैगंबर” तथा ‘दक्षिण-पूर्व एशिया का सुकरात’ कहा गया (फोटो : एफपी ऑन द रोड, फरवरी 2017)

इस्तीफा देते समय पेरियार ने घोषणा की थी कि भविष्य में उनका एक सूत्री कार्यक्रम होगा, कांग्रेस के भीतर से किसी भी तरह के ब्राह्मण राज को समाप्त करना। उसकी शुरुआत 1925 में ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के रूप में हुई, जिसमें पेरियार ने ब्राह्मणों को विदेशी मूल के आर्यों का उत्तराधिकारी बताते हुए, द्रविड़ अस्मिता का मामला उठाया। मैक्समूलर से लेकर तिलक तक, सभी ने इस विषय पर खूब लिखा है। ‘गुलामगिरी’ और दूसरी कई पुस्तकों में फुले ने ब्राह्मणों को भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार ठहराया था। सो पेरियार का द्रविड़ अस्मितावादी आंदोलन जनता के दिल की आवाज बन गया। सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने में धर्म की भूमिका सर्वोपरि होती है। फुले ने इसे समझा था। उन्होंने धर्म और संस्कृति के आधार पर थोपे गए सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथों की तार्किक स्तर पर पड़ताल की थी, जिसका समाज पर सकरात्मक असर पड़ा। उन्हीं से प्रेरणा लेकर पेरियार ने दक्षिण अस्मितावादी आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने धार्मिक और सांस्कृतिक शोषण को द्रविड़ अस्मिता से जोड़ा। समाज में नैतिकता और सदाचरण का पर्याय मान लिए गए धार्मिक प्रतीकों और मिथों की तार्किक व्याख्या की। रामायण की प्रतियों का दहन किया। लोगों से अपील की कि धर्म को धंधा बना देने वाले पंडे पुरोहितों के चक्कर में आने के बजाय स्वयं उनकी समीक्षा करें। तर्क-बुद्धि से काम लें।     

उन दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन तेजी पर था। दक्षिण भी उससे अछूता न था। पेरियार के नेतृत्व में एक और समानांतर आंदोलन उभरने लगा, जिसका उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी प्राप्त करना था। इसी सिलसिले में पेरियार 1926 में बंगलुरू आए गांधी से मिले। उन्होंने कहा कि वर्ण-व्यवस्था के उन्मूलन के बगैर छूआछूत पर काबू कर पाना मुश्किल है। गांधी के सामने उन्होंने उस समय की तीन प्रमुख बुराइयों का उल्लेख करते हुए, उन्हें तत्काल मिटाने का आवश्यकता पर जोर दिया। पहला ब्राह्मणों के नियंत्रण वाली कांग्रेस पार्टी, दूसरा हिंदू धर्म और उसकी जाति प्रथा तथा तीसरा समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व।

‘वायकम सत्याग्रह’ की सफलता के बाद पिछड़ों और अतिपिछड़ों का हौसला बढ़ा था। स्वयं पेरियार कांग्रेस से त्यागपत्र देने के बाद ब्राह्मणवाद विरोधी कार्यक्रमों में उतर चुके थे। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ दक्षिण भारत में द्रविड़ अस्मिता की पहचान बनकर उभर रहा था। पेरियार छूआछूत विरोधी आंदोलन के वे प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे। 10 फरवरी 1929 को छूआछूत उन्मूलन के मुद्दे पर बुलाई गई सभा में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था—

‘वे कहते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ऊंच-नीच का भेद नहीं मानता। दूसरी ओर वे कहते हैं कि अछूतों पर हो रहे अत्याचारों के लिए एकमात्र ईश्वर जिम्मेदार है। यह कितने शर्म की बात है। यह भी कहा जाता है कि छूआछूत की रचना स्वयं ईश्वर ने की है। यदि यह सही है तो सर्वप्रथम हमें उस ईश्वर का बहिष्कार करना चाहिए। उसके बाद ही किसी और कार्यक्रम पर विचार किया जा सकता है। यदि ईश्वर छुआछूत के बारे में अनजान है तो भी जितना जल्दी हो सके, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए। यदि ईश्वर इस अन्याय को मिटाने में असमर्थ है, यदि वह ब्राह्मण पुरोहितों पर नियंत्रण करने में नाकाम रहता है तो उसे दुनिया के किसी भी स्थान पर बसने का अधिकार नहीं है। ऐसे में जितनी जल्दी हो सके, उसे उखाड़ फेंकना ही न्यायसंगत होगा।

यदि ऐसा कोई आधार है, जो यह बताता है कि ईश्वर या धर्म छूआछूत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो उसे भी जलाकर खाक कर देना चाहिए। बजाय यह जाने कि वह क्या है अथवा किसने कहा है?’ (कुदी आरसु, 17 फरवरी 1929)

पेरियार के प्रति सवर्णों के मन में कितनी नाराजगी थी, इसका उल्लेख 12 जुलाई 1931 के कुदी आरसु(जनता का राज) में किया गया है। उसके अनुसार पेरियार एक बार अपने मित्र श्रीनिवास अयंगर के साथ एक ब्राह्मण के घर पहुंचे। वहां उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था। उस समय पेरियार को अयंगर से अलग भोजन परोसा गया। परोसने के लिए थाली के बजाय पत्तलों का प्रयोग किया गया। यही नहीं दोपहर को जब वे दुबारा भोजन करने बैठे तो सुबह की झूठी पत्तलें वहीं पड़ी थीं। स्थान की सफाई तक नहीं हुई थी। ऐसा ही शाम के भोजन के समय भी हुआ। इस तरह के अपमान पेरियार के लिए नए न थे। इस तरह की हर घटना उन्हें ब्राह्मणवाद के विरोध और द्रविड़ अस्मिता के संघर्ष की प्रेरणा देती थी।  

पेरियार और आधुनिकताबोध

पेरियार ज्यादा पढ़े-लिखे न थे। दस वर्ष की उम्र में औपचारिक शिक्षा से उनका संबंध टूट चुका था। अपना सारा ज्ञान उन्होंने अनुभव और स्वाध्याय के बल पर अर्जित किया था। इसके बावजूद उनका आधुनिकताबोध अपने समय के लगभग सभी नेताओं से तीव्रतर था। पूर्ववर्ती सुधारवादी जैसे राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, केशवचंद सेन, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि सब किसी न किसी धार्मिक संगठन, मत, संप्रदाय आदि के प्रवर्तक-संस्थापक थे। राजा राममोहन राय ‘ब्रह्मसभा’ की नींव रखने वालों में से थे। केशवचंद सेन का संबंध ‘ब्रह्म समाज’ और ‘प्रार्थना समाज’ दोनों से था। दयानंद सरस्वती ‘आर्यसमाज’ के कारण पहचाने जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस वेदांती थे। शंकर की भांति वे भी संसार को माया मानते थे। उन्होंने ‘रामकृष्ण मठ की नींव रखी थी। स्वामी विवेकानंद नव-वेदांती थे। इन सभी का संबंध सवर्ण जातियों से था। इसलिए धर्म या संप्रदाय के संस्थापक/प्रवर्तक का श्रेय लेना उनके अहं को संतुष्टि देता था। उन सबके लिए यह आसान भी था। दूसरी ओर रविदास, कबीर से लेकर जोतिराव फुले तक सभी ने धार्मिक रूढ़ियों और आडंबरों पर निशाना साधा। उनके अनगिनत अनुयायी बने, मगर उनमें से स्वयं किसी ने अपने नाम से न तो कोई मठ बनाया, न किसी नए धर्म-संप्रदाय की शुरुआत की।

भारत में अधिकांश मठ-संप्रदाय सवर्णों ने गढ़े, क्या इसका कोई विशेष कारण हो सकता है?

ईश्वर और धर्म मानवीय जिज्ञासा और तज्जनित कल्पना की उपज है। इस बात को दो हजार वर्ष पुराने धर्म के अनुयायी भी मानते हैं और दो सौ वर्ष पुराने धर्म के अनुयायी-प्रवर्तक भी। कोई भी कल्पना जिसमें अतींद्रिय पात्र या तत्व हों, वह ईश्वरीय या ईश्वर के करीब मान ली जाती है। चूंकि ईश्वर एक काल्पनिक सत्ता है, इसलिए कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति-वर्ग का हो, अपना ईश्वर गढ़ सकता है। देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना ईश्वर होता भी है। यहां तक कि एक ही देवता को अपना ईष्ट मानने वाले भी उसे ठीक वैसा ही नहीं मानते, जैसा बाकी लोग मानते हैं। उनकी पूजा शैली में भी महीन अंतर होता है। हर कोई ईश्वर में अपने विचारों का प्रतिबिंब देखना चाहता है। इसलिए वह वैसा ही ईश्वर गढ़ता है, जिसमें उसकी अपनी छवि झलकती हो। लेकिन सभी लोगों में विश्वास नहीं होता कि वे अपनी मान्यताओं को लेकर दूसरों के आगे तर्क कर सकें । कई बार लोगों को वैसा अवसर भी नहीं मिल पाता । जातिवाद के चलते भारतीय संस्कृति में तो दलित और पिछड़ों को उसके अयोग्य ही मान लिया गया है ।

बहरहाल, प्रत्येक समाज-संस्कृति में कुछ सामान्य देवता भी होते हैं। ऐसे देवता जिनमें लाखों-करोड़ों का विश्वास हो। मगर उस सामान्य सहमति या विश्वास के पीछे निरा अध्यात्मबोध नहीं होता। लोग एक ही देवता या धर्म में विश्वास के लिए इसलिए भी उन्मुख होते हैं, क्योंकि वह उन्हें संगठन और सांगठनिक शक्ति दोनों का अहसास देता है, जिससे वे दूसरे धार्मिक समूहों के सामने सुरक्षित महसूस कर सकें। इसी तरह समाज में लोगों के कुछ न कुछ सामान्य हित होते हैं। एक ही देवता या धर्म में विश्वास उनमें एकता की प्रतीति को बढ़ावा देता है। हितों का जुड़ाव समाजीकरण का उद्देश्य भी है। यही वह बिंदू है, जहां धर्म को समाजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा मान लिया जाता है। दूसरे शब्दों में किसी एक देवता या ईश्वर के प्रति विश्वास या सामान्य सहमति, अध्यात्म से अधिक व्यावहारिकता का मसला है।

व्यक्ति चाहे तो अपना ईश्वर स्वयं कल्पित कर सकता है, परंतु अपनी कल्पना के ईश्वर को ज्यों का त्यों दूसरों पर थोपना कतई आसान नहीं होता। मनुष्य अपने ईश्वर को दूसरों पर तभी थोप सकता है, जब उसकी अपनी कोई पहचान हो। यानी नए ईश्वर को स्थापित करने से पहले उसके प्रवर्तक या रचियता को समाज में अपनी पहचान बनानी पड़ती है। भारत में जाति-व्यवस्था अधिकांश के लिए अभिशाप है तो कुछ के लिए वह वरदान का काम भी करती है। ब्राह्मण के बेटे को जन्मजात ‘पंडित’ मान लिया है। धर्म-शास्त्रों से उसका भले ही छतीस का आंकड़ा हो, परंतु उसे मूर्ख या अपंडित कहने का साहस कोई नहीं जुटा पाता। इससे ब्राह्मण को दूसरों पर अपना ईश्वर थोपने में कतिपय आसानी होती है। यही कारण है कि भारत में जितने भी लोकप्रिय देवता हैं, सब के सब ब्राह्मण यानी सवर्णों का स्वार्थपूर्ण उत्पाद हैं।

पेरियार ईवी. रामासामी ((जन्म : 17 सितंबर 1879 – निधन : 24 दिसंबर 1975)

नए ईश्वर या धर्म को गढ़ना जितना आसान है, उतना ही कठिन है, उसका प्रचार-प्रसार। अधिकाधिक लोगों द्वारा उसकी स्वीकार्यता। यहीं से समझौते ही शुरुआत होती है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को नए ईश्वर या धर्म के दायरे में लाने की आकांक्षा धर्म/संप्रदाय प्रवर्तकों को सामाजिक रूढ़ियों और पाखंडों के प्रति एक सीमा से अधिक कटु नहीं होने देती। गौतम बुद्ध ने यज्ञ के नाम पर बलिप्रथा, तंत्र-मंत्र और जाति के नाम पर भेदभाव का विरोध किया था। लेकिन थे वे मध्यममार्गी ही। उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म-दर्शन—कर्मकांड-प्रधान वैदिक धर्म-दर्शन तथा आजीवक, लोकायत, चार्वाक, वैनायिक जैसे भौतिकवादी दर्शनों के बीच से राह बनाता था। यही सीमा आर्यसमाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज आदि की भी थी। राजा राममोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती तक सभी ने धार्मिक रूढ़ियों, जाति-व्यवस्था तथा उसके नाम पर होने वाले भेदभाव का विरोध किया है। आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व तथा उसके स्वरूप को लेकर भी उनके बीच मतांतर रहे। मगर जाति-व्यवस्था की ओर से, जो गैर-सवर्ण विचारकों की सर्वाधिक चिंता का विषय था, वे आंखें मूंदे रहे। भूल गए कि हिंदू धर्म में जाति-व्यवस्था भी वर्ण-व्यवस्था की भांति शास्त्र-सम्मत है। इसलिए वर्ण-व्यवस्था को संरक्षण देना, प्रकारांतर में जाति को संरक्षित करना है।

इस सत्य को जोतीराव फुले, आंबेडकर और पेरियार तीनों समझते थे। वे जानते थे कि हिंदू धर्म और जाति-व्यवस्था का नाभिनाल का संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक-पोषक हैं। उनमें से जब भी किसी एक पर संकट दिखाई पड़ता है, दूसरा तत्काल उसके समर्थन में आ जाता है। पेरियार को धर्म से कोई शिकायत न थी। बल्कि वे तो कहते थे कि धर्म की अवधारणा उन भले और दूरदृष्टा लोगों ने विकसित की थी, जो मनुष्यता का सचमुच भला चाहते थे। मगर मनुष्यता के लिए धर्म तभी कल्याणकारी हो सकता है, जब वह संपूर्ण समानता का समर्थक हो। यदि उससे असमानता अथवा असमानताकारक प्रवृत्तियों को किसी भी रूप में बढ़ावा मिलता है, तो ऐसे धर्म का भले ही उसका दार्शनिक आधार कितना ही मजबूत क्यों न हो, नष्ट हो जाना ही श्रेयस्कर है। हिंदू धर्म इसी श्रेणी में आता है। उसका आधार मनुस्मृति तथा दूसरी संहिताएं हैं, जिनके बारे में पेरियार का कहना था—

‘मनु का धर्मशास्त्र ब्राह्मणवाद का औजार है। इसके दो प्रमुख उद्देश्य है। पहला ब्राह्मण को बाकी जातियों से सर्वोच्च सिद्ध करना तथा उसके आधार पर उसे बगैर किसी शारीरिक श्रम के, सुखी और सम्मानित जीवन जीने का अवसर प्रदान करना। इसने मेहनतकश जातियों को हमेशा-हमेशा के लिए दास बना दिया है। जो ब्राह्मण नहीं हैं, उनसे उनके आत्मसम्मान और बेहतर जीवन से वंचित कर दिया है। इसका दूसरा उद्देश्य है, द्रविड़ों(गैर-ब्राह्मणों) के लिए, मनुस्मृति के प्रावधानों के अनुरूप व्यवस्था का निर्माण करना। जब यह विधान पूरी तरह से लागू हो जाएगा, सरकार, अदालत सहित सभी संवैधानिक संस्थाएं ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित तथा उनके एकाधिकार द्वारा संचालित होने लगेंगी। उस तरह की व्यवस्था संपूर्ण गैर-ब्राह्मण जातियों को हमेशा-हमेशा के लिए दास बना देंगी।’

पेरियार द्वारा हिंदू धर्म की आलोचना का आधार बहुत व्यापक था। वे हिंदू धर्म की आलोचना जाति के आधार पर करते हैं। छूआछूत के लिए धिक्कारते हैं। इसके लिए वे विशुद्ध वैज्ञानिक तर्क-पद्धति का सहारा लेते हैं। पेरियार द्वारा धर्म की विज्ञानवादी आलोचना केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है। सभी पुरातन धर्म, संप्रदाय उसके दायरे में आ जाते हैं। वे कहते हैं कि यीशू और मोहम्मद जो पूरी तरह निःस्वार्थ थे। उन्होंने मनुष्यता के लिए बड़े-बड़े त्याग किए थे, वे भी ईश्वर और धर्म में अंतनिर्हित वास्तविक दर्शन को, जैसा उनके बारे में आज उपदेशों में बताया जाता है, उस तरह से समझ ही नहीं पाए थे।

पेरियार असल में उस प्रक्रिया की ओर संकेत कर रहे थे, जिसमें कोई सहज मानवीय जिज्ञासा या अध्यात्मबोध धर्म बनने की ओर अग्रसर होता है। जैसे-जैसे कोई दर्शन या अध्यात्मबोध लोकप्रिय होता है, उसके अनुयायी अपने समय, जनरुचि तथा स्वार्थ के अनुसार उसमें निरंतर कुछ न कुछ जोड़ते चले जाते हैं। प्रत्येक नया प्रक्षेपक अपनी रुचि और स्वार्थ के अनुरूप पुराने प्रक्षेपों का समर्थन, व्याख्या कर उनमें संशोधन-परिवर्धन करता है। यह काम, प्रायः कृति को प्राचीनतम दर्शाने के लिए, प्रक्षेपक द्वारा बिना नाम जोड़े, वगैर किसी यश-लिप्सा के किया जाता है। एक के बाद एक प्रक्षेपण से कभी-कभी परस्पर विरोधाभासी तथ्य साहित्य और संस्कृति में चले आते हैं। जिन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के नाम पर आसानी से स्वीकार लिया जाता है। पेरियार अपनी ओर से कोई नया धर्म नहीं थोपते। अपितु थोपी गई बातों को ‘धर्म’ मान लेने की प्रवृत्ति का विरोध करते हैं। इस क्रम में वे धर्म के हर छोटे-बड़े पहलू की दार्शनिक पड़ताल करते हैं। दर्शन के क्षेत्र में उनकी कसौटी विज्ञानवाद है। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर जो खरा है, वही धर्म है। प्रार्थना के बारे में पेरियार की दृष्टि देखिए—

‘प्रार्थना क्या है? क्या यह नारियल फोड़ना है? क्या यह ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करना है? क्या यह कोई त्योहार है? क्या यह ब्राह्मण के आगे दंडवत होना है? क्या यह मंदिर निर्माण करना है? नहीं, प्रार्थना हमारे सदाचरण में बसती है। हमें विवेकवान और जागरूक लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए। यही सच्ची प्रार्थना है।’

ईश्वर और धर्म की आलोचना हो अथवा स्त्री-पुरुष समानता का विचार, पेरियार के दर्शन को किसी भी दृष्टिकोण से परख लीजिए, वे आपको हर बार आधुनिकतम नजर आएंगे। वे विरल प्रतिभाशाली थे। भारत के पहले सुधारवादी जिन्होंने स्त्री-पुरुष असमानता को मिटाने हेतु दोनों के लिए एक जैसी पोशाक का सुझाव दिया था। स्त्रियां केवल सौंदर्य प्रतिमा न बनकर रह जाएं, इसलिए वे चाहते थे कि वे लंबे बालों के मोह से बाहर निकलें। रसोई की जिम्मेदारी केवल स्त्री के जिम्मे न रहे, इसके लिए उन्होंने सामूहिक रसोई पर जोर दिया है। अपने ऐतिहासिक महत्त्व के लेख ‘भविष्य की दुनिया’ में वे समाजवादी राज्य की परिकल्पना, निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ-साथ कल्याणकारी आविष्कारों की भी परिकल्पना करते हैं। उस लेख को पढ़ते हुए महान चित्रकार, आविष्कारक, इंजीनियर लियोनार्दो दा विंची की याद आना स्वाभाविक है, जिसे अपने जीवनकाल में लगभग चार सौ आविष्कारों की परिकल्पना का श्रेय दिया जाता है। पेरियार भोजन-कैपसूल, टेस्ट टयूब बेबी, जल संरक्षण, ऐसा दूरदर्शन जिसमें लोग आमने-सामने बातचीत कर सकें, विद्युत बैटरी से चलने वाली मोटरकार, मैला ढोने, बर्तन साफ करने जैसी मशीन जैसे कई आविष्कारों की परिकल्पना करते हैं। आज वे सभी आविष्कार हमारे सामने हैं।  

पेरियार को दक्षिण एशिया का वाल्तेयर कहा जाता है। यह तुलना धर्म और ईश्वर के बारे में दोनों के विचारों की समानता के आधार पर की जाती है। सुकरात तर्क को मानवीय विवेक की कसौटी मानते थे। पेरियार का भी यही दृष्टिकोण था। इसलिए जून 1970 में यूनेस्को ने पेरियार को, ‘आधुनिक युग का मसीहा, दक्षिण-पूर्वी एशिया का सुकरात, समाज सुधारवादी आंदोलनों का पितामह तथा अज्ञानता, अंधविश्वास, रूढ़िवाद और निरर्थक रीति-रिवाजों का कट्टर दुश्मन’ स्वीकार किया है। आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो पेरियार का कुल जीवनकाल 94 वर्ष, 3 महीने, 7 दिन था। अपने लंबे जीवन में उन्होंने दस बार से ज्यादा जेल-यात्राएं कीं। आंदोलन और लोकोपयोगी उद्देश्य से कुल 13,19,662 किलोमीटर की यात्रा की। यह दूरी पृथ्वी की 33 परिक्रमाओं के बराबर है, तथा पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी का करीब साढ़े तीन गुनी है। उन्होंने कुल 10,700 मीटिंगों में हिस्सा लिया और जीवनकाल में 2,14,000 घंटे भाषण दिए। यदि उनके भाषणों को एक जगह संकलित कर ऑडियो के रूप सुनाया जाए तो वह 2 साल, 5 महीने और 11 दिन तक लगातार बजता रहेगा। लेकिन इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है पेरियार के प्रति दक्षिणवासियों का प्यार, जहां एक पूरी संस्कृति आज भी पेरियार को जीती है। तमाम जिंदगी आलोचना और विरोध सहने वाले व्यक्ति के लिए यह उपलब्धि कम नहीं है ।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/नवल)


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साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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