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डॉ. आंबेडकर और मिथकीय धर्मशास्त्र

लेखक कंवल भारती बता रहे हैं हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित मिथकों के संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के अध्ययन के बारे में। अपने अध्ययन में डॉ. आंबेडकर गीता को बुद्ध द्वारा जाति उन्मूलन के प्रयास के विरोध में रचित पाते हैं। साथ ही वे राम-कृष्ण के चरित्र के बारे में कहते हैं कि ये दोनों कोई आदर्श पुरूष नहीं थे और न ही ये देवता थे

वेंडी डोनिजर[1] के शब्दों में, मिथक को एक कहानी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसे लोग बड़े पैमाने पर, यह जानते हुए भी कि यह सच नहीं है, मानते हैं। असल में, मिथक की भावना पर्दे के पीछे होती है, जिस पर आदमी ध्यान नहीं देता है। उन्होंने एक उदाहरण देकर बताया है कि जब हम इस तरह का पाठ पढ़ते हैं कि एक हिन्दू राजा ने आठ हजार जैनों को सूली पर चढ़ा दिया, तो इस मिथक को समझने के लिए हमें इतिहास के प्रयोग की जरूरत है। अगर हमने यह बात समझ ली कि यह पाठ क्यों लिखा गया, तो जान जायेंगे कि उस समय हिन्दुओं और जैनों के बीच तनाव था।[2] लेकिन हम मिथक का उपयोग पाठ के पीछे के वास्तविक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए नहीं कर सकते, और हम इस पाठ को जैनों के प्रति हिन्दू राजा की क्रूरता का साक्ष्य भी नहीं कह सकतेI इसी तरह जब हम रामायण में राक्षसों के बारे में पढ़ते हैं, (कि राम ने राक्षसों को मारा), तो वह लेखक का काल्पनिक संसार है, जिसमें वह शत्रु पक्ष के मनुष्यों के लिए ख़ास शब्दावली का प्रयोग करता है। विचारों का इतिहास, भले ही ‘कठिन’ इतिहास का स्रोत न हो, फिर भी बहुत कीमती चीज है। क्योंकि, कहानियां और कहानियों में विचार भविष्य में इतिहास को दूसरी दिशा में प्रभावित करते हैं।

जॉन के. ने मिथक को ‘इतिहास का धुँआ’ कहा है, और वेंडी डोनिजर लिखती हैं कि जब मिथक ऐतिहासिक घटनाओं का जवाब नहीं देते, तो वे आग बन जाते हैं।[3] इसलिए मिथक वे कहानियां हैं, जो ऐतिहासिक न होते हुए भी इतिहास का पता देती हैं। दूसरे शब्दों में, भले ही मिथक इतिहास नहीं हैं, परन्तु उनमें इतिहास का गूढ़ रहस्य है। वेंडी डोनिजर ने हिन्दू मिथकों पर अच्छा काम किया है, और उसे एक वैकल्पिक इतिहास का नाम दिया है। पर परदे के भीतर का इतिहास या मिथकों का गूढ़ार्थ उस वैकल्पिक इतिहास में कहीं नज़र नहीं आता है।

किन्तु, प्राचीन भारत के वैकल्पिक इतिहास या मिथकों के गूढ़ार्थ का चित्रण डॉ. आंबेडकर के मिथकीय चिंतन में बेहतर ढंग से उभर कर आया है। उन्होंने ‘प्राचीन भारत की शवपरीक्षा’[4] निबन्ध में लिखा है, ‘प्राचीन इतिहास का अधिकांश इतिहास कोई इतिहास ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि प्राचीन भारत का कोई इतिहास नहीं है। वह है, लेकिन उसने अपना चरित्र खो दिया है। वे कहते हैं कि उसे महिलाओं और बच्चों को खुश करने के लिए पौराणिक कथाएँ बना दिया गया है और ऐसा लगता है कि ब्राह्मणवादी लेखकों द्वारा यह काम जानबूझकर किया गया है।‘

वे ‘देव’ शब्द का उदाहरण देते हैं, और पूछते हैं, इसका क्या अर्थ है? क्या यह शब्द मानव परिवार के सदस्य का प्रतिनिधित्व करता है? वे जवाब देते हैं कि इस शब्द को किसी अलौकिक संस्था के अर्थ में प्रदर्शित करके इतिहास का ही रस निचोड़ लिया गया है। वे कहते हैं कि देव के साथ ही यक्ष, गण, गंधर्व और किन्नर के नाम भी पाए जाते हैं। वे कौन लोग थे? डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि महाभारत और रामायण को पढने से यह धारणा बनती है कि वे काल्पनिक प्राणी हैं, पर, डॉ. आंबेडकर उन्हें काल्पनिक प्राणी नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि यक्ष, गण, गंधर्व और किन्नर ये सभी मानव परिवार के सदस्य थे, जो देवों की सेवा में रहते थे।[5]

इसी तरह, डॉ. आंबेडकर कहते हैं, “रामायण और महाभारत में असुरों के बारे में लिखा है कि वे अमानव संसार से थे एक असुर दस गाड़ियाँ भरकर खाना खाता था वे विशालकाय राक्षस थे, जो छह महीने तक सोते थे, और उनके दस मुंह होते थे, इत्यादि राक्षस का वर्णन भी अमानव प्राणी के रूप में किया गया है उन्हें भी आकार, खाने की क्षमता, तथा जीवन की आदतों में असुरों के समान बताया गया है नागों के बारे में भी बहुत कुछ ऐसा ही कहा गया है उन्हें सांप बताया गया है।“

डॉ. आंबेडकर सवाल करते हैं कि क्या यह सच हो सकता है कि वे सांप थे? लेकिन हिन्दू अब भी नाग जाति को सांप से जोड़ते हैं। डा. आंबेडकर कहते हैं कि “इसे समझने के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास को समझना होगा पर, प्राचीन भारतीय इतिहास के मलबे में से भी सच्चाई को बौद्ध साहित्य की मदद से खोजा जा सकता है, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने विक्षिप्त बना दिया है।“

उनके अनुसार, ‘बौद्ध साहित्य बताता है कि देव या देवता एक मानव समुदाय था बहुत से देव अपनी शंकाओं के निवारण के लिए बुद्ध के पास जाते थे तब यह कैसे हो सकता है कि देव मानव प्राणी न हों

आगे, डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि ‘बौद्ध साहित्य से नागों की गर्भ-जनित नागों और डिम्ब-जनित नागों की गुत्थी भी सुलझ जाती है, जिससे पता चलता है कि नाग शब्द के दो अर्थ हैं पर मूल अर्थ में वह मानव समुदाय का नाम है वे कहते हैं कि बौद्ध साहित्य असुरों को भी राक्षस नहीं मानता हैं। वे भी उसके अनुसार विशिष्ट मानव प्राणी हैं। डॉ. आंबेडकर लहते हैं, ‘सत्पथ ब्राह्मण’ में असुर को प्रजापति (सृष्टा) का वंशज  बताया गया हैं फिर वे दुष्टात्मा कैसे बन गए, इसका पता नहीं चलता लेकिन इस तथ्य का उल्लेख मिलता है कि असुरों ने पृथ्वी पर आधिपत्य के लिए देवों से युद्ध किया था, जिसमें वे देवों से पराजित हो गए थे और उनके अधीन हो गए थे इससे यह साफ़ हो जाता है कि देव मानव परिवार के सदस्य थे और राक्षस नहीं थे।‘[6]

डॉ. आंबेडकर के मिथकीय चिन्तन पर आगे बढ़ने से पहले यह जानना जरूरी है कि उन्होंने मिथकीय ज्ञान को अलग धर्मशास्त्र माना है। उनके अनुसार, प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक रूप से दो धर्मशास्त्रों की बात की जाती रही है। उनमें एक है, मिथकीय धर्मशास्त्र और दूसरा है, नागरिक धर्मशास्त्र। यूनानियों ने दोनों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है। पौराणिक धर्मशास्त्र से उनका तात्पर्य काल्पनिक देवी-देवताओं की कहानियों से है, जबकि, नागरिक धर्मशास्त्र में, उनके अनुसार, राजकीय पंचांग के विभिन्न पर्वों के उपवासों का ज्ञान और उनके लिए उपयुक्त अनुष्ठान शामिल होते हैं।[7] डॉ. आंबेडकर ने मिथकीय धर्मशास्त्र के अंतर्गत हिन्दू धर्मशास्त्र के मिथकों का ऐतिहासिक विश्लेषण किया है, जो भारतीय चिन्तन के इतिहास में एक मौलिक काम है और आवश्यक भी। उन्होंने अपने अध्ययन में अनेक मिथकों और धर्मशास्त्रों का पुनर्पाठ किया है, जिनमें वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, देवी-देवता, कलियुग और संकर जातियों पर उनका प्रखर चिन्तन अनेक ऐतिहासिक रहस्यों का उद्घाटन करता है।

पहले गीता पर उनके चिन्तन को लेते हैं। गीता की कथा निश्चित रूप से काल्पनिक है, पर वह स्वयं एक ग्रन्थ के रूप में मौजूद है। डॉ. आंबेडकर उसे प्रतिक्रांति का धर्मशास्त्र मानते हैं, जो बुद्ध की क्रान्ति के विरुद्ध रचा गया है। उनका निष्कर्ष है कि ब्राह्मणों का सम्पूर्ण मिथकीय साहित्य पुष्यमित्र की राजनीतिक विजय के बाद की घटना है। उनके अनुसार, पुष्यमित्र के काल में छह प्रकार का साहित्य लिखा गया— (1) मनु स्मृति, (2) गीता, (3) शंकराचार्य का वेदांत, (4) महाभारत, (5) रामायण, और (6) पुराण। वे लिखते हैं कि बौद्ध धर्म के पतन का कारण यही ब्राह्मण साहित्य है।[8]

कृष्ण और अर्जुन की एक पेंटिंग। इस पेंटिंग में कृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी के रूप में दिखाए गए हैं। आंबेडकर मानते हैं कि महाभारत और गीता की रचना अलग-अलग कालखंडों में हुई है

गीता में कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है। कृष्ण कौन है? डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि गीता में इसके अनेक जवाब हैं। आरम्भ में वह एक मनुष्य के रूप में दिखाई देते हैं, जो अर्जुन का रथ चलाते हैं। कर्म से वह योद्धा हैं। फिर वह मनुष्य से महामानव बनकर युद्ध निर्देशक और उसके भाग्य नियंत्रक की भूमिका में अग्रसर होते हैं। उसके बाद वह ईश्वर का रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर की तरह ही बोलने भी लगते हैं। ईश्वर के रूप में भी गीता में कृष्ण के कई रूप हैं, जैसे– वासुदेव (10/37), भगवान (10/12), वामन अवतार (10/21), शंकर अवतार (10/23), ब्राह्मण (15/15) इत्यादि।[9]

डॉ. आंबेडकर कृष्ण की शिक्षा पर सवाल उठाते हैं। कहा जाता है कि गीता मानव आत्मा की मुक्ति की शिक्षा देती है, जिसके तीन मार्ग हैं— ज्ञान मार्ग (2/39), कर्म मार्ग (5/2) और भक्ति मार्ग (9/14)। किन्तु, डॉ. आंबेडकर गीता की सम्पूर्ण शिक्षा का खंडन करते हुए कहते हैं कि अगर कोई भगवदगीता को धर्म या दर्शन का शास्त्र कहकर स्वयं खुश होना चाहता है, तो हो सकता है, परन्तु वास्तव में भगवद्गीता न धर्मशास्त्र है और न ही दर्शनशास्त्र है।[10]

वे कहते हैं कि कृष्ण केवल युद्ध और युद्ध में मरने वालों के पक्ष का सिद्धांत खड़ा करते हैं, जिसे दर्शन का नाम दे दिया गया है। इस सिद्धांत की पहली पंक्ति यह है कि संसार क्षणभंगुर है और मनुष्य नश्वर है, और दूसरी पंक्ति यह है कि शरीर और आत्मा दोनों अलग-अलग हैं। शरीर नष्ट हो जाता है, पर आत्मा नष्ट नहीं होती है, वह अमर रहती है। उसे हवा सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती और हथियार उसे काट नहीं सकता।[11]


डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में गीता का यह दूसरा सिद्धांत ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था की दार्शनिक पुष्टि करना है, जिसके अनुसार, वर्णव्यवस्था ईश्वर द्वारा बनाई गई है, इसलिए पवित्र है। गीता (4/13) में वर्णव्यवस्था का सिद्धांत जन्मजात है।[12]

गीता का तीसरा सिद्धांत, डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में, कर्म मार्ग है, जिसका अर्थ मोक्ष के लिए यज्ञ आदि संपन्न करना है। उनके अनुसार, कृष्ण कर्मकांड के समर्थन में कहते हैं कि यदि व्यक्ति स्थित प्रज्ञ हो जाए, तो कर्मकांड करने में कोई बुराई नहीं है।[13] वे गीता के कर्मयोग और ज्ञानयोग को भी ‘काम’ और ‘ज्ञान’ के अर्थ में नहीं लेते हैं, जैसा कि बहुत से ब्राह्मण विद्वान् उसका यही अर्थ करते हैं। उनके अनुसार, कर्मयोग से काम और ज्ञानयोग से ज्ञान का अर्थ निकलना गलत है, बल्कि उनके अनुसार, कर्मयोग से आशय जैमिनी के कर्मकांड से और ज्ञानयोग से आशय बादरायण के ब्रह्मसूत्र से है, जिन्हें उन्होंने कर्मयोग और ज्ञानयोग के रूप में पुनर्जीवित करने का काम किया है।[14]

डॉ. आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गीता ने बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति का काम किया था। बुद्ध ने अहिंसा को स्थापित किया था और वर्णव्यवस्था तथा यज्ञ आदि कर्मकांडों का खंडन किया था। इसी के विरुद्ध गीता हिंसा, वर्णव्यवस्था और कर्मकांडों का समर्थन करती है।[15]

डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि यद्यपि गीता ने हिंसा, वर्णव्यवस्था और कर्मकांड के विचारों को दार्शनिक कवच पहिनाकर प्रतिक्रान्ति का बचकाना प्रयास किया है, तथापि, इसमें संदेह नहीं कि गीता ने प्रतिक्रान्ति को पुनर्जीवित किया है, और यदि यह अगर प्रतिक्रान्ति आज भी जीवित है, तो गीता के कारण ही जीवित है।[16]

डॉ.आंबेडकर का मत है कि गीता भले ही महाभारत का अंग है, पर दोनों की रचना एक ही समय में नहीं हुई है। यह बात महाभारत और गीता में कृष्ण की तुलनात्मक स्थिति से साफ़ हो जाती है। महाभारत में कृष्ण एक मनुष्य हैं, भगवान् नहीं हैं। जबकि गीता में कृष्ण सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। आंबेडकर के अनुसार, महाभारत में लोग कृष्ण को पहला स्थान देने के लिए भी तैयार नहीं थे। राजसूय यज्ञ के समय जब युद्धिष्ठिर ने कृष्ण को अतिथि का सम्मान देना चाहा, तो कृष्ण के ही निकट सम्बन्धी शिशुपाल ने न केवल कृष्ण का विरोध किया था, बल्कि उसे नीच, चरित्रहीन और षड्यंत्रकारी जैसे अपशब्द कहकर अपमानित भी किया था।[17]

इससे डॉ. आंबेडकर इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि कृष्ण का ईश्वर-रूप महाभारत की रचना के बाद गढ़ा गया था। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘रिडिल्स इन हिन्दुइज्म’[18] (हिन्दू धर्म में पहेलियाँ) में, जो मिथकीय हिन्दू धर्मशास्त्र की मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाता है, कृष्ण के व्यक्तित्व पर अलग से विचार किया है। वे अपने अध्याय की शुरुआत इस प्रश्न से करते हैं कि कौरवों और पांडवों के युद्ध की कथा में कृष्ण मुख्य पात्र कैसे हो सकते हैं, जबकि कृष्ण कौरवों और पांडवों के समकालीन ही नहीं थे? वे एक और सवाल उठाते हैं कि ‘कृष्ण पांडवों के मित्र थे, जिनका अपना साम्राज्य था उनकी शत्रुता कंस से थी और कंस का भी अपना साम्राज्य था तब क्या एक ही समय में एक ही भूमि पर दो साम्राज्य हो सकते हैं दूसरे, इन दोनों साम्राज्यों के बीच किसी भी तरह के टकराव का कोई उल्लेख नहीं मिलता है क्या ऐसा हो सकता है

वे लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास ने, जो महाभारत के रचयिता माने जाते हैं, कृष्ण का महिमा-मंडन करने के लिए कृष्ण और कौरव-पांडवों की दो अलग-अलग कहानियों को जबरदस्ती गढ़कर एक में जोड़ दिया है?’[19]


डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि व्यास ने कृष्ण को मनुष्यों में ईश्वर की संज्ञा प्रदान करने का प्रयास किया था। पर क्या कृष्ण ईश्वर कहे जाने की योग्यता रखते हैं? वे कहते हैं कि इसका सही उत्तर उनके जीवनवृत्त से ही मिल सकता है। कृष्ण का जीवन वृत्त क्या है? डॉ. आंबेडकर ने इसका विस्तार से वर्णन किया है, जिसमें कृष्ण के जन्म, उनके बालकाल के कारनामे, जिनमें कंस के द्वारा भेजे गए असुरों का वध, पूतना का वध, तीन माह की उम्र में शकट की गाड़ी को ठोकर मारकर तोड़ना, अर्जुन नामक दो यक्षों को मुक्त करना, वृत्तासुर, बकासुर, अद्यासुर, भीमासुर और शंखासुर का वध, कालिया नाग का दमन, स्त्रियों का चीर हरण, गोपियों के साथ रासलीला, छल से कंस का वध, कंस के धोबी का वध, कुब्जा को सौन्दर्य प्रदान करके उसके साथ यौन क्रीड़ा, रुकमणि, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिंदी, मित्रविन्दा, सत्य, भद्र और लक्ष्मण आदि से विवाह के अतिरिक्त उनकी अन्य सहस्त्र पत्नियों, राधा से प्रेम-प्रसंग, शिशुपाल की हत्या, और ब्राह्मण के पैर धोने से लेकर व्याध द्वारा उनकी मृत्यु तक की घटनाएँ दर्ज हैं।[20] वे इस जीवनवृत्त के प्रकाश में सवाल छोड़ते हैं कि क्या इस तरह के चरित्र वाले व्यक्ति को एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की संज्ञा प्रदान की जा सकती है?

कृष्ण और राम दो ऐसे पौराणिक देवता हैं, जिनकी प्रतिष्ठा ब्राह्मणों ने हिन्दुओं के आराध्य देव—विष्णु के अवतार के रूप में की है। डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि (कृष्ण की तरह) राम की कथा में भी ऐसा कुछ नहीं है, जो उन्हें ईश्वर के रूप में पूज्य बनाता है।[21] वे पहला सवाल राम के जन्म पर ही खड़ा करते हैं। दशरथ निसंतान थे। उन्हें अपने उत्तराधिकारी के लिए एक पुत्र की जरूरत थी। उन्होंने जब यह देखा कि उनकी तीनों रानियों में से किसी के कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ, तो उन्होंने ऋषि श्रृंग को बुलवाकर यज्ञ करवाया, जिसमें बलि दी गई। और पिंड तैयार किया गया। वह पिंड तीनों रानियों को खिलाया गया। पिंड के प्रभाव से रानियाँ गर्भवती हुईं, और उनसे चार पुत्र पैदा हुए—कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत, तथा सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न।[22] डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ‘राम का जन्म एक चमत्कारपूर्ण घटना है और यह कहना कि उनका जन्म ऋषि श्रृंग द्वारा तैयार किए गए पिंड से हुआ था, इस नग्न सत्य को ढकने के लिए एक आलंकारिक आवरण है कि राम का जन्म कौशल्या और ऋषि श्रृंग के सहवास से हुआ था, जो हालाँकि पति-पत्नी नहीं थे। यह अगर अशोभनीय भी है और अनैतिक भी।’[23]

डॉ. आंबेडकर ने खुलासा किया है कि राम के जन्म के बाद राम के सहायकों के जन्म की कहानी भी अशोभनीय है। वाल्मीकि के अनुसार जब ब्रह्मा को यह ज्ञात हुआ की विष्णु ने राम के रूप में जन्म ले लिया है, तो उन्होंने सभी देवताओं को राम की सहायता के लिए शक्तिशाली सहायकों को पैदा करने का आदेश दिया। आदेश पाते ही वे सब सक्रिय हो गए। उन्होंने अप्सराओं को ही नहीं, यक्षों और नागों की कुंवारी कन्याओं एवं रुक्ष, विद्याधर, गन्धर्वों, किन्नरों और वानरों की वैधानिक रूप से विवाहित पत्नियों को भी अपनी हवस का शिकार बनाया और उनसे राम के सहायकों को पैदा किया। डॉ. आंबेडकर टिप्पणी करते हैं कि राम के जन्म को अगर छोड़ भी दें, तो उनके सहायकों का जन्म भी एक अवैधानिक सहवास का घिनौना रूप है।[24]

रावण की कैद में सीता को प्रदर्शित करती एक पेंटिंग

डॉ. आंबेडकर ने राम के विवाह की भी आलोचना की है। उन्होंने लिखा है कि बौद्ध रामायण के अनुसार राम और सीता भाई-बहिन और दशरथ की संतान थे। वाल्मीकि रामायण इससे सहमत नहीं है। वाल्मीकि के अनुसार सीता विदेह नरेश जनक की पुत्री थी। राम की बहिन नहीं। फिर भी सीता जनक की स्वाभाविक पुत्री नहीं थी, बल्कि उसे एक किसान ने अपने खेत में हल चलाते समय पाया था, जिसे उसने जनक को सौंप दिया था। इसलिए सीता को जनक की पुत्री सतही अर्थ में कहा जा सकता है। बौद्ध रामायण की कहानी स्वाभाविक है, और आर्यों के तत्कालीन विधान में भाई-बहिन के विवाह धर्मसंगत थे। इस दृष्टि से डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि यदि यह कहानी सत्य है, तो राम का विवाह कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करता है।[25]

राम का एक गुण यह बताया जाता है कि वह एक पत्नीव्रती थे। डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि यह धारणा सामान्य जनों में किस तरह फैली, समझ से परे है। पर उनके अनुसार, इस धारणा का कोई तथ्यपूर्ण आधार नहीं है, क्योंकि वाल्मीकि ने भी राम की अनेक पत्नियों का उल्लेख किया है, और वे पत्नियाँ भी अनेक रखैलों के अतिरिक्त थीं। वे कहते हैं कि इस प्रकार राम सही मायने में अपने पिता दशरथ के आदर्श पुत्र थे, जिनकी तीन पत्नियों के अतिरिक्त भी बहुत सी स्त्रियाँ थीं।[26]

डॉ. आंबेडकर ने, एक व्यक्ति और एक राजा के रूप में, राम के जीवन के दो कारनामों की विशद चर्चा की है. उनमें एक है, बालि का वध और दूसरा है सीता का निष्कासन। बालि प्रकरण पर डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ‘निहत्थे और निरपराध बालि की छिपकर हत्या करना राम के चरित्र पर महानतम काला धब्बा है, जिसे किसी भी तर्क से उचित सिद्ध नहीं किया जा सकता। बालि निहत्था था, अत: उसके ऊपर शस्त्र से प्रहार करना और वह भी कायरतापूर्वक छिपकर, अपराध है तथा यह अपराध तब और भी भयंकर हो जाता है, जब यह पता चलता है कि राम की बालि से कोई दुश्मनी नहीं थी। इसलिए राम का यह कार्य जघन्य और क्रूर हत्या का नियोजित मामला लगता है।’[27]

सीता का मामला भी विचारणीय है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार, ‘रावण के वध के बाद राम का पहला मानवीय कर्तव्य सीता के पास स्वयं पहुंचना था, जो उन्होंने नहीं किया। इसके बजाए उन्होंने रावण की अंत्येष्टि और विभीषण का राज्याभिषेक कराने में ज्यादा रूचि ली। राज्याभिषेक के संपन्न हो जाने के बाद भी वह सीता के पास स्वयं न जाकर हनुमान को भेजते हैं। वह भी सीता को बुलाने के लिए नहीं, बल्कि यह सन्देश देने के लिए कि ‘हम लक्ष्मण और सुग्रीव सहित सकुशल हैं और रावण का वध हो चुका है सीता स्वयं हनुमान के समक्ष राम से मिलने की इच्छा प्रकट करती है। पर राम सीता के पास नहीं जाते हैं, जो अपहरण के बाद दस महीने से रावण की कैद में थी। इसके बाद जब सीता को राम के पास लाया जाता है। तो राम सीता से जिस तरह का व्यवहार करते हैं, वैसा व्यवहार इन परिस्थितियों में कोई साधारण आदमी भी अपनी पत्नी के साथ नहीं करेगा। राम सीता से कहते हैं, ‘मैं यहाँ रावण का वध कर अपने अपमान को धोने आया था मैंने यह सारा कार्य तुम्हारे लिए नहीं किया क्या सीता के प्रति राम का इससे भी अधिक क्रूर व्यवहार हो सकता है?[28]

डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि राम यहीं नहीं रुके, बल्कि आगे उन्होंने सीता के चरित्र पर भी संदेह किया और कहा कि अब वह स्वतंत्र है, कहीं भी जा सकती है। इस पर सीता बिल्कुल स्वाभाविक रूप से राम को नीच और दुष्ट कहते हुए कहती है कि अगर हनुमान के द्वारा पहले ही यह खबर दे दी होती कि अपहरण के कारण उसे त्याग दिया गया है, तो उसने आत्महत्या करके इस संकट से मुक्ति पा ली होती। डॉ. आंबेडकर बताते हैं कि इसके बाद सीता अग्नि परीक्षा देती है, और देवतागण उसे पवित्र घोषित करते हैं। तब राम संतुष्ट हो जाते हैं और सीता को साथ लेकर अयोध्या वापिस चले जाते हैं।[29]

डॉ. आंबेडकर के अनुसार, अयोध्या में राम अपनी पत्नी सीता के साथ और भी बुरा व्यवहार करते हैं। वह सीता को गर्भवती पाते हैं। राम को भद्र से सूचना मिलती है कि लोगों में यह अफवाह फैली हुई है कि सीता रावण की लंका में रहकर गर्भवती हुई है। इससे राम विचलित हो गए। राम ने अपने भाइयों को बुलाकर अपनी मनोव्यथा से अवगत कराया और कहा कि वह इस कलंक को सहन नहीं कर सकते। मर्यादा और सम्मान के लिए वह तुम लोगों का भी त्याग कर सकते हैं और सीता का त्याग करने में भी कोई संकोच नहीं करेंगे। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि इससे प्रकट होता है कि सीता को त्यागने का सुगम मार्ग राम ने पहले ही खोज लिया था, ताकि जनता के आक्षेप से बच जाएँ। वह भी बिना सोचे समझे कि उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग सही है या गलत। उन्होंने सीता के जीवन की भी चिंता नहीं की, केवल अपने ही नाम और ख्याति की चिंता की। राम ने अफवाह को शांत करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया, जबकि राजा की हैसियत से वह ऐसा कर सकते थे। किन्तु राम ने अपनी पत्नी को निर्दोष साबित करने के बजाए उसे लक्ष्मण के द्वारा गंगा के पार वन में छुड़वा दिया।[30]

डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि वन में मरने के लिए छोड़ दी गई सीता को अगर वाल्मीकि आश्रय न देते, तो उसकी मृत्यु निश्चित थी। उस परित्यक्ता लाचार सीता को वाल्मीकि ने अपने आश्रम में शरण दी और वहीँ पर रहकर सीता ने अपने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया। बारह वर्ष गुजर गए। वाल्मीकि ने रामायण लिखी और उसे सीता के दोनों पुत्रों को कंठस्थ करा दिया, जिसका वे गायन करने लगे। डॉ.  आंबेडकर लिखते हैं कि आदर्श पति और पिता राम ने अयोध्या के समीपस्थ वन में बारह वर्ष तक न पत्नी की सुध ली और न बच्चों की।[31]

डॉ. आंबेडकर आगे लिखते हैं कि ‘राम ने कभी राजा के रूप में काम नहीं किया प्राचीन राजाओं की तरह उन्होंने न तो कभी प्रजा की शिकायतों को सुना और न कभी उनके निवारण का प्रयास किया केवल एक ही घटना का वर्णन वाल्मीकि ने किया है, जब राम ने प्रजा की शिकायत को गंभीरता से सुना पर खेद है कि यह अवसर अत्यंत दुखद सिद्ध हुआ उन्होंने शिकायत के निवारण में तत्परता दिखाते हुए एक जघन्य अपराध कर डाला, जिसकी कोई मिसाल इतिहास में नहीं मिलती यह घटना ‘शूद्र शम्बूक की हत्या’ के नाम से कुख्यात है ऐसे थे राम[32]

‘रिडिल्स इन हिन्दूइज्म’ में डॉ. आंबेडकर ने राम और कृष्ण पर चर्चा के अतिरिक्त और भी बहुत से मिथकों पर मानव मन को उद्वेलित करने वाले सवाल उठाए हैं। यहाँ हम वर्णसंकर जातियों की मनु की ब्राह्मणवादी व्याख्या पर चर्चा करेंगे, जिसे डॉ. आंबेडकर ने ‘मनु का पागलपन’ कहा है। वे लिखते हैं कि मनु स्मृति का कोई भी पाठक इस बात को जानता है कि मनु ने अनेक जाति-समूहों की चर्चा की है— जैसे, आर्य जातियां, अनार्य जातियां, व्रात्य जातियां, पथभ्रष्ट जातियां और संकर जातियां। डॉ. आंबेडकर मनु के हवाले से बताते हैं कि आर्य जातियां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं, जबकि अनार्य जातियों से मतलब उन समुदायों से है, जो चातुर्वर्ण को नहीं मानते हैं और जिन्हें दस्यु आदि कहा जाता है। व्रात्य जातियां, जो मनु के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों में थीं, वे हैं, जो एक समय चातुर्वर्ण में विश्वास करती थीं, परन्तु बाद में वे उसके विरुद्ध हो गईं थीं। संकर जातियां वे हैं, जिनके माता-पिता अलग-अलग वर्ण के हैं।[33]

संकर जातियों के भी मनु ने अनेक वर्ग बनाए हैं। (1) विभिन्न आर्य जातियों की संतानें, जिन्हें अनुलोम और प्रतिलोम वर्गों में विभाजित किया गया है, (2) अनुलोम और प्रतिलोम जातियों की संतानें और (3) अनार्यों तथा आर्यों की अनुलोम और प्रतिलोम जातियों की संतानें। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि मनु ने जिन पांच जाति-वर्गों का उल्लेख किया है, उनमें से शुरू के चार वर्गों को तो आसानी से समझा जा सकता है, पर पांचवें संकर वर्ण के बारे में अनेक प्रश्न पैदा होते हैं, जिनका समाधान नहीं होता। उनके अनुसार मनु ने संकर जातियों की चर्चा करते समय व्रात्य और आर्य जातियों, व्रात्य तथा अनुलोम-प्रतिलोम जातियों एवं व्रात्य और अनार्य जातियों के बीच संयोग पर कोई विचार नहीं किया है। वे कहते हैं, ‘यही नहीं, मनु ने कुछ और भी गलतियाँ की हैं उसने ब्राह्मण और क्षत्रिय के संयोग से कौन सी संकर जाति बनी, इसका भी कोई उल्लेख नहीं किया है उसने यह भी नहीं बताया है कि इन दोनों से उत्पन्न जाति अनुलोम थी या प्रतिलोम? मनु इस मामले में असफल क्यों हुए? क्या यह माना जाए कि मनु के समय में ऐसी कोई संकर जाति पैदा ही नहीं हुई? या वह उसका उल्लेख करने से डरते थे? यदि ऐसा था, तो उसे किसका डर था?[34]

डॉ. बी. आर. आंबेडकर

मनु ने अम्बष्ट, निषाद, सूत, उग्र, वैदेहक, मागध, चांडाल, आभीर, वैदेह, श्वपाक, चर्मकारक, आंध्र आदि अनेक जातियों को अलग-अलग जातियों के माता-पिता के संयोग से उत्पन्न जारज संतान माना है और उन्हें संकर जातियों की संज्ञा दी है। यहाँ डॉ. आंबेडकर ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि क्या संकर जातियों की उत्पत्ति के विषय में मनु की ये व्याख्याएं ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य हैं? उन्होंने मनु की कुछ संकर जातियों का ऐतिहासिक व्याख्या की है। वे आभीर का उदाहरण देते हैं, जिसे मनु ने ब्राह्मण पुरुष और अम्बष्ट स्त्री की संतान बताया है। वे कहते हैं कि आभीर एक चरवाहा जाति है, जिसका अपभ्रंश अहीर है। इतिहास से पता चलता है कि यह चरवाहा जनजाति थी, जो उत्तर-पश्चिम के निचले जिलों में सिंध तक बसी हुई थी। वे आगे कहते हैं कि आभीर एक स्वतंत्र जनजाति थी, और विष्णु पुराण इसका साक्षी है कि आभीरों ने अनेक वर्षों तक मगध पर शासन किया था।[35]

अम्बष्ट के बारे में, जो मनु के अनुसार ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री के मेल से उत्पन्न जारज संतान है, डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि अम्बष्ट निर्विवाद रूप से एक स्वतंत्र जनजाति थी, जो पातंजलि के अनुसार अम्बष्ट देश की वासी थी। उन्होंने लिखा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में ग्रीक राजदूत मेगस्थनीज ने उल्लेख किया है कि अम्बष्ट पंजाब की एक जनजाति थी, जिसने भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय सिकन्दर से युद्ध किया था।[36]

मनु ‘आन्ध्र’ को दूसरे दर्जे का वर्ण संकर मानता है, जिसकी उत्पत्ति वैदेहिक पुरुष और करवार स्त्री के समागम से हुई है। किन्तु, डॉ. आंबेडकर कहते हैं, इतिहास का साक्ष्य इसके बिल्कुल विपरीत है। उसके अनुसार आन्ध्र वे लोग हैं, जो देश के दक्कनी पठार के पूर्वी हिस्से में बसे हुए थे. वे कहते हैं कि आन्ध्र जाति का उल्लेख न सिर्फ मेगास्थनीज ने भी किया है, बल्कि प्लिनी द एल्डर (77 ई.) ने भी उनका एक शक्तिशाली जनजाति के रूप में उल्लेख किया है, जो दक्कन में अपनी भूमि पर सर्वोपरि शासन करते थे, और जिनके अधिकार में असंख्य गाँव थे, तीस दीवारों से घिरे नगर थे, जो चारों ओर से खाई-खंदकों से सुरक्षित थे, और जिनके राजा के पास विशाल सेना थी, जिसमें 1,00,000 पैदल सेना, 2,000 घुड़सवार सेना और 1000 हाथी थे।[37]

मागध को मनु ने वैश्य पुरुष और क्षत्रिय स्त्री की जारज संतान कहा है, पर आंबेडकर कहते हैं कि पाणिनि व्याकरण में मागध की व्युत्पत्ति मगध से हुई है। उसके अनुसार मागध वह है, जो मगधवासी है। वर्तमान में मगध का अर्थ बिहार के पटना और गया का क्षेत्र है। इसी प्रकार मनु ने निषाद को ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री की जारज संतान बताया है। किन्तु डॉ. आंबेडकर ने इसका खंडन करते हुए लिखा है कि इतिहास के अनुसार निषाद भारत की मूल जनजाति है, जिसके अपने स्वतंत्र राजा होते थे। वैदेहक की व्युत्पत्ति भी आंबेडकर ने विदेह से मानी है, जो उनके अनुसार विदेह वासी था, जबकि मनु ने उसे वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री की जारज संतान कहा है।[38]

डॉ.  आंबेडकर लिखते हैं कि इन कुछ उदाहरणों से पता चलता है कि किस तरह मनु ने इतिहास को विकृत किया और सबसे सम्मानित और शक्तिशाली जनजातियों को जारज कहकर बदनाम किया। आंबेडकर कहते हैं कि यह एक पहेली है कि मनु ने संकर जातियों का प्रश्न क्यों उठाया और इसके पीछे उसका मकसद क्या था? आंबेडकर कहते हैं कि मनु ने शायद यह सोचा था कि चातुर्वर्ण व्यवस्था विफल हो गयी है, जिसका प्रमाण बड़ी संख्या में उन जातियों का अस्तित्व था, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी वर्ण में नहीं आती थीं। और तब उसने चातुर्वर्ण से बाहर की उन जातियों की व्याख्या वर्ण-संकर जातियों के रूप में करने का विचार किया हो। किन्तु क्या मनु ने, डॉ. आंबेडकर कहते हैं, यह अनुभव नहीं किया कि उसने जो व्याख्या की है, वह कितनी भयानक है? उसने यह भी नहीं सोचा कि पुरुषों और विशेष रूप से उसके इस कृत्य ने महिलाओं के चरित्र को कितना कलंकित कर दिया है? आंबेडकर कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्री-पुरुषों के बीच गुप्त सम्बन्ध थे, पर वे इतने बड़े पैमाने पर कभी नहीं रहे होंगे कि उससे विशाल संख्या में चांडाल और अछूत जातियां पैदा हो गईं, जैसा कि मनु कहता है कि चांडाल जाति की उत्पत्ति शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के अवैध सम्भोग से हुई है। डॉ. आंबेडकर प्रश्न करते हैं कि क्या यह सच हो सकता है? वे आगे कहते हैं, अगर यह सच है तो इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण स्त्रियाँ बहुत ही चरित्रहीन रही होंगी और शूद्रों के प्रति उनका विशेष यौन-आकर्षण रहा होगा। वे कहते हैं कि यह अविश्वसनीय है, क्योंकि चांडालों की जनसंख्या इतनी अधिक है कि अगर प्रत्येक ब्राह्मण स्त्री भी एक शूद्र की रखैल रही होगी, तो भी इस देश में इतनी बड़ी संख्या में चंडाल नहीं हो सकते थे।[39] इस प्रकार डॉ. आंबेडकर ने मनु के वर्ण-संकर सिद्धांत को पागलपन का सिद्धांत कहा।

पौराणिक साहित्य में, जिस पर हिन्दू समाज की अटूट श्रृद्धा है, डॉ. आंबेडकर ने दो बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। एक त्रिमूर्ति के बारे में, और दूसरा देवियों के सम्बन्ध में। त्रिमूर्ति में तीन देवता शामिल हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव)। डॉ. आंबेडकर ने हिंदुत्व की दसवीं पहेली और उसके परिशिष्ट-3[40] में इस पर विस्तार से चर्चा की है। शिव के बारे वे लिखते हैं कि एक समय था, जब ब्राह्मणों ने शिव को देवता के रूप में पूजने से इनकार कर दिया था। उनके अनुसार दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ को शिव ने अपने गणों से ध्वस्त करा दिया था, जो शिव को यज्ञ विरोधी साबित करता है। इस पर और प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं कि ‘आर्यों और अनार्यों के बीच भिन्नता जातीय न होकर सांस्कृतिक थी सांस्कृतिक भिन्नता दो कारणों से थी एक, आर्य चातुर्वर्ण को मानते थे, और दो, वे यज्ञ में विश्वास करते थे इसके विपरीत अनार्य न चातुर्वर्ण को मानते थे, और न यज्ञ में विश्वास करते थे अत: दक्ष के प्रकरण से स्पष्ट होता है कि शिव एक अवैदिक और अनार्य देवता थे।‘[41]

यहाँ डॉ. आंबेडकर ने यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि वैदिक संस्कृति के स्तम्भ माने जाने वाले ब्राह्मणों ने एक अवैदिक और अनार्य शिव को अपना देवता क्यों बना लिया? लेकिन वे आगे कहते हैं कि हिन्दू इस बात को नहीं जानते हैं कि शिव अनार्य और अवैदिक देवता हैं, बल्कि वे उन्हें वैदिक देवता रूद्र के रूप में पहिचानते हैं, क्योंकि उनके लिए रूद्र वैसे ही हैं, जैसे शिव हैं( वे यह खुलासा करते हुए कि ‘यजुर्वेद की तैत्तरीय संहिता के एक मन्त्र में रूद्र या शिव को चोरों, लुटेरों, डकैतों के स्वामी के रूप में वर्णित किया गया है, जो पतितों, कुम्हारों और लोहारों के राजा हैं’, आश्चर्य प्रकट करते हैं कि ब्राह्मणों ने चोरों के सरदार को अपना सर्वोच्च देवता क्यों स्वीकार कर लिया?[42]

पूरे भारत में हिन्दू बिना किसी शर्म के लिंगपूजा करते हैं। किन्तु डॉ. आंबेडकर वैदिक स्रोतों के हवाले से यह स्थापित करते हैं कि लिंगपूजा का मूल सम्बन्ध विष्णु से है, शिव से उसका कुछ भी सरोकार नहीं है। वे आश्चर्य करते हैं कि आखिर पुराणों ने लिंगपूजा को शिव से जोड़ने का काम क्यों किया?[43]

देवियों के बारे में डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि पुराणों ने वैदिक देवताओं को सिंहासन से उतार कर नई पौराणिक देवियों को जन्म दिया, जो एक असामान्य घटना है। उनके अनुसार पौराणिक देवियाँ पांच हैं—सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली। इनमें सरस्वती ब्रह्मा की और लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है, जबकि पार्वती, दुर्गा और काली शिव की पत्नियाँ हैं। वे कहते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी ने कोई युद्ध नहीं किया, जबकि शिव की दो पत्नियाँ दुर्गा और काली असुरों के साथ युद्ध करती है। वे सवाल करते हैं कि आखिर शिव की पत्नियों को ही असुरों से युद्ध करने की आवश्यकता क्यों पड़ी, जबकि अनार्य देवता होने के कारण शिव की पत्नियाँ भी अनार्य थीं? उनका समाधान है कि ब्राह्मणों ने असल में वैदिक देवता रूद्र को, जिसका रूप-रंग शिव जैसा ही था, शिव बना दिया था। इस तरह ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति में महेश और कोई नहीं रूद्र ही हैं। वे एक और रहस्योद्घाटन करते हैं कि ‘एक समय दैत्यों के राजा महिष ने देवताओं को हराकर भिखारियों की तरह पृथ्वी पर घूमने के लिए बाध्य कर दिया था तब वे मदद के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव (रूद्र) के पास गए. पर वे कोई मदद नहीं कर सके फिर विष्णु ने एक स्त्री को पैदा किया जो दुर्गा का दूसरा नाम महामाया थी उसने महिष का वध किया।‘ डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि कायर देवताओं में इतनी शक्ति कहाँ थी, जो वे अपनी पत्नियों को देते? अत: यह कहना कि देवियों में शक्ति थी, एक बड़ी विसंगति है (यह लेख पूर्ण नहीं है, क्योंकि डॉ. आंबेडकर के अध्ययन का क्षेत्र विशाल है।)

(संपादन : नवल)

संदर्भ :

[1] Wendy Doniger, The Hindus : An Alternative History, 2009, Penguin, p. 23.

[2] 12 वीं सदी में गुजरात में शैव राजा अजेय देव (1174-76) ने जैनों को यातनाएं देकर मारा था.

[3] वही, पृष्ठ 24.

[4] Dr. Babasaheb Ambedkar : Writings and Speeches, Vol. 3, (Ancient India on Exhumation)

Goverment of Maharashtra, 1987, p.151.

[5] वही.

[6] वही, पृष्ठ 152 (Ancient India on Exhumation)

[7] वही, पृष्ठ 7 (Philosophy of Hinduism)

[8] वही, (Literature of Brahminism), पृष्ठ 239

[9] वही, 264.

[10] वही, (Krishna and His Gita), पृष्ठ 361

[11] वही.

[12] वही.

[13] वही, पृष्ठ 362

[14] वही, पृष्ठ 363

[15] वही.

[16] वही, पृष्ठ 364.

[17] वही, 375

[18] वही, वाल्यूम 4, 1987, Riddles in Hinduism, Appendix 1.

[19]  वही, पृष्ठ 333

[20] वही, पृष्ठ 333-343

[21] वही, 323

[22] वही.

[23] वही, 324

[24] वही, 325

[25] वही, 325

[26] वही.

[27] वही, 326

[28] वही, 327

[29] वही, पृष्ठ 327-28

[30] वही, पृष्ठ 329-30

[31] वही, पृष्ठ 330

[32] वही, पृष्ठ 331-332

[33] वही, रिडिल संख्या 18, पृष्ठ 215-16

[34] वही, पृष्ठ 220

[35] वही, 223

[36] वही

[37]वही.

[38] वही, पृष्ठ 324

[39] वही, पृष्ठ 325

[40] वही, पृष्ठ 71-79, तथा 161-175

[41] वही, पृष्ठ 163

[42] वही, पृष्ठ 164

[43] वही, पृष्ठ 166


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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