अन्नाभाऊ साठे (1 अगस्त 1920 – 18 जुलाई 1969)
आगे बढ़ो! जोरदार प्रहार से दुनिया को बदल डालो। ऐसा मुझसे भीमराव कह कर गए हैं। हाथी जैसी ताकत होने के बावजूद गुलामी के दलदल में क्यों फंसे रहते हो। आलस त्याग, जिस्म को झटककर बाहर निकलो और टूट पड़ो।[1]
ᅳअन्नाभाऊ साठे
अन्नाभाऊ साठे कौन थे, क्या थे? कहां के थे? बहुत कम लोग जानते हैं। खासकर हम हिंदी वालों में। ‘अन्ना’ नाम सुनकर हमारे मस्तिष्क में सिर्फ अन्ना हजारे की तस्वीर बनती है। क्योंकि निहित स्वार्थ के अनुरूप खबरें गढ़ने वाला पूंजीवादी मीडिया, इस नाम को किसी न किसी बहाने बार-बार हमारे बीच ले आता है। सुनकर शायद हैरानी हो कि अन्नाभाऊ से जुड़े एक प्रश्न ने नेहरू जी को भी उलझन में डाल दिया था। उन दिनों रूस और भारत की गहरी मैत्री थी। नेहरू जी वहां पहुंचे हुए थे। यात्रा के बीच एक व्यक्ति ने अकस्मात पूछ लियाᅳ‘आपके यहां गरीबों और वंचितों की कहानी कहने वाला एक कलाकार और समाज सुधारक अन्नाभाऊ साठे है….कैसा है वह?
नेहरू जी चुप्प। उन्होंने ऐसे किसी अन्नाभाऊ साठे के बारे में नहीं सुना था। देश लौटे। यहां पता लगाना शुरू किया। पर मुश्किल। काफी कोशिश के बाद पता चला कि मुंबई की चाल में ऐसा ही आदमी रहता है। कद पांच फुट, रंग तांबई, बदन इकहरा। आंखों में चमक। सीधे दिल में उतर जाने वाली तेज, जोशीली आवाज। लिखता, गाता-बजाता, तमाशे करता है। मजदूर आंदोलनों में हिस्सा लेकर उनकी बात उठाता है। बोलने के लिए खड़ा होता है तो बड़ी से बड़ी भीड़ में भी सन्नाटा छा जाता है। लोकप्रियता ऐसी कि तमाशा करे तो दर्शकों का हुजूम उमड़ पड़ता है। अमीरी-गरीबी के बीच भारी अंतर को वह मार्क्सवादी नजरिये से देखता है। लेकिन जातिवाद और छूआछूत की व्याख्या के समय उसे सिर्फ आंबेडकर याद आते हैं। जो सामाजिक न्याय के लिए वर्ग-क्रांति को आवश्यक मानता है।
मराठी साहित्य और कला-जगत के शिखर पुरुष अन्नाभाऊ साठे का जन्म 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले की वालवा तहसील के वाटेगांव के मांगबाड़ा में हुआ था। उनके बचपन का नाम तुकाराम था। पिता का नाम भाऊराव और मां का नाम था बालूवाई। जाति थी मांग(मातंग)। अछूत और देश की सर्वाधिक विपन्न जातियों में से एक, जिसका कोई स्थायी धंधा तक नहीं था। पेट भरने के लिए उस जाति के सदस्य शादी-विवाह, पर्व-त्योहार के अवसर पर ढोल और तुरही बजाते। नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करते। रस्सी बुनते। उससे जो आय हो जाती उससे जैसे-तैसे गृहस्थी चलाते थे। लेकिन ये काम हमेशा तो मिलने वाले नहीं थे। इसलिए बाकी समय में वे मेहनत-मजदूरी वाला कोई भी काम कर लेते थे। अछूत होने के कारण गांव में रहने की मनाही थी। सो गांव-बाहर रहते। चैन वहां भी नहीं था। गांव में जब भी कोई अपराध होता तो शक ‘मांगबाड़ा’ पर ही जाता। शर्म की बात यह कि मानव-मात्र के अधिकारों की सुरक्षा का दावा करने वाली औपनिवेशिक सरकार ने पूरी ‘मांग’ जाति को ‘क्रिमिनल ट्राइव एक्टᅳ1871’ के अंतर्गत अपराधी घोषित किया हुआ था। कुछ ‘समझदार’ किस्म के ग्रामीण किसी ‘मांग’ को ही गांव की चौकीदारी सौंप देते थे। कहीं-कहीं यह कहावत भी चलती थी कि मांग के घर में आटे का बर्तन भले खाली हो, दीवार पर बंदूक जरूर टंगी होती है।
अन्ना के पिता मुंबई में एक अंग्रेज के घर माली का काम करते थे। बाकी परिवार गांव में रहता था। भाऊराव नौकरी करते थे, इस कारण बाकी सजातीय परिवारों की अपेक्षा उनकी आर्थिक हैसियत थोड़ी अच्छी थी। फिर भी जीवन संघर्षमय था। भाऊराव बेटे को पढ़ाना चाहते थे। एक बार छुट्टी लेकर गांव पहुंचे तो अन्ना की मां ने उनका स्कूल में दाखिला कराने की सलाह दी। लेकिन स्कूल मास्टर कुलकर्णी ‘अपराधी’ जाति के बालक को दाखिला देने को तैयार न था। काफी अनुनय-विनय के बाद वह राजी हुआ। फिर भी जाति-द्वेष बना रहा। अपमान और तिरस्कार भरे माहौल में अन्नाभाऊ ने कुछ दिन जैसे-तैसे काटे। शीघ्र ही उनका स्वाभिमानी मन वहां से ऊब गया। आखिर प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही, स्कूल को हमेशा के लिए अलविदा कह, वे जीवन की पाठशाला में भर्ती हो गए। उसके बाद कुछ दिन यायावरी और सिर्फ यायावरी चली। जो सीखा जीवनानुभवों से सीखा। जितना सीखा उतना समाज को लगातार लौटाते भी रहे।
उन दिनों मनोरंजन का प्रमुख साधन गाना-बजाना था। अन्ना का दिमाग तेज था। याददाश्त गजब की। बचपन से ही अनेक लोकगीत उन्हें उन्हें कंठस्थ थे। वे गा-बजाकर अपना और दूसरों का मनोरंजन करते। खेल ही खेल में यदा-कदा कुछ नया भी रच देते थे। यही नहीं, वे तलवार, भाला, दांडपट्टा, कटार आदि चलाने में भी सिद्धहस्त थे। इन हथियारों का प्रयोग अवसर विशेष पर शौर्यकला का प्रदर्शन करने के लिए किया जाता था। असल में वे सामंतों के मनोरंजन का साधन थे। वैभव और शौर्य लुटा चुके जमींदार, सामंत शौर्यकलाओं का मंचन देखकर ही आत्मतुष्ट हो जाया करते थे। बात-बात पर न्याय, नैतिकता, धर्म और संस्कृति की दुहाई देने वाले पंडितजन, जाति के नाम पर आदमी-आदमी में भेद के सवाल पर चुप्पी साध जाते थे।
रास्ते में कुछ कड़वे अनुभव भी हुए। एक बार की बात। चलते-चलते अन्ना को भूख लग आई थी। सामने पके आमों से लदा एक पेड़ देखा तो भूख और भड़क उठी। उसी बेचैनी में उन्होंने पेड़ के मालिक से पूछे बगैर दो-चार आम तोड़ लिए। अचानक मालिक ने आकर उन्हें दबोच लिया। घबराए अन्ना ने आम वापस लौटाने की पेशकश की, लेकिन वह माना नहीं। डरा-धमकाकर आमों को दुबारा डाल से लटकाने की जिद करने लगा।[3] इस तरह की अपमानजनक घटनाओं से जन्मे आक्रोश का असर रचनात्मक निखार के साथ अन्नाभाऊ की करीब-करीब हर रचना में है। उनकी बहुप्रसिद्ध कहानी ‘खुलांवादी’ का एक पात्र कहता हैᅳ
‘ये मुरदा नहीं, हाड़–मांस के जिंदा इंसान हैं। बिगडै़ल घोड़े पर सवारी करने की कूबत इनमें है। इन्हें तलवार से जीत पाना नामुमकिन है।’
मुंबई पहुंचते समय तुकाराम उर्फ अन्नाभाऊ की उम्र महज 11 वर्ष थी। गांव में जहां अछूत होने के कारण कोई काम न देता था, मुंबई में काम की कमी न थी। सो घर चलाने के लिए मुंबई में अन्ना ने कुलीगिरी की। होटल में बर्तन धोने से लेकर वेटर तक का काम किया। घरेलू नौकर रहे, कुत्तों की देखभाल के लिए एक अमीर की चाकरी की। घर-घर जाकर सामान बेचा। कुछ और काम न मिलने पर बूट-पालिश पर हाथ भी आजमाया। इस बीच फिल्म देखने का शौक पैदा हुआ। मूक फिल्मों का जमाना था। पर शौक ऐसा कि अपनी मामूली आमदनी का बड़ा हिस्सा टिकट खरीदने पर खर्च कर देते थे। जीवन-संघर्ष के बीच अक्षर जोड़ना और पढ़ना-लिखना सीखा। फिल्मी पोस्टरों और दुकानों के आगे लगे होर्डिंग्स से पढ़ना-लिखना सीखने में मदद मिली। चेंबुर, कुला, मांटुगा, दादर, घाटकोपर वगैरह….मुंबई में काम के अनुसार उनके ठिकाने भी बदलते रहे।
अन्ना भाऊ के निकट रिश्तेदार बापू साठे एक ‘तमाशा’ मंडली चलाते थे। गाने-बजाने का शौक अन्ना को उन्हीं तक ले गया। वे ‘तमाशा’ से जुड़ गए। इस बीच एकाएक ऐसी घटना हुई जिससे अन्नाभाऊ के सोचने का ढंग ही बदल गया। तमाशा मंडली को एक गांव में कार्यक्रम करना था। तमाशा शुरू होने से पहले उसके मंच पर महाराष्ट्र में ‘क्रांतिसिंह’ के नाम से विख्यात नाना पाटिल वहां पहुंचे। वहां उन्होंने ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों का खुलासा करने वाला जोरदार भाषण किया। मिलों में हो रहे शोषण के लिए पूंजीपतियों और सरमायेदारों की कारगुजारी पर भी बात की। भाषण सुनने के बाद अन्ना भाऊ को अब तक का गाया-सुना अकारथ लगने लगा। छुटपन में वे ‘भगवान विठ्ठल’ की सेवा में अभंग गाया करते थे। उनमें जातीय ऊंच-नीच को धिक्कारा गया था। बराबरी का संदेश भी था। अब समझ में आया कि गरीबी सामाजिक समानता की राह में सबसे बड़ी बाधक है। आर्थिक असमानता केवल नियति की देन नहीं है। उसका कारण वे लोग हैं जो देश और समाज के धन पर कुंडली मारे बैठे हैं। यह भी समझ में आया कि गाने-बजाने का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है। उससे सोये हुए समाज को जगाया भी जा सकता है। उसी दिन अन्ना के ‘लोकशाहिर’(लोककवि) अन्ना भाऊ बनने की नींव पड़ी। समाज में अमीर-गरीब की खाई को वे कम्युनिस्ट विचारधारा की कसौटी से परखने लगे। यही उन्हें कालांतर में कम्युनिस्ट पार्टी तक ले गया।
तमाशा में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर अवसर मिला। ‘तमाशा’ में वे कोई भी वाद्य बजा लेते। किसी भी प्रकार की भूमिका कर लेते थे। निरंतर सीखने और नए-नए प्रयोग करने की योग्यता ने उन्हें रातों-रात तमाशा मंडली का महानायक बना दिया। कुछ दिनों बाद अपने दो साथियों के साथ मिलकर अन्ना ने 1944 में ‘लाल बावटा कलापथक’(लाल क्रांति कलामंच) नामक नई तमाशा मंडली की शुरुआत की। जिसके तहत उन्होंने कई क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश किए। उस समय तक देश में आजादी के प्रति चेतना जाग्रत हो चुकी थी। ‘तमाशा’ जनता से संवाद करने का सीधा माध्यम था। ‘लाल बावटा’ के माध्यम से अन्नाभाऊ मजदूरों के दुख-दर्द को दुनिया के सामने लाते, लोगों को स्वतंत्रता का महत्त्व समझाते थे। इससे वे मजदूरों के बीच तेजी से लोकप्रिय होने लगे। अपनी मंडली को लेकर वे महाराष्ट्र के गांव-गांव तक पहुंचे। वहां लोगों को आजादी के लिए तैयार रहने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आवाह्न किया। लोग उन्हें ‘शाहिर अन्ना भाऊ साठे’ और ‘लोकशाहिर’ कहकर पुकारने लगे।
आगे चलकर सरकार ने ‘तमाशा’ पर प्रतिबंध लगा दिया। जिसके तहत ‘लाल बावटा’ को भी बंद करना पड़ा। लेकिन अन्ना भाऊ के भीतर छिपा कलाकार इतनी जल्दी हार मानने को तैयार न था। उन्होंने अपने विचारों को लोकगीतों में ढालना आरंभ कर दिया। तमाशा मंडली छोड़ वे एक मिल में काम करने लगे। वहां मजदूरों की समस्याओं से सीधा परिचय हुआ। कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति लगाव तो ‘क्रांतिसिंह’ नाना पाटिल का भाषण सुनने के बाद से ही था। मिल में मजदूरी करते हुए वे कम्युनिस्ट पार्टी के भी संपर्क में आए और उसके सक्रिय सदस्य बन गए। लोकगीतों के माध्यम से कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने लगे। पार्टी के लिए दरियां बिछाने से लेकर भाषण देने तक का काम किया। इसी बीच विवाह हुआ। लेकिन पहला विवाह ज्यादा जमा नहीं। दूसरा विवाह एक परित्यक्त स्त्री से किया। संतान भी हुई, लेकिन वह संबंध भी ज्यादा दिन टिक न सका।
उद्योगनगरी के रूप में पनपती मुंबई हजारों मजदूरों, किसानों की शरण-स्थली थी। गांव में गरीबी, बेरोजगारी और सामंती उत्पीड़न से त्रस्त मजदूर वर्ग बेहतर जीवन की आस में उसकी ओर खिंचे चले आते थे। उनके लिए वही एक उम्मीद थी। लेकिन बेतरतीव मशीनीकरण ने लोगों की समस्या में इजाफा किया था। एक ओर बड़ी-बड़ी स्लम बस्तियां उभर रही थीं, दूसरी ओर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं। अमीर-गरीब के बीच निरंतर बढ़ते अंतराल से उन्हें लगने लगा था कि जिन सपनों के लिए उन्होंने अपना गांव-घर छोड़ा था, वे मुंबई आकर भी फलने वाले नहीं है। उस समय तक रूस को आजाद हुए करीब 25 वर्ष बीत चुके थे। अन्नाभाऊ सोवियत संघ की तरक्की के बारे में सुनते, प्रभावित होते। रूस की क्रांतिगाथाएं सुनकर मन उमंगित होने लगता। 1943 के आसपास उन्होंने स्तालिनग्राद को लेकर एक पावड़ा(शौर्यगीत) लिखा। उस पावड़े का अनुवाद रूसी भाषा में भी हुआ। उसके बाद तो अन्नाभाऊ की कीर्ति-कथा देश-देशांतर तक व्यापने लगी।
इस बीच उन्होंने कई उपन्यास और कहानियां लिखीं। कम्युनिस्ट पार्टी के साहित्य को पढ़ा। उन्हें समझ आने लगा कि सामाजिक और आर्थिक विकास परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। वगैर एक के दूसरे को साधना संभव नहीं। खासकर भारत जैसे समाजों में जहां जाति मजबूत सामाजिक संस्था के रूप में वर्षों से अपनी पकड़ बनाए हो। धर्म उसका समर्थन करता हो। लोग मानते हों कि वे वही हैं, जो उन्हें होना चाहिए। जहां तथाकथित ईश्वरीय न्याय को ही सर्वश्रेष्ठ न्याय माना जाता हो। बड़ा वर्ग मानता हो कि समाज में जो जहां, जैसा हैᅳसब ईश्वरेच्छा से है। भारतीय समाज में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब की बेशुमार खाइयां हैं। बावजूद इसके वर्ग-संघर्ष के लिए यह सबसे अनुपजाऊ धरा है। लोगों की यथास्थितिवादी मनोवृति, परिवर्तन की हर संभावना को विफल कर देती है। जब कभी उसके विरुद्ध आवाज उठी, धार्मिक संस्थाएं लोगों को नियतिवाद का पाठ पढ़ाने के लिए सामने आ गईं। गौतम बुद्ध ने जाति को चुनौती दी। उनका आभामंडल इतना प्रखर था कि उनके रहते प्रतिक्रियावादी शक्तियां वर्षों तक सिर छुपाए रहीं। उनके जाते ही देश में फिर ब्राह्मणवादी साहित्य की बाढ़-सी आ गई। नियतिवाद को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए पुराणों और स्मृतियों की रचना की गई। शताब्दियों के बाद संत कवियों ने जाति को ललकारा तो तुलसीदास अपनी रामचरितमानस लेकर आ गए। सामाजिक समानता का सपना शताब्दियों के लिए पुनः नेपथ्य में खिसक गया। धर्म जाति का सुरक्षा-कवच है। इस रहस्य से पर्दा उठा उनीसवीं शताब्दी में। नई शिक्षा और विचारों के आलोक में लोगों ने जाना कि वगैर धर्म को चुनौती दिए जाति से मुक्ति असंभव है। कि आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए सांस्कृतिक वर्चस्व से बाहर निकलना जरूरी है। इस संबंध में सबसे पहली पुकार ज्योतिराव फुले की थी। पुकार क्या मानो मुक्ति-मंत्र था। उस मुक्ति-मंत्र को सिद्धि-मंत्र में बदला डाॅ. आंबेडकर ने। जाति का दंश डाॅ. आंबेडकर ने भी झेला था और अन्नाभाऊ ने भी। साम्यवादी चेतना जहां अन्नाभाऊ के लोकगीतों को ओज से भरपूर बनाती थी, वहीं आंबेडकर से उन्हें हालात से टकराने की प्रेरणा मिलती थी। मार्क्स और आंबेडकर, अन्नाभाऊ के लिए दोनों ही प्रेरणास्रोत थे।
एक क्रांतिधर्मी कलाकार की तरह अन्नाभाऊ ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन तथा गोवा मुक्ति आंदोलन के लिए काम किया। जनता के हित में एक कलाकार के रूप में वे हर आंदोलन में आगे रहे। उनके लिखे पावड़े, लावणियां मुक्ति आंदोलनों को ऊर्जा प्रदान करते रहे। 1945 में अन्ना भाऊ ने साप्ताहिक ‘लोकयुद्ध’ के लिए पत्रकार के रूप में काम करना आरंभ किया। अखबार साम्यवादी विचारधारा को समर्पित था। आम आदमी के संघर्ष, उसकी पीड़ा और उसके अभावों को वे एक पत्रकार के रूप में लगातार उठाते रहे। इसने उन्हें जनसाधारण के बीच नायकत्व प्रदान किया। अखबार के लिए काम करते हुए उन्होंने अक्लेची गोष्ट, खाप्पया चोर, मजही मुंबई जैसे नाटक लिखे। सरकार ने ‘तमाशा’ पर प्रतिबंध लगाया तो अन्नाभाऊ ने ‘लाल बावटा’ के लिए लिखे गए नाटकों को आगे चलकर उन्होंने लावणियों और पावड़ा जैसे लोकगीतों में बदल दिया। तमाशे में वे अकेले गाते थे, लोकगीत बनने के बाद वे जन-जन की जुबान पर छाने लगे। अन्नाभाऊ की रचनाओं पर 12 फिल्में बनीं जो सफल मानी जाती हैं।
निरंतर संघर्षमय जीवन जीते हुए अन्नाभाऊ ने 14 लोकनाटक, 35 उपन्यास और 300 से ऊपर कहानियां लिखी। लगभग 250 लावणियां उन्होंने लिखीं। लगभग छह फिल्मों की पटकथाएं और यात्रा वृतांत लिखा। उनकी लिखी 14 कहानियों/उपन्यासों का फिल्मांकन भी हुआ। यात्रा वृतांत ‘मेरी रूस यात्रा’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत होने का गौरव प्राप्त है। उनके उपन्यासों और नाटकों की देश-विदेश में खूब चर्चा हुई। 1959 में प्रकाशित ‘फकीरा’ उपन्यास को खूब सराहा गया। इसे उन्होंने डाॅ. आंबेडकर को समर्पित किया था। यह उपन्यास इसी नाम के मातंग जाति के क्रांतिकारी की शौर्यकथा है, जिसमें उसका सामाजिक जीवन भी समाया हुआ है। इस उपन्यास का 27 देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। 1961 में इसे महाराष्ट्र सरकार के शीर्ष पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी दूसरी रचनाएं भी रूसी, फ्रांसिसी, चेक, जर्मनी आदि भाषाओं में अनूदित हुईं। अन्नाभाऊ द्वारा लिखित पुस्तकों में फकीरा, वारण का शेर, अलगुज, केवड़े का भुट्टा, कुरूप, चंदन, अहंकार, आघात, वारणा नदी के किनारे, रानगंगा आदि उपन्यास; चिराग नगर के भूत, कृष्णा किनारे की कथा, जेल में, पागल मनुष्य की फरारी, निखारा, भानामती, आबी आदि 14 कहानी संग्रह; इनामदार, पेग्यां की शादी, सुलतान आदि नाटक हैं। उनके लिखे लोकनाटकों में तमाशा(नौटंकी), दिमाग की काहणी, खाप्पया चोर, देशभक्ते घोटाले, नेता मिल गया, बिलंदर पैसे खाने वाले, मेरी मुंबई, मौन मोर्चा आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं, जिनमें फकीरा, सातरा की करामात, तिलक लागती हूं रक्त से, पहाड़ों की मैना, मुरली मल्हारी रायाणी, वारणे का बाघ तथा वारा गांव का पाणी प्रमुख हैं।
मुंबई में रहते हुए अन्नाभाऊ ने तरह-तरह के काम किए, पैसा भी कमाया, लेकिन गरीबी से पीछा नहीं छूटा। वे 22 वर्ष तक घाटकोपर की खोलियों में रहे। यहां एक सवाल उठ सकता है। कई बड़े अभिनेताओं और फिल्म निर्माताओं से अन्नाभाऊ का संपर्क था। उनकी कहानियों पर फिल्में बन चुकी थीं। उपन्यास ‘फकीरा’ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका था। बावजूद इसके क्यों अपने लिए ठीक-ठाक घर का इंतजाम न कर सके? इस तरह की जिज्ञासा अन्नाभाऊ के एक मित्र को भी थी। वर्षों तक घाटकोपर की चाल में रहते देख उसने अन्नाभाऊ से पूछा थाᅳ
‘आपकी अनेक पुस्तकों का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। फिल्मों की पटकथाएं भी आपने लिखी हैं। आपकी कई कहानियों और उपन्यासों पर फिल्में बन चुकी हैं। ‘फकीरा’ के रूसी भाषा में अनुवाद से रायल्टी भी मिली होगी। उससे आप बड़ा-सा बंगला क्यों नहीं बनवा लेते?’
इसपर अन्नाभाऊ ने हंसते हुए कहा थाᅳ
‘ठीक कहते हो। लेकिन बंगले में आरामकुर्सी पर बैठकर लिखते समय मैं गरीबी की सिर्फ कल्पना कर सकता हूं। गरीबी की पीड़ा और उसका दर्द तो भूखे पेट रहकर ही अनुभव किया जा सकता है।’
अनुभूति की इसी प्रामाणिकता के लिए अन्नाभाऊ ने गरीब-मजदूरों के बीच रहते थे। बिना किसी अहमन्यता, बगैर किसी विशिष्टताबोध के। 1968 में राज्य सरकार कुछ मेहरबान हुई। अन्नाभाऊ के रहने के लिए छोटा-सा घर उपलब्ध करा दिया गया। लेकिन गरीब मजदूरों के बीच, उन्हीं की तरह रहने वाले उस जिंदादिल इंसान को नया ठिकाना रास नहीं आया। एक साल के भीतर ही, 18 जुलाई 1969 को वह महान कलाकार मुंबई को हमेशा के लिए अलविदा कह, दुनिया से चला गय
1 अगस्त 2002 को भारत सरकार ने उनके 82वें जन्म दिवस पर डाक टिकट जारी किया। सरकार का यह प्रयास एक शाश्वत विद्रोही, प्रखर प्रतिभा को मूर्तियों में कैद कर देने जैसा ही माना जाएगा, क्योंकि दर्जनों सरकारी अकादमियां और सांस्कृतिक संस्थाएं होने के बावजूद अन्नाभाऊ के कृतित्व का एकांश भी हिंदी में उपलब्ध नहीं है। परिणामस्वरूप हिंदी के लेखक इस मराठी कला-संस्कृति और साहित्य की महानतम प्रतिभा के लेखकीय और कलात्मक अवदान से वंचित हैं।
अन्नाभाऊ की रूस यात्रा : एक सपने का सच होना
अन्नाभाऊ का जन्म सोवियत क्रांति के तीन वर्ष बाद हुआ था। किसी देश के बनने में तीन वर्ष की अवधि बहुत ज्यादा नहीं होती। इसलिए कह सकते हैं कि अन्नाभाऊ की जीवनयात्रा और सोवियत रूस की विकास यात्रा एक-दूसरे की सहगामी थीं। रूस रूपहले सपने की तरह अन्नाभाऊ की आंखों में बसता था। वे प्रायः सोचते, काश! श्रमिक क्रांति के बाद रूस के समाज में आए बदलावों को करीब से देख पाते। यह चाहत तब और प्रबल हो जाती जब रूस की शानदार प्रगति का कोई समाचार उन तक पहुंचता। रूस यात्रा की उनकी अभिलाषा कितनी गहरी थी, इसका वर्णन उन्होंने अपने यात्रा-वृतांत में स्वयं किया हैᅳ
‘मेरी अंतःप्रेरणा थी कि अपने जीवन में मैं एक दिन सोवियत संघ की अवश्य यात्रा करूंगा। यह इच्छा लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मेरा मस्तिष्क यह कल्पना करते हुए सिहर उठता था कि मजदूर–क्रांति के बाद का रूस कैसा होगा। लेनिन की क्रांति और उनके द्वारा मार्क्स के सपने को जमीन पर उतारने की हकीकत कैसी होगी! कैसी होगी वहां की नई दुनिया, संस्कृति और समाज की चमक–दमक! मैं 1935 में ही कई जब्तशुदा पुस्तकें पढ़ चुका था। उनमें से ‘रूसी क्रांति का इतिहास’ और ‘लेनिन की जीवनी’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था। इसलिए मैं रूस के दर्शन को उतावला था।’[4]
रूस यात्रा से पहले उन्होंने दो बार पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था। पहली बार उनके आवेदन को बगैर कारण बताए निरस्त कर दिया गया था। असल में सरकार अन्नाभाऊ जैसे प्रतिभा-संपन्न कलाकार को, जिसकी लोकमानस पर गहरी पकड़ हो, जो जनता से उसी की भाषा में संवाद करने का हुनर जानता होᅳरूस भेजने से घबराती थी। इस बारे में जब उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से संपर्क किया, तो उनका उत्तर भी तिरस्कार भरा थाᅳ‘तुम हमारे प्रति शत्रु-भाव रखते हो। यह हमारी उदारता है जो तुम अभी तक बाहर हो; अन्यथा तुम जेल की सलाखों के पीछे होते।’[5] शत्रु-भाव! माने जनवादी चेतना। अन्नाभाऊ जनता से उसी भाषा में संवाद करने में निपुण थे। अपने कई लोकगीतों में अन्नाभाऊ ने मुंबई में बसे श्रमिक वर्ग के जीवन की त्रासदियों का जीवंत चित्रण कर, उनके स्वप्न-भंग की स्थिति को दर्शाया था। ऐसी रचनाएं किसी भी गैरजिम्मेदार सरकार के लिए बेचैनी का कारण बन सकती थीं।
प्रसंगवश उनकी दो लावणियों का उल्लेख किया जा सकता है। ‘मुंबईची लावणी’(मुंबई की लावणी) तथा ‘माझी मैना गावावीर राहिली’(मेरी प्रिया गांव में रहती है)। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुंबई में औद्योगिकीकरण की शुरुआत हुई थी। उससे रोजगार की तलाश में गांवों से श्रमिकों और कामगारों का पलायन आरंभ हुआ। उनमें से अधिकांश वे थे जिन्हें गांवों में भीषण गरीबी और सामंती उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। जो वहां रोजगार के अभाव में फाकाकशी का जीवन जीते थे। सामंती उत्पीड़न से मुक्ति और उपयुक्त रोजगार की साध लेकर वे मुंबई पहुंचे थे। वहां पहुंचकर पता चला कि हालात में लगभग ज्यों के त्यों हैं। केवल उत्पीड़क चेहरों में बदलाव आया है। गांव में वे सामंती उत्पीड़न और जातिवाद का शिकार थे। शहर में जातिभेद ज्यादा अंतर नहीं आया है, जबकि सामंत की जगह पुलिस और कानून के नाम पर बनी संस्थाओं ने ले ली है। ‘मुंबईची लावणी’ में इसी पर कटाक्ष किया गया थाᅳ
‘‘मुंबई में शिखर पर मालाबार की पहाड़ियां हैं….वह इंद्रपुरी है, इंद्र देवता की नगरी….वह धनकुबेरों की बस्ती है….रात–दिन सुख में आकंठ डूबे रहने वाले श्रीमंत लोग वहां रहते हैं….दूसरी और परेल हैं, जहां गरीब, मजदूर, कबाड़ी, भिखारी डेरा डाले हुए हैं। वे रात–दिन पसीना बहाते हैं। कड़ी मेहनत के बाद जो मिल जाता है, उसे खा लेते हैं। तीन बत्ती, गोलपीठ और फोरस रोड पर, जिंदा रहने की कीमत पर, न जाने कितने शरीर रोज खरीदे–बेचे जाते हैं।’’
दूसरी लावणी ‘माझी मैना गावावीर राहिली’ में उन मजदूरों की विरह-वेदना और पीड़ा समाई थी, जो घर-परिवार को छोड़कर नए सपने और उम्मीदें लेकर मुंबई आए थे। वहां पहुंचकर वे स्वप्न-भंग की अवस्था में जी रहे थे। इंग्लेंड में अनियोजित मशीनीकरण से पनपी ऐसी ही विषमता ने कार्ल मार्क्स को भी उद्वेलित किया था, जिससे वे पूंजीवाद के विशद अध्ययन को उन्मुख हुए। फलस्वरूप दुनिया को ‘दि कैपीटल’ जैसा महान ग्रंथ प्राप्त हुआ था। गरीब-मजदूरों का दुख-दर्द देख अन्नाभाऊ का संवेदनशील मन आहत होता तो कहानी, उपन्यास और लोकगीतों के रूप में बाहर आता था। उनकी रचनाएं मुंबइया जीवन की हकीकत बयान करती थीं। ऐसा कलाकार लोगों के दिल पर भले ही राज कर ले, उस सरकार को, जिसमें श्रीमंतों का आधिक्य हो, कतई रास नहीं आता। अपने सरोकारों के कारण अन्नाभाऊ भी सरकार की आंखों की किरकिरी बने रहते थे।
बहरहाल, अन्नाभाऊ को रूस जाने का दूसरा अवसर 1948 में मिला था। इस बार उन्हें ‘विश्वशांति सम्मेलन’ के लिए आमंत्रित किया गया था। इस बार अभिनेता मित्र बलराज साहनी ने उनके लिए टिकटों का इंतजाम भी कर दिया था। लेकिन अन्यत्र व्यस्तता के कारण वे समय न निकाल सके। 1961 में अन्नाभाऊ के उपन्यास ‘फकीरा’(1959) को महाराष्ट्र सरकार का सर्वाेच्च सम्मान प्राप्त हुआ। उस समय तक परिस्थितियां थोड़ी अनुकूल होने लगीं थीं। सरकार के मन में भी कम्युनिस्टों के प्रति पूर्वाग्रह में कमी आई थी। इस बार ‘भारत-सोवियत सांस्कृतिक समिति’ ने उनकी रूस-यात्रा का कार्यक्रम बनाया। दोनों सरकारें यात्रा के लिए राजी थीं, इससे पासपोर्ट-वीसा जैसी समस्या न थी। मगर किराये के लिए पैसों की किल्लत पहले जैसी बनी थी। फिर भी इस बार हालात कुछ अलग थे। अन्नाभाऊ को रूस यात्रा का निमंत्रण मिलने का समाचार जैसे ही प्रकाशित हुआ, स्वयं अन्नाभाऊ के शब्दों में ‘रुपयों की मानो बौछार-सी होने लगी। देखते ही देखते आधे खर्च का इंतजाम हो गया।’ जनता की सहानुभूति देख, अपनी इस मान्यता, ‘जो कलाकार जनता के लिए जीता है, जनता उसके पीछे दीवार बनकर खड़ी होती हैᅳपर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया।
मुंबई से दिल्ली के रास्ते रूस जाने के लिए जब वे जहाज में बैठे तो अपनी साधारण वेशभूषा के कारण बाकी यात्रियों के बीच अलग नजर आ रहे थे। इस बात का उन्हें एहसास भी था। लेकिन यात्रा के दौरान विमान में ऐसी घटना घटी जिससे उनका सारा मलाल जाता रहा। उन्होंने स्वयं लिखा हैᅳ
‘‘उस उड़ान में सम्मेलन में हिस्सा लेने रूस जा रहे, श्रीलंकाई प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे। उन्हीं में से एक जो संसद संदस्य और कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य समाचारपत्र का संपादक थेᅳने मुझे पहचान लिया। उसी महीने साहित्यिक पत्रिका ‘मनोहर’ में मेरा सचित्र परिचय मेरे तमाशे ‘खाप्पया चोर’ के चित्र के साथ प्रकाशित हुआ था। विमान के उड़ान भरने के कुछ ही समय बाद एक यात्री ने मुझे पहचान लिया। पत्रिका का अंक हवा में लहराते हुए उसने चुनौती दी कि ‘खाप्पया चोर’ को जो उड़ान के दौरान हवाई जहाज में ही मौजूद है, कौन पहचानेगा? उसके बाद यात्री उसे लेकर फुसफुसाने लगे। अंत में मुझे मेरे श्रीलंकाई मित्र के साथ पहचान लिया गया।’[6]
उस समय तक अन्नाभाऊ का दूसरा उपन्यास ‘चित्रा’ भी रूसी भाषा में अनूदित हो चुका था। इसके अलावा उनकी कई कहानियां भी अनूदित होकर रूस पहुंच चुकी थीं। जिनमें उनकी कहानी ‘सुलतान’ भी थी। ‘सुलतान’ एक कैदी पर आधारित कहानी थी, जिससे लेखक की मुलाकात अमरावती की सेंट्रल जेल में हुई थी। अन्नाभाऊ के रूस पहुंचने से पहले सुलतान वहां चर्चित हो चुकी थी। इसलिए अगले दिन के अखबारों की मुख्य खबर थीᅳ”मशहूर कहानी ‘सुलतान’ का लेखक रूस में।” अन्नाभाऊ का लिखा नाटक ‘स्तालिनग्राद’ भी वहां चर्चा का विषय था।
मास्को में उन्होंने होटल के वेटरों, माली, फोटोग्राफर, ड्राइवर, लिफ्ट आपरेटर से दोस्ती की, और वहां के जनजीवन के बारे में जानकारी हासिल की। लेनिनग्राद में उन्होंने संग्रहालय में चंद्रगुप्त मौर्य के कार्यकाल के अनेक सिक्के देखे। रूस में नेहरू की लोकप्रियता को दर्शाती एक घटना का उल्लेख उनके यात्रा-वृतांत में है। जो नेहरू के प्रति उनके दिल में छिपे सम्मान को दर्शाता हैᅳ
‘‘मैं होठों के बीच सिगरेट दबाए रेड स्कवायर से क्रेमलिन की ओर बढ़ रहा था। मेरे पास माचिस नहीं थी और मैं उसके लिए इधर–उधर देख रहा था। सहसा एक आदमी मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। उसने लाइटर से मेरी सिगरेट सुलगा दी। मेरे लिए वह अप्रत्याशित था।
‘क्या तुम भारतीय हो?’ उस आदमी ने पूछा।
‘जी हां….’ कहकर मैंने उसे धन्यवाद देना चाहा। लेकिन अगले ही पल उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और कहने लगाᅳ
‘कैसे हैं नेहरू जी?’
‘वह बिलकुल ठीक हैं,’ मैंने बताया, ‘आज वे यूएनओ में भाषण देने जा रहे हैं।’ सुनकर वह व्यक्ति बेहद प्रसन्न हुआ और नेहरू जी को धन्यवाद देता हुआ वहां से प्रस्थान कर गया।’’
‘भारत-रूस सांस्कृतिक समिति’ द्वारा रूस की यात्रा के लिए गठित प्रतिनिधिमंडल में अन्नाभाऊ सबसे साधारण और सामान्य दिखने वाले इंसान थे। परंतु रूस की यात्रा पूरी होते-होते अन्नाभाऊ के बारे में उनके सहयात्रियों की धारणा एकदम बदल चुकी थी। प्रतिनिधिमंडल में मद्रास निवासी गिटारवादक जैकोब जिम भी शामिल था। स्तालिनग्राद से अजरबेजान की राजधानी बाकू की ओर वायुयान से जाते समय जैकोब ने अन्नाभाऊ से कहा थाᅳ‘साठे जी, जब हम आपसे पालम एयरपोर्ट पर मिले तो सोचते थे कि आप इस देश से अनजान होंगे और हमारे बीच जम नहीं पाएंगे। लेकिन वह हमारी चूक थी। आप इस देश में बहुत प्रसिद्ध हैं। और निस्संदेह आप अच्छे लेखक हैं। आपके ओजस्वी भाषणों से मैंने बहुत कुछ ग्रहण किया है।’8
अन्नाभाऊ की 40 दिनों की रूस यात्रा अनेक अनुभवों से भरी थी। उनके लिए वह यात्रा एक सपने से गुजरने जैसी थी। एक समानता पर आधारित स्वतंत्र समाज का सपना जो वर्षों से उनके मानस में जड़ जमाए हुए था। रूस में उन्होंने विचार को वास्तविकता में बदलते हुए देखा। जाना कि संकल्प बड़े और नीयत अच्छी हो तो आदर्श और यथार्थ के बीच की दूरी कम होने लगती है। स्वप्न हकीकत में ढलने लगते हैं।
वर्ग-संघर्ष और सामाजिक न्याय को एक साथ साधने वाला जमीनी लेखक
अपनी किशोरावस्था से ही अन्नाभाऊ वामपंथ के संपर्क में आए थे। सामाजिक विषमता और छूआछूत को उन्होंने बचपन से देखा-भोगा था। इसलिए छूआछूत और सामाजिक विषमता के विरुद्ध भारत में संघर्ष कर रहे डाॅ. आंबेडकर के प्रति उनकी श्रद्धा भी स्वाभाविक थी। उपन्यास ‘फकीरा’ को जो इसी नाम के मातंग जाति के क्रांतिकारी के जीवन पर आधारित था, उन्होंने डाॅ. आंबेडकर को समर्पित किया था। उनका समूचा लेखन उनके जीवनानुभवों का दस्तावेज है। एक कहानी संग्रह की प्रस्तावना में उन्होंने अपने इस द्रष्टिकोण को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत किया हैᅳ
‘जो जीवन मैंने जिया, जीवन में जो भी भोगा, वही मैंने लिखा….मैं कोई पक्षी नहीं हूं जो कल्पना के पंखों पर उड़ान भर सकूं। मैं तो मेडक की तरह हूं, जमीन से चिपका हुआ।’
एक प्रसिद्ध दोहे में उन्होंने हिंदुओं के शेषनाग के मिथ पर टिप्पणी करते हुए लिखा थाᅳ‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मजदूरों के हाथों में सुरक्षित है।’ उनका कहना था कि कला शिवजी की तीसरी आंख की तरह होती है, जो संसार को भेदती हुई सभी मिथों को जलाकर भस्म कर देती है। इस आंख को सदैव सतर्क रहना चाहिए, तथा मनुष्य के हितों की देखभाल करनी चाहिए। अन्नाभाऊ के सरोकार मानवीय थे। उनके लेखन में कल्पनातत्व सिर्फ उतना है, जितना रचनात्मक बने रहने के लिए आवश्यक होता है। वे रूसी लेखकों में गोर्की से बेहद प्रभावित थे, जिन्होंने हाशिये के पात्रों को मुख्यधारा के साहित्य में जगह दी थी। अन्नाभाऊ भी अपनी लावणियों, लोकगीतों, कहानियों, उपन्यासों आदि के माध्यम से आम आदमी की चिंताओं और सरोकारों को जगह देते हैं। विशेषरूप से अछूत जातियों की समस्याओं तथा उनके चरित्र के उदात्त पहलुओं को बार-बार उठाते हैं। यही कारण है कि लिखते समय उन्होंने कल्पना का कम से कम सहारा लिया है। ‘मेरे सभी पात्र जीते-जागते समाज का हिस्सा हैं। यह उनका दावा भी था।
अन्नाभाऊ ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में गरीबी और जातीय उत्पीड़न के सताए लोगों को जगह दी थी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे। उनकी कहानियों में महार, मांग, रामोशी, बालुतेदार और चमड़े का काम करने वाले पात्र समाए हुए हैं। न केवल उनकी जीवंत उपस्थिति है, अपितु उनकी पीड़ाओं और संघर्ष को भी सम्मान के साथ सहेजा गया है। अन्नाभाऊ की एक बहुत ही मार्मिक कहानी हैᅳ‘तीन भाकरी’। गांव में दो औरतें रहती हैं। उनके बीच सास-बहू का रिश्ता है। दोनों मेहनत-मजदूरी करती हैं। अगर किसी दिन मेहनत से चूक जाएं तो घर का चूल्हा ठंडा पड़ा रहता है। बेहद गरीबी का जीवन जी रही वे औरतें आपस में हमेशा लड़ती रहती हैं। गांव के लोग अशिक्षित, रूढ़िवादी और भूत-प्रेत में विश्वास रखने वाले हैं। दोनों स्त्रियां अछूत हैं। इस कारण गांव-भर की उपेक्षा और तिरस्कार का शिकार हैं। एक दिन सांताजी, कहानी का एक पात्र बताता है कि दोनों भुखमरी की कगार पर हैं। उनके पास कुछ भुट्टे थे, जिससे केवल तीन रोटियां बन सकती हैं। दोनों स्त्रियां पेशोपेश में हैं कि रोटियों का बंटवारा कैसे होगा। दोनों सोचती है कि अगर वह रोटी बनाए तो दो रोटियों पर उसका अधिकार होगा। बहू का भी यही विचार था। परिणाम यह होता है कि दोनों सोचते-सोचते लेट जाती हैं। अगले दिन भूख के कारण उनके प्राण चले जाते हैं।
उनकी सुप्रसिद्ध कहानी ‘सुलतान’ जो एक कैदी की कहानी पर केंद्रित हैᅳके प्रमुख पात्र सुलतान का मानना है कि मनुष्य को उसकी जरूरत की चीजें रोटी, कपड़ा और मकान आसानी से प्राप्त होनी चाहिए। लेकिन गरीबी के कारण उसका सोच आगे नहीं बढ़ पाता। अंततः वह केवल इसलिए जेल चला जाता है क्योंकि मनुष्य को वहां उसकी न्यूनतम आवश्यकता की तीनों चीजें आसानी से उपलब्ध होती हैं। कुछ ऐसा ही दूसरी कहानी के पात्र भोमक्या और गोपिकाबाई भी करते हैं। भुखमरी से बचने के लिए भोमक्या सुलतान की तरह जेल चला जाता है तो गोपिकाबाई एक किसान की शरण ले लेती है। भोमक्या या सुलतान में से कोई भी अपराधी मनोवृत्ति का नहीं था। उन्होंने जेल में रहना केवल इसलिए पसंद किया था, क्योंकि वहां उनकी न्यूनतम आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती थीं। अन्नाभाऊ जेल जाने को भुखमरी की समस्या का समाधान नहीं मानते। बल्कि जेल को ऐसा ठिकाना मानते हैं, जहां नागरिक जीवन और मनुष्य का विकास एक साथ ठहर जाते हैं।
एक और कहानी ‘सांवला’ का उल्लेख यहां आवश्यक है। कथानायक सांवला पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री के पक्ष में सवाल उठाता है। रामोशी और मांग जाति के अपने मित्रों के साथ वह ब्रिटिश सत्ता से टकराता है। वे सभी अपने कार्य के प्रति ईमानदार हैं। इस बीच सांवला और उसके साथियों को काशी नाम की युवती के बारे में पता चलता है। ससुराल में दहेज-उत्पीड़न की शिकार है। अपने साथियों के साथ सांवला काशी को उसके सास-ससुर के चंगुल से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करता है। इसपर उसके सास-ससुर सांवला पर काशी के साथ बलात्कार का आरोप लगा देते हैं। आरोप से क्षुब्ध सांवला काशी से ससुर से कहता हैᅳ
‘दादा पाटिल! क्या आप सोचते हैं कि सिर्फ आप ही बेदाग चरित्र वाले हैं, क्या आप हमें चरित्रहीन मानते हैं, आपसे किसने यह कहा है?
‘लोग कहते हैं कि सभी मांग बलात्कारी होते हैं।’ यह सुनकर सांवला को क्रोध आ जाता है। वह कहता है, ‘कौन हैं वे लोग, मुझे बताओ। मैं उनकी पूरी दुनिया को जलाकर भस्म कर दूंगा।’ कहानी स्त्री समानता और स्वाधीनता के पक्ष में समाप्त होती है।
ऐसे विद्रोही चरित्रों से अन्नाभाऊ की कहानियां भरी पड़ी हैं।
अन्नाभाऊ के रचनाकर्म का कोई भी उल्लेख उनके उपन्यास ‘फकीरा’ के बिना संभव नहीं है। उनके अधिकांश कथापात्रों की तरह इस उपन्यास का कथापात्र फकीरा भी वास्तविक जीवन से उठाया गया है। वह जाति से मांग और शाश्वत विद्रोही है। फिर भी मानवीय है। अवसर आने पर वह अपने पिता के हत्यारों को मारने के बजाय, उन्हें महज दंड देकर छोड़ देता है। उपन्यास जहां सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करता है, वहीं जाति के जंजाल में फंसी अछूत जातियों की पीड़ा को भी सामने लाता है। महाराष्ट्र में मांग और महार कहीं-कहीं प्रतिद्विंद्वी जातियों के रूप में सामने आती हैं। इस उपन्यास में अन्नाभाऊ इन दोनों अछूत जातियों की एकता पर भी जोर देते हैं।
कुल मिलाकर अन्नाभाऊ का समस्त रचनाकर्म समाज में हाशिये पर पड़े लोगों के संघर्ष और चारित्रिक विशेषताओं को सामने लाता है। यह दुख की बात है कि उनके रचनाकर्म का हिंदी अनुवाद उनके निधन के 50 वर्ष बाद भी अनुपलब्ध है। अन्नाभाऊ की आस्था मार्क्स और आंबेडकर दोनों में थी। वे दोनों को साथ-साथ साधना चाहते थे। जबकि अधिकांश दलित लेखक मार्क्स और मार्क्सवादी लेखन की उपेक्षा करते आए हैं। अन्नाभाऊ के रचनाकर्म के हिंदी में न आने के पीछे कदाचित यह भी बड़ा कारण है। लेकिन इससे अन्नाभाऊ के प्रति जो अन्याय हुआ है, उसकी भरपाई असंभव है।
(कॉपी संपादन : नवल)
संदर्भ :
[1] जग बदल घालूनी घाव
सांगुनी गेले मला भीमराव
गुलामगिरीच्या या चिखलात
रुतुन बसला का ऐरावत
अंग झाडूनी निघ बाहेरी- जनगीत, साहित्यरत्न लोकशाहीर अन्नाभाऊ साठे
[2] My Journey to Russia, Translated by Dr. Ashwin Ranjanikar, New Voices Publications, Juna Bazar,
Aurangabad, 2014, Page-5 & 47.
[3] Dr. Sunil Bhise, Annabhau Sathe: A Socialist Thinker, as quoted from Kathale Nanasaheb, 2001, (2nd Edition), ‘Annabhau Sathe : Jeevan Aani Sahitya’, Samata Sainik Dal Prakashan, Parasaran Vyavastha, P-32.
[4] My Journey to Russia, Page-9
[5] Ibidजन
[6] My Journey to Russia, Page-12
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