h n

आदिवासी कवि अनुज लुगुन को युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार

लेखक कर्मानंद आर्य बता रहे हैं कि जिन कविताओं के लिए अनुज लुगुन को सम्मानित किया गया है, वे आनंद की कविताएं नहीं हैं। जितनी बार भी इस लम्बी कविता को पढ़ा जाय पाठक पूंजीवाद के प्रति घृणा और विषाद से भर उठता है। साथ ही यह कविता घृणा और विषाद मुक्त होना भी सिखाती है

झारखण्ड की पृष्ठभूमि से आने वाले हिंदी के आदिवासी कवि अनुज लुगुन को इस वर्ष हिंदी विषय का प्रतिष्ठित ‘युवा साहित्य अकादमी’ पुरस्कार उनकी कृति ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ को दिया गया है। हालांकि परम्परा के विपरीत किसी गैर द्विज को इस पुरस्कार को दिए जाने के कई कयास लगाये जाने शुरू हो चुके हैं।

अनुज लुगुन की वाणी प्रकाशन से विगत वर्ष प्रकाशित लम्बी कविता ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित होकर पाठकों के बीच में है। हालाँकि इस कविता के कुछ हिस्से पहले भी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। पुस्तक की पांडुलिपि को प्रकाशित होने के पहले देखने का सुखद अवसर प्राप्त हुआ था। हिंदी की अब तक की सबसे बड़ी कविता ने पहली बार में ही मन मोह लिया था। जितनी बार भी इस लम्बी कविता को पढ़ा जाय पाठक पूंजीवाद के प्रति घृणा और विषाद से भर उठता है। साथ ही यह कविता घृणा और विषाद से भरना नहीं अपितु मुक्त होना सिखाती है। यही इस लम्बी कविता की खूबी है। पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो मेरी भी अपेक्षा थी कि यह किताब चर्चा का विषय होगी और प्रमुख पत्रिकाओं में इस किताब की समीक्षाएं जरुर दिखाई देंगी। आशा के विपरीत इस किताब को ब्राह्मणवादी सत्ता द्वारा पूरा स्नेह नहीं मिला।

अनुज लुगुन की किताब

तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई के तर्ज पर दलित-आदिवासी वंचित समाज सदियों से ‘इन्हीं बाघों’ से जूझ रहा है। यह लड़ाई कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। कभी वह ‘ब्राह्मणवाद’ के रूप में आती है तो कभी ‘जातिवाद’ के रूप में या फिर कभी ‘पूंजीवाद’ के रूप में जिसे हम महज जातिवाद के दूसरे संस्करण के रूप में देख पाते हैं। बाघ पहले से ही मुखौटा नहीं लगाता तो हम इसे आसानी से पहचान भी सकते हैं। चूँकि कविता स्वयं बताती है कि ‘बाघ’ ने अपना विस्तार कर लिया है और उसकी पहुँच तंत्र के सभी रूपों तक हो चुका है तब यह संकट और भी बड़ा हो जाता है कि उसके लिए कौन सा फंदा बनाया जाय या पैलेटगन की खोज की जाय। हम आदिम समुदायों, मूलनिवासियों का कौन सा दर्द है जो इस कविता में प्रकट न हो।  

वस्तुतः यह आनंद की कविता नहीं है, और जो इसे आनंद की कविता मानकर वाचन करेंगे वे समझ जाएँ कि बाघ उनके भीतर उतर सकता है। वरिष्ठ चिन्तक रविभूषण जी ने कविता को पूंजी के नजरिये से देखकर इसकी अर्थवत्ता को और बढ़ाया है। किताब की संक्षिप्त भूमिका में अनुज लुगुन ने इस किताब की पृष्ठभूमि को कुछ इस तरह से देखा है :

‘’अब तक यह बताया जाता रहा है और जाना जाता रहा है कि बाघ का ठिकाना जंगल है| यह मानव सभ्यता के इतिहास का एकांगी और एकतरफा ज्ञान रहा है जिसने एक वर्चस्व को जन्म दिया और हम उस वर्चस्व का लगातार पालन करते रहे हैं| इस वर्चस्व का जिसने प्रतिरोध किया उसे मानवीयता के दर्जे से भी पदच्युत कर दिया गया|चूँकि अब जंगल तेजी से समाप्त हो रहे हैं इसलिए बाघ का ठिकाना और स्वरूप भी बदल गया है| अब एक तरफ जंगल,पहाड़ और नदियाँ हैं तो दूसरी तरफ बाघ है| एक तरफ बाघों की तस्करी हो रही है दूसरी ओर बाघों की जनसंख्या बढ़ाने के लिए जंगलों में सरकारी ‘बाघ प्रजनन परियोजनाएं’ चलाई जा रही हैं| कल की ही बात है सुगना मुण्डा की बेटी ने मनुष्यों के एक समूह को भूखे बाघ के हिंसक आवेग के साथ अपने गाँव में हमला करते हुए देखा| वह घबराई –इतने सारे ‘कुनुईल’ कहाँ से आ गये? चनार-बानर, उलट्बग्घा कहाँ से आ गए?

वह अपने समाज में अपने भाईयों की ओर दौड़ी, वहां भी उसने कुछ ‘चानर-बानर’ को टहलते हुए देखा| वह डर कर उनके हमलों से बचने के बारे में योजना करने लगी| उसने देखा कि एक तरफ तो समूहों में आए बाघ उसे और उसके समुदाय को ‘जंगली’ संबोधन देकर घृणा प्रकट कर रहे थे, वहीँ दूसरी ओर उसने देखा अपने लोगों के बीच से ही ‘चानर-बानर’ बनने वाले शिकार की खोज में घूम रहे हैं| उसने सोचा ‘चूँकि उसके पुरखे,पिता और भाई की ऐतिहासिकता है इसलिए वह जो कुछ देख रही है वह स्वप्न नहीं हो सकता है और न ही कोई साहित्यिक परिकल्पना|’’  

दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं आदिवासी युवा कवि अनुज लुगुन

किताब तीन खण्डों में विभाजित है। बाघ , सुगना मुंडा और सुगना मुंडा की बेटी। अपनी पूर्व की कविताओं को अनुज ने इस लम्बी कविता में विस्तार दिया है जो हमारे सामने एक सांस्कृतिक अवबोधन लेकर प्रस्तुत होती है। प्रस्तुत है लम्बी कविता का एक अंश –

बाघ

जंगल पहाड़ी के इस ओर है और

बाघ पहाड़ी के उस पार

पहाड़ी के उस पार राजधानी है,

उसने अपने नाखून बढ़ा लिए हैं

उसकी आँखे

पहले से ज्यादा लाल और प्यासी हैं

वह एक साथ

कई गाँवों में हमला कर सकता है

उसके हमलों ने

समूची पृथ्वी को दो हिस्सों में बाँट दिया है,

 

जहाँ से वह छलांग लगाता है

वहां क लोगों को लगता है

यह उचित और आवश्यक है

जहाँ पर वह छलांग लगाता है

वहां के लोगों को लगता है

यह उन पर हमला है

और वे तुरंत खड़े हो जाते हैं

तीर-धनुष,भाले-बरछी और गीतों के साथ ,

 

जहाँ से वह छलांग लगाता है

वहां के लोगों को लगता है

उसके खिलाफ खड़े लोग

असभ्य,जंगली,और हत्यारे हैं

सभ्यता की उद्घोषणा के साथ

वे प्रतिरोध पर खड़े लोगों पर बौद्धिक हमले करते हैं

उनकी भाषा को पिछड़ा हुआ और

इतिहास को दानवों का दावत मानते हैं

उनके एक हाथ में दया का सुनहला कटोरा होता है

तो दूसरे हाथ में खून से लथपथ कूटनीतिक खंजर,

युद्ध की संधि रिश्तों से और

रिश्तों से युद्ध करनेवाले

श्रम को युद्ध से और

युद्ध से श्रम का शोषण करने वाले

स्व-घोषित सभ्यता के कूप जन

गुप्तचरी कर और गुप्तचरी कराकर

किसी की भी आत्मा में प्रवेश कर सकते हैं,

 

उस दिन जब

सुगना मुण्डा की बेटी ने

उनकी वासनामयी

दैहिक मांग को खारिज कर दिया

तो वे ‘चानर-बानर’ बन कर

उसके समाज के अंदर ही घुस आए

अब वे दैहिक सुख के लिए

सुगना मुण्डा की बेटी के

वंशजों की आत्मा में भी प्रवेश कर

बाघ का रूप धर रहे हैं

 

सुगना मुण्डा की बेटी हैरान है कि वह

उस बाघ की पहचान कैसे करे …?

कुछ कहते हैं

वह सभ्यता का उद्घोषक है

सत्ता का अहं है

कुछ कहते हैं

वह आदमी ही है

तो कुछ यह भी कहते हैं कि

बात बाघ के बाघपन की होनी चाहिए

जो हमारे अंदर भी है और बाहर भी,

 

उस दिन से  

सुगना मुण्डा की बेटी

बाघ के सामने तन कर खड़ी है …

(‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ लम्बी कविता की भूमिका से साभार )

(कॉपी संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें

 

आरएसएस और बहुजन चिंतन 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

 

लेखक के बारे में

कर्मानंद आर्य

कर्मानंद आर्य दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया बिहार के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं।

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...