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कृषि भूमि में स्त्रियों का हिस्सा

अरविंद जैन बता रहे हैं कि कैसे भारतीय पुरूष महिलाओं को मानवोचित अधिकार भी नहीं देना चाहते हैं। एक मामला कृषि भूमि पर महिलाओं की हिस्सेदारी का है। इसके लिए कानून तो है लेकिन अब भी कई सवाल शेष हैं

न्याय क्षेत्रे – अन्याय क्षेत्रे

हिन्दू विधवाओं को पति की चिता पर जिंदा जलाने की बर्बर प्रथा के खिलाफ लार्ड विलियम बेंटिक ने सती रेगुलेशन (1829) पारित किया। कुछ वर्ष बाद विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,1856 का प्रारूप लार्ड डलहौजी ने तैयार किया था, मगर पारित किया लार्ड कैनिंग ने। विधवाओं को सती करने पर रोक लगाने और पुनर्विवाह का अधिकार देने पर, चीख-पुकार मची ‘धर्म (हिंदुत्व) खतरे में’। राजनेताओं ने घृणा संदेश फैलाने शुरू कर दिये “अंग्रेज हमारे धर्म और परंपराओं में हस्तक्षेप करके, हमें ईसाई बनाना चाहते हैं। यह हिन्दू संस्कृति पर हमला है।” बाद में ‘फूलमनी’ केस के सहमति की उम्र पर आयोग बनाने (1891) और बाल विवाह पर प्रतिबंध (1929) लगाने के समय भी, राष्ट्रवादी नेतृत्व इसी भाषा में उन्माद फैलाता रहा। इन सभी अवसरों पर भारतीय सभ्यता- संस्कृति के रक्षकों के सीधे निशाने पर थे- समाज सुधारक राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, हरविलास शारदा व अन्य और अंग्रेज़ी सरकार। राष्ट्रीय गौरव के रक्षकों और समाज सुधारकों के बीच संघर्ष अब तक जारी है। दरअसल सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ, सांस्कृतिक सुधार के समीकरण भी बदलना तय है। धार्मिक नफरत और विरोध की हत्या के संस्कार, अंततः राजनीति की भाषा-परिभाषा और लिंग भेदी मानसिकता में भी प्रतिबिंबित होते रहे हैं!

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसे कानून और न्याय व्यवस्था की विडम्बना ही कहा जायेगा कि विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,1856 पारित होने के करीब सौ साल बाद भी भारतीय समाज में एक विधवा स्त्री को उत्तराधिकार[1] में संपत्ति पाने के लिए, 44 साल (1954-1998) लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी! और आज भी यह तय नहीं है कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन (2005) के बाद बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार कब मिलेगा? जन्म से मिले(गा) या सिर्फ उन बेटियों को जिनके पिता का देहांत संशोधन (9 सितंबर 2005) के बाद हुआ? फिलहाल यह विवाद सुप्रीम कोर्ट की पूर्णपीठ (तीन जज) के समक्ष विचाराधीन है। देखते हैं कब-क्या फैसला होता है।

कृषि भूमि में विधवा का हिस्सा

गुरुअम्मा[2] के पति की मृत्यु 1954 में हो गई थी। अदालती फैसले के अनुसार हुए बंटवारे में उसके हिस्से आई संपत्ति में कुछ ‘कृषि भूमि’ भी शामिल थी, जो उसके देवर (और उसके बेटे-बेटी) देना नहीं चाहते थे। हिस्सा ना देने का तर्क-कुतर्क यह कि संपत्ति में ‘कृषि भूमि’ शामिल नहीं होती। अंतिम चरण में विवाद जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, तो न्यायमूर्ति सुश्री सुजाता मनोहर और जी.बी. पटनायक ने अपने फैसले[3]में कहा कि हिन्दू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम,1937 के अंतर्गत विधवा को  उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल है। ‘संपत्ति’ को अगर स्प्ष्ट रूप से अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है, तो संपत्ति की परिभाषा में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल मानी जायेगी। अगर विधायिका चाहती तो ‘कृषि भूमि’ को इस कानून से बाहर रख सकती थी। उच्च न्यायालय के निर्णय को सही मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय में कहा कि संपति की परिभाषा में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल मानी जाएगी।

सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय के बाद भी विभिन्न अदालतों में  हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 के अंतर्गत ‘संपत्ति’ में ‘कृषि भूमि’ के शामिल होने/ ना होने के बारे में विवाद बना रहा। पहला तर्क यह कि उपरोक्त निर्णय हिन्दू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम,1937 से संबंधित है और दूसरा यह कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 इससे बाद बना (बनाया गया) कानून है।

‘सम्पत्ति’ में ‘कृषि भूमि’ शामिल है या नहीं?

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यू. यू. ललित और एम. आर. शाह के समक्ष[4] विचारणीय ‘यक्ष प्रश्न’ यह था कि क्या ‘कृषि भूमि’ भी उत्तराधिकार कानून[5] की धारा 22 के प्रावधानों के दायरे में आती है? इस सवाल पर अभी तक विभिन्न उच्च न्यायालयों के विरोधाभाषी फैसले आते रहे। उत्तराधिकार के अधिकांश अदालती मुकदमों में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल रहती ही है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह एक सार्वजनिक महत्व का गंभीर मुद्दा था।

कानूनी प्रावधान होने के बावजूद महिलाओं को जमीन पर अधिकार मयस्सर नहीं

‘कृषि भूमि’ विवाद की पृष्ठभूमि यह है कि एक था लाजपत जिसकी मृत्यु के बाद, उसकी कृषि भूमि उसके दो पुत्रों नाथू और संतोख को मिली नाथू ने अपना हिस्सा एक बाहरी व्यक्ति को बेच दिया। संतोख ने मामला हमीरपुर अदालत में दायर कर कहा कि(उत्तराधिकार कानून[6] की धारा 22 के अनुसार) उसे इस मामले में प्राथमिकता पर संपत्ति लेने का अधिकार है। ज़िला अदालत ने मद्रास[7] और ओड़िशा[8] उच्चन्यायालय के फैसलों के आधार पर डिक्री संतोख के पक्ष में दी (जिसे बाद में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा)। यहां यह बताना जरूरी है कि इस बीच नाथूराम की मृत्यु होने के बाद, उसकी जगह उसके उत्तराधिकारी बाबूराम ने ले ली थी।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के सामने जब बाबूराम की अपील आई, तो उसके सामने पहले से हुए दो विरोधाभासी फैसले थे। वो भी उसी उच्च न्यायालय के। पहला एकलपीठ का फैसला (2008) यह था कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 के प्रावधान कृषि भूमि की बिक्री पर लागू नहीं होते, जबकि इसके विलरीत दूसरी एकलपीठ का निर्णय (2012) था कि उत्तराधिकार कानून के प्रावधान कृषि भूमि की बिक्री पर लागू होते हैं। ऐसे में एकल पीठ के न्यायमूर्ति क्या करते! उन्होंने समुचित फैसले के लिए अपील खंडपीठ (दो जज) को  भेज दिया। ऐसी स्थिति में नियमानुसार यही प्रक्रिया निर्धारित भी है।

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खंडपीठ (कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजय करोल व न्यायामूर्ति धर्मचंद चौधरी) ने दो विरोधाभासी एकल पीठों के निर्णयों पर बहस सुनने और विवेचना के बाद फैसला सुनाते हुए कहा कि एकल पीठ[9] के फैसले को ही सही माना जाना चाहिए। इसका परिणाम यह था कि उत्तराधिकार कानून के प्रावधान, कृषि भूमि से जुड़े विवादों पर भी लागू होंगे। खंडपीठ के स्पष्टीकरण के बाद, न्यायामूर्ति सी.बी बारोवलिया ने (सात मई, 2018) अपील खारिज कर दी, जिसके विरुद्ध बाबूराम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की गई।

‘संपत्ति’ में ‘कृषि भूमि’ शामिल : सुप्रीम कोर्ट

उत्तराधिकार कानून ‘कृषि भूमि’ पर लागू हैं या नहीं के सवाल पर, विस्तृत विवेचन के बाद  सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों (ललित और शाह) ने निर्णय[10] में उच्च न्यायालय के फैसले को ही सही ठहराया। भविष्य के लिए यह भी स्पष्ट किया कि धारा 22 में प्रावधान है कि जब बिना वसीयत के किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उसकी संपत्ति उत्तराधिकारियों पर आ जाती है। उत्तराधिकार कानून की धारा 22 ‘कृषि भूमि’ पर भी लागू होगी। इसलिए संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने पर या उससे पहले, यदि उत्तराधिकार में मिली संपत्ति को कोई एक सदस्य बेचना चाहे, तो अन्य वारिस प्राथमिकता के आधार पर उस संपत्ति को खरीदने का दावा कर सकते हैं। यानी संपत्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बेचने से पहले, अन्य वारिसों की सहमति अनिवार्य होगी। उत्तराधिकार कानून की धारा 4 (2) के समाप्त होने का इस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह प्रावधान ‘कृषि भूमि’ पर काश्तकारी के अधिकारों’ से ही संबंधित था। उत्तराधिकार कानून (1956) बनने से पहले, शास्त्रिक हिन्दू कानूनों में भी, ऐसे ही नियम और परंपरा मौजूद थी। भारतीय विधायिका द्वारा ऐसा प्रावधान बनाये-बचाये रखने का मुख्य/असली उद्देश्य भी यही (रहा) है कि परिवार (या संपत्ति) में बाहरी व्यक्ति ना घुस सके।

सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त दोनों फैसलों से यह स्पष्ट हो गया कि पैतृक संपत्ति में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल है और इस पर बेटियों और विधवा स्त्री का अधिकार है। उन्हें ‘कृषि भूमि’ में हिस्सा पाने (लेने) से वंचित नहीं किया जा सकता।

उत्तराधिकार कानून संशोधन (2005) कब से लागू होगा?

उपरोक्त दोनों निर्णयों के बीच उत्तराधिकार कानून की भाषा-परिभाषा में एक और नया पेच आ फँसा। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियंम,1956 में हुए संशोधन[11] के अनुसार यह प्रावधान पारित किया गया है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना कोई वसीयत किये हो गई है और संपत्ति में पैतृक संपत्ति भी शामिल है, तो मृतक की संपत्ति में बेटे और बेटियों को बराबर हिस्सा मिलेगा। बेटी को भी पुत्र की तरह ‘कोपार्शनर’ माना-समझा जाएगा। यानी अब पैतृक संपत्ति में बेटियों को भी, बेटों के समान अधिकार दे  दिया गया है। हालांकि कानून में ही यह व्यवस्था कर दी गई कि अगर पैतृक संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो चुका है, तो उस पर यह संशोधन लागू नहीं होगा। पर समस्या यह है कि सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार अगर पिता की मृत्यु 9 सितंबर 2005 से पहले हो चुकी है, तो बेटी को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा। जबकि दूसरे फैसले के अनुसार अधिकार मिलेगा। सो संशोधन के बावजूद, पैतृक संपत्ति में बेटियों के अधिकार का मामला, अंतर्विरोधी और पेचीदा कानूनी व्याख्याओं में अभी भी उलझा हुआ है। फिलहाल मामला[12] तीन जजों की पूर्णपीठ (न्यायमूर्ति अर्जन सीकरी, अशोक भूषण और  एम.आर. शाह) को भेजा गया, जो अभी विचाराधीन है। इस बीच मार्च 2019 में न्यायमूर्ति अर्जन सीकरी रिटायर हो गए।

खैर…जिन बेटियों के पिता जीवित हैं या देहांत 9 सितंबर 2005 के बाद हुआ है, उनके केस में कोई कानूनी अड़चन दिखाई नहीं देती। मगर जिनके पिता का स्वर्गवास 9 सितंबर 2005 से पहले हो गया था, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी।

तीन खंडपीठ :  तीन फैसले

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और अनिल आर. दवे के निर्णय[13] के अनुसार जिन बेटियों के पिता का 9 सितंबर 2005 से पहले ही स्वर्गवास हो चुका है/था, उन्हें संशोधित उत्तराधिकार कानून से पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा! लेकिन सुप्रीम कोर्ट की ही दूसरी खंडपीठ (न्यायमूर्ति अशोक भूषण और अर्जन सीकरी) ने अपने निर्णय[14] में कहा कि बेटियों को संपत्ति में अधिकार उनके जन्म से मिलेगा, भले ही पिता की मृत्यु 9 सितंबर 2005 से पहले हो गई हो पर इस मामले में बंटवारे का केस पहले से (2003) चल रहा था। सुप्रीमकोर्ट के न्यायमूर्ति आर.के. अग्रवाल और अभय मनोहर सप्रे ने अपने निर्णय[15] में फूलवती निर्णय को ही सही माना और स्पष्ट किया कि बंटवारा मांगने के समय, पिता और पुत्री का जीवित होने जरूरी है।

लगभग एक माह बाद ही दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुश्री प्रतिभा एम. सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णयों के उल्लेख करते हुए, अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण स्थिति का नया आख्यान सामने रखा।[16] फूलवती केस को सही मानते हुए अपील रद्द कर दी मगर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की विशेष अनुमति/प्रमाण पत्र भी दिया ताकि कानूनी स्थिति तय हो सके। इन निर्णयों से अनावश्यक रूप से कानूनी स्थिति पूर्णरूप से अंतर्विरोधी और असंगतिपूर्ण हो गई। सुप्रीमकोर्ट की ही तीन खंडपीठों के अलग-अलग फैसले होने की वजह से, मामला तीन जजों की पूर्णपीठ  को भेजा गया। देखते हैं सुप्रीम कोर्ट कब-क्या फैसला सुनाती है!

सम्पत्ति का बंटवारा पहले और अब

उल्लेखनीय है कि संशोधन से पहले पैतृक संपत्ति का सांकेतिक बंटवारा, पहले पिता और पुत्रों के बीच होता था। पिता के हिस्से आई संपत्ति का फिर से बराबर बँटवारा पुत्र-पुत्रियों (भाई-बहनों) के बीच होता था। इसे सरल ढंग से कहूँ तो मान लो पिता के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं और पिता के हिस्से आई पैतृक संपत्ति 100 रुपये की है, तो यह यह माना जाता था कि अगर बंटवारा होता तो पिता और तीन पुत्रों को 25-25 रुपये मिलते। फिर पिता के हिस्से में आये 25 रुपयों का बंटवारा तीनों पुत्रों और दोनों पुत्रियों के बीच पाँच-पाँच रुपये बराबर बाँट दिया जाता था। मतलब तीन बेटों को 25+5=30×3=90 रुपये और बेटियों को 5×2=10 रुपये मिलते। संशोधन के बाद पाँचों भाई-बहनों को 100÷5=20 रुपये मिलेंगे या मिलने चाहिए। हालाँकि भारतीय समाज में अधिकाँश ‘उदार बहनें’ स्वेच्छा से, अपना हिस्सा अभी भी भाइयों के पक्ष में ही छोड़ देती हैं।

स्वयं अर्जित संपत्ति : वसीयत का असीमित अधिकार

कहना ना होगा कि कोई भी व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) स्वयं अर्जित संपत्ति, वसीयत द्वारा किसी को भी दे सकता है। जरूरी नहीं कि परिवार में ही दे, किसी को भी दे (दान कर) सकता है। कोई भी अपने पिता या पति के जीवन काल में, उनकी स्वयं अर्जित संपत्ति बँटवाने का अधिकारी नहीं है। मुस्लिम कानूनानुसार अपनी एक तिहाई  से अधिक संपत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती। हिन्दू कानून में पैतृक संपत्ति का बँटवारा, संशोधन से पहले सिर्फ मर्द उत्तराधिकारियों के बीच ही होता था। वैसे वसीयत का असीमित अधिकार रहते, उत्तराधिकार कानून ‘अर्थहीन’ हैं।

पाठक कृपया ध्यान दें कि वसीयत ना होने की स्थिति में बेटियों को पिता की स्वयं अर्जित संपत्ति में ही नहीं, बल्कि पिता की पैतृक संपत्ति (उनका हिस्सा) में से भाइयों के बराबर अधिकार मिलेगा। निःसंदेह संतान को अपने पिता-माता की संपत्ति में अधिकार है, बशर्ते मां-बाप बिना वसीयत किये मरें हों। बेटे-बेटी को सौतेले माता-पिता की संपत्ति में भी कोई अधिकार नहीं है। मतलब जो लेना हो, अपने माँ-बाप से लो! सौतेले मां-बाप से कुछ नहीं मिलेगा। यह दूसरी बात है कि जिनके पास संपत्ति/पूँजी है, वो बिना वसीयत के कहाँ मरते हैं! वसीयत में बेटी को कुछ दिया, तो उसे वसीयत के हिसाब से मिलेगा अगर वसीयत पर विवाद हुआ (होगा) तो सम्भव है बेटियाँ सालों कोर्ट-कचहरी करती रहें लगता है कि बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार मिल पाना इतना आसान नहीं कोर्ट-कचहरी के लिए, एक उम्र कम समझें!

सौतेली संतान : सौतेले कानून

संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि दुनिया भर की ‘पूंजी’ (स्त्री देह और धरती) पर पुरुषों का वर्चस्व है। विवाह कानूनों के माध्यम से (स्त्री) देह और उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से धरती पर सदियों से पुरुषों का क़ब्ज़ा बना हुआ है। क्योंकि ‘पूंजी’ पर उत्तराधिकार के लिए ‘वैध’ संतान और ‘वैध’ संतान के लिए, ‘वैध’ विवाह अनिवार्य है। ‘वैध’ संतान अपने पिता के (माता भी) उत्तराधिकारी माने-समझे जाते हैं और अवैध सिर्फ अपनी मां की। सौतेले माता-पिता से संतान को गुजारा भत्ता तक पाने का अधिकार नहीं, उत्तराधिकार में क्या मिलेगा? जो लेना हो अपने मां-बाप से लो, सौतेले मां-बाप से कुछ भी लेने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। विधवा पुनर्विवाह या तलाक के बाद दूसरा विवाह करने के कानूनी अधिकार के बावजूद, सौतेली संतान के बारे में तो आज तक हमने सोचना भी शुरू नहीं किया। कहना कठिन है कि इस दिशा में ‘सोचना’ कब शुरू करेंगे!

(कॉपी संपादन : नवल)

[1] हिन्दू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम,1937

[2] विजयनाथ बनाम गुरुअम्मा और अन्य (1999) 1 एससीसी 292

[3] 1999 (1) एससीसी 292, दिनांक 18 नवंबर,1998

[4] बाबू राम बनाम संतोख सिंह (सिविल अपील नंबर 2553/2019)

[5] हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956

[6] हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956

[7] एआइआर 2000 मद्रास 516

[8] एआइआर 1988 ओड़िशा 285

[9] रोशन लाल बनाम प्रीतम सिंह (अपील नंबर 258/2012)

[10] दिनांक 17 जनवरी, 2019

[11] 9.9.2005 से प्रभावी

[12] 5 दिसंबर, 2018 को

[13] प्रकाश बनाम फूलवती (2016 (2) SCC 36, दिनांक 19 अक्टूबर 2015

[14] दनम्मा उर्फ सुमन सुरपुर बनाम अमर केस (2018 (1) स्केल 657,दिनांक 1 फरवरी, 2018

[15] मंगामल बनाम टी बी राजू,दिनांक 19 अप्रैल, 2018

[16] विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा दिनांक 15 मई, 2018


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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