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बादल भोई : जल-जंगल-जमीन के लिए अंग्रेजों से लड़ने वाले महानायक

लेखक सूर्या बाली बता रहे हैं कि कैसे बादल भोई ने जंगलों पर अंग्रेजों के कब्जे का विरोध किया था और एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उन्हें वह जगह नहीं दी गयी जिसके वे हकदार थे

जल-जंगल-जमीन पर अधिकार को लेकर संघर्ष तब भी होते थे जब भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी। उन दिनों जहां एक ओर भारत में राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में लेने को संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर जंगलों पर आश्रित रहने वाले लोग अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे। यह भी स्वतंत्रता संग्राम ही था। लेकिन जंगलवासियों के स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय इतिहासकारों ने हाशिए पर रखा। एक उदाहरण बादल भोई का है जिन्होंने वनों पर अधिकार के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष किया था।

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा-भोपाल राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित परासिया कस्बे से लगभग 17 किलोमीटर दूर बादल भोई का जन्म डुंगरिया ग्राम पंचायत के तीतरा गांव में एक गोंड परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम विमला परानी और पिता का नाम कल्याण परानी था।[i] उनकी जन्मतिथि के बारे में स्पष्ट तौर पर जानकारी उपलब्ध नहीं है। परंतु, उपलब्ध सरकारी अभिलेखों में उनका जन्म 1845 में बताया गया है।[ii] बादल भोई के 4 बच्चे हुए जिनमें से दो बेटियां अकबरसा और इमरत भोई और दो बेटे बलदेव परानी और रविशंकर परानी हुए।


छिंदवाड़ा के तीतरा गांव में बादल भोई के घर में रखी गयी उनकी तस्वीर

बादल भोई का गोत्र परानी है। गोंड परंपराओं के मुताबिक, यह गोत्र सात देवों में एक माना जाता है। भोई उनका जातिगत उपनाम नहीं था बल्कि सम्मानजनक उपाधि थी जिसका मतलब सम्पन्न व्यक्ति होता है।[iii]

बादल भोई की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी लेकिन इसके बावजूद वे एक कुशल नेतृत्वकर्ता थे। उन दिनों मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा जिला बेशकीमती लकड़ियों और कोयले के लिए प्रसिद्ध था। अंग्रेजों ने इस प्रकृतिक सम्पदा के दोहन के लिए स्थानीय लोगों को मजदूर के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। वे लोगों पर तरह-तरह के जुल्म ढाते थे। यह देख बादल भोई ने अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम छेड़ दी।

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महात्मा गांधी जब 6 जनवरी 1921 को छिंदवाड़ा गए और उन्होंने वहां बादल भोई ने उनसे मुलाकात की।[iv]  हालांकि पहले से ही वे सामाजिक मुद्दों को लेकर आवाज उठाते रहे थे, परंतु महात्मा गांधी से मुलाक़ात के बाद  स्वतन्त्रता संग्राम में जी-जान से कूद पड़े।

उनके नेतृत्व में हजारों की संख्या में गोंड समुदाय के लोगों ने वर्ष 1923 में छिंदवाड़ा में कलेक्टर के बंगले का घेराव किया। उनके विरोध को देखते हुए पुलिस द्वारा लाठियां चलाई गयी। इस घटना में सैकड़ों की संख्या में लोग घायल हुए और बादल भोई सहित सैकड़ों लोगों को स्थानीय जिला कारागार में डाल दिया गया । बाद में व्यक्तिगत मुचलके और लिखित आश्वासन  के बाद उन्हें रिहा किया गया कि बादल भोई व उनके साथी भविष्य में कोई भी आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ नहीं करेंगे।

लेकिन गोंड समुदाय के लोगों पर अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ उनके मन में लगी आग कहां बुझने वाली थी। उन्होंने एक के बाद एक कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। इनमें से एक रेल रोको आंदोलन भी शामिल था। वे इस बात के घोर विरोधी थे कि छिंदवाड़ा की अमूल्य वन सम्पदा और खनिज बाहर भेजी जाय। इसलिए उन्होने बहुमूल्य लकड़ियों, कोयले और अन्य संसाधनों से भरी ट्रेन को रोका था। उनका मानना था कि इस संपत्ति पर पहला हक़ स्थानीय लोगों का है।

उनका यह संघर्ष लंबे समय तक चला। वे अंग्रेजों की आंखों में चुभने लगे थे। उन्हें खोज निकालने को अंग्रेजों ने कई प्रयास किया। लेकिन वे असफल रहे। दूसरी ओर बादल भोई आंदोलन को आगे बढ़ाते रहे। इस दौरान कई मौके आए जब वे परसिया से कुछ दूर गुफा में छिप जाते थे और वहीं से आंदोलन का नेतृत्व करते थे।

21 अगस्त 1930 को उन्होंने छिंदवाड़ा से लगभग 45 किलोमीटर दूर रामकोना नानक स्थान पर अंग्नेजों के वनाधिकार कानून का उल्लंघन किया और जबरन लोगों के साथ जंगल में घुसकर वहां के वनोत्पाद को लेकर निकले। लेकिन इसी बीच अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर  किया[v]। बादल भोई को उनके अन्य साथियों से अलग चांदा सेंट्रल जेल, चंद्रपुर, महाराष्ट्र में भेज दिया गया। वहां अंग्रेजों ने उनके उपर बहुत जुल्म किये। उनके जेल में रहने के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो आंदोलन उन्होंने शुरू किया था, वह बढ़ता ही जा रहा था। साथ ही अंग्रेजी सरकार की परेशानियां भी बढ़ती जा रही थीं।  इसे देखते हुए अंग्रेजों ने जेल में बंद बादल भोई को 1940 में खाने में जहर देकर मार डाला।

इस प्रकार अपने प्राणों की आहुति देने वाले ऐसे महान स्वतन्त्रता सेनानी को राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं मिली। हालांकि बाद में 8 सितंबर 1997 को छिंदवाड़ा के गोंड समुदाय के लोगों द्वारा बनाए गए दबाव के कारण राज्य सरकार ने जिले के एकमात्र जनजातीय संग्रहालय का नाम बादल भोई के नाम पर रखा। यह संग्रहालय मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा सबसे पुराना संग्रहालय है। इसके अलावा बादल भोई महाविद्यालय परसिया, छिंदवाड़ा और बादल भोई आदिवासी जन उत्थान संस्था, न्यूटन चीकली छिंदवाड़ा के जरिए उनके संघर्षों को सहेजने की कोशिश की जा रही है।

(कॉपी संपादन : नवल)

[i] बादल भोई के बड़े बेटे रविशंकर परानी से उपलब्ध जानकारी के आधार पर । बातचीत का समय 3 बजे दोपहर , सोमवार, 27 मई  2019

[ii] श्री बादल भोई राज्य जनजातीय संग्रहालय छिंदवाड़ा से उपलब्ध जानकारी के अनुसार (28 मई मंगलवार ) http://chhindwara-chhavi.blogspot.com/2008/06/traibala.html

[iii] रसेल आर वी, सेंट्रल प्रोविंस डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: डिस्ट्रिक्ट छिंदवाड़ा,  वॉल्यूम ए; द टाइम्स प्रैस मुंबई से प्रकाशित, वर्ष 1907; पृष्ठ 65-66

[iv] 10 बार मध्यप्रदेश आए थे गांधीजी, इतिहास में दर्ज ये तारीखें (नई दुनिया, 10 अक्तूबर 2018) : https://naidunia.jagran.com/national-gandhiji-came-to-madhya-pradesh-10-times-these-dates-recorded-in-history-2596660

[v] अंग्रेजों ने 1865 में भारतीय वन अधिनियम बनाकर जंगलों पर कब्जा करना शुरू किया। इसके बाद 1878 के नए वन अधिनियम ने भारत के जंगलों में रहने वाले स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों के उपयोग को और सीमित कर दिया।

 


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लेखक के बारे में

सूर्या बाली

डाॅ. सूर्या बाली ‘सूरज’ एम्स, भोपाल में चिकित्सक होने के साथ ही अनुसूचित जनजाति मामलों के जानकार व चिंतक हैं। जनजाति समाज व संस्कृति आधारित लेख, कविताएं व गीत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, केयर, इंडियन मेडिकल एसोशिएशन द्वारा सम्मान के अलावा वर्ष 2007 में कालू राम मेमोरियल अवाॅर्ड और फोर्ड फाउंडेशन फेलोशिप प्रदान की गई

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