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आर्टिकल 15 : दलित आन्दोलन नहीं, दलित चेतना की फिल्म 

ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है। बिहार की राजधानी पटना जहां कथित तौर पर समाजवादी विचारधारा के नीतीश कुमार की सरकार है, फ़िल्म दूसरे दिन ही हटा दी गई। दूसरी ओर प्रबुद्ध वर्ग के दलित चिंतकों ने दलित उद्धारक के रूप में ब्राह्मण नायक को महिमामंडित करने का विरोध किया। सुधा अरोड़ा की समीक्षा

“बड़े -बड़े लोगन के महला-दोमहला और भइया झूमर अलग से                                                   

हमरे गरीबन के झुग्गी झोपडि़या, आंधी आए गिर जाए धक् से ….                                                      

बड़े बड़े लोगन के हलवा-परांठा और मिनरल वॉटर अलग से                                                            

हमरे गरीबन के चटनी औ रोटी, पानी पिएं बालू वाला धक् से……

बड़े बड़े लोगन के स्कूल और कालेज और भइया ट्यूशन अलग से                                                           

हमरे बचुवन के जिम्मे मजूरी …..”

इसी चर्चित गीत से आर्टिकल 15फ़िल्म की शुरुआत होती है जिसे कुछ अधबनी दाढ़ियों और झुर्रियों वाले बूढों और युवाओं का समूह रात के अंधेरे में, किसी शोकगीत की तरह नहीं, बल्कि अपनी नियति पर स्वीकारोक्ति की मुहर लगाने के अंदाज़ में गा-बजा रहा है। उनका यह तंज अंधेरे को चीर कर बोलता है। अगले दृश्य में बॉब डाइलान का अंग्रेजी गीत इसी आशय को वैश्विक स्तर पर ले जाता है। हिंदी में इस गीत का अनुवाद कुछ ऐसा है – “कितने रास्ते तय करे आदमी कि तुम उसे इंसान कह सको …. कितनी बार अपना सिर घुमाए आदमी यह जताने के लिए कि उसने कुछ देखा ही नहीं….इन सबका जवाब हवाओं में बह रहा है मेरे दोस्त….। 

अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित ‘आर्टिकल-15’ दोनों गीतों में उठाए गए सवालों का जवाब का खोजने की एक छोटी सी ईमानदार कोशिश है।

आर्टिकल-15 फिल्म के एक दृश्य में आयुष्यमान खुराना व अन्य कलाकार

फिल्म में जिस विषय को उठाया गया है उसका मजमून इसीसे समझा जा सकता है कि इसमें दलित चेतना को उसके मूल स्वरूप में बिना किसी लाग-लपेट के उठाया गया है। दरअसल, यह ‘‘वे और हम’’ वाले मुल्कके बाद ‘‘ये, इनका, इन्हें, ये लोग’’ जैसे सर्वनाम बन गए और हाशिये पर डाल दिए गए वाशिंदो की कहानी है। 

अनुभव सिन्हा की इस फिल्म एक बड़े दर्शक वर्ग का ध्यान खींचा है। इसमें सिर्फ़ प्रबुद्ध वर्ग नहीं, आम जन भी है – वह जन जो सार्थक या मानीखेज संदेश पाने के लिए नहीं, शुद्ध मनोरंजन के लिए फ़िल्म देखता है। वैसे भी ऐसे बॉलीवुड में, जहां फिल्मों के नाम रखने में न्यूमरॉलॉजी के हिसाब से नामकरण का अंकगणित बिठाया जाता  हो, वहां एक फिल्म का अनाकर्षक टाइटल फिल्म के निर्माता-निर्देशक के आत्मविश्वास की बानगी दे जाता है। अक्सर फ़िल्मों के नामकरण नायक के नाम पर होते हैं। इस फ़िल्म का नायक न ब्राह्मण पुलिस अधिकारी अयान रंजन है, न दलित चेतना से लैस निषाद और गौरा। 

फ़िल्म का असली नायक है – संविधान का ‘आर्टिकल-15’ और खलनायक है भारत की जड़ों में पैठा जाति दंश जो आज के समय में गर्व से सीना ताने खड़ा है। आम जनता को संविधान’ की धारा 15 से बखूबी परिचय करवाने में फ़िल्म का बड़ा योगदान है। मध्यांतर के ठीक पहले जब आर्टिकल 15 का छपा हुआ पन्ना कुछ सेकेण्ड के लिए पूरे स्क्रीन पर आता है और पृष्टभूमि में एक गीत के साथ वंदेमातरम् साउंड ट्रैक पर गूंजता है तो दर्शक सकते में आ जाता है।

विषय के अनुरूप ही पूरी फिल्म का अद्भुत फिल्मांकन शाम के झुटपुटे और रात के अंधेरे में हुआ है। फ़िल्म का फ़ॉर्मेट क्राइम थ्रिलर का है जबकि पूरी फ़िल्म से सस्पेंस अनुपस्थित है। फ़िल्म की शुरुआत बदायूं कांड के उस वीभत्स दृश्य से होती है जिसने पूरे देश को हिला दिया था, जहां हत्यारों ने, अपनी नृशंसता और निडरता का सबूत देते हुए, दो दलित लड़कियों का बलात्कार करने के बाद, उनकी मृत देह को, पेड़ से लटका दिया है। फ़िल्म के कथानक में कथा सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए, दो नहीं, तीन लड़कियां हैं। तीसरी लड़की के इर्द गिर्द कथानक बेहद बारीकी से बुना गया है । फ़िल्म में तीखे और तुर्श संवादों को दृश्यों में करीने से पिरो देना और आखिरी दृश्य तक दर्शक को कुर्सी के सिरे सेन्यूनतम संवादों के जरिए बांधे रखना, कसी हुई पटकथा और सधे हुए निर्देशन के कारण संभव हो पाया है।

दरअसल, ‘आर्टिकल-15’ दलित उत्पीड़न की कई घटनाओं का एक कोलाज है पर वह इतने सलीके से बुना गया है कि फ़िल्म कहीं कोई ढीला सिरा नहीं छोड़ती। फिल्म अगर सिर्फ बदायूं कांड पर होती तो यह एक फेमिनिस्ट फिल्म होती क्योंकि उन दो दलित लड़कियों का कुसूर यह था कि वे साइकिल चलाकर स्कूल पढने जाती थीं और रास्ते में तंज कसते शोहदों को कोई तवज्जो नहीं देती थीं। दलित तबके की लड़कियों का उन्हें नज़रंदाज़ करना बर्दाश्त नहीं हुआ और सबक सिखाने के लिए उनका यह हश्र किया गया। फिल्म इसमें 25 रूपए की जगह 28 रुपए दिहाड़ी की बात करती है तो फिल्म का स्वर दलित शोषण से ज्यादा जुड़ जाता है। राजस्थान की साथिन भंवरी देवी भी याद आती हैं। रोहित वेमुला के आखिरी पत्र की पंक्तियां, चन्द्रशेखर और उना कांड के साथ साथ पिछले पांच सालों में घटी कई घटनाएँ कथ्य की बिसात बनती पहचान में आती हैं। आखिर फिल्मों के कथानक इस समाज से ही लिए जाते हैं और कई बार तथ्य और यथार्थ कल्पना से अधिक कड़वे और विचित्र होते हैं। एक फ़िल्मकार को पूरी आज़ादी है कि वह अपने कथ्य के अनुसार कल्पना को कितना जोड़े कितना घटाए !  

दिलचस्प है कि फ़िल्म को दोनों ओर से विरोध का सामना करना पड़ा। ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है। बिहार की राजधानी पटना जहां कथित तौर पर समाजवादी विचारधारा के नीतीश कुमार की सरकार है, फ़िल्म दूसरे दिन हटा दी गई। दूसरी ओर प्रबुद्ध वर्ग के दलित चिंतकों ने दलित उद्धारक के रूप में ब्राह्मण नायक को महिमामंडित करने का विरोध किया। 

स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन इस फिल्म की तीखी आलोचना करते हुए कहते हैं —“यदि ब्राह्मणवादी सोशल लोकेशन का ऑडिएंस टारगेट है तो यह फ़िल्म यूथ फ़ॉर इक्वलिटी और गांधीवाद की मिक्स राजनीतिक चेतना के साथ उन्हें आर्टिकल 15  का ज्ञान दे रही है।”

मान लें कि इसमें नायक पुलिस अधिकारी एक ब्राह्मण न होकर दलित वर्ग से होता तो वह पूरी वर्ण व्यवस्था का जानकार होता, नई पोस्टिंग पर आते ही भौंचक सा सबसे जातियों की जानकारी नहीं मांगता। एक दलित अधिकारी के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह भारत की जाति व्यवस्था और दलित प्रताड़ना से अनजान हो। प्रभुताशाली वर्ग का भारतीय युवा अगर ब्राह्मण है तो वह बहुत सारी चीजों से अनजान हो सकता है, इसलिए फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य मायने रखता है जहां वह सब की जाति पूछता है और दिमाग पर हथौड़े की तरह ऊँची नीची जाति दंश की छुआछुत सुनने के बाद विस्फोट में उसके मुंह से अंग्रेजी में गाली निकलती है। अफसर दलित होता तो अपने ऊंचे ओहदे पर आते ही सबसे पहले अपने से नीचे काम करने वाले कर्मचारियों का विरोध, अवज्ञा और अवमानना झेलनी पड़ती। फिल्म का पूरा कथानक ही तब दूसरा मोड़ ले लेता और उसमें फ़िल्म आर्टिकल प्रधान नहीं, नायक प्रधान हो जाती जहां नायक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता और जूझता दिखाई देता। जिस तरह के असंवेदनशील समय में आज हम हतप्रभ से जी रहे हैंउसमें इतना भी कह पाना हौसले और साहस का काम है जितना यह फिल्म मनोरंजन और सस्पेंस की ओट में कह जाती है। 

मुझे 1997 की एक घटना याद आ रही है – मराठी की प्रतिष्ठित लेखिका उर्मिला पवार एक सरकारी दफ्तर में काम करती थीं जो बांद्रा ईस्ट में था। मैं बांद्रा वेस्ट में रहती थी। स्त्री मुद्दों पर केंद्रित एक पत्रिका ‘अन्तरंग संगिनी’ का एक विशेषांक मैं संपादित कर रही थी जिसमें मुझे उर्मिला जी का एक वक्तव्य चाहिए था। उनसे मिलने मैं उनके दफ्तर गई। वे एक अलग मेज़ पर बैठी थीं। गर्मी के दिन थे। उन्होंने चपरासी से पानी लाने को कहा। वह उठा भी पर पानी नहीं आया। दुबारा वह दिखा तो उन्होंने फिर से कहा – एक गिलास पानी। इस बार भी वह इधर-उधर करने लगा। आखिर उर्मिला खुद उठीं और मेरे लिए पानी ले आईं। मेरी समझ में आ गया था कि बाबासाहेब आंबेडकर का समय आज भी चल रहा है! उर्मिला पवार — एक तो औरत, ऊपर से दलित और फिर अधिकारी भी। अपना आक्रोश जताने का चपरासी को यही तरीका समझ में आता था कि उनके आदेश को हमेशा अनसुना किया जाए। ऐसे माहौल में काम करना कैसा लगता होगा, मैंने अगली बार पूछ लिया तो बोलीं – क्या करें अब आदत हो गई है। काम तो करना ही है। जाहिर सी बात थी, इस मुद्दे को लेकर वह लड़तीं भिड़तीं तो वहां एक सीधे सीधे  डिवाइड के बाद जातिगत तनाव शुरू हो जाता। इस फिल्म पर जो लोग यह सुझाव दे रहे हैं कि नायक को दलित क्यों नहीं दिखाया गया वह सुझाव कम, अपेक्षा ज्यादा है और व्यावहारिक भी नहीं है! यह जरूर कहा जा सकता है कि इसमें गौरा और निषाद जो समझदार और लड़ाकू नजर आते हैंउन्हें कुछ और दृश्यों में अहमियत दी जानी चाहिए थी जिससे फ़िल्म संभवतः मजबूत ही होती। आज का समय किससे छिपा है। कुछ भी अगर आक्रामक तरीके से कहा जाता तो फ़िल्म सेंसर बोर्ड में अटक सकती थी। इस देश में फिल्म ‘पद्मावती’ का विरोध करने वाली एक करणी सेना ही नहीं है, और भी बहुत सारी सेनाएं, संस्थाएं और दल हैं। फिल्म का उनसे बच कर निकल आना और सन्देश पहुँचाने में सफल हो पाना एक बड़ी उपलब्धि है! 

दिक्कत यह है कि चिंतक और सामाजिक कार्यकर्त्ता गंभीर मुद्दे पर बनी किसी फीचर फिल्म को आर्ट फिल्म या आनंद पटवर्द्धन के वृत्त चित्र की तरह ही देखना चाहते हैं। बेशक उसका हश्र ‘शूद्र द राइजिंग’ या ‘फ़ैन्ड्री’ जैसा हो और एक सप्ताह में ही फिल्म की सिनेमा हॉल से विदाई हो जाए!

जिस देश में गाँधी, फुले, आम्बेडकर जैसे महापुरुषों और समाज सुधारकों के बावजूद छुआछूत, दलित प्रताड़ना का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा और जाति के नाम पर आज भी अपने घर की बेटी की नृशंस हत्याएं चल रही हैं वहां सैराट या आर्टिकल-15 जैसी फ़िल्मों से हम कितनी उम्मीदें रख सकते हैं। क्या ये फ़िल्में देश की जनता की मानसिकता को बदल पाएंगी या दलित प्रताड़ना के खिलाफ़ कोई आन्दोलन खड़ा कर पाएंगीसवाल जायज़ है या नहीं पर फिल्म के ज़रिये कोई आन्दोलन, दलित उत्थान या भीषण गृहयुद्ध की संभावना की उम्मीद को रोमैंटिक ही कहा जा सकता है ! 

यह ज़रूर है कि मनोरंजन के सबसे सशक्त माध्यम में इस नाउम्मीदी के माहौल में ऐसी कोई कोशिश होती है तो आगे आने वाले लोगों की सराहना की जानी चाहिए। फिल्म दलित आन्दोलन की नहीं, दलित चेतना की फिल्म है।

बहरहाल, जिस देश में फुले, आंबेडकर जैसे महापुरुषों और समाज सुधारकों के बावजूद दलित प्रताड़ना जारी है, वहां एक फिल्म से दलित आन्दोलन या दलित उत्थान की अपेक्षा करना ज्यादती है। यह भी सच है कि जब जब कोई संवेदनशील व्यक्ति जाति दंश के विद्रूप को देखेगा, चुप नहीं रह पाएगा। हर काल में अपनी अपनी तरह से बेचैन कलाकारों द्वारा अपनी-अपनी विधा में और अपनी परिधि में इस पर आवाज़ उठाई और भविष्य में भी उठाई जाती रहेगी। यह बात अलग है कि उनकी आवाज हुक्मरानों के कानों तक न पहुंचे न पहुंचे।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा स्त्री आन्दोलनों में भी सक्रिय रही हैं। अब तक उनके बारह कहानी संकलन तथा एक उपन्यास और वैचारिक लेखों की दो किताब। 'आम औरत : जि़ंदा सवाल’ और 'एक औरत की नोटबुक’ प्रकाशित हो चुकी हैं। सुधा जी की कहानियां भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी, ताजिकी भाषाओं में अनूदित।

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