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फुले-आंबेडकरवाद : दलित-बहुजन आंदोलन और श्रमिक-किसान संघर्ष की एकता का प्रश्न

दलित-बहुजन मुक्ति आंदोलन तभी व्यापक होगा जब वह बहुजन के बड़े हिस्से मजदूरों-किसानों के संघर्षों के साथ एकता कायम करेगा। उसे अन्य न्यायपूर्ण संघर्षों के साथ भी एकता बनानी होगी। यही मंशा डॉ. आंबेडकर ने भी जाहिर की थी। अजय कुमार का विश्लेषण

वर्ष 2018 के मध्य से ही रोजगार का मुद्दा एक केन्द्रीय मुद्दा बना हुआ है और सभी राजनीतिक दल इस पर कोई न कोई रवैया राय प्रस्तुत कर रहे हैं लेकिन वे इसे दलित-बहुजन सवालों से जोड़ने में नाकामयाब रहे हैं। वे यह  नहीं बता रहे हैं कि भीषण बेरोजगारी की मार से सबसे पहले कौन प्रभावित होगा? और इस समय सबसे ज्यादा कौन प्रभावित हो रहा है?

अलग-अलग सरकारी रिपोर्टों में रोजगार को लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं। जेट एयरवेज के घाटे में जाने के कारण और उसका परिचालन बंद हो जाने के कारण उसके हजारों कर्मचारी एक झटके में बेरोजगार हो गए। जेट एयरवेज के एक कर्मचारी ने आत्महत्या कर ली है। इस तरह से इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम में मजदूरों के आधारभूत मुद्दे किनारे लगा दिए गए हैं और उनकी सामाजिक पहचान भी गायब कर दी गयी है।  

दिल्ली में मजदूर-किसानों की रैली

डॉ. आम्बेडकर काफी स्पष्टता के साथ कहते हैं कि एक स्वतंत्र मजदूर अपनी इच्छा से मजदूर बनता है लेकिन दलित मजदूर जन्म से मजदूर होता है। एक स्वतंत्र मजदूर मालिक बन सकता है पर दलित मजदूर अस्पृश्यता के कारण मजदूर के रूप में पैदा होता है और मजदूर के रूप में ही मरता है। एक स्वतंत्र मजदूर अपने मालिक के साथ अनुबंध तोड़ सकता है पर दलित मजदूर ऐसा नही कर सकता। एक स्वतंत्र मजदूर अवकाश पर रह सकता है, पर दलित मजदूर को अपने स्थान पर अपनी पत्नी या पुत्र –पुत्री को काम पर भेजना पड़ता है।

लेकिन आज भारत नाम का राष्ट्र-राज्य मजदूरों को भुला चुका है या इसका ढोंग कर रहा है। बढ़ते हुए मध्य वर्ग और उसके हित वेतन और वेतन आयोगों तक सिमट गए हैं। भारत का नया मजदूर अब यही मध्य वर्ग हो गया है। इधर हाल के दिनों में मजदूर हितों को लेकर कोई बड़े आंदोलन भी नही दिखे। जो आंदोलन हुए भी हैं, वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन की बढ़ोत्तरी को लेकर या वेतन आयोगों की सिफारिशों को लागू करने को लेकर किये गए और लगभग उन्ही मांगों तक केंद्रित रह गए। दूसरी तरफ किसानों के आंदोलन हुए फसलों के उचित मूल्य को लेकर केंद्रित रहे। इनमें भी भूमि सुधार एवं भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के सवाल नही उठाए गए।

 तीसरे आंदोलन जो अस्मितावादी आंदोलन हैं जो समाज के कमजोर वर्गों – दलित, पिछड़े और आदिवासी- की मांगों को आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी मुस्लिम, महिला और विमुक्त-घुमंतू समुदायों के जीवन-दशाओं को सुधारने वाले आन्दोलन गायब हैं। सच यह है कि एक बड़ी आबादी के जीवन को, इन आंदोलनों से गायब कर दिया किया गया है। जब कि इन हिस्सों से ही भारत का मजदूर वर्ग बनता है जो फैक्ट्री से लेकर सड़क के किनारे काम करता है। मजदूरों के जो आन्दोलन हैं भी, वे संगठित क्षेत्र में हैं जो संगठित रूप से ट्रेड यूनियनों द्वारा आगे बढ़ाये जाते हैं। इनमें सरकारी कर्मचारियों के संगठन, औद्योगिक मजदूर और कर्मचारी और वामपंथी ट्रेड यूनियन संगठन शामिल रहते हैं।

महिला मजदूर अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर

पिछले वर्षों में देखा जाए तो समकालीन भारत के मजदूर वर्ग में काफी बढ़ोतरी हुई है। काम की अनिश्चितता काफी बढ़ी हुई है। इसके साथ ही सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्रों में अनुबंध आधारित नौकरियों की बढ़ोत्तरी हुई है, जिनमें रोजगार की अनिश्चितता हमेशा ही बनी रहती है। इनमें गाँव देहात के भूमिहीन मजदूरों से लेकर निर्माण उद्योग में लगे मजदूरों के साथ ही साथ पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नौजवान भी शामिल हैं। इस तरह से आज मजदूर वर्ग का चरित्र भी बदला है। इसमें नए समूह और लोग भी शामिल हुए हैं। लेकिन इन सबके बावजूद यह मजदूर वर्ग वामपंथी संगठनों को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में शामिल नही है। राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों, संकल्प-पत्रों और दृष्टि दस्तावेजों को देखकर तो ऐसा ही लगता है।

तो आज का मजदूर क्या करे, किसको देखे, कहां जाए? क्या आज का मजदूर और उनके मुद्दे किसी के न्याय के संघर्ष में शामिल हैं? किसी के संकल्पों में है? किसी की अपीलों में है? कहीं मजदूरों की अपील करता कोई दिखता है? किसी के दृष्टि दस्तावेजों में मजदूरों की दृष्टि नजर आ रही है क्या? हां सीपीआई, सीपीआईएम और सीपीआई (एमएल) जैसी वामपंथी पार्टियों ने मजदूरों के सवालों को नहीं छोड़ा है।

श्रमिक प्रश्न, डॉ.आंबेडकरऔर दलित मुक्ति का सवाल

दलित-बहुजनों का मुक्ति आंदोलन का तभी व्यापक होगा जब वह दुनिया के मुक्ति आंदोलनों के साथ अपने को जोड़ने का काम करेगा। लेकिन पिछले अनुभवों  को देखकर तो यही लगता है कि इस आंदोलन ने अपने आपको व्यापक बनाने की बजाय संकुचित अधिक किया है। दलित-बहुजनों द्वारा यह संकुचन कई क्षेत्रों में बढ़ रहा है, मसलन विचार के स्तर पर, लेखन के  स्तर पर और आन्दोलन के स्तर पर। क्या कविता कहानी और उपन्यास के लेखन से ये लड़ाई लड़ी तो जा सकती है? ये सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही हो सकते हैं, इससे न्याय और हक की लड़ाई नही लड़ी जा सकती और यह ज्यादा दूर तक नही जाएगी। इसके लिए आधारभूत स्तर पर बदलाव लाना होगा।

दलित-बहुजन आंदोलन की सीमाओं का एक उदाहरण अभी हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम, बापसा, छात्र राष्ट्रीय जनता दल आदि के उभार और उनके आंदोलन में देख सकते हैं। जाहिर सी बात है कि इन संगठनों के उभार ने वामपंथी छात्र राजनीति के सामने एक बड़ी चुनौती पेश की है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि बापसा ने चुनाव जीतने के लिए कौन सी वैचारिक लाइन ली? इन लोगों ने चुनाव जीतने के लिए जिस तरह से आक्रामक ढंग से वामपंथी छात्र संगठनों के खिलाफ बहुत संकीर्ण और कमजोर तर्क गढें, और छात्रों के बीच कुछ इस तरह का संदेश देने की कोशिश की कि जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र नेताओं और छात्र संगठनों ने अभी तक कुछ किया ही न हो! इन ‘सामाजिक न्यायवादी’ संगठनों ने नारा दिया -‘लाल, भगवा एक है, सारे कामरेड फेक हैं’। यह किसी भी तरीके से तथ्यगत नहीं कहा जा सकता है। भगवा यानी, दक्षिणपंथ, जिसकी अगुवाई भारत में आरएसएएस करता है, की तुलना वाम से करना एक ऐसा अतिरेक है, जिससे वंचित तबकों में परोक्ष रूप से दक्षिणपंथ की स्वीकार्यता  बढ सकती है। यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि दलित आंदोलन और पिछड़ी राजनीति जिस तरह की राजनैतिक लाइन ले रहे हैं उससे वाम को खतरा हो या न हो, वह बात स्वयं दलित-बहुजन आन्दोलन के खिलाफ जाती है। यह उन सब समूहों के खिलाफ जाती है, जहाँ मजदूर बनते हैं और उनका शोषण होता है।

दरअसल, सामाजिक न्याय की पक्षधर शक्तियों को दलित और बहुजन, मुस्लिम और स्त्रियों, विमुक्त-घुमंतू और बेघरों के बीच एक व्यापक एका लाने का संकल्प लेना चाहिए। यही बहुजन अवधारणा है। इसे हम डाक्टर आंबेडकर के 18 मार्च 1956 को आगरा में दिए गए एक भाषण से समझ सकते हैं। उन्होंने भूमिहीन मजदूरों के लिए कहा था कि  मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया। मैं उनकी दुख तकलीफों को नजरन्दाज नहीं कर पा रहा हूँ। उनकी तबाहियों का मुख्य कारण उनका भूमिहीन होना है। इसलिए वे अत्याचार और अपमान के शिकार होते रहते हैं और वे अपना उत्थान नहीं कर पाते। …मैं किसी भी हालात में भूमिहीन लोगों को जमीन दिलवाले का प्रयास करूंगा।

इस तरह से आंबेडकर के रेडिकल पक्ष से कौन डरता है। आंबेडकर हर समय इस चिंता में रहते है की लोगो के लिए कितना बेहतर कर दे, इसको पूरा करने की कोशिशों में कई बार वह समझौते करते हुये भी दिखते है। लेकिन आंबेडकर की बुनियादी सोच सत्ता पाने की ललक से प्रेरित पिछड़े-दलित नेताओं से बिलकुल भिन्न है और बहुत अलग भी। आंबेडकर एक परिवर्तन के आकांक्षी है। उस परिवर्तन में जो भी मदद कर सकता है उसको वह एक उम्मीद के साथ देखते है। उस पर सवाल भी खड़े करते है। जो वह नही कर पाए, उस पर वह चिंता भी व्यक्त करते है।आज के राजनेता, लेखक, बुद्धिजीवी यदि जनता के लिए थोड़ा सा भी कुछ कर दे, तो यह कहते फिरते है की हमने यह कर दिया वह कर दिया। लेकिन आंबेडकरहर समय, उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर ज्यादा बेहतर करने की उम्मीद के साथ अपने पर ही सवाल खड़े करते है कि हम ये नही कर पाये। जबकि आज के दौर में दलित-बहुजन सिर्फ पहचान आधारित, प्रतीक आधारित, आरक्षण और संविधान लिए आंबेडकरकी मूर्ति के साथ प्रतीक की राजनीति करते हुये दिखते हैं।  

आंबेडकर जो नही कर पाये उनको उसका भी अफसोस था। बहुजन राजनीति और परिवर्तनकामी राजनीति की दिशा यह होनी चाहिए  कि ‘आंबेडकर क्या नही कर पाये’ उसे हम कैसे पूरा करें?


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लेखक के बारे में

अजय कुमार

युवा समाजशास्त्री डॉ. अजय कुमार भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में रिसर्च फेलो हैं। वे दलित समाजशास्त्र और इतिहास के आपसी संबंध पर शोध कर रहे हैं

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