बिहार विधान सभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की भूमिका पर सवाल उठाये जाने लगे हैं। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव विधान सभा की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। खबर यह भी आ रही है कि वे भाजपा के साथ संपर्क में बने हुए हैं। नीतीश के साथ पार्टी की निकटता बढ़ने की बात भी आ रही है। इन खबरों में कितना दम है या खबरें कितनी विश्वसनीय हैं, इस संबंध में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतना तय है कि इन खबरों ने राजद की विश्वसनीयता को अविश्वसनीय बनाया है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व को भी कठघरे में खड़ा किया है।
गौरतलब है कि राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद इन दिनों चारा घोटाला मामले में सजा काट रहे हैं। लोकसभा चुनाव तक तेजस्वी यादव ने लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में पार्टी का नेतृत्व किया। परंतु करारी हार मिलने के बाद वे भी खामोशी की चादर ओढ़े बैठे हैं। ऐसे में विधान सभा में या विधान सभा के बाहर राजद का नेतृत्व कौन कर रहा है, स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। विधान परिषद के सत्र के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी जरूर कुछ अपने विरोधियों पर बोलती हैं, लेकिन उनके बयान को राजनीतिक गलियारे में तरजीह नहीं मिल पाती है। फारवर्ड प्रेस ने राजद की वर्तमान हालत पर पार्टी के कई नेताओं से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन पार्टी के मामले में कोई बोलने को तैयार नहीं हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी पूछने पर कहते हैं कि पार्टी पदाधिकारियों से पूछ लीजिये।
बिहार के सबसे बड़े विपक्षी दल के पास सरकार के खिलाफ कोई मुद्दे नहीं हैं। ऐसी बात नहीं है। मुद्दों की भरमार है, लेकिन उठाना नहीं चाहता है। विधान सभा की पोर्टिको में ‘सरकार मुर्दाबाद’ से आगे नहीं बढ़ पा रही है राजद की रणनीति। नेता प्रतिपक्ष का चैंबर सूना पड़ा रहता है। आमतौर वहां खाली कुर्सियां मिल जायेंगी, कभी-कभार उनके स्टाफ जरूर नजर आते हैं।
पार्टी में संगठन के स्तर पर दो प्रमुख नेता हैं। प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे, जो विधान पार्षद हैं और दूसरे हैं प्रदेश प्रधान महासचिव आलोक मेहता, जो विधायक हैं। ये दोनों सरकार की रणनीतिगत विफलता पर बोलने से बचते हैं। किसी मुद्दे पर पार्टी का पक्ष भी नहीं रख पाते हैं। न कभी प्रेस रिलीज, न प्रेस वार्ता। राजद के नेता अभी भी सत्तारूढ़ दल के सदस्य होने के भ्रम के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार कभी भी सरकार में शामिल होने के लिए बुला सकते हैं। इसलिए विपक्ष की भूमिका को स्वीकार नहीं पाये हैं। यही कारण है कि प्रतिपक्ष नकारा हो गया है। सरकार की विफलता पर सत्तारूढ़ दल के विधायक ही विरोधियों से ज्यादा बोल रहे हैं। पार्टी में प्रदेश प्रवक्ताओं को जिम्मेवारियों से मुक्त कर दिया गया है।
बहरहाल, जिस पार्टी का किसी मुद्दे पर स्टैंड ही नहीं हो, उस पार्टी के प्रवक्ता क्या बोलेंगे। जब पार्टी के नेता ही बोलने को तैयार नहीं हैं तो पदाधिकारी और कार्यकर्ता के पास कहने के लिए क्या बचता है। लेकिन मजबूत विपक्ष का अप्रासंगिक हो जाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में राजद का नेतृत्व दिशाहीन बना रहेगा या फिर कोई नयी रणनीति के साथ पहल करेगा। फिलहाल तो राजद के खेमे में सन्नाटा कायम है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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