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मलखान सिंह : जिनकी कविताओं में था जीवन को बल देने वाला ताप    

हिंदी दलित साहित्य को नई ऊंचाई देने वाले साहित्यकार मलखान सिंह का आज (9 अगस्त 2019 को) तड़के चार बजे निधन हो गया। वे कैंसर से पीड़ित थे। 1998 में अपने प्रकाशन के साथ ही उनके कविता संग्रह "सुनो ब्राह्मण" ने तहलका मचा दिया था। उनके बारे में बता रहे हैं कर्मानंद आर्य

मलखान सिंह  (30 सितंबर 1948 – 9 अगस्त 2019) पर विशेष

एक हजार वर्षों की हिंदी कविता के विशाल आकाश में अगर मलखान सिंह जैसा कोई दूसरा सूरज ढूंढें तो शायद निराशा ही हाथ लगे। सच्चे अर्थों में अपने समय का सूर्य। अपनी अप्रतिम मेधा और प्रतिभा से उन्होंने ऐसा रचनात्मक परिदृश्य तैयार किया है जो उन्हें वैश्विक धरातल के अनूठे कवि के रूप में स्थापित करने के लिए काफी है। उनकी कविता के रुधिर का तापमान अभी तक कोई ठीक-ठीक नहीं माप पाया। आजीवन अपने दो संग्रहों के कारण वे कवियों और आलोचकों के बहुत प्यारे भी रहे और निशाना भी बनाये गए। उनकी रचनात्मकता दलितों को ही नहीं गैर दलितों को भी प्रभावित और संवेदित करती रही है। 

अपने छः निबंध लिखकर जैसे सरदार पूर्ण सिंह, ‘दुनिया रोज बनती है’ जैसे एक महत्वपूर्ण संग्रह के कारण आलोक धन्वा, ‘नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द’-निर्मला पुतुल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी लिखकर क्लासिक रचनाकार हुए ठीक वैसे ही ‘सुनो ब्राह्मण’ और ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ की चंद कविताओं के कारण मलखान सिंह हिंदी कविता के अमिट हस्ताक्षर हो गए। वे अपने कविता संग्रहों में हिंदी दलित लेखन का घोषणापत्र लेकर उपस्थित हुए और ओमप्रकाश बाल्मीकि, जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय और कंवल भारती जैसे लेखकों के साथ कदमताल बढ़ाया। 

जन्मजात क्रांतिकारी और विद्रोही स्वाभाव उनकी कविता में सहज ही देखा जा सकता है। कुछ आलोचकों ने उनकी कविता को संकुचित करते हुए उन्हें ‘आक्रोश’ के कवि के रूप में स्थापित करने की कोशिश की और कुछ ने उन्हें ‘जनवादी’ की खादी भी पहनायी पर बदले हुए सौन्दर्यबोध और दार्शनिक  कवि के रूप में उनका मूल्याकंन होना अभी बाकी है। वे मराठी के स्वभाव में ढले हुए ‘नामदेव ढसाल’ के हिंदी संस्करण के आदिम विद्रोही कवि हैं।

उनकी कविता सीधे ह्रदय को बींधती है और शोषक की छाती छलनी करती चली जाती है।उनकी कविता का भाव-बोध किसी भी पाठक का विचार बोध कब बन जाता है, पता करना मुश्किल है। उनकी रचनात्मकता कविता में प्रतिपक्ष का रोल ही अदा करती है। उनकी कविता आत्म संघर्ष और जीवन संघर्ष के बीच दोलायमान रहती है। उसका प्रयाण हमेशा अंतिम मनुष्य तक होता है। उनकी कवितायें मनुष्य और मनुष्य के बीच बढ़ती हुई गहरी खाई को पाटकर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की हिमायत करती है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने आजादी का जो सपना अपने जीवनकाल में देखा था उसी सपने को समय रहते पूर्ण करने को प्रतिबद्ध हैं मलखान सिंह की कवितायें।

मलखान सिंह (30 सितंबर 1948 – 9 अगस्त 2019)

किसी कवि का निर्माण एक दिन में नहीं होता है. संवेदना, अनुभव, अभ्यास और गहन अनुशीलन से चिंतन की जो राह बनती है उसी का नाम है कवि मलखान सिंह। हमारे समय में प्रतिरोधी चेतना के सबसे मुखर कवि. परिवर्तन और बगावत की चेतना में घुले हुए करुणा मिश्रित दारुण के प्रबल प्रवक्ता. उनके यहां कविता का कोई बसंत नहीं है। चटक धूप में बचे हुए हरेपन का आभास कराती है उनकी कवितायें। उनकी कवितायें अनुभव और लोक की भावभूमि पर पककर निकली हुई हैं। मुख्यधारा की कविताओं की तरह उनमें किताबीपन बहुत कम है। कविता के श्रम-श्वेद में विचार ऐसे गुम्फित हैं जिनमें जीवन के ताप को सहज ही महसूस किया जा सके. उनकी परम्परा का कोई अन्य कवि हिंदी पट्टी में दिखाई नहीं देता है। वे कबीर की भाषा का ललकार लेकर ज्वालामुखी के मुहानों को पाटने वाले कवि हैं। ज्ञान का कोई दंभ नहीं। अनुभव ही अनुभव है जो उनकी कविता में मुखरित है। 

 हिंदी आउटलुक के सन 2012 के साहित्य सर्वेक्षण में उन्हें हिंदी दलित कविता का सबसे लोकप्रिय कवि माना गया। वे अपनी कुछ 15-20 कविताओं के साथ हिंदी में नक्षत्र के रूप में उभरे, और जगमगाते रहे. मलखान सिंह का जन्म 30 सितम्बर 1948 को उत्तरप्रदेश के हाथरस (तत्कालीन जिला अलीगढ़) में हुआ। पारिवारिक पृष्ठभूमि किसान की रही इसलिए किसानी जीवन का ताप उनकी कविताओं में सबसे अधिक है। जहां देश में अधिकांश दलितों के पास बहुत कम जमीन है या भूमिहीनता का असाध्य कष्ट है वहीं मलखान सिंह के पूर्वज एक अच्छी जोत के किसान रहे। चमड़े का व्यवसाय उनके घर में नहीं होता था। तथापि जाति दंश से बचना कहाँ संभव है इस जातिवादी समाज में। मलखान सिंह आजीवन इसी जातिदंश का शिकार रहे।

मलखान सिंह की कविता संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ का कवर पृष्ठ

‘बसई काजी’ जहाँ मलखान सिंह पैदा हुए उस गांव में दलितों की आबादी लगभग पचास प्रतिशत है। गांव में चमार, पासी, धोबी, खटिक, बाल्मीकि, नाई मुस्लिम सक्का जैसी जातियां निवास करती हैं जिनमें से अधिकांश मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं। गांव में चमार जाति का बाहुल्य था। गांव में ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया और जाट समुदाय की आबादी भी काफी संख्या में है. लेकिन गांव में राजपूतों का ही वर्चस्व रहा। मलखान सिंह की कविताओं में इन्हीं सामंती तत्वों की पहचान आप आसानी से कर सकते हैं। हालाँकि राजपूतों के दो गोत्र के लोग थे –तोमर और जादव। दोनों में आपसी संघर्ष होता रहता था। मलखान सिंह अपने वक्तव्य में बताते थे कि गांव में ब्राह्मणों की स्थिति बहुत दयनीय थी। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि समाज में जितना शोषण ब्राह्मण का हुआ है शायद ही किसी अन्य जाति का हुआ हो। यह हमारे समाज की सच्चाई है कि आज गांव में कोई ब्राह्मण को प्रणाम कहने को तैयार नहीं है पर वही ब्राह्मण संहिताओं का निर्माता है जिससे लोग मानसिक गुलामी का शिकार होते हैं। 

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बड़ी जोत का मालिक होने के बावजूद मलखान सिंह का परिवार की स्थिति बहुत दयनीय थी। भौतिक संसाधनों की कमी के कारण एक तो पैदावार बहुत कम होती थी दूसरा उपज का एक बड़ा हिस्सा जमींदार को मालगुजारी में देना पड़ता था। एक बड़े किसान की दशा भी कई बार मजदूर की हो जाती थी। मलखान सिंह अपने एक साक्षात्कार में बताते हैं कि उनके बाबा भी किसानी से अलग समय में गाँव के बनिया के यहाँ गाड़ीवान और माल ढुलाई करके कुछ अतिरिक्त कमाई कर पाते थे ताकि परिवार का भरण-पोषण ठीक से किया जा सके। घोर गरीबी के दिनों में उनकी दादी बड़े जमींदारों के यहाँ ‘चक्की’ पीसने जाती थीं और पिसाई के उपरान्त मिली मजदूरी से परिवार का भरण पोषण करती थीं। मलखान सिंह कहते हैं कि दलित चाहे कितना भी समृद्ध हो जाए, लोग यह अपेक्षा रखते हैं कि वह कामगार बना रहे।

 

मलखान सिंह के पिता भोजराज सिंह कबीरपंथी विचारधारा के मानने वाले थे और चौथी कक्षा तक की पढ़ाई की थी और विचार संपन्न थे। पिता जी एक नाट्य मण्डली का संचालन और अभिनय भी करते थे और कबीर के पदों का गायन भी। उनके यहां कबीर पंथी साधु आकर भजन गाते और गांव के लोगों में चेतना प्रसार किया करते थे। उनके पिता प्रारम्भिक दिनों में अपने जिले में ‘कलेक्शन अमीन’ के यहाँ चपरासी का काम भी करते थे। मलखान सिंह बताते हैं कि उनकी कविताओं में जो सुर और ताल की लय दिखाई देती है वह उन्हें पिता से विरासत के रूप में मिला है। पिता की वैचारिकी ने ही मलखान सिंह को वैचारिक रूप से मजबूत किया। 

इकलौती संतान होने के कारण उन्हें लाड़-प्यार भी खूब मिला। मलखान सिंह की माता कलावती देवी निरक्षर थीं और अक्सर बीमार रहा करती थीं। मलखान सिंह बताते हैं कि शादी के लगभग तीस बरस बाद मैं पैदा हुआ जो कि माता पिता की इकलौती सन्तान रहा। मलखान सिंह के चाचा रामदयाल सिंह, हरिप्रसाद कर्दम, पेरूमल सिंह वैचारिक रूप से सक्षम थे। पत्नी चंद्रवती जी निरक्षर थीं। कुल चार लड़कियां और एक लड़का है। तत्कालीन राजनीति में चाचा हरिप्रसाद कर्दम अपना हसक्षेप रखते थे और कई बार विधान सभा के चुनाव में जोर आजमाइश कर चुके थे। उनके छोटे चाचा पेरूमल सिंह तो 12 साल तक ग्राम प्रधान रहे और बाद में भी प्रधानी उनके कुनबे में रही और इसका कारण था कि गांव में मुस्लिम और दलित का गंठजोड़ बहुत जबरदस्त था। दलित बहुजनों की आबादी उनके हौसलों को पंख लगाने का काम करती थी। 14 अप्रैल के दिन गांव में काफी चहल-पहल रहती थी। गांव की एक बड़ी आबादी डॉ. आंबेडकर के कामों से परिचित थी। इस समय तक बाबा साहब आंबेडकर एक सर्वमान्य नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। 

मलखान सिंह अपने समय के परिवेश को बताते हैं कि गांव के सवर्ण गांव में रह रहे दलितों के साथ दो तरह का व्यवहार रखते थे। दलितों के वे लोग जो समृद्ध किसान थे उनके साथ सवर्ण समानता का व्यवहार अपनाते थे जबकि जो सफाई या चमड़े का व्यवसाय करते थे उनके साथ छूआछूत का व्यवहार आम बात थी। आर्थिक आधार लोगों का व्यवहार बदल जाता है। भेदभाव की मात्रा में भी फर्क पड़ता है।  भेदभाव के कारण लोगों में इस बात का बहुत आक्रोश रहता है पर मलखान सिंह कहते हैं कि गहरा शोषण कई बार आक्रोश को क्षीण कर देता है। जो दलित जातियां अत्यंत शोषित थीं वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का मुखर प्रतिरोध नहीं कर पाती थीं। उस समय भी वर्ग का निर्माण हो रहा था जिसे हम आज के शब्दों में गरीब वर्ग और अमीर वर्ग के रूप में रेखांकित कर सकते हैं। सवर्ण अवर्णों से घृणा का व्यवहार रखते थे। एक संवेदनशील व्यक्ति के तौर पर मलखान सिंह पर इन बातों का गहरा असर था। वे लोगों पर हो रहे अत्याचारों को अपनी चेतना से बदलने का प्रयास किया करते थे। 

शिक्षा की बात करें तो मलखान सिंह की प्राथमिक शिक्षा बसही गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। उस स्कूल में मूलचंद नाम के एक अध्यापक थे जो निम्न तबकों के बच्चों को बहुत प्यार करते थे। जाति से नाई थे लेकिन किसी तरह से पढ़ लिख जाने के कारण जबरदस्त चेतना उनके भीतर थी। जिस स्कूल में मलखान सिंह पढ़ते थे उस स्कूल के दूसरे शिक्षक पूरण सिंह थे जो दिनभर बीड़ी पीते रहते थे। उनका स्वभाव भी काफी हद तक सामंती था। पढ़ाने-लिखाने से उन्हें ज्यादा लेना देना नहीं था। यह बात 1955-56 की है। गांव की पाठशाला से वे पांचवीं की परीक्षा पास चुके थे। गांव से दो किलोमीटर नंगे पाँव जाकर उन्होंने आठवीं की परीक्षा भी पास कर ली थी। मलखान सिंह यह स्वीकारते हैं कि उस समय दलित समुदाय के बच्चों की संख्या बहुत कम थी पर स्कूल में जातिगत भेदभाव होता था। 

मलखान सिंह बताते हैं कि अलीगढ़ बहुत पहले से ही अपने वैचारिक आंदोलनों के लिए जाना जाता रहा है। कई तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांतियों के केंद्र के रूप में यह नगर विख्यात है। अलीगढ़ के एक सम्मलेन में ही यह तय हुआ था कि दलित जाति के लोग अपने नाम के आगे अब से सिंह शब्द ही लगायेंगे। सिंह शब्द उनके भीतर एक चेतना के निर्माण का काम करेगा। उनके समय में दलित जातियों में पहले रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं था। डॉ. आंबेडकर के कहने पर जब लोगों ने चमड़ा पकाने का काम छोड़ दिया तब दलितों की जातियों-उपजातियों में रोटी-बेटी का सम्बन्ध होना शुरू हो गया। 

मलखान सिंह ने धर्म समाज इंटर कालेज से दसवीं और ग्यारहवीं तथा बलवंत विद्यापीठ बिसपुरी, आगरा से आकर चौधरी चरण सिंह की शिक्षा नीति पर चलकर (समाजवादी नीति की) का कोर्स ‘रुरल सर्विस डिप्लोमा’ जो बीए के समक्ष है की पढ़ाई पूरी की। स्नातक के बाद उन्होंने 1972 में राजनीति विज्ञान विषय में एमए किया। काफी दिन मुफलिसी में गुजारे। नौकरी काफी लम्बे संघर्ष के बाद मिली। बाद के दिनों में इलाहाबाद में रहकर सिविल सेवा तैयारी करते रहे जिसमें रहने खाने का प्रबंध सरकार के द्वारा होता था। यह जरुर था कि इसमें चयन की प्रक्रिया बहुत कठिन थी। कई बार पीसीएस और आईएएस का इंटरव्यू दिया पर अंतिम रूप से चयन नहीं हो सका, लेकिन उनके भीतर आगे बढ़ने की जिजीविषा कभी भी कम नहीं हुई। 

1982 में इंटर कालेज में प्रवक्ता के पद पर पहली बार संयुक्त उत्तरप्रदेश के कुइली टिहरी गढ़वाल (अब उत्तराखंड) नियुक्ति मिली। उसके बाद रामपुर में राष्ट्रीय इंटर कालेज में नियुक्ति हुई। यहां का कार्यकाल 17-18 वर्षों का रहा। यहीं रामपुर में ही फिर प्रधानाचार्य और फिर मथुरा में 1995 एसोसियेट डीआईओएस पर पर नियुक्ति हुई। 1998 में बेसिक शिक्षा अधिकारी फिरोजाबाद में नियुक्ति हुई। उसके बीएसए आगरा, झांसी, ललितपुर और महोबा में नियुक्ति हुई।  फिर आगरा में डीआईओएस रहे और वहीं से 2008 में सेवानिवृत्त हुए। 

नौकरी के दौरान होने वाली असमानता बोध ने उनके संवेदनशील मन को काफी प्रभावित किया। उनकी कविताओं में जो भय और भूख का व्याकरण है वह बार-बार प्रकट होता है।  विरोधाभासी वर्तमान की इस दुनिया में एक तरफ तो समरसता का ढोंग है, वैश्विक आपसी जुड़ाव के नारे लगाये जा रहे हैं, समन्वय से दुनिया को एक छोटी सी बस्ती में तब्दील करने का प्रयास हो रहा है वहीं निपट निजतापूर्ण मानसिकता, ब्राह्मणवाद और सामंतवाद की जड़ें गहराती जा रही हैं। एक ओर विज्ञान और तकनीकी, संपदा और समृद्धि आसमान छू रही है तो एक तरह दानामांझी का परिवार भुखमरी से मर रहा है। सत्ता, संपत्ति और चालबाजी से एक छोटा वर्ग लगातार एक बड़ी आबादी का खून चूस रहा है। 

मलखान सिंह इन चालबाजियों को ठीक से समझते वाले रचनाकार थे। मलखान सिंह की कविताओं में अक्सर ‘डोम पाडे’ का जिक्र आता है। इस डोम पाडे के साथ मलखान सिंह की कई स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं. 

जाति का दंश कितना भयानक और वीभत्स हो सकता है उसे एक संस्मरण से जाना जा सकता है। मलखान सिंह बताते हैं कि जिन दिनों उनकी पहली पोस्टिंग टिहरी गढ़वाल में हुई उन दिनों वे एक ब्राह्मण के घर में किराए पर रहते थे। वहां के पहाड़ी ब्राह्मण अपने यहां के दलितों से बहुत घृणा रखते थे और उनकी परछाई से दूर रहते थे। मलखान सिंह जिस ब्राह्मण के घर में किराएदार थे उस व्यक्ति को यह नहीं पता था कि उनके घर में रहने वाला यह व्यक्ति अमुक समुदाय का है। एक बार की बात है कि उनके साथ पढने वाले भाई के दोस्त की पोस्टिंग मलखान सिंह के गृह जनपद में हो गई और औपचारिकतावश वह एक बार मलखान सिंह से मिलने के लिए उनके किराए वाले घर पर चला गया। मलखान सिंह जिस घर में किराए पर रहते थे वह लड़का उसी पडोस के गांव का रहने वाला था। मकान मालिक ने उस लड़के को पहचान लिया। वह लड़का तो चला गया पर किसी तरह से शाम बीती। अगली सुबह उनके मकान मालिक ने कहा कि वो लड़का तो ‘डोम पाडे’ का है और हम उसकी परछाई से भी बचते हैं। आपने उसे घर में कैसे बुला लिया? रास्ते में जब मलखान सिंह निकल रहे थे तब गाँव की औरतें आपस में बात कर रही थीं कि यह वही मास्टर है जिसके यहां वह डोम आया था। 

पहाड़ी स्कूल के घुमावदार रास्ते में बच्चे ‘डोम जा रहा है, डोम जा रहा है’ जैसे शब्दों से हूटिंग कर रहे थे। जो लोग मलखान सिंह से ठीक से बोल रहे थे अब वे उनके साथ बोलने से इनकार कर रहे थे। अजीब सा माहौल बना हुआ था। स्कूल के शिक्षकों का व्यवहार भी बदल चुका था। मानसिक अवसाद में मलखान सिंह की स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि जब भी स्कूल का घंटा बजता था तो उससे भी डोम, डोम…..डोम की आवाज सुनाई देती थी। यही डोमपाड़ा मलखान सिंह की जिन्दगी भर पीछा करता रहा। इसी तरह ‘ठकुराईसी’ का बिम्ब भी गांव की संरचनात्मक व्यवस्था पर बार-बार कुठाराघात करता है। उनकी ‘फटी बंडी’ कविता में गांव की इसी जातीयता और सड़ांध सामने आती है। 

भारतीय दर्शन साहित्य और संस्कृति में अपनी विशेष अभिरुचि के कारण पीसीएस की तैयारी के दौरान उन्होंने दर्शन शास्त्र को अपना मुख्य चुन लिया था। उसी तैयारी के दौरान उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठीक से समझा और ब्राह्मणवादी सवालों को सुलझाना सीख लिया। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो भी लूपहोल है उसे मलखान सिंह की कविता में महसूस जा सकता है। उनके प्रिय रचनाकारों में कबीर के बाद गोर्की रहे। गोर्की के साहित्य ने उन्हें समाज को एक अलग ढंग से देखने का नजरिया दिया। वे यह स्वीकार करते थे कि आंबेडकर को शिधंग से समझने की भावभूमि उन्हें वामपंथ ने ही प्रदान की। मलखान सिंह समाजवादी युवजन आन्दोलन में भी काफी सक्रिय रहकर समाजवादी नीतियों के समर्थक बने रहे। उनका संघर्ष कभी न ख़त्म होने वाला संघर्ष रहा।  

मलखान सिंह में रचनात्मकता के बीज बाल्यकाल से ही था। किशोरावस्था में पहली बार तुकबंदी करना शुरू किया. मलखान सिंह बताते हैं कि उन दिनों की कवितायें साहित्यिक धरातल पर उतनी प्रौढ़ नहीं थीं कि उन्हें सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनाया जाय। समय के अंतराल में वे कवितायें डायरियों में कहीं पीछे छूटती गईं। यह जरुर है कि उनकी बचपन की कविताओं में हरिवंश राय बच्चन, नीरज आदि का प्रभाव था। बाद में उनकी कुछ चुनिन्दा कविताओं को उनके बाल सखा और मित्र ‘डॉ. मूलचंद गौतम’ ने चयनित कर उसे अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया। मलखान सिंह के पहले संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ का शीर्षक भी डॉ. मूलचंद गौतम का ही सुझाया हुआ है। 

बहरहाल, मलखान सिंह की कविताओं में एक मेहनतकश का श्वेद मोती की तरह चमकता है तो कविता पढ़ते हुए गर्म तवे पर सिंकती हुई रोटी की गंध भी आप अनायास उनकी कविता में पा जाते हैं। पूरे ब्रह्माण्ड को सांस में भर लेने, बचा लेने की कामना, संकटों से मनुष्य को उबारने की छटपटाहट, एक युद्धरत आम आदमी को जीवन का बल देने वाली ताप से भरी हुई कवितायें आपको इस संग्रह में मिलेंगी। उनके निधन से दलित साहित्य क्षितिज का चमकते रहने वाला सितारा भले ही सशरीर इस धरा पर नहीं रहा, लेकिन उनकी रचनाएं समाज को हमेशा आलोकित करती रहेंगी।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कर्मानंद आर्य

कर्मानंद आर्य दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया बिहार के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं।

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