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आंबेडकर की किताब पर प्रतिबंध को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला 

आंबेडकर के भाषणों के हिंदी अनुवाद के संकलन ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ को उत्तर प्रदेश सरकार ने 26 अगस्त 1970 को जब्त करने का आदेश दिया था। किताब के प्रकाशकों जिनमें एक ललई सिंह यादव भी थे, ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी। न्यायालय ने सरकार के फैसले को गलत करार दिया

(26 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. आंबेडकर के भाषणों के पुस्तकाकार संकलन ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ को जब्त करने का अदेश दिया था। इसके प्रकाशक आर.एन. शास्त्री तथा डॉ. भीमराव आंबेडकर साहित्य समिति के अध्यक्ष, ललई सिंह यादव थे। इन दोनों ने सरकारी आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी।

कोर्ट में डब्ल्यू.ब्रूम, वाई.नंदन, एस मलिक की खंडपीठ ने सरकारी आदेश को अनुचित करार दिया और निरस्त करने का न्यायादेश दिया। साथ ही खंडपीठ ने राज्य सरकार पर 300 रुपए का जुर्माना भी लगाया।

न्यायाधीशों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को मानव समुदाय की विकास यात्रा के साथ जोड़कर देखा और व्यक्ति एवं समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में रेखांकित किया।  निम्नांकित हाई कोर्ट के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के प्रासंगिक अंशों का अनुवाद है)


ललई सिंह यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का हिन्दी अनुवाद

  • इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ

याचिकाकर्ता : ललई सिंह यादव व आर.एन. शास्त्री

निर्णय :  1977  सीआरआईएलजे  1773

निर्णय की तारीख : 14 मई, 1971

पूर्ण पीठ : जस्टिस डब्ल्यू.ब्रूम, जस्टिस वाई.नंदन, जस्टिस एस. मलिक 

निर्णय : जस्टिस डब्ल्यू ब्रूम द्वारा

1. यह दंड प्रक्रिया संहिता, धारा 99-बी के तहत एक प्रार्थना-पत्र है, जिसमें 26.8.1970  को राज्य सरकार द्वारा ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’  नामक पुस्तक को ज़ब्त करने के आदेश (12-9 -1970 के उत्तर प्रदेश सरकार के राजपत्र में प्रकाशित) को रद्द करने के लिए (याचिकाकर्ता द्वारा) भेजा गया है। यह [‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’] पुस्तक दिवंगत डॉ. आंबेडकर द्वारा दिए गए भाषणों का हिंदी संकलन है, जिनमें उन्होंने अनुसूचित जातियों से हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाकर जातिगत उत्पीड़न की बेड़ियों को उतार फेंकने का आग्रह किया था। यह प्रार्थना-पत्र ज़ब्त की गयी पुस्तक के प्रकाशक श्री आर.एन. शास्त्री तथा डॉ. भीमराव आंबेडकर साहित्य समिति के अध्यक्ष श्री ललई सिंह यादव द्वारा भेजा गया है। विवाद में आयी इस अधिसूचना में पुस्तक के 24 वाक्यांशों का हवाला दिया गया है और इनके आधार पर कहा गया है कि यह किताब धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर सामाजिक अशांति या विद्वेष की भावना फैलाती है, विभिन्न धार्मिक और जातीय समुदायों के बीच नफ़रत की भावना को बढ़ावा देती हैं या फिर देने की कोशिश करती हैं। इस आरोप में यह भी कहा गया है कि ये अंश वर्ग-विशेष के धर्म या उसकी धार्मिक मान्यताओं को भी ठेस पहुंचाते हैं या पहुंचाने की कोशिश करते हैं। अतः इस पुस्तक के प्रकाशन को भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए और 295-ए के तहत दंडनीय माना जाए।

2. यह प्रार्थना-पत्र धारा 99 –बी के तहत जारी विवादित अधिसूचना के दो महीने के अंतराल की समाप्ति के बाद, दिनांक 4-12-1970 को दायर किया गया था। अतः इसको लेकर आपत्ति जताई गयी है कि यह प्रार्थना-पत्र निर्धारित समय के अंतर्गत दायर नहीं हुआ है। फिर भी, इस सम्बन्ध में दायर, परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत प्रार्थना-पत्र में किये गए दावों पर विचार करने के बाद, हम इस विलम्ब के लिए दिए गए कारणों से संतुष्ट हैं और इसलिए इसे माफ़ करना उचित समझते हैं। ललई सिंह यादव (आवेदक संख्या – 1) को पुस्तक की ज़ब्ती की जानकारी दिनांक 22-10-1970  को ‘नॉर्दर्न इंडिया’ पत्रिका में छपी एक खबर से मिली, जिसमें दिनांक 21-10-1970  के एक आधिकारिक प्रेस नोट का हवाला देते हुए रिपोर्ट किया गया था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ नामक पुस्तक को ज़ब्त कर लिया है। इससे आवेदक ने निष्कर्ष निकाला कि ज़ब्ती के आदेश से संबंधित अधिसूचना दिनांक 21-10-1970 या उससे कुछ समय पहले आधिकारिक गज़ट में प्रकाशित हुई होगी; लेकिन काफ़ी खोज-बीन करने के बाद भी वे अधिसूचना का पता लगाने में असमर्थ रहे (जो वास्तव में दिनांक 12-9-1970  को प्रकाशित की गयी थी।)

उनके पास ज़ब्त की गई पुस्तक की कोई प्रति नहीं थी और चूंकि पुस्तक के प्रकाशक  (दूसरे प्रार्थी, आर.एन. शास्त्री) दक्षिण भारत के एक दौरे पर थेइसीलिए वे उनसे  15-11-1970 से पहले संपर्क नहीं कर पाए। इसके बाद उन्होंने लखनऊ जाकर सचिवालय में छानबीन की और अंततः, 2-12-1970 को अधिसूचना के बारे में सही जानकारी प्राप्त की। दो दिन बाद, इस प्रार्थना-पत्र को न्यायालय में दायर किया गया। राज्य की ओर से उपस्थित वकील यह स्वीकार करते हैं कि परिसीमा अधिनियम की धारा 29 (2) के प्रावधानों के मद्देनज़र, इस अधिनियम की धारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99 –बी के तहत दायर प्रार्थना-पत्रों पर लागू होता है। अतः हमें इस बात की संतुष्टि है कि चूंकि प्रार्थियों के पास निर्धारित समय के अंतर्गत अपना प्रार्थना-पत्र दायर न कर पाने के पर्याप्त कारण हैंइसीलिए वे धारा 5 का लाभ उठा पाएंगे।

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार करते डॉ. आंबेडकर

3. इस केस की विशेषता पर ध्यान देते हुए हम सबसे पहले धारा 99-ए के प्रावधानों पर एक नज़र डाल सकते हैं, जिसके तहत राज्य सरकार ने पुस्तक को ज़ब्त करने का आदेश दिया है। यह धारा राज्य सरकार को किसी ऐसी पुस्तक के संबंध में इस तरह का आदेश पारित करने का अधिकार देता है, जिसमें निम्न तत्व शामिल हों :

[ऐसी कोई भी सामग्री, जो राजद्रोह के लिए उकसाती हो, या फिर भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या नफरत की भावना को बढ़ावा देने या देने की मंशा से लिखी गयी हो, या जो जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से किसी वर्ग-विशेष के धर्म या धार्मिक मान्यताओं को अपमानित करते हुए उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के इरादे से लिखी गयी हो। अर्थात, किसी भी ऐसी पाठ्य सामग्री का प्रकाशन, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए या धारा 153-या फिर धारा 295-ए के तहत दंडनीय हो।]

प्रस्तुत केस में हमारा राजद्रोह से कोई सरोकार नहीं है। (धारा 124-, आईपीजी) यहां केवल उन आपराधिक मामलों के साथ इस केस की तुलना की जाएगी जो धारा 153-ए और 295-ए आईपीसी के तहत दंडनीय हैं। इन धाराओं के प्रासंगिक अंश निम्नांकित हैं :

[153-ए (1). जो कोई भी उक्त या लिखित शब्दों के द्वारा, या संकेतों या फिर प्रत्यक्ष निरूपण या अन्य किसी माध्यम से, धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास-स्थान भाषा, वर्ण या समुदाय या किसी भी अन्य आधार पर, विभिन्न धार्मिक, जातिगत, भाषागत, क्षेत्रीय समूहों, जातियों या फिर समुदायों के बीच सामाजिक अशांति या विद्वेष की भावना या वैमनस्य को बढ़ावा देगा या देने का प्रयास करेगा, उसे जेल की सज़ा दी जाएगी, जो पांच साल तक की हो सकती है और उसे जुर्माना भी देना होगा।

295-. जो कोई भी उक्त या लिखित शब्दों, संकेतों या फिर प्रत्यक्ष निरूपण अथवा अन्य किसी भी माध्यम के द्वारा भारत के नागरिकों के किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझकर ठेस पहुंचाने की दुर्भावनापूर्ण मंशा से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यता का अपमान करता है या करने का प्रयास करता है, उसे या तो तीन साल तक की जेल की सज़ा दी जाएगी, या फिर उसे जुर्माना देना होगा, या फिर उसे दोनों दंड दिए जा सकते हैं।]

इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर की पुरानी तस्वीर

4. जिस पुस्तक पर हम चर्चा कर रहे हैं, उसकी ज़ब्ती के आदेश को न्यायसंगत ठहराने के लिए, इस बात की जांच करनी ज़रूरी है कि क्या यह पुस्तक शूद्रों तथा हरिजनों एवं उच्च जाति के हिन्दुओं के बीच अशांति, शत्रुता, घृणा या वैमनस्य का प्रचार करती है? क्या यह जान-बूझकर दुर्भावनापूर्ण तरीके से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती है और उनके धर्म का अपमान करती हैइस पुस्तक को आंकते हुएहमें उसके मूल उद्देश्य को ध्यान में रखना होगा। इस पुस्तक का प्रयोजन अनुसूचित जातियों का ध्यान हिंदू धर्म की उन ब्राह्मणवादी प्रथाओं और रीति-रिवाज़ों की तरफ़ आकृष्ट करना है, जो उनके ऊपर अन्यायपूर्ण तरीके से थोपकर उन्हें अक्षम तथा अयोग्य बताया गया था। लिहाज़ा, इस पुस्तक के ज़रिये उनसे हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाने का आग्रह किया गया है। धार्मिक सिद्धांतों की तर्कसंगत आलोचना, जो संयमित भाषा में लिखी गई होदंड प्रक्रिया संहिता की धारा 153 –ए या धारा 195  ए के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगी। साथ ही, अस्पृश्यता को स्थापित करने और निचली जातियों के प्रति निंदनीय व्यवहार की स्वीकृति देने के लिए हिंदू धर्म की आलोचना को हाल के वर्षों में पूरी तरह से वैध माना गया है। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी इसको अपना समर्थन दिया था।

5. अब हम ज़ब्त पुस्तक के उन विशिष्ट अंशों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं जिनके आधार पर यह दावा किया गया है कि यह अशांति को बढ़ावा देती है और उच्च एवं निम्न जातियों के बीच नफरत और वैमनस्य को बढ़ावा देने के साथ-साथ हिन्दू धर्म का अपमान भी करती है। यदि पुस्तक पर एक सरसरी नज़र भी डाली जाए तो यह पता चल जाता है कि इसमें से कई अंश तर्कसंगत आलोचना की कसौटी पर खरे उतरते हैं और जिस रूप में इन्हें प्रस्तुत किया गया है, उसके प्रति कोई भी सामान्य भावनाओं से लैस, विवेकी व्यक्ति इन पर आपत्ति नहीं जाता सकता। वे महज़ उन कठोर नियमों की ओर इंगित करते हैं जो जाति – व्यवस्था के आधार पर निर्मित, एक अपरिवर्तनीय सामाजिक पदानुक्रम में निचली मानी जाने वाली जातियों पर थोपे गए थे और उन्हें अक्षम तथा अयोग्य बताया गया था। आलोचना के ये अंश उच्च जातियों का उनसे निचली जातियों के प्रति अहंकार और उपेक्षा भाव को भी दर्शाते हैं। इस संदर्भ में, हम पुस्तक के उन अंशों में ऐसा कोई भी आपत्तिजनक उल्लेख नहीं पाते हैं जिसमें यह बताया गया हो कि हिंदू धर्म विकृत है, हिंदुओं में सहानुभूति,  समानता और स्वतंत्रता का अभाव है,  हिंदू धर्म में मानवता के लिए कोई जगह नहीं है और हिंदू धर्म में व्यक्ति की प्रगति असंभव है। तर्क प्रस्तुत करने के इस क्रम में  इन बयानों को लेकर भी कोई घोर आपत्ति नहीं जताई जा सकती कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का आधार है, कि ब्राह्मणवाद “जन्म से हमारा दुश्मन है” और उसका उन्मूलन ज़रूरी है। ये कथन भी आपत्तिजनक नहीं कि उच्च जाति के हिंदू अभिमानी, स्वार्थी,  पाखंडी और झूठे होते हैं तथा वे दूसरों का शोषण करते हैं, उनका मानसिक उत्पीड़न करते हैं और उनका तिरस्कार ​​करते हैं। इस वाक्य को लेकर विरोध किया गया है कि “वेदांत के सिद्धांत मानवता का उपहास” करते हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में इसे एक प्रगतिशील टिप्पणी के रूप में देखा जाना चाहिए है क्योंकि हिन्दू धर्म अनुसूचित जाति जैसे उत्पीड़ित तथा अभावग्रस्त लोगों को यह सिखाता है कि वे अपने वर्तमान को सुधारने की बजाय अपने अगले जन्म में सौभाग्य की उम्मीद के साथ खुद को आश्वासन दें। अस्पृश्यता और जातिगत उत्पीड़न जैसी अवधारणाओं पर अपने विचार व्यक्त करते हुए, लेखक ने टिप्पणी की है: “उनके साथ मत रहो, उनकी छाया हानिकारक है।” इस प्रकार वे उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा अनुसूचित जातियों के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण का विपर्यय पेश करते हैं।

उन्होंने कहा है कि जो धर्म किसी अशुद्ध जानवर के स्पर्श को पवित्र और मनुष्य के स्पर्श को अपवित्र मानता हो, वह असली मायनों में धर्म हो ही नहीं सकता, बल्कि वह तो व्यर्थ का प्रपंच है। एक स्थान पर अपनी कल्पना के अनुसारउन्होंने हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में यह बताया है कि यह हिंसा’ शब्द के हिन्’ और दुष्यति’ शब्द के दु’ को मिला कर बना है। लेकिन यदि इन उद्धरणों को, विशेषकर अस्पृश्यता के सन्दर्भ में, देखा जाए तो ये अहितकर नहीं जान पड़ते हैं और उनसे किसी भी विवेकशील व्यक्ति को हानि पहुंचने की सम्भावना नहीं है। लिहाज़ा, जाति-व्यवस्था तथा अस्पृश्यता की बुराइयों को ध्यान में रखते हुए, विवादित अधिसूचना के परिशिष्ट में उद्धृत 1 से 12 और 20 से 24  तक के अंशों को रूढ़िवादी हिंदू धर्म के सिद्धांतों की तर्कसंगत आलोचना को विवाद का विषय नहीं मान सकते।

6. अब हम 13 से 19 तक के अंशों पर विचार करेंगे, जिन पर यह आपत्ति व्यक्त की गयी है कि वे हिंदू धर्मग्रंथों, यथा ‘वेदों’ और ‘भगवद्गीता’ पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हैं। वेदों के बारे में लेखक का कहना है कि ये मन्त्र ‘सैंकड़ों ऐसे लोगों द्वारा रचे गए हैं, जो अविकसित तथा असभ्य थे।’ लेकिन इस वाक्यांश को उसी संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए, जहां तार्किक रूप से इस रूढ़िवादी दृष्टिकोण का खंडन किया गया है कि वेदों की उत्पत्ति दिव्य स्रोतों से हुई है। इसी क्रम में, एक अन्य कथन में लेखक ने किसी ‘शाबर स्वामी’ का हवाला देते हुए यह कहा है कि वेदों की रचना करने वाले ‘मूर्ख’ या बुद्धिहीन’ थे। पुस्तक में इस तथ्य का भी ज़िक्र है कि वेदों में अश्वमेध (घोड़े की बलि) या अजमेध (बकरे की बलि) के अवसर पर घोड़े के साथ संभोग का उल्लेख किया गया है; लेकिन यहां लेखक केवल यह बताते हैं कि इस विषय की चर्चा वेदों में की गई है। कथित अनुष्ठान की न तो निंदा की गयी है और ना ही उसका समर्थन। इसलिए यहां इस कथन से भावनाओं के आहत होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

7. ‘गीता पर की गयी विवादित टिप्पणियों के सम्बन्ध में हमें ज्ञात होता है कि कुछ वाक्यांश, जो उसे धर्मगुरुओं का रागया एक राजनीतिक ग्रन्थ बताते हैं, उनसे समाज को किसी भी प्रकार की हानि की आशंका नहीं है। बाकी सभी वाक्यांश यह उजागर करते हुए रूढ़िवादी हिन्दू विचारों की तर्कसंगत आलोचना करते हैं कि गीता में शूद्रों के प्रति उपेक्षा भाव रखने की सीख दी गयी है तथा यह उन्हें कई प्रकार के दोषों से युक्त बताती है, ताकि उन्हें हमेशा दमित रखा जा सके।गीता को इसी सन्दर्भ में एक अधार्मिक पुस्तकके रूप में वर्णित किया गया है। हमें इस बात की संतुष्टि है कि उचित संदर्भ में पढ़े जाने पर इनमें से कोई भी वाक्यांश धर्मग्रंथों के सम्बन्ध में ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करते जान पड़ता जिससे हिंदू धर्म का अपमान होता हो या जो विभिन्न जातियों के बीच अशांति या नफरत को बढ़ावा देता हो।

8. अंत में हम अंश 21 से 23 पर आते हैं, जिनके आपत्तिजनक होने का दावा इस आधार पर किया गया है कि वे हिंदू देवताओं, विशेषकर राम और हनुमान की आलोचना करते हैं। लेखक लिखते हैं कि हिन्दू लोग जाति के अहंकार में दूसरों का अपमान करना उचित समझते हैं और इसी आधार पर मोक्ष-प्राप्ति की कामना करते हैं। आलोचना के अनुसार, हिंदू देवी-देवता इन्हीं भेदभावपूर्ण आदर्शों के प्रतिरूप हैं। इसके बाद लेखक शम्बूक की कथा का हवाला देते हुए लिखते हैं कि चूंकि उसने एक शूद्र होकर तपस्वी बनने का दुस्साहस किया था, इसीलिए राम ने उसका वध कर दिया। वे पूछते हैं कि कोई ऐसे राम की पूजा कैसे कर सकता है, जिसने एक तपस्वी की इस प्रकार हत्या करके अपनी कर्तव्यपरायणता सिद्ध की हो। इसी प्रकार, वे पूछते हैं कि शूद्र तथा हरिजन हनुमान की पूजा क्यों करते हैं, जबकि वह एक व्यभिचारी था। अपने दावों को पुख्ता करने के लिए

वे वाल्मीकि रामायणका एक अंश उद्धृत करते हैं, जिसके अनुसार, राम और सीता के बारे में सूचना लाने के बदले भरत ने हनुमान को 16  कन्याएं भेंट की थीं। ऐसी स्थिति में  इन कथाओं की पुनरावृत्ति को हिंदू धर्म का अपमान करते हुए तथा अशांति और नफरत फैलाते हुए कैसे माना जा सकता हैरूढ़िवादी हिंदुओं की दृष्टि में वाल्मीकि रामायणको एक पवित्र ग्रंथ या शास्त्र का दर्ज़ा प्राप्त है। इसी के चलते इसमें उल्लिखित किसी भी प्रसंग को हिन्दू धर्म का अपमान करते हुए नहीं व्याख्यायित किया जा सकता, चाहे वह आधुनिक नैतिक विचारों से  कितना भी भिन्न क्यों न हो।

9. विवादित पुस्तक का समग्र अध्ययन करने के बाद और इसके उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, हमें इस बात की संतुष्टि है कि जिन वाक्यांशों पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप है, उनमें से किसी को भी दंड संहिता की धारा 153 – ए या  295-ए के तहत दंडनीय नहीं माना जा सकता। पुस्तक की ज़ब्ती का विवादित आदेश पूरी तरह से अनुचित है और इसे लागू नहीं किया जा सकता।

10. प्रार्थियों के वकील ने आगे तर्क दिया है कि विवादित आदेश अनुचित है क्योंकि यह सीआरपीसी की धारा 99-ए के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इसके अनुसार राज्य सरकार उन कारणों का उल्लेख करने के लिए बाध्य है जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विवादित पुस्तक में ऐसे प्रसंग हैं जो नागरिक वर्गों के बीच दुश्मनी या घृणा को बढ़ावा देते हैं या धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से लिखे गए हैं। इस संदर्भ में उन्होंने इस न्यायालय की फुल बेंच के दिनांक 19.1.1971  के सीआर. एमआईएससी. केस 412, 1970 (ललई सिंह यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार) के फैसले का हवाला दिया है ( Cri LJ 1519 All, जो 1971 में रिपोर्ट किया गया था)। लेकिन, चूंकि हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ‘विचाराधीन पुस्तक की ज़ब्ती किसी भी आधार पर नहीं हो सकती’, इसलिए केस के इस पहलू पर राय देना हम अनावश्यक समझते हैं।

11. तदनुसार, इस प्रार्थना-पत्र को स्वीकार किया जाता है तथा खर्च के रूप में आकलित 300/- रुपए की राशि [राज्य सरकार पर जुर्माने के रूप में] तय की जाती है और ज़ब्ती के विवादित आदेश को निरस्त किया जाता है। ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’  नामक पुस्तक की सभी ज़ब्त प्रतियाँ तत्काल प्रार्थियों को तत्काल वापस की जाएं।

(कॉपी संपादन : नवल, अनुवाद : देविना अक्षयवर)


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लेखक के बारे में

इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ

यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 14 मई 1971 को सुनाया था। इसका नेतृत्व जस्टिस डब्ल्यू.ब्रूम ने किया था। अन्य सदस्यों में जस्टिस वाई.नंदन और जस्टिस एस मलिक शामिल थे

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