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पायल तड़वी के न्याय के लिए जंगलों में रास्ता खोजता समाज

आदिवासी भील समुदाय की डाक्टर पायल तड़वी की मौत सिर्फ उसके आदिवासी समाज और उनकी मां के लिए ही दुखदायी नहीं है। वह हमारे तंत्र में टूटते सामाजिक तानेबानों के खत्म होने, न्याय और शिक्षा के मंदिरों के टूटने-बिखरने की व्यथा भी है। और सिलसिला है कि थमता नहीं है। पायल और उनकी मां की जुबानी बता रहे हैं कमल चंद्रवंशी 

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यह कहानी जंगल और जंगल की बस्तियों में जानवरों के बीच सत्ता और तंत्र के प्रतीक भारत के प्रधानमंत्री की सैर की नहीं है जहां खतरों से खेलते डिस्कवरी के एक प्रजेंटर के साथ देश का ये प्रतीक बहुत कोमल और मानवीय दिखता है। लेकिन अभिव्यंजना में देखें कि कितनी बड़ी समानता है इसी तंत्र में जस की तस जंगल की एक कहानी मानव बस्ती के बीच दिखती है जिसके खूनी पंजे मानवभक्षी जानवरों से भी ज्यादा हत्यारे हैं। भारत की मौजूदा मानव बस्ती के जंगल में कहानी से आपको रूबरू कराते हैं जो एक आदिवासी मेडिकल छात्रा पायली तड़वी की मौत की दास्तां है। लेकिन यह दास्तां महज मौत की नहीं है। यह मौत कमजोर की बेचारगी, दहशत, हैरानी और घटना की गति वाली चार कहानियां एक साथ लिए है। यकीन मानिए कि नाम पुकारकर किसी की हत्या करने वालों की संस्कृति में हर कविता रघुवीर सहाय नहीं लिखते- दोनों हाथ पेट पर रखकर/ सधे कदम करके आए/ लगे देखने उसको जिसके तय था हत्या होगी… जी हां, पायल तड़वी की हत्या ही हुई थी!

 

बहरहाल, पायल तड़वी अब हमारे बीच नहीं हैं। उस पेंचोखम में बाद में जाते हैं कि क्यों हम कह रहे हैं कि आज की पूंजीवादी सत्ता पायल तड़वी को नहीं बचा सकी है। तड़वी के उस पत्र के अनुवाद को हम जस का तस यहां दे रहे हैं जिसे पूरा किसी ने प्रकाशित नहीं किया और जो बताता है कि मौजूदा दौर की पूंजीवादी सत्तातंत्र मानवीय व्यवहार के प्रति कितना क्रूर है, खासकर कमजोर और दलित, वंचित, आदिवासी के प्रति। पुलिस तंत्र को अपनी कमजोरी के चलते परिजनों को लिखे पायल तड़वी के पत्र को सुसाइड नोट मानना पड़ा है। पुलिस के लिए इसका महत्व महज कागजों की भरपाई तक है, वह हमारे किसी महत्व की नहीं है।

पत्र यों हैं- “अपनी जिंदगी खत्म करने के लिए मम्मी-पापा मैं आप लोगों से माफी मांगती हूं। मैं जानती हूं कि आप लोगों के लिए मैं कितनी खास हूं। आप लोगों ने मेरे लिए कितना कुछ नहीं किया है। लेकिन इस मुकाम पर चीजें सहन करने की हद से बाहर हो गई हैं जिनके साथ मैं एक मिनट भी नहीं रह सकती। पिछले एक साल से हम उन्हें सह रहे थे। इस उम्मीद में कि सब खत्म हो जाएगा। लेकिन मैं अब केवल अंत देख रही हूं। हर दिन बीत रहा है लेकिन यहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। ऐसा क्यों है? हम लोगों में ऐसा क्या है जिससे ये परेशानी झेलनी पड़ रही है। हर मुमकिन कोशिश के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं औरमैंने पाया है कि हमारे लिए कोई भी खड़ा होने वाला नहीं है…।

 

मृतका पायल तड़वी की तस्वीर

 

विभाग में कोई भी ऐसा नहीं है जो हमारा (मेरा) समर्थन करे। असल में हम सबकी गलती है, या गलती से हमने (मैंने) यह सोच लिया कि हमें स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनाना चाहते थे। ये मेरा पैसन रहा है, मैंने इस कॉलेज में कदम रखा इस उम्मीद में कि अच्छे संस्थान का साथ मिलेगा लेकिन लोगों ने शुरू में ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैंने और मेरी साथी ने इसकी शिकायत की लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। हालात वैसे ही थे और दिन बीत रहे थे। हमारे साथ हर दिन ऐसा ही बर्ताव होता था। मरीज स्टाफ सबके साथ। मैंने अपनी व्यक्तिगत और पेशेवर जिंदगी पूरी तरह खो ली थी क्योंकि उन्होंने घोषित (कह दिया था) किया है कि जब तक वो इस हॉस्पिटल हैं, मुझे कुछ भी नहीं सीखने देंगी। मुझे एक ऐसे विभाग में डाल दिया गया जहां मैं गायनी और स्त्री रोगों के बारे में कुछ न सीख सकूं…।

 

 

मुझे तीन सप्ताह से लेबर रूम (प्रसूति कक्ष) संभालने की मनाही है क्योंकि उनको लगता है कि मैं योग्य नहीं हूं। मुझे ओपीडी के घंटों के (ड्यूटी के समय) दौरान बाहर रखने को कहा गया है। मुझे मरीजों की जांच की अऩुमति नहीं दी जा रही है। मैं सिर्फ लिपिकों वाला काम कर रही हूं। पूरी कोशिश के बाद भी हालात सुधर नहीं रहे हैं। मैं मानसिक रूप से परेशान हो गई हूं। माहौल ठीक नहीं है, माहौल बदलेगा इसकी उम्मीद खो चुकी हूं। क्योंकि मैं जानती हूं कि ये नहीं बदलेगा। अपने लिए आवाज उठाने का कोई फायदा नहीं है। अपनी और स्नेहल की स्थिति के लिए मैं हेमा आहूजा, भक्ति मेहरे और अंकिता खंडेलवाल को जिम्मेदार ठहराती हूं। मैंने बहुत कोशिश की, कई बार आगे आई- मैडम से बात की लेकिन कुछ नहीं किया गया, मुझे सचमुच कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। मैं केवल अंत देख सकती हूं। मैं ये कदम उठाने के लिए माफी मांगती हूं। अपनी दोस्त के बारे में काफी कुछ सोचा। मैं नहीं जानती स्नेहन कैसे इन तीनों का सामना करेगी। मैं उसे उनके सामने छोड़ने से डरी हुई हूं।”

मैं शिकायत से ज्यादा क्या करती, की लेकिन कार्रवाई नहीं हुई- आबेदा

पायल की मां आबेदा की आवाज में टूटे तारों वाले बेसुरे साज की आवाज बची रह गई है। वैसे भी वो कैंसर की मरीज हैं। वह गांव में रोज सैकड़ों लोगों से मिलती हैं जो ढांढस बंधाने आते हैं। हाल में ही चालीस गांवों के भील-मुस्लिम-आदिवासी संगठन के चालीस हजार से ज्यादा लोगों ने पायल के लिए न्याय की मांग करते हुए जुलूस निकाला। आबेदा कहती हैं, “मैंने अपनी बेटी के सारे संदेश पुलिस को दे दिए हैं। मेरे साथ पीएसयू (प्रोग्रेसिव स्टूडेंट यूनियन) और भीम आर्मी के कार्यकर्ता जमा हुए थे। उनको भी मैंने बताया है कि पायल के वो संदेश देखो, जिसमें उसने परेशान होने की बात कही थी। शिकायत मिलने के बाद मैं और सलमान (पायल तड़वी के पति) के साथ टोपीवाला मेडिकल कॉलेज से गई थी, जहां मेरी बेटी एमडी कर रही थी। पायल पढ़ाई पूरी करने के बाद आदिवासी इलाक़ों में जाकर काम करना चाहती थी। पायल हम सबका सहारा थी, मेरा ही नहीं हमारे पूरे आदिवासी समाज का। वो हमारे आदिवासी समाज की ऐसी पहली लड़की होती जो एमडी डाक्टर बनने वाली थी। हमारा विश्वास था कि पायल हमारे समाज की कमियों को पूरा कर देगी। लेकिन हमारा सपना अधूरा ही रह गया। तीन सीनियर महिला डाक्टरों ने उसकी रैगिंग की और उसको नीचा दिखाने के लिए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया जिससे तंग आकर उसने आत्महत्या की। मेरी बेटी बहुत होशियार लड़की थी। उसको दसवीं में 88% मार्क्स मिले थे। उसने बहुत मेहनत से मेडिकल की पढ़ाई की थी और बहुत कम समय में कई लोगों का इलाज भी किया था..। पायल का छोटा भाई जन्म से ही विकलांग है। उसे देखकर ही पायल को डाक्टर बनने की प्रेरणा मिली थी। लोगों की सेवा करना ही उनका उद्देश्य था। मेरी बेटी ने अपने पहले वजीफे से कुष्ठ रोगियों की मदद की थी। चार महीने के लिए मैंने उसे आदिवासी इलाक़े में काम करने के लिए कहा था तब जो भी मरीज़ आता था वो पायल से ही इलाज कराने के लिए कहता था।”

 

पायल तड़वी के हत्यारों को सजा दिलाने की मांग को लेकर प्रदर्शन के दौरान उसकी मां आबेदा

 

बीबीसी के मराठी भाषी संवाददाता को दिए इंटरव्यू में आबेदा ने कहा, “वो (पायल) कहती थी मां ये तीन लोग मुझे मरीज़ों के सामने छोटी-छोटी वजहों से अपमानित करते हैं। फाइल मुंह पर फेंकते हैं, टिफिन भी खाने नहीं देते। मेरे भील होने के ताने देते हैं। मैं कई बार उसके अस्पताल में गई लेकिन उसे (पायल को) काम पर व्यस्त देखकर वापस लौट आती थी। बेटी के साथ हो रहे इस तरह के बर्ताव को लेकर मैं कम्प्लेंट करना चाहती थी, लेकिन पायल ने ही मुझे रोक दिया था यह कहते हुए कि मां तू कम्प्लेंट मत करना, वो लोग भी यहां पढ़ने के लिए आएं हैं उनके मां-बाप की भी उनसे कुछ उम्मीदे हैं फिर ऐसा करने से मेरी भी परेशानी बढ़ेगी…। हालांकि इसके बाद भी मैं सलमान को साथ लेकर कॉलेज गई, शिकायत की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई और हमारी शिकायत के दस दिन बाद ही बेटी ने जिंदगी खत्म कर दी। एक बार इससे पहले भी हमने अनुरोध किया था कि पायल की यूनिट बदल दी जाए। उसके बाद पायल को कुछ समय के लिए दूसरी यूनिट में भेज दिया गया था, तब उन्हें लगा था कि अब प्रेशर कुछ कम हो गया है। लेकिन उन तीन सीनियर्स का वैसा ही बर्ताव फिर शुरू हो गया था…।”

 

 

पायल तड़वी मुंबई से कोई 400 किलोमीटर दूर जलगांव से थी। उनका परिवार भील समुदाय से है जिसकी एक प्रमुख जाति तड़वी है। तड़वी के पति और उनके माता पिता के नाम ज्यादातर मुस्लिम (सलमान, आबेदा आदि) हैं लेकिन महाराष्ट्र के आदिवासी भील समुदाय में हिंदू, मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में भील आदिवासी समुदाय की आबादी करीब 19 लाख है। उनके मुस्लिम से प्रतीत होते नाम को लेकर भारत में इस समय कई दक्षिणपंथी संगठनों ने ये दुष्प्रचार किया है कि पायल आदिवासी नहीं बल्कि मुसलमान थी। 

बहरहाल, भील समुदाय की कहानी इतिहास में हैं और ये भी किसी से छिपा नहीं है कि पायल आदिवासी थी और ये समुदाय महाराष्ट्र में एसटी वर्ग में शामिल है। तड़वी ने 22 मई को आत्महत्या की थी। पुलिस ने घटना के दो महीने बाद 1203 पेजों की चार्जशीट पेश की है। पुलिस से स्नेहन शिंदे (पायल की दोस्त) ने कहा कि किस तरह से तीनों डॉक्टर ने तड़वी के आत्महत्या करने से एक दिन पहले उसे नीचा दिखाते हुए धमकी दी थी कि यदि उसने तीनों द्वारा दिए काम को खत्म किए बिना रात का खाना खाया तो वह उसके खिलाफ कार्रवाई करेंगी। स्नेहन के मुताबिक सीनियर्स कहती थी कि तेरे जैसी लड़की सिर्फ क्लर्क बनने के काबिल होती हैं ना कि डॉक्टर। यह बयान पुलिस ने अपनी चार्जशील में भी नत्थी किया है। 

लेकिन कुल मिलाकर सच यही है कि हेमा आहूजा, भक्ति मेहरा और अंकिता खंडेलवाल ये तीन नाम ही तड़वी की मौत में जिम्मेदार नहीं है बल्कि टोपीवाला कॉलेज का पूरा प्रशासन इस मौत में अपने कुसूर से पल्ला नहीं झाड़ सकता। हालांकि कॉलेज प्रशासन ने इस घटना की जांच बिठाई है और एंटी रैगिंग समिति गठित की है। कॉलेज के डीन डा. रमेश भारमल अब जितनी दया भाव दिखा रहे हैं, वह उनकी कॉलेज प्रशासन को बचाने की चाल ही दिखती है। वे कहते हैं, “हम बहुत गहरे सदमे में थे। मौत की रात पांच घंटे हम वहीं पर थे। पायल एक सीधी और होशियार लड़की थी। वो ऐसा क़दम उठाएगी ऐसा किसी को नहीं पता था। इसे (रैगिंग) आसानी से रोका जा सकता था। इस बात की सूचना मुझे दी गई होती ये सब नहीं होने दिया जाता?” 

लेकिन सच्चाई ये भी है कि पायल के पति और पायल की मां ने विभाग में यथावत शिकायत दी थी। आबेदा मेडिकल कॉलेज से सवाल करती हैं, “मैंने इसकी शिकायत की थी। इसमें हमें और क्या करना चाहिए था? वो यहां रात-दिन रहते हैं उनको ये बातें कैसे नहीं पता चलीं? ये सब उनकी आंखों के सामने ही हुआ। लेकिन उन्होंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। हज़ारों पायल अभी पढ़ाई कर रही हैं उनका भी भविष्य है उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी प्रशासन की है लेकिन मेरी बेटी की सुरक्षा प्रशासन ने नहीं की।

दरअसल, भारतवर्ष में इस समय दो तरह की पायलों का लोकतंत्र बज रहा है। देश की सवर्ण और पूंजीवादी सत्ता और इसके पैरोकार मीडिया और तमाम लोकतांत्रिक संस्थान आज जिस पायल की हिफाजत कर सकते हैं वह पायल रोहतगी (फिल्म अभिनेत्री) है या उस जैसे हैं जो सती प्रथा की समर्थन कर रही है और उस समय के समाज सुधारकों को अंग्रेजों का चमचा कह रही है या फिर सत्ता से जुड़े उन्नाव के उस बलात्कारी सत्ता के चेहरे विधायक कुलदीप सिंह के पक्ष में खड़े होकर कहती है कि रेप के आरोप की आड़ में युवती ने ठगी करने कोशिश की और इसलिए उसके परिवार का यह हश्र हुआ कि एक के बाद एक वो मारे जा रहे हैं। 

ध्यान रहे, आदिवासी समुदाय का परिवार सत्ताधारी ब्रिगेड के प्रिय और चहेते कुलदीप सेंगर की तरह ताकतवर नहीं हैं, इसलिए तड़वी को न्याय मिलना इस जंगल में बहुत मुश्किल ही जान पड़ता है।

(काॅपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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