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द्रविड़ और आर्य

लेखक प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं कि तमिल, संस्कृत के मुकाबले बहुत प्राचीन भाषा है और उसका साहित्य विशद और समृद्ध भी है। साथ ही यह भी कि सिन्धु-सभ्यता से इन द्रविड़ों के पूर्वजों का कोई रिश्ता था। सिन्धु-सभ्यता निवासियों की कुछ प्रवृत्तियां इनमें आज भी देखी जा सकती हैं

जन विकल्प

भारत में अनेक प्रजातियों के लोग रहते हैं। नृवंशीय अध्येताओं के अनुसार कम-से-कम छह प्रमुख प्रजातियाँ तो चिन्हित ही की जा सकती हैं। बहुत प्राचीन यानि मूलवासी लोग नेग्रीटो थे, उसके बाद प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाई लोगों का आना बताया जाता है, प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाई और द्रविड़ लोगों में कोई संबंध है, ऐसा कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। भूमध्यसागरीय इलाकों से आए हुए लोगों की एक अलग दास्ताँ है। फिर उत्तर-पूर्वी छोर पर मंगोलियाई-तिब्बती घनीभूत दिखते है, जो पर्वतीय तराई क्षेत्रों में बढ़ते हुए पच्छिम तक के बड़े हिस्से में फैलते गए। (हड़प्पा से प्राप्त कंकालीय अवशेषों के अध्ययन से इस बात का भी पता चलता है कि कुछ कंकाल मंगोलीय प्रभाव के भी हैं।) और फिर आर्यों का आना हुआ। यूँ शक, यूची, हूण, चीन, पठान, तुर्क, अफगान जाने कितने लोग यहां आते-बसते और घुलते-मिलते रहे। कहते हैं, पारसी लोग मुगलों के ज़माने में आये और उनके पुरखों के एक प्रतिनिधि ने दरबार में जाकर इस मुल्क में बसने की गुजारिश की, तब बादशाह ने कहा कि यहाँ तो पहले से ही इतने किस्म के लोग हैं। इस पर उस बुजुर्ग पारसी ने कहा था, जहाँपनाह! आपके यहाँ हम वैसे ही घुल-मिल जायेंगे, जैसे दूध में मिसरी (शक्कर) घुल जाती है। हम दिखेंगे नहीं, लेकिन मुल्क की मिठास बढ़ाएंगे। कहते हैं इस जवाब ने मुगल बादशाह का मन जीत लिया था। सम्भवतः कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को इस संवाद की कुछ जानकारी थी। उनने अपनी कविता में मिलते-जुलते भाव को लिखा-

हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़-चीन,

शक-हूण-दल,पठान-मोगल एके देहे होलो लीन।

आज जेनेटिक्स अथवा माइक्रोबायोलॉजी इतना विकसित हो गया है कि उसने मानव-कोशिकाओं, विशेष कर उनके जीन के अध्ययन से इतिहास से जुडी ऐसी कई गुत्थियों को सुलझा लिया है। सामान्य निष्कर्ष यही निकला है कि मानव की विभिन्न प्रजातियों में मौलिक स्तर पर कोई भेद नहीं है। हाँ, कुछ नस्लों की मौजूदगी के भी प्रमाण अवश्य हासिल हुए हैं। लेकिन विशुद्ध और पवित्र जैसा न कभी कुछ था, और न ही आज है। पूरी दुनिया में पुराने ज़माने से ही, कहें सृष्टि के आरम्भ से ही एक ऐसी जैविक और सांस्कृतिक चयापचयता या मेटाबोलिज्म चल रहा है कि कुछ भी स्थिर नहीं है। हर चीज, हर क्षण परिवर्तित हो रही है। इसमें नाम भी है, और रूप भी। ऐसे में, कोई नस्ल या रेस स्थिर कैसे हो सकता है? लेकिन कुछ लोग आज भी हैं, जो अपने नस्ल और जाति-प्रजाति पर गुमान पाले बैठे हैं और इसके समर्थन में कोई न कोई दलील गढ़ते रहते हैं। यह हमारी उस मनोवृत्ति का परिचायक है, जो मैत्री की जगह वर्चस्व को महत्व देती है। कुछ लोगों को दबदबे के साथ जीना जरुरी लगता है। इस दबदबे के लिए दूसरों को कमतर और कमजोर और स्वयं को श्रेष्ठ मानना आवश्यक हो जाता है। झूठे बड़प्पन के इन तत्वों से सांस्कृतिक विकृतियां उभरती हैं। नफरत की बुनियाद यहीं से आरम्भ होती है।

आर्य और द्रविड़ ऐसी नस्लें हैं, जो भारत-भूमि पर कुछ अधिक ही अधिकार जताती है। इसे लेकर विचित्र किस्म की एक राजनीति पिछले सौ-सवा सौ साल से चल रही है। दोनों ने भारत को दो भागों में विभाजित कर लिया है। उत्तर भारत को आर्य, अपनी सांस्कृतिक जागीर (आर्यावर्त) समझते हैं और कुछ ऐसा ही दक्षिणी भारत के लिए द्रविड़ों का है। मोटे तौर पर भारत की कुल जनसंख्या के कोई तीस फीसद लोग द्रविड़ हैं, तो सत्तर फीसद में बड़ी संख्या में मंगोलियाई, आदिवासी और अन्य दर्जन भर प्रजातियां हैं। आर्यों का ठीक-ठीक हिस्सा कितना है कहना मुश्किल है। जैसे आर्य भाषा संस्कृत बोलने वाले, अद्यतन राजकीय आंकड़ों के अनुसार, कुल लोग आज 14,135 हैं, तो शुद्ध आर्यों की संख्या कितनी होगी आप अनुमान कर सकते हैं। इसलिए भारत में इंडो-आर्य जाति का आना, और आज का आर्यावर्तीय सांस्कृतिक दम्भ अलग-अलग चीजें हैं। उसी तरह की बात द्रविड़ों पर भी लागू होती हैं। आज हम इतिहास का संधान किसी खास जाति-प्रजाति समूह का वर्चस्व स्थापित करने के लिए नहीं, प्राचीन दुनिया की सच्चाई जानने के लिए करते हैं। हमारे लिए द्रविड़ और आर्य या कोई और, जिनकी ऊपर चर्चा कर चुका हूँ, मिल कर भारतीय हैं। कवि टैगोर के शब्दों में सब एक ही देह में लीन-विलीन हो चुके हैं।

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यह तो निश्चित है कि द्रविड़ लोग भारत में आर्यों से बहुत पुराने ज़माने से हैं, और उनके द्रविड़ भाषा-समूह जिसमें तमिल, तेलगु ,कन्नड़ और मलयालम जैसी आधुनिक भाषाएं हैं, का भारत के दक्षिणी राज्यों, श्रीलंका, मालदीव और सिंगापुर आदि में गहरा प्रभाव है। द्रविड़ संस्कृति के प्रभाव चिन्ह वर्तमान पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में भी है, जिसे हम सांस्कृतिक यात्रा के अवशेष के रूप में चिन्हित करते हैं और उससे कुछ ऐतिहासिक रहस्य खुलते हैं, जिसकी यथासमय चर्चा करूंगा। तमिल, संस्कृत के मुकाबले बहुत प्राचीन भाषा है और उसका साहित्य विशद और समृद्ध भी है। यह माना जाता है कि सिन्धु-सभ्यता से इन द्रविड़ों के पूर्वजों का कोई रिश्ता था। सिन्धु-सभ्यता निवासियों की कुछ प्रवृत्तियां इनमें आज भी देखी जा सकती हैं। जैसे कला के क्षेत्र में अभिरुचि और लड़ाई-झगड़ों से थोड़ी तटस्थता। सिन्धु-सभ्यता के निवासी भी शांत प्रवृत्ति के थे, ऐसा अनुमान है। लड़ाई-झगड़ों में उनकी रूचि के कोई चिह्न नहीं प्रकट हुए हैं। शायद यही कारण है कि पुरातात्विक खुदाइयों में उस सभ्यता के जो अवशेष मिले हैं, उसमें लड़ाई में इस्तेमाल हो सकने वाले हथियारों का अभाव है।

द्रविड़ लोग आर्यों से पहले से यहां जरूर हैं, लेकिन वे यहां के मूलनिवासी हैं, यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता। कुछ अध्ययन बतलाते हैं कि इनका रिश्ता दक्षिण-पूर्व ईरान के एलम इलाके के निवासियों, यानी एलम-वासी या एलमाइट्स से है। अध्य्यन इंगित करते हैं कि अफ्रीकन मूल के कुछ लोगों के सम्बन्ध एलमाइट्स लोगों से बने और द्रविड़ इनसे ही विकसित एक प्रजाति है, जो दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए सिन्धु के तटों तक तकरीबन 13000 ईसापूर्व के इर्द-गिर्द फ़ैल गए और बसने के बाद एक सभ्यता विकसित की। एक विचार यह भी है कि भारत के मूलवासी जो ऑस्ट्रोलॉइड थे, द्रविड़ लोगों के आने के पूर्व ऑस्ट्रलियन जुबान का इस्तेमाल करते थे। ये संभवतः मुंडा लोग थे, जिनकी जुबान से द्रविड़-जुबान का मेल-जोल और टकराव हुआ; जिससे दोनों जुबानों ने एक दूसरे से कुछ-न-कुछ ग्रहण किया। मुंडा जुबान पर द्रविड़ों का कितना प्रभाव पड़ा, इसकी बहुत जानकारी अभी नहीं है। संस्कृति के क्षेत्र में प्रायः ऐसा होता है कि कोई सचेत प्रजाति जब दूसरी सुस्त प्रजाति से टकराती है तब वह सुस्त प्रजाति से बहुत कुछ ग्रहण कर लेती है, जबकि सुस्त प्रजाति में आत्मसात करने की प्रक्रिया भी सुस्त होती है। यह स्पष्ट करना आवश्यक मानता हूं कि प्रजातियां जेनेटिक कारणों से नहीं, वैचारिक कारणों से सुस्त या सक्रिय होती हैं।

पशुपति का सील

वर्तमान में द्रविड़ और आर्य नस्ल की बात कम ही लोग करते हैं। एक नस्ल से अधिक एक भाषा और संस्कृति के रूप में वे आगे बढ़ते हैं। अब आर्य संस्कृति और आर्य भाषा (यानी संस्कृत), और द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़ भाषा की बात होती है। जैसे अंग्रेजी बोलने वाले सब लोग अंग्रेज ही नहीं होते; वैसे ही आर्य या द्रविड़ भाषा बोलने वाले सब लोग आर्य या द्रविड़ नहीं होते। इन दिनों नस्लों से अधिक संस्कृतियों के वर्चस्व की बात होती है। लेकिन कुछ लोग, जिनकी संख्या हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ती हुई प्रतीत होती है, एकबार फिर इसके नस्ल रूप पर ही जोर देना चाहते हैं। पिछली शताब्दियों में दुनिया भर के कुलीन या खाये-अघाये लोगों में नस्ल या रेस को लेकर एक जोश का भाव दृष्टिगोचर होता है। देखा-देखी हमारे यहां भी यह प्रवृत्ति उभरी। उत्तर भारत में आर्य-भावना का प्रसार एक ऐसी ही स्थिति का विकास था। मेरी राय में अंग्रेजी राज के दौरान, खास कर ओरिएण्टल अथवा पौर्वत्य मानसिकता वाले दौर में, हिन्दुओं के द्विज समूह में, जो जाति के हिसाब से तथाकथित ऊँचे क्रम में प्रतिष्ठित रहे, यह भावना धीरे-धीरे विकसित हुई। द्रविड़ों में अस्मितामूलक भाव उत्तरभारतीय तथाकथित आर्य-हिन्दुओं की प्रतिक्रिया में क्रमिक स्तर पर विकसित हुए। जिसके लिए ब्रिटिश शासन ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया। लेकिन स्पष्ट तौर पर उत्तरभारतीय द्विज-जनों का आर्यत्व यूरोपीय देशों में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में विकसित नस्लीय भावना का एक हिस्सा था, जिसकी शुरुआत जाने-अनजाने मशहूर वेद-विद मैक्स मूलर द्वारा हुई थी। मैक्स मूलर (1823-1900) ने 1861 ई. में ‘साइंस ऑफ़ लैंग्वेज’ शीर्षक से एक व्याख्यान दिया, जिसमें पहली दफा ‘आर्यन’ शब्द का प्रयोग जनजातियों के एक समूह के लिए किया, जिसे इंडो-ईरानी कहा जाता रहा था। मैक्स मूलर भाषा-विज्ञान विषयक व्याख्यान दे रहे थे और ‘आर्यन’ एक भाषा-समूह या परिवार के रूप में उन्होंने इस्तेमाल किया था,जो प्रोटो-इंडो-ईरानी लोगों की भाषा थी। उन्होंने अपने शोध में पाया था कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक जैसी पुरानी भाषाओं, जिससे आज के उत्तर भारतीय और यूरोप के कई देशों की आधुनिक भाषाएं विकसित हुई हैं, के कुछ शब्दों और वैयाकरणिक विन्यासों में अद्भुत समानता है। इससे इन भाषा-भाषियों के कभी एक साथ निवास करने की बात पुष्ट होती है। इसी भाषा समूह को मैक्स मूलर ने आर्य कहा। फिर एच.जी. वेल्स (1866-1946) ने इस शब्द का इस्तेमाल अपनी किताब ‘आउट लाइन ऑफ़ हिस्ट्री’ में किया। लेकिन आर्थर द गोबिन्यू (1816-1882) ने सबसे आगे जाकर भाषा-विज्ञान और नृवंश-विज्ञान को एक में मिलाते हुए एक घालमेल कर दिया। उसने आर्यन को एक श्रेष्ठ नस्ल के रूप में चित्रित किया। मैक्स मूलर ने हालांकि इसका विरोध किया। परन्तु यह विषय अब राजनीति का बन गया था। किसी बुद्धिजीवी द्वारा इसे रोकना या संभालना अब संभव नहीं रह गया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में जर्मन अध्येताओं जिसमे गुस्ताफ कोसिन्ना (1858-1931) प्रमुख थे, ने इस बात की घोषणा कर दी कि आर्यों की मूलभूमि स्कैंडेनेविया यानी प्राचीन जर्मनी है। इन्ही दिनों हेलेना ब्लावट्स्की(1831-1891) और हन्नी ऑलकोट ने थियोसोफिकल मूवमेंट आरम्भ किया, जिसमें आर्यन नस्ल को मानव जाति का ऐसा प्रमुख नस्ल माना गया, जिसके विकास में ही मानवता की भलाई सन्निहित है। भारत में ठीक इसी तरह का भाव एक गुजराती संत दयानन्द सरस्वती (1824-1883) के नेतृत्व में उभरा और उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। दयानन्द ने ‘कृण्वन्तो -विश्वमार्यम’ (पूरी दुनिया को आर्य बनाओ) का उद्घोष किया। बेशक यह सामाजिक-सुधार का एक आंदोलन था और भारत में उन्नीसवीं सदी में सामाजिक सुधारों के आंदोलनों का जो सिलसिला चला था, उसी की कड़ी में था। जल्दी ही इसने पश्चिमोत्तर इलाकों, खास कर पंजाब में अपना प्रभाव जमा लिया। दयानन्द में धार्मिक कटटरता और पुरोहितवाद के खिलाफ गहरा रोष था, जिसे उनकी किताब ‘सत्यार्थ प्रकाश ‘ में देखा जा सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने भारत में मौजूद सभी धर्मों के पाखंड की बखिया उधेड़ी है। लेकिन महाराष्ट्र के उनके समकालीन जोतीराव फुले ने जिस तरह आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने और धर्मग्रंथों को ख़ारिज करने की वकालत की थी, के विपरीत निर्णय लेते हुए ,उन्होंने ऋग्वेद और वैदिक सभ्यता में लौटने की लोगों से अपील की। उनकी यह कोशिश उन्हें उस आर्यवादी पक्ष में धकेल देती है, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।

मैक्स मूलर (1823-1900)

बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक यूरोप के कई देशों के कुछ संगठन आर्यन ‘व्याधि’ से पीड़ित हो गए। आर्यन नस्ल की श्रेष्ठता की सैद्धांतिकी को राष्ट्रवादी ख्यालों से जोड़ा गया और थिओसोफी मूवमेंट अरिओसोफी मूवमेंट में तब्दील हो गया। इसकी व्याख्या राजनीति के क्षेत्र में आर्यवाद के रूप में हुई और तीन देशों (भारत, इटली और जर्मनी) में अपने-अपने तरीके से एक ही दशक (1920 -30) के भीतर भिन्न नाम-संज्ञाओं में यह प्रकट हुआ। इटली में मुसोलिनी के नेतृत्व में यह फासीवाद कहा गया, तो जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में यह नाज़ीवाद बन गया। भारत में सावरकर ने इसकी व्याख्या 1923 में ‘हिंदुत्व’ के रूप में की। हिन्दू शब्द उनके लिए आर्य प्रभुत्व का पर्याय था और पौराणिक त्रेतायुग के राजा रामचंद्र इसके मर्यादा-पुरुष थे। सावरकर की विचारधारा यूरोपीय आर्यवादियों से इस अर्थ में तनिक भिन्न थी कि वह द्रविड़ों या अन्य की मौजूदगी इस शर्त पर स्वीकार कर सकते थे कि वे लोग अर्थात अन्य नस्ल के लोग आर्य-वर्चस्व को स्वीकार कर लें। उनके लिए आर्य कोई और नहीं यहां की वे जाति समूह थे जो सामाजिक रूप से द्विज अथवा प्राश्रयप्राप्त तबके से थे। यह सब दयानन्द के ‘आर्य बनाओ अभियान’ से भिन्न था। दयानन्द के लिए आर्य, कोई नस्ल नहीं, एक संस्कृति थी, जिसे कोई भी ग्रहण कर सकता था। लेकिन सावरकर का हिंदुत्व चालाकी भरे अंदाज़ में आर्य-वर्चस्व की प्रस्तावना करता है। उनकी वैचारिकी में हिंदुत्व की आर्य-छतरी के साये में अन्य नस्ल के लोग रह सकते हैं। यहां संस्कृति पर उतना जोर नहीं है। उनके हिंदुत्व में पराजित द्रविड़त्व शामिल है। हम सीधे सावरकर का उद्धरण उनकी किताब ‘हिंदुत्व’ से देखें –

” …जिस दिन विजय का अश्व बेरोक-टोक अयोध्या में वापस लौट आया तथा आदर्श नृपति रामचंद्र ने राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ होकर सार्वभौम राज्य का श्वेत छत्र लगाया, उस दिवस केवल आर्यवंशी नरेशों ने ही नहीं अपितु दक्षिण के हनुमान, सुग्रीव, विभीषण सरीखे राजाओं ने भी उनका सार्वभौमत्व स्वीकार कर लिया। वस्तुतः वही हमारा राष्ट्र-दिवस था, जिस दिन आर्य और अनार्य दोनों परस्पर मिल कर एक राष्ट्र बन गए।” (पृष्ठ -19 )

सावरकर के आर्यवाद में प्राचीन अनार्य अर्थात द्रविड़- जिन्हें वह बंदर-भालू बता रहे हैं, का समावेश तो है ,लेकिन वह उन पर वर्चस्व को लेकर इत्मीनान हैं। राम उनके आदर्श-पुरुष इसलिए हैं कि उन्होंने द्रविड़ों को पराजित कर अपने स्वामित्व के अधीन किया। अफ़सोस कि विलक्षण मेधा वाले इस इंसान ने स्वयं राम (वह पौराणिक ही क्यों न हों) की प्रजाति पर विचार नहीं किया। मान्यतानुसार राम का रूप-रंग कृष्णवर्ण है, जो आर्यों के स्वीकृत गौर वर्ण-पिंगल केशा पहचान से भिन्न है। रूप-रंग के आधार पर राम में ऑस्ट्रोलॉइड-द्रविड़ जीन होना चाहिए, इसके मुकाबले रावण का रूप-रंग आर्य पहचान के अधिक निकट प्रतीत होता है। यूं भी वर्ण के हिसाब से एक ब्राह्मण और दूसरा अब्राह्मण है। लेकिन इन सवालों का कोई अर्थ नहीं है; और यदि कुछ है तो बस यही कि इन पुरानी कहानियों को लेकर आज हम कुछ खास निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सकते। ये तमाम कहानियां यही इंगित करती हैं कि कुछ भी शुद्ध नहीं है। पवित्र और शुद्ध है काल अथवा समय का महाचक्र, उसकी गति। सब कुछ निरंतर बदल रहा है, स्थिर और अमर है, तो हमारी मानवता है।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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