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पूर्वोत्तर वृतांत : बादलों के देश से सूर्य की पहली किरण तक!         

इस यात्रा संस्मरण में लेखक जितेंद्र भाटिया बता रहे हैं कि पूरे पूर्वोत्तर में एक खास तरह की जहरीली राजनीति की जा रही है। वे यह आशंका भी व्यक्त कर रहे हैं कि आने वाले समय में इसका विपरीत असर पड़ेगा और यहां के लोगों का जनजीवन प्रभावित होगा

बस्ती बस्ती परबत परबत – 7

(भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य मूल रूप से आदिवासी-प्रदेश हैं, जो भारतीय राजनीति और शासन-व्यवस्था के नक्शे पर उपेक्षित और वंचित हैं। फुले-आम्बेडकरवादी आंदोलनों को समावेशी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न प्रकार की वंचनाओं की शिकार समुदायों/समाजों को गहराई से समझें और उनके साथ एका बनाने की कोशिश करें। फारवर्ड प्रेस की यह पहल इसी दिशा में है। इसके तहत हम हिंदी के चर्चित लेखक जितेंद्र भाटिया के पूर्वोत्तर यात्रा वृत्तांत की यह शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं। श्री भाटिया ने इन यात्राओं की शुरूआत वर्ष 2014 में की थी, जो अभी तक जारी हैं। वे भूटान सहित पूर्वोत्तर राज्यों की यात्राएं कर रहे हैं और वहां की विशेषताओं, विडंबनाओं व समस्याओं को हमारे सामने रख रहे हैं – प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस)


मेघालय से अरुणाचल वाया असम

  • जितेंद्र भाटिया

जनवरी के महीने में गुवाहाटी से दक्षिण, मेघालय की राजधानी शिलौंग का सौ किलोमीटर का सफ़र बहुत ठंडा भी हो सकता है। गुवाहाटी में तापमान अपने चरम में भी ठंडी हवाओं के साथ आठ-नौ डिग्री तक सीमित रहता है लेकिन शिलौंग में रास्तों पर फैले पाले की बर्फीली चादर शून्य या उससे कुछ ऊपर के बेहद सर्द मौसम का संकेत देती है। खासी और जयंतिया पहाड़ियों के बीच बसे शिलौंग पर अंग्रेज़ों की संस्कृति का प्रभाव है, लेकिन अपने नाम से लेकर प्रदेश के पसंदीदा ‘हिल स्टेशन’ और उत्तर पूर्व के ‘स्कॉटलैंड’ का विशेषण पाने वाले इस शहर और स्कॉट निवासियों की धरती के बीच कोई साम्य ढूंढ पाना मुश्किल होगा। अंग्रेज़ों के ज़माने में जब शिलौंग अविभाजित असम की राजधानी था, तब शायद किसी गोरे स्कॉट ने चारों ओर घिरी पहाड़ियों को देख नास्टैल्जिया में इसे यह नाम दे दिया होगा। हकीकत यह है कि यह शहर अपनी विलायती विरासत और खालिस देशी बदइन्तज़ामी को एक साथ निभाये चल रहा है। कहीं भी बिना सूचना दिए ब्रेक लगा देने वाली शहर की सर्वव्याप्त, मनमाना किराया मांगने वाली काली-पीली टैक्सी में एक तरफ जहां आश्चर्यजनक से ढंग से ठूंसे जा सकने वाले मुसाफिरों की कोई सीमा नहीं है, वहीं दूसरी ओर ज़रुरत का वक्त आने पर खाली टैक्सी लाख चिल्लाने के बावजूद आपके सामने से साफ़ निकल जायेगी। किसी ड्रेस की जगह मनमाने कपड़े पहनने वाले इन टैक्सी वालों पर शहर के लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराने म्युनिसिपल या किसी अन्य बोर्ड का कोई अंकुश नहीं है। दो वर्ष पहले घोषित किये देश के सौ ‘स्मार्ट’ शहरों की सूची में शिलौंग का भी नाम था, लेकिन ज़मीनी तौर पर फिलहाल इसका कोई असर शायद ही यहां की सड़कों पर दिखायी दे।

अंग्रेज़ी परंपरा और बाहर से आने वाले पर्यटकों की ज़रूरत के अनुरूप शिलौंग में आपको हर तरह के रेस्तरां मिल जायेंगे, लेकिन शहर का कैंटोनमेंट फिर भी सबसे साफ़-सुथरा और संयोजित इलाका है। इसके उस पार पहाड़ों के घुमावदार रास्तों और उनसे नीचे धुंध से ढंकी मोहक वादियां आपका स्वागत करेंगी। यहीं अलस्सुबह की धुंधली रोशनी में, पाले से ढंकी घास के उस ओर, एक बार हमें दौड़ लगाते सियारों या संभवतः भेड़ियों का गिरोह मिला था।

शिलौंग से और दक्षिण में नोंगक्रेंग प्रपात से होते हुए आप पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित चेरापूंजी आ जायेंगे जो किसी ज़माने में देश का सबसे अधिक वर्षा पाने वाला इलाका हुआ करता था, लेकिन अब खाली मैदानों, उनपर बने अधखाली बगीचों और विकास के लिए ज़रूरी कंक्रीट से घबराकर बरसात ने शायद इस इलाके से मुंह मोड़ लिया है। यहां स्थित मावसमाई ईको पार्क के अधिकांश कृत्रिम मंज़र आपको सोचने पर मजबूर कर देंगे कि जंगलों को साफ़ कर वहां फूल, सीढ़ियां और कृत्रिम फव्वारे लगाकर आप प्रकृति के पास आ रहे हैं या कि उससे विमुख हो रहे हैं।

ब्रह्मपुत्र नदी की शाम गुवाहाटी में (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

शहर के जिस ‘होमस्टे’ में हम ठहरे हैं, उसकी मालकिन मिसेज डेंग एक तरह से प्रदेश की ‘खासी’ जनजाति का सही प्रतिनिधित्व करती हैं। वे अंग्रेज़ों के नफ़ासत-दार तौर-तरीकों में  अपने गेस्टहाउस को चलाते हुए भी अपनी पारंपरिक जड़ों से बहुत दूर नहीं हैं। यहीं उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में खासी और गारो राजाओं ने पहली बार अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था। 1833 में इन्हीं घाटियों में अंग्रेज़ों की ताकतवार सेना ने स्थानीय जनजातियों को कुचल विजय पायी थी। अंग्रेज़ी कमिश्नर डेविड स्कॉट ने तब  खासियों के आत्मसमर्पण के बाद स्थानीय नेता तिरोत सिंग को ढाका निर्वासित कर दिया था। प्रदेश की हिफाज़त के लिए एक अंग्रेज़ी टुकड़ी सोहरा (चेरापूंजी) में बैठा दी थी, लेकिन शहर की बेहद गीली बरसाती आबोहवा गोरों को रास नहीं आयी थी और कालांतर में वे छावनी को ऊंचाई पर स्थित येद्दो या इयुदिह नाम से जाने वाले गांव में ले आये थे। समय के साथ इस जगह का अंग्रेज़ी नाम शिलौंग कैसे पड़ा, यह तय कर पाना कठिन है।

मेघालय की समस्त जनजातियों के समूह को खासी नाम से जाना जाता है और इसमें शामिल खासी, गारो, जयन्तिया, भोई आदि जनजातियों में से हर एक की अपनी विशिष्ट जनभाषा, रीति-रिवाज, त्यौहार और परम्पराएं हैं। लेकिन जो बात इन्हें देश की कई दूसरी जनजातियों से अलग करती है, वह है इनकी मातृवंशीय सामाजिक संस्कृति—जो दुनिया भर में अनूठी और कदाचित सबसे पुरानी है! इसका जिक्र यहां की अनेकानेक किंवदंतियों, मिथकों और स्थानीय कथाओं में आता है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में जब खासी राजा युद्ध के लिए निकल जाते थे तो उनके परिवार को चलाने की सारी ज़िम्मेदारी स्त्री पर आ जाती थी। कई लोगों का मानना है कि महाभारत में जिस ‘नारी राज्य’ का सन्दर्भ आया है, वह इन्हीं खासी और गारो जातियों से जुड़ा है। ‘विकास’ और ‘आधुनिकता’ के दोहरे धोखादेह दबावों तले आज यह परंपरा काफी हद तक खतरे में आ चुकी है, लेकिन बहुत कुछ है जो अब भी बचा हुआ है।

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मेघालय के समाज में स्त्री सबसे प्रमुख ज़िम्मेदारी निभाती है। परिवार की सारी पैतृक/मातृक संपत्ति सबसे बड़ी बेटी ‘का खाद्दुह’ को मिलती है। विवाह के बाद पति अपने ससुराल में आकर रहता है और बच्चे अपनी मां के जातिनाम से जाने जाते हैं। जिस परिवार में कोई बेटी नहीं होती, उसे बेटी दत्तक लेने और सारी संपत्ति उसके नाम लिखने का अधिकार होता है। बेटी का जन्म उत्सव की तरह मनाया जाता है जबकि पुत्र-जन्म को मात्र सूचित भर किया जाता है। स्त्री के पुनर्विवाह या उसकी विवाह से बाहर संतान होने को बुरा नहीं माना जाता और उसे जाति से बाहर विवाह करने या जीवन भर अविवाहित रहने की पूरी छूट होती है। स्त्रियां नौकरी करती और व्यवसाय चलाती हैं। बल्कि प्रदेश में अधिकांश छोटे व्यवसाय आज स्त्रियों के ही हाथ में हैं। मेघालय की इस स्त्री केन्द्रित सामाजिक सत्ता ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा है और ‘गार्डियन’ से लेकर ‘वाशिंगटन पोस्ट’ तक ने समय समय पर इस प्रदेश के बारे में प्रशंसात्मक फीचर प्रकाशित किये हैं।

शिलौंग से दक्षिण लगभग बांग्लादेश की सीमा के पास दो घंटे के फासले पर ऊबड़खाबड़ रास्ते को पार करते हुए आप मावलीनौग पहुंचेंगे जिसे एशिया का सबसे साफ़-सुथरा गांव बताया जाता है। यहां ढेर सारे जल प्रपात, एक सुन्दर प्राकृतिक पुल और पत्थर पर आश्चर्यजनक ढंग से टिकी ‘बैलेंसिंग रॉक’ भी है जो अपनी जबलपुर (मध्य प्रदेश) की मदन महल किले की चट्टान जितनी विस्मयकारी न होते हुए भी  एक सुन्दर पर्यटक स्थल के तरह विकसित की गयी है, जबकि मदन महल की चट्टान पहुंचने पर आपको पेशाब की असह्य बदबू से बचने के लिए नाक पर रुमाल रखना होगा।


एशिया में सबसे स्वच्छ गांव के रूप में है मावलीनौंग गांव की प्रतिष्ठा

मावलीनौग में एक बार फिर स्त्रियों की सत्ता अपने समूचे निखार पर है। जर्मनी से आयी फोटोग्राफर कैरोलिन क्लूपेल के शब्दों में –

यहां स्त्रियों का अपमान पूरे समाज का अपमान समझा जाता है। हमारे पश्चिमी समाज में लड़कियों और स्त्रियों को अपनी मर्जी से स्वतंत्र जीवन बिताने के अनेक अवसर मिलते हैं। लेकिन यहाँ गांवों में रहने वाले बहुत से खासी परिवार बेहद गरीब हैं। यहां लड़की होने पर भी ज़रूरी नहीं कि आपको पढ़ने या कॉलेज में जाने का मौका मिले। बेशक यहां किसी परिवार में यदि शिक्षा के पैसे बचते हैं तो उनपर पहला हक़ लडकियों का होता है। लेकिन मैं यह देखकर प्रभावित हूं कि इस खासी समाज में परिवार और साथियों का कितना ख्याल रखा जाता है। जर्मनी में ऐसा नहीं है. वहां बहुत सारे लोग अकेलेपन के शिकार हैं!”  

संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत बनी संस्थाओं में खासी हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद् (केएचडीसी) भी है जो खासी जनजातियों से जुड़ी समस्याओं पर काम करती है। पिछले वर्ष इस परिषद् ने एक विवादस्पद बिल पारित किया है जिसके अनुसार कोई खासी महिला यदि अपनी जाति से बाहर विवाह करती है तो उससे एवं उससे होने वाली संतान से अनुसूचित जाति का दर्ज़ा एवं उससे जुड़ी सुविधाएं छीन ली जाएंगी। कई लोगों ने इसपर ऐतराज़ जताया है और कुछ ने इसे स्त्री विरोधी भी करार दिया है क्योंकि यह बिल जाति से बाहर विवाह करने वाले पुरुषों पर लागू नहीं होता। देखा जाए तो इस बिल में देश के संविधान द्वारा नागरिकों को दिए जीवन-यापन के अधिकार का अतिक्रमण भी झलकता है। फिलहाल यह बिल, जो मेघालय के राज्यपाल से अनुमोदन पाने का इंतज़ार कर रहा है, पूरे प्रदेश में ध्रुवीकरण के माहौल को कुछ और गर्मा रहा है। एक खासी महिला एमारीन खरभीह ने केएचडीसी के नाम एक खुले पत्र में ऐलान किया कि ‘मैं एक खासी हूं और दुनिया का कोई बिल मुझसे मेरी यह पहचान छीन नहीं सकता!’ ‘नार्थ ईस्ट टाइम्स’ में छपे उनके पत्र के कुछ मार्मिक अंश—

मैं शिलौंग में रहने वाली एक साधारण खासी औरत और मां हूं। मेरी शादी एक गैर खासी से हुई है लेकिन मेरे परिवार ने कभी मेरे पिता या मेरे दादा के धर्म को नहीं अपनाया। मुझे जब भी अपने शहर में या अपने प्रांत से बाहर किसी मंच पर जाना होता है तो मैं बहुत गर्व के साथ अपने समाज की मातृवंशीय पहचान दूसरों से बांटती हूं। मेरा अधिकांश समय अपनी इस खासी पहचान के साथ मेघालय में बीता है और मुझे विश्वास है कि बच्चे भी मेरी इस जातीय पहचान को और आगे बढ़ाएंगे। एक ताकतवार खासी स्त्री की मिसाल देकर वे लोगों को समझाएंगे कि दूसरे प्रगतिशील और विकसित कहे जाने वाले समाजों की तुलना में हमारी यह दुनिया कितनी अच्छी और खूबसूरत है।

मेरे पास अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र है, लेकिन वयस्क होने के बाद से पिछले कई वर्षों में आलमारी के कोने में उपेक्षित पड़े कागज़ के उस टुकड़े पर मेरी निगाह नहीं गयी है। एक आत्मनिर्भर और संपन्न व्यक्ति होने के बाद मुझे उसका इस्तेमाल करना अनुचित लगता है। लेकिन प्रयोग में न लाने के बावजूद मैंने उस प्रमाणपत्र को संभाला हुआ है क्योंकि वह मुझे  खासी समाज के आयोजनों में जायज़ सदस्य होने की पहचान देता है।

गैर खासी पुरुषों से अपने संबंधों के दौरान मैंने  हमेशा उनसे कहा है कि मैं चाहे जिससे भी शादी करूं या कहीं भी रहूं, रहूंगी मैं हमेशा खासी ही और मेरे बच्चे भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। मैं नहीं जानती कि ऐसा कहकर मैं अपने आपको स्त्रीवादी या फेमिनिस्ट घोषित कर रही हूं या नहीं लेकिन मेरी पहचान ही मेरा सब कुछ है। मुझे नहीं लगता कि अपने किये से मैं खासी समुदाय की जनसँख्या में कमी ला रही हूं। बल्कि मैं उसमें इजाफा ही कर रही हूं।

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि हमारे समाज में घुसपैठिए किस तरह अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र का  गलत इस्तेमाल कर नाजायज़ ढंग से सुविधाएं बटोर रहे हैं और यदि यह बिल इसे रोकने में सहायक होता तो मुझे ख़ुशी ही होती। लेकिन बिल में जो भाषा की अशुद्धियां हैं उनके कारण यह एक प्रतिगामी और पितृसत्तात्मक दस्तावेज़ बन गया है। यदि ऐसा अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषा की सीमित समझ से हुआ है तो फिर आपके पास इसे सुधारने का मौका है।

लेकिन यदि आपने जानबूझकर जाति से बाहर विवाह करने वाली स्त्रियों और उनके बच्चों को जाति से बाहर करने का मन बनाया है तो मैं आप पर लानत भेजती हूं!  पारंपरिक मातृसत्तात्मक खासी समाज में पितृसत्तात्मक विचारों को आरोपित कर आप इस समाज को बचा रहे हैं या कि इसे विनाश की ओर धकेल रहे हैं? आज जब कि पूरे विश्व में स्त्री और पुरुष को सामान दर्ज़ा देने की कोशिश हो रही है, आप पीछे के दरवाज़े से हमारे समाज में स्त्री विरोधी विचारों के बीज क्यों बो रहे हैं? मैं यह खुला पत्र लिख रही हूँ क्योंकि मैंने तय किया है कि मैं समाज के चंद गिने चुने संरक्षकों को पूरे खासी समाज की स्त्रियों का भविष्य तय करने का अधिकार हरगिज़ नहीं लेने दूंगी!”  

बीजेपी और संघ की विचारधारा में आकंठ डूबे मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय का इस  2018 खासी समाज संशोधन बिल पर नज़रिया क्या होगा यह तय करना मुश्किल है लेकिन राज्यपाल अपने जनविरोधी विचारों के लिए पहले ही काफी कुख्याति अर्जित कर चुके हैं और सरकार के विपक्षी दल उनके बर्खास्त किये जाने की भी मांग कर चुके हैं। पुलवामा में सिपाहियों पर आत्मघाती हमले के बाद राज्यपाल ने इस अत्यंत संकुचित और ज़हरीली सोच पर अपनी सहमति जताई थी कि ‘अब अगले दो वर्षों तक अमरनाथ या कश्मीर नहीं जाना चाहिए, कश्मीरी एम्पोरियम या सर्दियों में गली में आने वाले कश्मीरी से कोई सामान नहीं खरीदना और हर कश्मीरी चीज़ का बहिष्कार करना चाहिए!’    

काज़ीरंगा में बच्चे को सड़क पार कराते हाथी (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

तथागत रॉय लोकसभा में पारित और राज्य सभा में पेश होने से रह गए नागरिक संशोधन बिल के भी अंध समर्थक रहे हैं, जो एक तरह से मेघालय ही नहीं, पूरे उत्तर पूर्व को कश्मीर में बदलने की क्षमता रखता है। पिछले कुछ महीनों में यह बिल बीजेपी के सहयोग से बनी वर्तमान गठबंधन सरकारों के गले की फांस बनता जा रहा है। मेघालय एवं मिजोराम की  विधानसभाएं तो इसके खिलाफ़ प्रस्ताव पारित कर चुकी हैं और असम में असम गणतांत्रिक परिषद् ने इसी के कारण बीजेपी से नाता तोड़ लिया है। अरुणाचल प्रदेश और उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों में भी इस बिल के प्रति गहरी नाराज़गी है। इस सारे प्रतिरोध के बावजूद बीजेपी के अध्यक्ष आज भी इस बिल के समर्थन में जगह-जगह जिस तरह की अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते घूम रहे हैं, वह सारी गठबंधन सरकारों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। अमित शाह एक तरफ किसी धर्म विशेष के शरणार्थियों को देश चाट जाने वाली ‘दीमक’ की संज्ञा देते हैं तो दूसरी ओर बंगाल में वे ‘ईंट से ईंट बजाने’ की धमकी भी सुना डालते हैं। वर्तमान सरकार द्वारा प्रायोजित नागरिक संशोधन बिल दरअसल बंगाल या उत्तर पूर्व ही नहीं, पूरे देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच ईंट से ईंट बजाने की विध्वंसकारी ताकत रखता है।

सीधे शब्दों में कहें तो लोक सभा द्वारा पारित और राज्यसभा में पेश किये जाने से वंचित इस नागरिक संशोधन बिल में पकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से अवैध रूप से भारत आए मुसलामानों को छोड़ अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों (हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को देश में बने रहने और छः वर्षों के आवास के बाद विधिवत देश की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है। चूंकि इन तीन देशों में हिन्दुओं को छोड़कर अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या और उनमें भी भारत आने वालों की संख्या नहीं के बराबर है (और इनके नाम सिर्फ बिल की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए शामिल किये गए हैं),  इसलिए बिल का वास्तविक उद्देश्य मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दू शरणार्थियों को वैधता प्रधान करना और भविष्य में वहां और अधिक हिन्दुओं को बसाना लगता है। हाल ही में लागू हुए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से असम में बांग्लादेश से आए (मुख्यतः मुसलमान) शरणार्थियों को नागरिकता से वंचित करने का प्रयास चल रहा है। अब दूसरी तरफ इस नागरिक संशोधन बिल द्वारा 2014 से पहले देश में आये आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को देश का नागरिक बनाने की कोशिश की जा रही है। यदि इन दोनों प्रयासों को जोड़कर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाली सरकार का इरादा उत्तर पूर्व में अब तक आ चुके और शायद भविष्य में आने वाले हिन्दू शरणार्थियों को वैधता प्रधान कर प्रदेश में उनके अनुपात को बढ़ाना है। ज़ाहिर है कि सरकार इन हिन्दू शरणार्थियों को अपना सबसे विश्वसनीय वोट बैंक समझती है। लेकिन यदि बारीकी से देखें तो यह कदम हिटलर के युग में जर्मनी से यहूदियों को निकालने के प्रयास की ही प्रतिध्वनि देता दिखाई देगा। यही नहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि यह योजना हमारे धर्म निरपेक्ष संविधान के भी खिलाफ जाती है. सरकार के प्रति सहानुभूति रखने वाली अंग्रेज़ी पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ तक ने इस बिल को ‘बीजेपी की जनसांख्यिकीय (डेमोग्राफिक) इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट’ की हास्यास्पद संज्ञा दी है!

असम के नामेरी अभयारण्य में (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

2018 के चुनाव में कांग्रेस मेघालय की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद स्थानीय पार्टियों के बीजेपी के साथ चतुर गठबंधन के कारण सत्ता से बाहर हो गयी थी। असम में बीजेपी 2016 के चुनावों में ‘माटी, भेटी आरु जाति’ (धरती, घर और जाति) की सुरक्षा के वादे के साथ असम गण परिषद् और दूसरी स्थानीय पार्टियों के साथ मिलकर पहली बार असम में सत्ता में आयी थी। मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा और मिज़ोराम में भी उसने ‘स्थानीय संस्कृति की सुरक्षा’ जैसे नारों का सहारा लेकर प्रदेश की पार्टियों से गठजोड़ सरकारें बनाने में सफल हुई थी, लेकिन देखा जाये तो बीजेपी द्वारा अनुमोदित नागरिक संशोधन बिल इन तमाम लुभावने वादों से ठीक विपरीत दिशा में जाता दिखाई देता है।

शिलौंग से वापस गुवाहाटी और फिर वहां से सड़क अथवा रेल द्वारा उत्तर पूर्व के सबसे पूर्वी छोर की ओर बढ़ते हुए दिनों के छोटे होने का अहसास कुछ और बढ़ जाता है. चार बजे से पहले तिनसुकिया के नज़दीक फ़ैली मागुरी बील के किनारे पहुँचने पर लगता है जैसे हम शाम को दिन की आख़िरी सांसें लेते हुए देख रहे हैं। देश में दो अलग-अलग समय चक्र रखने का प्रस्ताव एक अरसे से घूम रहा है लेकिन सत्ता के गलियारों में इस प्रस्ताव को अमल में लाने की बहुत कम इच्छाशक्ति दिखाई देती है।

तिनसुकिया जैसे व्यापार प्रधान शहर में फैले एक जैसे दमघोंटू होटलों की जगह शहर से बारह-तेरह किलोमीटर दूर पानी के किनारे बसे छोटे से पर्यावरण रिसोर्ट में खुले आसमान तले रसोईघर में सरसों के तेल में तले जा रहे ‘बेगुनी’ पकौड़ों के इंतज़ार का सुख अकल्पनीय है। बनश्री रिसोर्ट के मालिक बेनुदा पर्यावरण के विशेषज्ञ होने के साथ साथ अच्छे रसोइये भी हैं।  वे स्वयं चाकू से बैगन के बारीक टुकड़े काट उनपर लाल मिर्च और मसाला लगाते मिलते हैं। मेरे सफ़रनामों के एक पाठक का कहना है कि जो सारी चीज़ें स्वास्थ्य की दृष्टि से मेरे लिए वर्जित हैं, उनका विस्तृत ब्यौरा देने में मुझे एक ख़ास आनंद मिलता है।

असम के मागुरी बील में मछली पकड़ती एक महिला

असमिया में ठहरे हुए पानी की उथली झील को ‘बील’ कहा जाता है। मागुरी बील एक विस्तृत पानी की झील है जिसके विस्तृत फैलाव में लाखों पक्षी सर्दियों में सुदूर देशों से आते हैं। दो वर्ष पहले यहां रूस की बैकाल झील से आयी बत्तख भी हमें यहां मिली थी। पर्यावरण के दीवाने हर साल यहां कोई न कोई नया दुर्लभ पक्षी ढूंढ ही निकालते हैं। एक छोटी सी नहर इस बील को डिब्रू नदी से जोडती है। एक अदद पुल के पूरा हो जाने तक यहां के पक्षियों को कोई खतरा नहीं। चप्पुओं वाली मोटरबोट से इसके सुदूर किनारों में अनंत काल के लिए खोया जा सकता है, बशर्ते बनश्री कैंप में तली जा रही बैगन की कचरी और बील से पकड़ी ताज़ा मछली का आकर्षण आपको वापस न खींच लाये।

मागुरी बील और तिनसुकिया से आगे लगभग तीन दिशाओं में फैला है देश का सबसे पूर्वी प्रान्त अरुणाचल प्रदेश, जिसकी सीमाएं एक छोर पर भूटान, दूसरे पर मयन्मार और बाकी के हिस्से में चीन को छूती चलती है। खेत के हल की शक्ल में अंग्रेज़ी के उलटे ‘सी’ की तरह फैले इस प्रदेश का अजीबोगरीब भूगोल अपने आप में अनूठा है और यहां की आधा दर्जन यात्राओं के बाद भी मेरे लिए इसे ठीक से समझ पाने का दावा करना कठिन है। ‘प्रान्त के ऊपरे पश्चिमी हिस्से में जहां इसके अधिकांश बड़े शहर/ गांव और प्रान्त की राजधानी ईटानगर स्थित है, वहीं प्रान्त का मध्य और पूर्वी इलाका पर्यावरण प्रेमियों का स्वर्ग कहलाये जाने के काबिल है। अपने भीतर प्रकृति के अनेकानेक रहस्य समेटे यह प्रदेश बाहर से आने वाले पर्यटक को अभिभूत और चमत्कृत करता है। समय-समय पर चीन इसके कई हिस्सों पर अपना अधिकार जताकर और देश या विदेश के किसी भी बड़े नेता के यहां आने पर अपना विरोध व्यक्त करता है, लेकिन यहां की संस्कृति असमिया की जन संस्कृति का ही एक और विस्तार है जहां ब्रह्मपुत्र को पोषित करने वाली अनेकानेक पहाड़ी नदियां अपने इर्द-गिर्द की घाटियों में विरल वन सम्पदा लिए बहती हैं। शहरी जीवन की सुविधाएं अभी यहां रहने वालों तक नहीं पहुंची हैं और स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में यहाँ जनजीवन बहुत नहीं बदला है। सीमावर्ती प्रान्त होने के कारण यहां यात्रा से पहले न सिर्फ ‘इनर एरिया परमिट’ या प्रशासन की अनुमति लेना ज़रूरी है, बल्कि कई बार आपको वहां के फ़ौजी सिपाहियों को अपनी यात्रा का मकसद समझाना भी पड़ सकता है।

तिनसुकिया या डिब्रूगढ़ एक तरह से अरुणाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार है, हालांकि पश्चिम में तेज़पुर से उत्तर में नामेरी और भालूकपोंग से होते हुए भी आप अरुणाचल में स्थित पक्षियों के सबसे विलक्षण स्थल ईगलनेस्ट तक पहुँच सकते हैं। यहां बोमडिला गाँव से गुज़रते हुए मुझे अनायास याद हो आयी थी 1962 में रेडियो पर सुनी जवाहरलाल नेहरू की कंपकंपाती आवाज़ जिसमें उन्होंने देश को बोमडिला पर चीनियों का कब्ज़ा हो जाने की सूचना दी थी। देश के प्रधानमंत्री की उस भावभीनी, शर्मसार आवाज़ को स्मृति से मिटा पाना असंभव है। उस ईमानदारी का स्थान आज के युग में एक घमंड भरी, शातिर लफ्फाज़ी ने ले लिया है जहां भीड़ को उकसाने के लिए प्रकट सा सवाल पूछकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच खैरात की शक्ल में एक कुटिल मुस्कान उनकी ओर फेंक दी जाती है। बहुत समय गुज़र चुका है और बोमडिला अब एक शांत, समृद्ध छावनी है।

दो वर्ष पहले लोहित नदी पर ढोला सदिया पुल के बन जाने से अरुणाचल प्रदेश के कई पूर्वी ठिकानों तक पहुंचना काफी आसान हो गया है। जानकार लोगों का कहना है कि लगभग नौ किलोमीटर के फैलाव वाले  देश का यह सबसे लंबा पुल प्रदेश की सब्जियों, फलों और यहाँ के लाजवाब संतरों को बाजारों तक पहुंचाने में सहायक होगा और इससे फ़ौज की रसद और असलहे को सीमाओं तक पहुंचाना भी आसान हो जाएगा। इस पुल के बनने से डिब्रूगढ़ और दक्षिणी दिबांग घाटी के प्रमुख शहर रोइंग के बीच का फासला अब मात्र 90 किलोमीटर यानी पहले से आधा रह गया है।

मायोदिया दर्रे के पास लगा एक साइन बोर्ड

उनींदे शहर रोइंग में रात बिताकर हम सौ किलोमीटर आगे आगे चीनी सीमा पर लगभग दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर बने मायोदिया दर्रे पर आ जाते हैं जो सर्दियों में पूरी तरह बर्फ से ढंक जाता है और जिसकी सुन्दरता को शब्दों में बांध सकना बहुत मुश्किल है। हमारे रहने के स्थल का विदेशी नाम ‘कॉफ़ी हाउस’ बेहद धोखादेह था क्योंकि कॉफ़ी छोड़िये, यहां न बिजली थी, न पत्थरों से बने कमरों में ठण्ड दूर करने के लिए कोई अंगीठी या गर्म पानी। लेकिन उस वीराने में छोटे से जेनेरेटर की थिरकती रौशनी में बहुत मामूली मगर स्वादिष्ट दाल-चावल खाकर ही हम निहाल हो गए। गांव वालों के अनुसार उस ‘कॉफ़ी हाउस’ में भूतों का वास था, लेकिन रात भर बहुत कोशिश करने के बाद भी मृत्युलोक के किसी सभ्य से हमारी मुलाकात नहीं हुई। अलबत्ता रात की चांदनी में एक अदद दुर्लभ जंगली उल्लू ‘हिमालयन वुड आउल’ ज़रूर हमें चबूतरे पर बैठा मिला। अलस्सुबह कमरे की पिछली खिड़की के नीचे कचरे के ढेर पर पीले गले वाले चितराल जानवरों का एक गिरोह झगड़ता मिला। ये चितराल जंगल में अपने से बड़े जानवरों को भी मारने में कामयाब हो जाते हैं और स्वभाव से ये बेहद खूंखार होते हैं।  

तिनसुकिया से पूर्व में डूम डूमा के चाय बागानों को पार करते हुए यदि आप मिश्मी और दक्षिणी दबंग पहाड़ियों के लिए ढोला सदिया पुल के तरफ जाने की जगह दाहिने मुड़ जाएँ तो रास्ता आपको मियाओ से आगे दुनिया के एक अत्यंत प्रसिद्ध और यूनेस्को की विश्व सम्पदा के निर्वाचित नामदाफा अभयारण्य में पहुंचा देगा। यहाँ देबान में बांस के डंडे से बने पुल पर दिहांग नदी पार करने के बाद हमें पैदल ही बाकी सफ़र तय करना होगा।   

पश्चिम बंगाल के टुमलिंग से कंचनजंघा का ‘स्लीपिंग बुद्ध’ वाला (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

दिहांग नदी का धूप में चमचमाता पानी कई जगह छोटी छोटी धाराओं में बंटा हुआ है। इसे पीछे छोड़ने के बाद एक पगडंडी ऊपर घने जंगल में चढ़ जाती है। यहां हमें एक साथ रहने की सलाह दी गयी थी क्योंकि मीलों तक फैले उस जंगल में भटक जाना बहुत आसान था। दिन भर का रास्ता तय करने के बाद शाम ढलने पर हमें जंगल के बीच किसी पड़ाव पर तंबुओं में रात के लिए रुकना होता था। जंगली जानवरों से बचाव के लिए पास ही एक आग पूरी रात जलती रहती थी। सारा सामान हमारे साथ आयी हथिनी लिछमी की पीठ पर चलता था। उस हथिनी का एक छोटा सा बच्चा भी था जो हर समय अपनी मां के पीछे पीछे चलता। एक तरह से वे दोनों हमारे सहयात्री ही बन गए थे, हालांकि हाथी अपने महावत के साथ हमसे बहुत पहले ही सामान के साथ हर पड़ाव पर पहुंच जाता था। शाम के समय लिछमी को कैंप के पास ही किसी पेड़ के साथ बांधकर उसके सामने खाने के लिए पर्याप्त बिचाली का ढेर रख दिया जाता था। अगले दिन सुबह हम फिर से पैदल यात्रा पर आगे निकलते। नौ दिनों की यह यात्रा कठिन, परन्तु अविश्वसनीय प्राकृतिक अजूबों और दिलचस्प घटनाओं से भरी थी।

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एक पड़ाव पर रात में हथिनी के खुले बच्चे ने बहुत उत्पात मचाया था। जिस तम्बू में सारा खाने का सामान रखा जाता था, सबके सो चुकने के बाद हाथी के बच्चे ने उसमें घुसकर सारा आटा, चावल, आलू और सब्जियां तहस नहस कर दी थी। सुबह उठने पर हमारे खाने के लिए कुछ नहीं बचा था। महावत और खाना बनाने वालों ने  इसके लिए गुस्से में बच्चे को सरकंडे से पीटना चाहा था, लेकिन उसकी मां के गुस्से को देखते हुए ऐसा करना संभव नहीं हुआ था। यूं भी वह बच्चा बहुत छोटा,बेहद प्यारा और निरीह था। अब क्या हो? आखिरकार महावत सामान लाने के लिए उस हाथी और बच्चे के साथ वापस देबान गांव लौटा था। दोपहर ढलने पर तीनों–हथिनी, उसके बच्चे और महावत का जुलूस जब आटे-चावल और खाने के ताज़ा सामान के साथ गांव से वापस पड़ाव में पहुंचा था तो सबने राहत की सांस ली थी। उस रात से हर पड़ाव पर मां के प्रतिरोध के बावजूद उस बच्चे को भी लम्बी रस्सी से नज़दीक के एक पेड़ से बांधा जाने लगा।

नामदाफा में उत्पाती हाथी का बच्चा (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

नामदाफा से आगे प्रदेश में उत्तरी दिबांग, मेहाओ अभायारण्य और कई दूसरे स्थल हैं जहां जाना अभी शेष है। लेकिन अपनी सारी प्राकृतिक सम्पदा के बावजूद यह प्रदेश आज भी बेहद गरीब और संसाधनों से वंचित है। विकास के नाम पर यहां जो भी हो रहा है उसका वास्तविक लाभ स्थानीय बाशिंदों की जगह सुदूर बैठे साधनसंपन्न वर्ग को हो रहा है।

पिछले वर्ष उत्तरी सियांग जिले के ‘आदि’ आदिवासियों ने दस हज़ार मेगावाट बिजली के लिए प्रस्तावित सियांग नदी के बांध का भरपूर विरोध किया था। 300 मीटर ऊंचा यह बांध अपने पानी तले हज़ारों एकड़ उपजाऊ ज़मीन, पचपन गांव और दो शहर डुबो देगा।  अस्सी हज़ार करोड़ रुपयों की इस प्रोजेक्ट के लिए मुआवज़े के लिए एक प्रतिशत से भी कम प्रावधान रखा गया है। यह पैसा भी वास्तविक लोगों तक कब और कैसे मिलेगा, इसका कोई जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।

काज़ीरंगा का बड़ा ख़तरा जंगल की आग (तस्वीर : जितेंद्र भाटिया)

विकास की इन औंधी प्राथमिकताओं के अलावा प्रदेश का जन मानस प्रदेश में बाहर से आकर बसने वालों के आतंक से भयभीत है और राजनीतिज्ञों पर से उसका विश्वास कब का उठ चुका है। प्रदेश में पिछले दिनों जिस तरह कांग्रेस वाले सत्ता और साधनों के लालच में तख्ता पलटकर रातों-रात भगवे के रंग में शामिल हो गए थे, उसे लोग बहुत ध्यान से देख रहे हैं।

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जनमत के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 तक के दस वर्षों में अरुणाचल प्रदेश की ईसाई जनसंख्या में लगभग साढ़े ग्यारह प्रतिशत की वृद्धि हुई है और यह वृद्धि ईटानगर और उसके आसपास के अपेक्षाकृत शहरी इलाकों में सबसे अधिक है जहां संभवतः बहुत से लोगों ने शिक्षा या समृद्धता के लालच में ईसाई धर्म स्वीकार किया है। केंद्र में बीजेपी सरकार आने के बाद से आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद् और दूसरी हिन्दू संस्थाओं ने ईसाइयों की ही शैली में प्रदेश में हिन्दू संख्या बढ़ाने का बीड़ा संभाला है। इसके लिए उन्होंने एक ओर सभी आदिवासियों को हिन्दू बताने का प्रचार शुरू किया है तो दूसरी ओर धर्म परिवर्तन के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की है। शिक्षा संस्थानों में बच्चों के बीच हिन्दू देवी देवताओं और सरस्वती की पूजा का प्रसार उनका तीसरा प्रयास है। असम की तर्ज़ पर मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में भी इससे मिलता जुलता राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने का सुझाव लोगों के बीच फैलाया जा रहा है। और इससे आगे अब नागरिक संशोधन बिल द्वारा प्रदेश में हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने के नए रास्ते खोजे जा रहे हैं। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने प्रदेश में छः जातियों आदिवासी, देवरी, गोरखा, मिशिंग, मोरन और सोनोवाल कचारी को स्थायी आवास प्रमाणपत्र देने का निर्णय लिया था तो इसके विरोध में पूरे प्रान्त में प्रदर्शन भड़क उठे थे। सरकार का इरादा इस कदम से एक बार फिर प्रदेश में हिन्दुओं के अनुपात को बढ़ाना था। लेकिन प्रान्त में इसी वर्ष चुनाव होने हैं। विरोध के तीखे तेवरों और चुनावों में इसके कुप्रभाव को देखते हुए सरकार ने फिलहाल इस निर्णय को मुल्तवी कर दिया है, लेकिन अंग्रेज़ी में कहावत है कि बाघ अपनी धारियां नहीं बदल सकता। सत्ता ने  ध्रुवीकरण और छद्म राष्ट्रवाद की जिस ज़हरीली आग में इधर पूरे देश को झोंक रखा है, उसका सबसे गहरा प्रभाव उत्तर पूर्व के राज्यों में पड़ने वाला है जहाँ विदेशियों और घुसपैठियों का मुद्दा पहले से ही भट्टी में सुलग रहा है। देखना यह होगा कि प्रदेश का वंचित बहुमत आगामी चुनावों में फिर से उसी पुरानी जुमलेबाज़ी का शिकार होता है या कि इस शातिर खेल को समझ अपने बहुमूल्य जनाधिकार को इससे बचा ले जाता है!

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

जितेन्द्र भाटिया

जितेन्द्र भाटिया (जन्म : 1946) केमिकल इंजीनियरिंग में पी-एच.डी. हिंदी के चर्चित लेखक हैं। उनकी कृतियों में समय सीमांत, प्रत्यक्षदर्शी (उपन्यास); रक्तजीवी, शहादतनामा, सिद्धार्थ का लौटना (कहानी-संग्रह); जंगल में खुलने वाली खिड़की (नाटक); रास्ते बंद हैं (नाट्य रूपांतर, प्रकाश्य); सोचो साथ क्या जाएगा (विश्व साहित्य संचयन); विज्ञान, संस्कृति एवं टेक्नोलॉजी (प्रकाश्य) शामिल हैं।

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